एक दुनिया अजनबी
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उस दिन प्रखर को अपने भीतर कुछ बदलाव सा महसूस हुआ | लगा शायद उसके मन के आँगन की बंद खिड़की की कोई झिर्री खुल गई है |कोई नरम हवा सी मन को छू सी गई, कोई बात करने वाला शायद मिले, शायद कोई उसकी बात समझने वाला मिले !आस का एक झरोखा सा मन में फड़फड़ाने लगा |
उस दिन काम में भी कुछ मन लगने के आसार लगने लगे | अकेलेपन और एकांत में बहुत फ़र्क है | जहाँ एकांत स्वयं से वार्तालाप करने का अवसर देता है, वहीं अकेलापन मन को तोड़ डालता है|
प्रखर को लगा था उसकी त्रुटियों की सज़ा जल्दी ही खत्म हो जाएगी | आख़िर कब तक ज़िंदगी का मौसम ऐसे ही ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलता रहेगा ? ये रिश्ते इतने कच्चे तो होते नहीं हैं, उसके एक मित्र ने बहुत अच्छी बात कही थी ;
"यार ! जब बोतल में कचरा भर जाता है, उसे उल्टा करके निकालना पड़ता है | तुम भी इस रिश्ते की बोतल को उल्टा करके रख दो, थोड़ा समय दो, निकल जाने दो सारा कचरा, फिर से उसमें शुद्ध पानी भरना ---"
लेकिन वह ग़लत साबित हुआ | कारण बहुत थे, उनको कुरेदना स्वयं को नग्न करना था | वैसे उसने हर बात ईमानदारी से स्वीकारी थी स्वीकारा था परिस्थितियों को, किन्तु बह कितनी बेचारगी है कि मनुष्य दूसरे को नग्न करने में नहीं हिचकता लेकिन जहाँ खुद पर आ बनी वहाँ कोटरों में घुसने की कोशिश में लगा रहता है | बहुत से प्रयासों के बाद भी दूसरी ओर से रिश्ते ठंडे पड़ चुके थे | जीवन सामने था, साँसें पूरी करनी थीं, 'मूव-ऑन' होना ज़रूरी हो गया था |
रोज़ सुबह प्रखर जिम में सुनीला व निवि से मिलता, मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान होता फिर अपने-अपने रास्ते ! प्रखर मुस्कुराना भूल गया था, इन दो नए मित्रों को देखकर उसके मुख पर मुस्कुराहट पसरने की शुरुआत एक बार फिर से शुरू हुई |
"आज कुछ समय है आपके पास ? " सुनीला ने एक दिन अचानक पूछा |
"हाँ, कहिए --मेरे पास समय ही है और कुछ नहीं ---" फीके स्वरों में उसने उत्तर दिया |
"आज हम फ्री हैं, चलें, कहीं कॉफ़ी पी जाए ---"
अच्छा तो लगा उसे पर असमंजस में हो आया | जानता था, डरता भी था, कहीं दोस्ती जी का जंजाल न बन जाए ? एक सूखी सी आशा भी मन के आँगन के पेड़ पर लटक रही थी। शायद पत्नी व बच्चों से सुलह हो सके ! परिवार के जुड़ने की एक नाकाम सी कोशिश में उसका दिल धड़कने लगता |
"ठीक है, मैं दो-एक फ़ोन कर लेता हूँ | आप लोग नीचे चलिए --"
परिवार साथ जाता नहीं था, अपने पैसों से ऑफ़िस के बचे-खुचे लोगों के साथ कभी बाहर खाने चला जाता , कभी कोई फ़िल्म देखने |बहन के परिवार को कितना डिस्टर्ब कर सकता था ? जीजा जी का स्वभाव उससे बिलकुल विपरीत ! उसके व उसकी पत्नी के स्वभाव का उन पर बहुत नकारात्मक प्रभाव था, वो तो अपनी पत्नी आर्वी के पिता के व उनके अपने सुघड़ संस्कार व बड़प्पन के कारण विभा को उस परिवार में पूरा सम्मान मिलता | वे चुप बने रहते, कुछ बातें उनके दिल की ज़मीन पर पक्के निशान छोड़ गईं थीं |
पुराने दोस्तों से मिलने की न तो कोई ख्वाहिश थी, न उत्साह और न ही कोई मौका |
"क्या बात है प्रखर ? " बहन आर्वी को फ़ोन लगा दिया प्रखर ने | खून के रिश्ते अपनी जकड़न नहीं छोड़ते | एक-दूसरे की ओर खिंचाव बड़ा स्वाभाविक !
एक वही थी जिससे अपने मन की बात कर लेता, वह बहुत नाराज़ भी थी | उसकी माँ व भाई क्यों इतने कमज़ोर हैं कि अपने बच्चों तक से बोलने से डरते हैं ?
लेकिन ख़ून का रिश्ता था, आर्वी ने हर पल अपनी कोशिशों से भाई की सहायता करने का प्रयास किया जबकि उस पर लांछन था कि उसने भाई का घर तोड़ दिया है |आर्वी माँ व भाई का साथ तभी दे सकी थी जब उसके पति दिव्य ने उसका हर परिस्थिति में साथ दिया था अन्यथा वह एक गृहणी थी, अपने भाई की पत्नी की तरह कमाऊ नहीं थी |
कुछ भी कहो लक्ष्मी जी के बिना एक दिन भी नहीं निकल सकता | अरे! दिन तो बहुत बड़ी बात है एक घंटा निकलना कठिन है| हर क़दम पर धन की आवश्यकता से आदमी मुकर नहीं सकता |