वह औचक ही सामने आ गया था. मुझपर नज़र पड़ते ही शर्मिंदगी से उसकी आँखें झुक गई थी. मानो उसका कृत्य क्षण भर पहले का हो. इतने वर्ष बीत गये, वक़्त नये नये पैहरन तैयार करता रहा और पुरानी उतरनें बनती रही. उन्ही उतरनों में से एक आज मेरे समक्ष ऐसे आ गया जैसे काले रंग का वह कुर्ता जिसे पहनने के बाद किसी अप्रिय घटना का घटित होना तय होता और वह दिन हमेशा ही गुरुवार होता.
ताई जी कहती – गुरुवार को काला ना पहना कर और शनिवार को पीला, अपशगुन होता है. दुनिया के शुरू होने से पहले से ही शनिदेव और बृहस्पति देव में निरंतर शीत युद्ध चल रहा है.
आज भी मैंने पीला पहना है और दिन शनिवार है. मैंने उसे अनिक्षा से देखा, अब वह बूढ़ा हो चला है. उसके सफ़ेद हो चुके बालों में बचे काले बाल आसानी से गिने जा सकते थे. उसकी बिल्लौरी आंखें निस्तेज़ हो गई हैं, माँस हड्डियाँ छोड़ चुकी हैं. अब वह पहले की तरह आकर्षक नहीं रहा.
‘पहचाना इसे?’ मेरे मनोभावों से नितांत अनभिज्ञ दादा ने उसके समक्ष प्रश्न यूँ फेंक दिया जैसे सामने बैठे प्रतीक्षारत प्रत्याशी के सामने ताश के पत्ते फेंके जाते हैं.किंतु प्रत्याशी? नहीं नहीं. यह मेरा पिता, छी.. पिता नहीं, मेरी माँ का प्रेमी है. रगों में बहने वाला ठाकुरों का ख़ून मन वितृष्णा से भर गया.
नहीं, मैं प्रियम्बदा ठाकुर हूँ. मेरे नाम के साथ मेरे मृत पिता और बाबा की प्रतिष्ठा जुड़ी है. ग़ुरूर में मैं तन कर खड़ी हो गई.
चिरैया… उसने स्नेहिल नज़रों से देखते हुए कहा.
‘चिरैया’ समय की गुफा से आती हुई आवाज़ किसी बवंडर की तरह मुझे अपने साथ गोल गोल घुमाते हुए अंतिम छोर पर ले जाकर पटक गई.
जट्टा की कहानी मेरे जन्म से पहले की कहानी है, लेकिन उसकी कहानी का मुझसे जुड़ाव तब शुरू होता है जब मैं माँ के गर्भ में थी और वह मेरी माँ को छुप छुप कर ताकता था.
माँरॉ (रोटी)सिर्फ़ एक बार बोला गया यह शब्द ब्राह्मण वंश के ठाकुरों के महलनुमा घर में ऐसे गूँज रही थी जैसे व्याकुल प्रेमी द्वारा पहाड़ों में पुकारे गये प्रेयस के नाम गूँजते हैं.यह जट्टा की आवाज़ थी.
जट्टा गठिले शरीर वाला नवयुवक है और उसकी आवाज़ भी उसके शरीर जैसे ही गठिली है. ये नाम उसके व्यक्तित्व और आवाज़, दोनों के साथ ख़ूब मेल खाता है. हालाँकि ये नाम उसे कब और किसने दिया और इसका अर्थ क्या है, ये ना तो कोई जानता है ना जानना चाहता है.
‘आ गये जट्टा?’ हमेशा की तरह पूछने के लहजे में ठकुराइन ने कहा.
