कहानी--
ज्वार-भाटा
आर.एन. सुनगरया,
प्रत्येक व्यक्ति जीवन के अन्तिम पड़ाव तक आते–आते अपनी क्षमताओं में कमजोरी महसूस करने लगता है, लेकिन हौंसले बुलन्द रखना चाहता है। मन में इच्छाऍं उछाल मारती रहती हैं। आत्म शक्ति जवाब देने लगती हैं। जिन्दगी के यथार्थ थपेड़ों ने भयग्रस्त कर दिया होता है। अनेकों कठोर उतार – चढाव पस्त कर चुके होते हैं। कोई कितना भी बहादुर, मजबूत क्यों न हो, एक सीमा पर आकर टूटने लगता है, हिम्मत साथ छोड़ने लगती है। आगे राह कठिनाईयों भरी प्रतीत होने लगती हैं। ऐसे हालात में पीछे देखना अवश्यभावी है और उसने जिन स्तम्भों को अपनी सुरक्षा के लिये स्थापित किया है। उनकी तरफ आशा भरी निगाहों से मौन याचना करने लगता है, सहारे की। जिन फसलों को वह लहलहाती देखकर हर्षित होता रहा है। पूर्णत: खोखली निकलती है, दाने का एक टुकड़ा तक उनमें नहीं है, तो वह धड़ाम से गिर पडता है। रसातल में धंसता चला जाता है। सन्न रह जाता है। सन्नाटा जकड़ लेता है। चारों ओर अंधेरा पसर जाता है। उसे मेहसूस होता है कि वह दलदल में फंस गया है। कहीं से कोई उदय के अस्तित्व का कोई लक्षण का आभास तक नहीं होता।
हारे हुये जुआरी की तरह ठगा सा रह जाता है। और ठगा भी कौन!? जिसके लिये उसने अपना खून–पसीना बहाया, ऑंख बन्द करके लुटाया, खरे पसीने की कमाई। अपना वर्तमान गंवाँ दिया और आनेवाली मुसीबतों को नजर अन्दाज किया किस उम्मीद में ???
चाँद के बाद सूरज निकलता है। जो संसार को ऊर्जावान कर देता है। नई स्फूर्ती का संचार हो जाता है। हर प्रकार की धुन्ध हर लेता है। निराशा को आशा में, नकारात्मक को सकारात्मक में परिवर्तित कर देता है। केवल प्रयत्न करने की देर है। सारे क्लेषों से छुटकारा मिल जाता है। अच्छे कर्म सुकर्म अनायास ही आप के सामने अपने सुफल लेकर उभर आते हैं।
मुटृठीभर लोग, जो आपके खून के रिश्ते, नाते रिश्तेदार, जाति समाज इत्यादि के द्वारा अपनी सुविधा सर्वथा, लाभ हानि को ध्यान में रखकर आपका मूल्यांकन अपने अनुकूल दृष्टिकोण के अनुसार कर के हतोत्साहित कर सकते हैं। ऐसी स्थिति से विचलित, उदासीन कर्महीन आदि-आदि किसी भी तरह के निराशाजनक एहसास को अपने ऊपर हावी ना होने दें। अपनी आन्तरिक आत्मशक्ति को जाग्रत कर तरोताजा होकर उठ खड़े हों। संघर्ष के सहारे जूझ पड़ें।
आत्म सम्मान बहुत बड़ी धरोहर है। इन्सान के लिये। उस पर आँच आने से स्वभिमान जाग उठता है। जमीर चीतकार करने लगता है। स्वस्तित्व रक्षा के लिये सीना तानकर खड़ा हो जाता है। तब क्रोध कम्पन्न में सम्पूर्ण नाते रिश्ते, सम्बन्ध की परम्परायें, मर्यादयें, मान्यताऍं, बन्धन तथा उनके प्रति दायित्व, कर्त्तव्य, जिम्मेदारियाँ, सव के सव थरथरा उठते हैं।
उनकी पुर्नस्थापना की सम्भावनाएँ लुप्त हो जाती हैं। तब अटल रिश्तों की दुहाई देकर पुकारते रहो अनन्त में दृष्टि गढ़ाकर !
