Ek Duniya Ajnabi - 20 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | एक दुनिया अजनबी - 20

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एक दुनिया अजनबी - 20

एक दुनिया अजनबी

20-

रोज़ होती घटनाओं की पीड़ा दूसरों को होती है, खुद को नहीं | कुछ देर बाद दूसरों की पीड़ा हवा में उड़ जाती है और कुछ समय बाद भूल-भुलैया के रास्ते में ! अपने दिल में सूईंयाँ चुभने में बहुत फ़र्क होता है | दूसरों के साथ घटित को दूर से निहारकर अफ़सोस ज़ाहिर करना और अपने दिल में चुभे तीर का दर्द महसूस करना, दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर है |

निवि के दिल से खून बहा था, उसका भविष्य एक फ़टे हुए कपड़े की तरह कँटीले झाड़ पर टँगा इधर से उधर लहराते हुए उसे चिढ़ा रहा था और सामने वाला रोनी सूरत बनाकर अपने पँख पसारने के लिए तैयार खड़ा था, कब कोई उस बेचारे को हरी झंडी दिखाए और कब वह फुर्र हो, वैसे हरी झंडी दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं थी, न ही वो किसीको मनाने के मूड में या नाराज़गी दूर करने की कोशिश में था, वो तो केवल एक बहाना था, अपनेको अच्छा, भोला-भाला दिखाकर उससे छुटकारा पाने का, ज़रूरी था न ---दोनों हाथ में लड्डू सँभालकर रखना |

निवि पागल नहीं थी, संवेदनशील थी | वह रिश्तों को ज़बरस्ती बाँधकर रखने में कोई बहादुरी नहीं समझती थी | रिश्ते ज़बरदस्ती से न बनाए जा सकते हैं, न ही उन्हें जंज़ीरों में बाँधकर रखा जा सकता है |प्रेम, मुहब्बत ज़बरदस्ती कराई जा सकती है क्या ? वैसे ही जैसे जीवन, मृत्यु के ऊपर कोई पाबंदी लगती है क्या ?

एक बार 'शॉक' खाकर उसने खुद को सँभाल लिया, उसके प्रेमी का उससे इज़ाज़त लेना एक नाटक ही तो था, एक नाटक के लिए कितना रोया, गाया, अफ़सोस किया या हँसा जा सकता है ? उसके विरह में वह कितने आँसू बहाती ? आँसू बहाकर वह थक गई, उसने मायूसी की चादर ओढ़ ली और ख़ुद को कैद कर लिया |

"कब तक ? आख़िर कब तक यूँ बंद रहेगी ? पापा-मम्मी की परेशानी क्यों बढ़ा रही है ? जानती है न मेरी परेशानियाँ ? कितना किसीको दोष देते रहें ? सबका अपना -अपना प्रारब्ध है निवि, उसमें से हम सबको गुज़ारना ही पड़ता है --" सुनीला उखड़ पड़ती थी, आखिर ऐसे आदमी के लिए रोए भी कितना जो पता है नाटक ही था |

"मैं कहाँ किसीको दोष दे रही हूँ---? मेरा भाग्य ही ----"फिर से वह भरभराने लगी |

"मतलब --अब भाग्य को ज़रूर दोष देना है, अब फिर रोना शुरू कर दे, यानि कोई न कोई दोषी तो है ही !हम अपने लिए खुद दोषी हैं भई ! या तो तू खड़ी हो जा या फिर यहीं पड़ी रोती रह ---मेरे बसका नहीं है हर समय तेरा ये आँसुओं से भीगा चेहरा देखना | "

न जाने कितना ठोक-पीटकर सुनीला निवि को ढर्रे पर लेकर आई थी | उसने भी सोचा, और सँभलने के लिए अपनी शिक्षा के साथ ही अपनी सेवाएँ अस्पताल में ज़रूरतमंदों को देने का कार्य सँभाल लिया |इसमें सुनीला अपनी दोस्त के काम आई | उसी अस्पताल में उसकी इंटर्नशिप होनी थी |हँसमुख सुनीला को सब लोग स्नेह करते थे, उसके बारे में सब जानने के बावज़ूद ! यह आम समाज से एक अलग दुनिया थी सुनीला की जिसमें उसे भरपूर प्रेम मिल रहा था |

कुछ संतोष सा मिलने लगा निवेदिता को और फिर से वह अपने जीवन-युद्ध के अगले चरण के लिए तैयार होने लगी |