उसके ‘जी मालकिन जी’ कहने से पहले ही थाली उसके सामने रख दी गई थी. एक इंच ऊँची घेरे वाली बड़ी सी कांसे की थाली. आधी थाली में थाली के भीतरी आकार के मकई की एक मोटी रोटी के दो टुकड़े को एक के ऊपर एक रख दिया गया था और बची हुई आधी थाली को गरम गरम अरहर की दाल से भर दिया गया था. जब तक जट्टा ने अपने साथ लाए काँसे के लोटे से अँजुरी में पानी लेकर थाली का आचमन किया, तब तक तो दाल रोटी वाले क्षेत्र में अपना साम्राज्य स्थापित कर चुका था और दो टुकड़े रोटी का नीचे वाला आधा टुकड़ा दाल में भीग कर फूलने लगा था. जट्टा ने नीचे का आधा भाग ऊपर किया और बचे हुए दाल में मसल मसल कर खाने लगा. बीच बीच में बाड़ी से तोड़ कर अपने साथ लाया हरा मिर्च को दाँतों से ऐसे काटता जैसे मिर्ची से कोई पुरानी दुश्मनी हो और वह आज ही पकड़ में आया हो.
कभी कभी स्वाद बदलने के लिये वह अचार माँग लेता, तब दुल्हिन जी उससे पूछ कर आम या कटहल का देती. वह ज़्यादातर कटहल का माँगता, कटहल की सब्ज़ी का बहुत रसिया था और कुआ तो दरिद्र की तरह हपा हप खाता था वह.
अभी उसने आधा रोटी ही खाया था कि मैंने सामने पालथी लगा लिया. जट्टा ने एक छोटा सा कौर बनाया और मेरे मुँह ने डाल दिया.’हे भगवान, कलयुग है कलयुग. ठाकुरों की बेटी नौकर के हाथ से.. पता नहीं कौन जात है.’ बड़ी ठकुराईन बड़बड़ा रही थी.’जट्टा के आने से पहले भर पेट खिला काहे नहीं देती हो ई चिरैया को?’
‘केतना भी खिला दो ठकुराईन, ई चिरैय्या जब तक हम्मर हाथ से नहींं खायेगी, पेट नहींं भरेगा इसका भी और हमरा भी.’
‘बस बस, बहुते बोलने लगा है. मालिक सर पे बिठायें हैं.’
‘माफ़ी दे दो मालकिन. हमहूँ तोहरे बच्चा हूँ. अप्पन माँ बाप तो याद भी नहींं.’
‘हाँ बच्चा त तू हमरा ही है. दस बारह साल का रहा तुम जब मालिक साहब ले आये.’
जिस घर में बाहरी पुरुष का क्षणिक प्रवेश भी निषिद्ध था, उस घर में स्वयं बड़े ठाकुर जट्टा का हाथ पकड़ ड्योढ़ी पार भीतर ले आये थे.
कचहरी के पास चूसे हुए मालदह आम की गुठली जैसी सूरत वाला यह लड़का भीख माँग रहा था. चेहरे के भीतर धंसी आँखों से ख़ाली पेट का सूनापन चू रहा था, जैसे भीगें हुए कपड़ों से पानी चूता है या बरसात में किसी ग़रीब का छत.
‘काम क्यूँ नहीं करता’ बड़े ठाकुर ने झिड़क दिया था. कचहरी में हुए बहस से कुछ खीजे हुए थे.
‘मिले तो…’ इतना ही कह पाया था कई दिनों का भूखा मरियल जट्टा.
‘नाम क्या है?’ उसकी निरीह काया को देख ठाकुर साहब का मन पसीज रहा था.
‘सब जाट कहता है..’ ठाकुर साहब के सम्मान में झुका हुआ सर बस थोड़ा सा ऊपर उठा था.
‘जाट कोई नाम थोड़े है? हम तुमको जट्टा कहेंगे. चल गाड़ी में बैठ जा.’
गाड़ी बड़े ढाबे पर रोक दी गई.
भर पेट खाना मिला तो ठाकुरों का होकर रह गया जट्टा.
उसे अब ख़ुद भी याद नहींं कि वो कौन था, कहाँ का था और किसका थ. बस याद है, तो बड़े ठाकुर साहब और उनकी हवेली.
कोई पूछता – कौन है तू, तो कहता – हवेली वाले ठाकुर साहब का जट्टा.