परस्पर सम्बंन्धों के मूल तत्व जब समाप्त हो जाते हैं तब सिर्फ अस्थी शेष रह जाती हैं, जिन्हें विसर्जित करने के अलावा कुछ बचता नहीं है।
खाक़ हुये सम्बन्धों को लेकर जीना, तलवार की धार पर चलने के समान है। ऐसी परिस्थिति में परस्पर प्रत्येक ध्वनि, कार्यकलाप साजिश समान मेहसूस होती है। पूरे माहौल में एक कसैलापन विद्धमान प्रतीत होता है। दोनों तरफ प्रतिरोधात्मक भाव उत्पन्न होता रहता है, जो कभी भी रौद्ररूप धारण कर सकता है। जो सौहृादयपूर्ण वातावरण को तहस-नहस कर सकता है।
हर रिश्ते की सर्वमान्य, सर्वविदित, सुरक्षित परिभाषा होती है, जो परिवेश के अनुसार पल्लवित होती है। इसी के आधार पर समाज का ताना-बाना बनता है। हर काल में रिश्तों की व्याख्या के मुताबिक जीवन के सम्पूर्ण कार्यकलाप सम्पन्न होते हैं। हर रिश्ते की अपनी आवश्यकता होती है, अपनी मर्यादा होती है। अपने कर्तव्य होते हैं। जिन्हें पूरा करना निवाहना, हर रिश्ते का दायित्व होता है। तभी जीवन सार्थक और सफल होता है। अद्भुत सुख-शॉंति, व शुकून मिलता है।
जीवन के पड़ाव दर पड़ाव एक रिश्ता अपना कर्तव्य निभाता है, वहीं वह परस्पर दूसरे रिश्ते के लिये उपकार माना जाता है। जिससे वह कृतज्ञ कहलाता है। यह प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है। जिससे रिश्तों का तारतम्य, स्नेह प्रेम, आदर, मान-सम्मान रिश्तों के सुदृढ़ बनाये रखता है रिश्ते बरकरार सार्थक रहते हैं। परिस्थितिवश अगर इस प्रचलन में बाधा उत्पन्न हुई तो रिश्तों की कड़ी कमजोर पड़ने लगती हैं। और रिश्तों के टूटने में, देर नहीं लगती!!! एक बार जहॉं रिश्तों में दरार शंका-कुशंका और भ्रम की चिंगारी उत्पन्न हुई तो वह आग भस्म करके ही छोड़ती है। अपने जीवन के स्वर्णिम बर्षों में अथक परिश्रम करने के उपरान्त अगर पिता अपनी सक्षम औलाद से कुछ अपेक्षा रखता है या कुछ राहत चाहता है, तो कौन सा अद्भुत या अव्यवहारिक कार्य करता है! यह तो परम्परा है। औलाद स्वयं ही बाप के अन्तिम पड़ाव पर, आगे बढ़कर सहारा-सेवा में उपस्थित रहना चाहिए। यही मानवीय परम धर्म भी है।
कई बार सही दिशा पुरजोर कोशिश और अनवरत परिश्रम के बावजूद भी अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं होते। अनायास ही परिस्थितियॉं और चुनौतियॉं सामने आ खड़ी होती हैं। जिनके विरूद्ध संघर्ष करने की स्थिति में आप लेशमात्र भी सक्षम मेहसूस नहीं करते। आपके पास अपनी सोची समझी, सहेजी योजनाऍं तास के पत्तों से बने महल की भॉंति धराशाही होते देखने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचता।
जिसके कमाऊ जवान बेटे हों बहुऍं भी शिक्षित सक्षम हों तो किसी तरह कोई चिन्ता की कोई जरूरत हो सकती है क्या? तो फिर यह सोचने में कुछ अस्वभाविक भी तो नहीं लगता कि परवरिश में कोई चूक नहीं हुई कड़ी मेहनत और संघर्ष का नतीजा सुपरिणाम के रूप में मिलता दृष्टिगोचर हो रहा है। सुक्र है ईश्वर का कि अब शेष जीवन सुख-सुविधा पूर्वक गुजर जायेगा।
परिदृश्य पलभर में परिवर्तित होता है। पलक झपकते आसमान से जमीन पर धड़ाम से टपक पड़ते हैं। सम्पूर्ण सपने समाप्त हो जाते हैं, जब ज्ञात होता है कि जिन कुत्तों को ताजा-ताजा बोटियॉं खिलाईं जा रही थीं, बड़े चाब से खा रहे थे। जो अब नहीं मिल पा रही हैं। क्षमता ही नहीं नजर आ रही है, भविष्य में पुन: बोटी मिलने की उम्मीद ही नहीं है। तब वे कमीने कुत्ते क्या जान लेवा हमला करने की योजना बनाते हैं। कौन जाने यह अज्ञात भय से विचलित हो जाता है, मन!....मन का ज्वार-भाटा।
♥♥♥ इति ♥♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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