dub - virendr jain in Hindi Book Reviews by राजनारायण बोहरे books and stories PDF | डूब- वीरेन्द्र जैन

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डूब- वीरेन्द्र जैन

उपन्यास डूब- वीरेन्द्र जैन

विस्थापितों की महागाथा और विकास विकल्प पर करारे सवाल

आलोचकों की नजर में हिंदी उपन्यास का वर्तमान समय बड़ा कठिन और चिंतनीय है। कम लेखक इन दिनों उपन्यास लिख रहे हैं और कुछ कथा आलोचक तो उपन्यास की मृत्यु जैसा जुमला उछालने को पुनः तत्पर दिखार्द दे रहे हैं। लेकिन पिछले दिनों कुछ बहुत ही अच्छे उपन्यास पाठकों के सामने आए हैं जो लेखकों की सूक्ष्म और नवीन दृष्टि तथा अनुभव जन्य परिवेशगत भाषा और भावनाओं को प्रभावशाली ढंग से लोगों तक पहुंचाने में समर्थ हुए है। ऐसे उपन्यासों में वीरेन्द्रजैन के उपन्यास “डूब“ की अपनी अलग शैली और अलग कथा भूमि पाठकों का ध्यान आकृष्ट करती है।

युवा कथा लेखक वीरेन्द्र जैन का नाम वैसे तो अपनी कहानियों और उपन्यासों के लिए हिन्दी पाठकों को अंजाना नहीं हैं लेकिन “डूब“ उनकी ऐसी कृति हैं जो बरसों में किसी साहित्य में कभी-कभार लिखी हो पाती है। उ0प्र0 और म0प्र0 की सीमा पर बसे ललितपुर और गुना जिले में निर्माणाधीन राजघाट बांध की योजना की शुरूआत से लेकर आज तक का समय इस उपन्यास का कालखंड़ है। रानी लक्ष्मीबाई के विष्वस्त लड़ाका साथियों द्वारा झाँसी छोडकर चंदेरी के पास घने जंगलों में बसाया गया गांव “लडैई“ आजादी के बाद यकायक तब सरगोशियों से भर जाता हैं जबकि पंचायत चुनाव की सरकारी घोषणा होती है। गांव के बंजुर्ग और मुअज्जि माते ठाकुर और मोतीसाव इस चुनाव के लिए अपने स्तर पर तैयारी करते है। लोगों की राजनीतिक चेतना जाग्रत होती है। मोतीसाव को एक राजनीतिक चाल के कारण गांव छोड़ना पड़ता है और गांव के एकमात्र मालिक ठाकुर रह जाते हैं । सिंधिया घराने की राजमाता माते को बुलाकर चुनाव में सक्रिय होने का आदेश देती हैं और एक दिन उनका दौरा भी चीलगाड़ी हैलीकाप्टर से लडैई गांव में होता है।

राजमाता घोषणा करती है कि शीघ्र ही बेतवा नदी के राजघाट नामक स्थान पर बांध बनाया जाएगा। समय बीतता जाता हैं बांध का निर्माण शुरू नहीं होता। इसी बीच बेतवा नहीं में बहुत पानी बह गया हैं ठाकुर गांव से फरार होकर आत्महत्या कर चुके हैं] कैलाश महाराज का अवैध बेटा अपनी माँ “अक्कल“ की बजाए गौराबाई (गौराबाली] की गोद में पलने लगा हैं] बड़े माते की आवाज पहले लुप्त हुई और फिर लौट आई हैं, मोती साव मुंगावली चंदेरी विधानसभा सीट से विधायक बन गए हैं] ----और भी बहुत कुछ बदल गया है।

फिर यकायक बांध का काम शुरू होता है। लोगों की जमीन, मकान, कुएँ, पेड़ वगैरह सरकार द्वारा किष्तों में अधिग्रहित की जाने लगती हैं । इन अस्थिरता और अफवाहों से भरे भयावह दिनों की मानसिकता का बहुत जबर्दस्त व सूक्ष्म चित्रण लेखक ने इस उपन्यास में किया है। गांवों में अफरा-तफरी मची है] लोग अपने भविष्य के प्रति आंशंकित हैं कि सहसा गांव के इर्द-गिर्द बांध की दीवार बनाना शुरू हो जाती है। जगह-जगह गढ्ड़े खुद जाते हैं लोग बैचेन हो उठते है क्योंकि उनके पुनर्वास का कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं हो पाया है। अपनी जन्मभूमि से सामान्यतः होने वाले भावनात्मक लगाव के कारण लोग गांव छोड़ने की कल्पना से टूटने लगते हैं । आधा बना मिट्टी का बांध टूटता है और चारों ओर पानी ही पानी हो जाता हैं। जिसकी खबर सरकारी सूचना माध्यम रेड़ियों द्वारा कुछ इस प्रकार मिलती हैं कि थोड़ी सी दरार पड़ जाने से आसपास के क्षेत्र में पानी भर गया हैं & यह क्षेत्र पहले ही खाली करा लिया गया था।