शुरुआत में उसका काम सिर्फ़ बैठक से जूठे चाय का कप और नाश्ते की प्लेट उठाना था और इस काम में उसका मन भी बहुत लगता था. जब भी कोई मेहमान आते, उसका होली दशहरा सब हो जाता. दुल्हिन जी कहती – जूठे प्लेट का बचा हुआ अपनी थाली में उलट ले.
बड़े लोग भी ख़ूब मनचोर होते हैं. प्लेट में तरह तरह की मिठाई और नमकीन सज़ा कर परोसी जाती है तो सिर्फ़ एक टुकड़ा ही तोड़ कर मुँह में रखते हैं बस और ग़रीब एक टुकड़े के लिए भी तरसते हैं.
तरसा हुआ तो जट्टा भी था लेकिन जल्दी ही उसका मन अघा गया. जब नया नया आया था तो छज्जु हलवाई के आने से पहले ही उसको सुगंध लग जाता.
‘दुल्हिन जी… लिस्ट बना लीजिए. छज्जु आ रहा है.’
‘तुमको कैसे छज्जु के आने का पता लग जाता है?’ दुल्हिन जी को बड़ा अचरज होता.
‘छज्जु की देह से एक लग्गा पहिले से दूध और घी का महक आता है औ पिछले जनम में हम ज़रूर कुक्कुड़ रहे थे’ कहते हुए मासूमियत से दाँत निपोर देता.
‘क़ुक्कुड़ त तुम इस जनम में भी हो, ठाकुरों की देखा देखी छगनलाल को छज्जु छज्जु करता है. अप्पन औक़ात में रहो जट्टा.’ ठकुराइन को उसका हँसना बोलना तनिक नहीं भाता था.
ठकुराइन को जट्टा कभी नहीं सोहाया. कहती – क़ँजी आँखों वाला अपसगुण होता है. जेतना धरती के बाहर ओतना धरती के भीतर. जेकरा अप्पन मतारी-बाप नहीं पूछा, उसको मालिक घर के भीतर काहे ले आये.’ कहते हुए उनकी आवाज़ किसी अनिष्ट की आशंका से काँप जाती और यह सब सुन जट्टा सहम जाता.
कभी कभी किसी फ़ुर्सत में ठकुराइन की बातों को याद करते हुए शीशा का टुकड़ा को अपनी आँखों के नज़दीक लाकर ख़ूब ध्यान से देखता. उसे दूध के उजले कटोरे में चाँद का प्रतिबिम्ब हरा दिखाई देता. सबका तो करिया है, ख़ाली हमरे हरियर, ठकुराइन ठीके कहती है, ज़रूर कौनों दोष है.
दुल्हिन जी का उससे अलग सा स्नेह था. जब भी भँसा में कुछ नया बनाती तो उसे भी देती.. ठकुराइन के परेम जैसा थोड़ा सा.
‘स्वाद कैसा था’ कभी मौक़ा पाकर पूछती.
तब वह विस्तार से उस लज्जत का ऐसा वर्णन करता मानो कोई श्रेष्ठतम लेखक किसी स्त्री के रूप सौंदर्य का विस्तार लिखता हो.
दुल्हिन जी उसकी मासूमियत पर बहुत मुग्ध होती. वह माँ कितनी ही अभागी होगी जिसने इस अस्फटिक से कंचन मन वाले बच्चे को खोया है. वह कुरेदती – जट्टा कुछ याद है तुमको?
‘नहीं, दुल्हिन जी, अब त भूख और गाड़ी भी बिसर गया. याद है त बस ठाकुर साहेब औ ई हवेली’ कहते हुए उसकी आवाज़ दीवाली के दीये की लौ की तरह तैलिय हो जाती.
बैठक में काम कम होने के कारण वह धीरे धीरे गौशाला में मेदनी काका की मदद करने लगा. क़ुट्टी काटना, नाद में भूसा मिलाना और गायों को नहलाना और फिर गोबर समेट कर गोईठा थापने में वह जल्दी ही निपुण हो गया.