इस उपन्यास की एक-एक घटना में एक-एक पात्र का ऐसा जीवंत रूप प्रस्तुत किया गया हैं कि पाठक अपने आपको बेतवा की घाटियों और लडैई गांव की गलियों में भटकता महसूस करता है। इसमें आया एक भी पात्र काल्पनिक नहीं लगता बल्कि हमारे आसपास टहलता जीता-जागता आदमी ही साकार होकर उपस्थित होता है। माते] साव] ठाकुर] मास्टर रामदुलारे और गौराबाई जैसे पात्र कहीं बाहर की दुनियाँ के नहीं लगते। हम उनके विचार] उनकी बातें] यहाँ तक की उनके द्वारा ली जा रही साँस तक अपने निकट महसूस करते हैं ।

इस उपन्यास के पात्रों का दुःख दर्द और संवेदना इस तरह से उभर के सामने आई है कि वह मात्र उनकी संवेदना न रह कर उन समस्त भुक्त भोगियों की संवेदना बन जाती हैं] जो कहीं भी आधुनिक प्रगति सोपान कहे जाने वाले बड़ें बांधों या कारखानों के कारण कहीं विस्थापित हो रहें है। ऐसे विस्थापितों का तो यह उपन्यास महाकाव्य बनकर ही उभरा है। इस तरह विकास की पष्चिमी और भारतीय विचारधारा का भीतरी द्वंद्व और स्पष्ट अंतर भी यह उपन्यास सामने लाता है।

पूरा उपन्यास तीन सर्ग में विभक्त हैं जिन्हें पहली ड़ुबकी] दूसरी डुबकी और तीसरी डुबकी कहा गया है। हर डुबकी में अलग-अलग अध्याय है। हर अध्याय एक मुकम्मल तस्वीर खींचता है। चाहे वह घटना की हो चाहे किसी पात्र की। एक अच्छी कथा योजना के तहत हर पात्र को केन्द्र बनाकर लेखक ने एक-एक अध्याय लिखा हैं और कहानी आगे बढाई है। इस कथा में एक पात्र रामदुलारे बड़ा होकर लेखक बनता है और अपने क्षेत्र की पीड़ा को एक पुस्तक के माध्यम से साहित्य संसार के समक्ष प्रस्तुत करता है। उस पुस्तक को बाद में म0पंर0 की सरकार पुरस्कृत भी करती है। यह तथ्य मानों लेखक की भविष्यवाणी हैं क्योंकि लेखक स्वयं इसी क्षेत्र का रहने वाला हैं और उसकी इस पुस्तक “डूब“ को भी प्रांतीय सरकार का साहित्य परिषद पुरस्कार प्राप्त हुआ है।

हांलाकि इस उपन्यास में कुछ अनूठी और असंभव सी घटनाएँ भी आई हैं, जैसे गौराबाई द्वारा दो गुड़ो को मार डालना तथा माते की काँच खाने के कारण चली गई आवाज का चमतकारिक ढंग से लौट आना। लेकिन उपन्यास के संपूर्ण प्रभाव के कारण यह घटनाएँ भी पाठक सहज रूप से पचा जाता है। वे अपाच्य नहीं लगती। उपन्यास में वैध-अवैध सम्बन्धों] मुंह बोले रिश्तों, गैर शरीरी मोहब्बत, ग्रामीण षड्यंत्रों चुनाव के कारण गांवों में घुस आई राजनीतिक चालों, गांवो के बहुवर्णी चरित्रों का व्यापक और विस्तृत वर्णन हैं जो कथा को सशक्त और प्रभावशाली बनाता है।

चन्देरी और ललितपुर के बीच की जिस भौगोलिक जगह को कथा का ठिंया बनाया गया है वह न तो घोर बुन्देलखण्ड है और न ही मालवा या भदावरी-बृज क्षेत्र का कोई हिस्सा हैं। यह एक मिश्रित भाषा और मिश्रित सामाजिक परिपाटियों का इलाका है, इस कारण यहां के पात्र जिस सहज हिन्दी भाषा को उपयोग करते हैं वह किसी आंचलिकता की दुरूहता से मुक्त है। यह लेखक के लेखकीय कौशल्य और भाषा पर अधिकार को प्रकट करता है। भाषा की तरह इस अंचल की रीति रिवाज, परिपाटियां, सोसायटी के चलन और व्यापार बंज की परम्परा को लेखक ने बहुत आधिकारिक और रोचक अंदाज में उपन्यास में प्रस्तुत किया है जिसके कारण यह उपन्यास रंचमात्र भी बोझल या दुर्बोध्य नहीं है। पाठक उपन्यास आरंभ करते ही कहानी से बंध कर रह जाता है जिसके वृत्तांत को लेखक ने बखूबी निभाया है।

कुल मिलाकर यह उपन्यास जबर्दस्त पठनीय और संग्रहणीय है। ऐसी आशा है इसे न केवल बांध के विस्थापित बल्कि विकास के नए उपक्रम के कारण विस्थापित हो रहे हर आदमी की जिन्दगी और संघर्ष कथा की विशद गाथा के रूप् में यह उपन्यास खूब चर्चित होगा ।

उपन्यास-डूब

लेखक-वीरेन्द्र जैन