बीच बीच में मेदनी काका हवेली के उन क़िस्सों को साझा करते जो उससे कभी किसी ने ना सुनाई हो. काका कहते – ठाकुरों की एक रानी होती है और एक पटरानी होती है. खेतों में मचान होता है. फ़सल की रखवाली के लिये मचान पर एक लठैत सोता है. दूर एक घर होता है, दीया बाती करती हुई एक अभागन होती है, अभागन का भाग्य दीया बोता कर बनता है, फिर दिन भर वह खेत होती है, बिना फ़सल वाली खेत.
और कहते – ये सब क़िस्सा कहानी मेरे साथ चिता पर बैठ सती होगा.
वह अचरज से उन्हें मुँह बाये ऐसे देखता मानो कानो से नहीं मुँह से सुन रहा हो. मेदनी काका की बातें उसे रहस्यमय लगती जिन्हें सुलझाने की कोशिश में वह पूछता ‘काका औरत खेत कैसे हो जाती है?’
‘तू बकलोले रहेगा.’ कहकर मेदनी काका उसे फटकार देते.
काका कभी कभी ठकुराइन के क्रोधी और दुल्हिन जी के मृदुल स्वभाव का चित्रण किया करते थे. वो कहते – ठकुराइन ने दुनिया देखी है. दुल्हिन अभी कच्ची मिट्टी का घरौंदा है, उसको पकने में समय लगेगा.
‘काका अब दूध दुहना सिखा दो’ वह चिरौरी करता.
‘बकलोल बंदूक़ चलाना सीख ले. दूध दुहना सीखकर का करेगा, जब गंदरवा मुनिया बंदूक़ तान देगा.’
‘गंदरवा मुनिया कौन चिड़िया का नाम है? जट्टा नये नये बतबनाई में भी पारंगत हो रहा था.’
‘डाकू है डाकू, लूट पाट मचाता है. गोलियाँ दागता है. बड़ा निर्मम है. आस पास का दस गाँव में क़हर बरपा है, ई गाँव का नम्बर भी जल्दिये आयेगा’ कहकर काका ज़ोर ज़ोर से खाँसने लगे.
‘ई गोली ससुर जान लेबो करता है, जान बचैबो करता है’ कहते हुए काका ने एकसाथ दो गोली फाँक ली.
काका के बीमार होते ही घर का प्रवेश द्वार जट्टा के लिये खुल गया. एक बार क्या वह घर के भीतर आया, फिर तो घर का ही होके रह गया.
सब्ज़ी काटने से लेकर जमाई छाली को मह कर घी निकालने में प्रवीण हो गया. दुल्हिन जी की अन्य सहायिकाएँ उसे मौगा कहती, तिस पर मात्र वह खीसें निपोर देता.
जब रोज़ सुबह वह बाल्टी भर दूध दूह कर लाता तो दुल्हिन जी उसे गिलास भर चाय पकड़ा देती जिसे वह वहीं आँगन में बैठ सुड़क सुड़क कर घंटे भर में पीता. फिर घर की तमाम स्त्रियों के स्नान और रसोई के काम काज के लिये चापाकल से पानी भरता. जिस दिन बहु जी को बाल धोना रहता, उस दिन घर की सभी बाल्टी को वह पानी से लबालब भर देता. बहु जी के बाल कमर तक लम्बे हैं..घने हैं. बालों को आँवला शिकाकाई से धोने से एक रात पहले वह मलसी भर सरसों का तेल लगवाती है इसलिये धोने में पानी भी ख़ूब लगता है.
दूसरी सेविका कहती – ई मरद वाला काम है. लौहकल चला कर तू लोहे जैसा मज़बूत बनेगा.
‘और जो औरत खेत में काम करती है ऊ मर्दानी हो जाती है का?’ जट्टा हाज़िर जवाबी हो रहा था.
सच ही वर्षों से लोहे का चापाकल चलाते चलाते उसके हाथ लोहे की तरह मज़बूत हो गये थे और शरीर रोज़ घंटों कसरत करने वालों जैसी क़टिली. खेतों में काम करने वाली मजदूरिन लड़कियाँ जब दिहारि लेने आती, तब उसे देख देखकर ख़ूब लजाती. कुछ अधेड़ उम्र की स्त्रियाँ उसे खुलकर छेड़ती ‘जट्टा कौन सुहाता है, सरस्वती भौजी कि लक्ष्मी भौजी’
‘हम इस कलयुग का हनुमान हूँ. ऊ भगवान राम के भक्त थे, हम ठाकुर साहब के भक्त हैं. उनकी मैय्या सीता थी, हमरी मैय्या ठकुराइन हैं.’ उसके इस कथन को सुनकर ठाकुर साहब का छाती ख़ुशी से फूल जाता. वह कहते – बस बस…इसको और तंग मत करो कोई.
उसकी काया ऐसी कि साबुन लगाकर नहाने के बाद सूर्य की किरणे उसकी देह से टकरा कर वापस लौट जाती और कुमारियों का आँचल बिन पूरबैया भी सर से ससर जाता. उनकी आत्मा से निछुड कर नेह आँखों से रुई के गीले फ़ाहे की तरह चू जाता लेकिन जट्टा का जीवन अपनी ही रौ में था.
छोटे ठाकुर के बियाह में ख़ूब देन लेन हुआ. आस पास का सौ गाँव में चर्चा हुआ.
मेदनी काका ने कहा – ठाकुर साहब को गंधरवा मुनिया का चिट्ठी आया है.
‘का लिखा है उसमें?’ जट्टा ने कौतुक से पूछा.
‘बुरबक…पढ़े नहीं, सुन गुण सुने हैं. उ मरदे ताल ठोक कर लूटने आता है. छोटका ठाकुर का बियाह का चर्चा दस गाँव में है. एतना लेन देन कि सबका आँख फट गया.’
ठाकुर साहब बग़ल में भरल बंदूक़ रख कर सोने लगे. पूरा घर भय के साये में सो रहा था. अंततः वह क्रूरतम रात भी आया जब गंधरवा मुनिया लूटने तो आया धन लेकिन लूट गया छोटकी का भाग्य. छोटे ठाकुर के ख़ून की ग़र्मी उनकी देह को ठंडा करने का कारण बनी.
हफ़्ता हुआ ब्याह कर अाई थी, पैरों का आलता बदरंग भी नहीं हुआ था. माँग में नारंगी सिंदूर गोधूली सा शोभता…कोमल हाथों में मेहंदी महकती, किंतु आह! भाग्य की मारी, अभागन का क्या दोष जो कुलटा पुकारी गई.
अंधेरी काल कोठरी में क़ैद हुई, उलटी हुआ तो छोटे ठाकुर की पुनः वापसी का उत्सव शुरू हुआ, किंतु नौ महीने बाद चिरैया जन वह और अभागी हुई. यह उसके कुभाग्य का अंत नहीं था. चिरैय्या को उसकी गोद से छीन कर उसे भाग्य पर रोने के लिये छोड़ दिया गया था.
उस दिन वह अजाने ही जट्टा को अवलोकित हुई थी. चिरैय्या उसकी गोद में थी. प्रेम लुटाती उस ममतामयी को किबाड़ लगाने की सुध नहीं रही. दुल्हिन जी ने जट्टा के समक्ष हाथ जोड़ दिये. राज़दार होने की क़सम दे दी गई. ऐसा करुण दृश्य, कलेजा में कील सा चुभा. जैसे बिंधता है तीर कोई…हिरण के शरीर में प्राणघाती.
जट्टा का मन भर आया था. कोमलाँगी के दृष्टिगोचर होने मात्र से ही वह व्याकुल हो उठता. उसके मन की समतल दीवारों पर एक रेखा खिंच गई थी.
उसमें किसी असंभव की आकांक्षा जागी थी. कभी वह पलाश के वनखंड सा दहकता कभी जलावन की सूखी लकड़ियों सा अकड़ता, उसमें चंद्रमा की ललक थी.
उसकी रातों में उजाड़ था, वह प्रतीक्षा का विग्रह बना अपना प्रेम दोगाना अकेले ही गाता.
दालान पर जब दोपहर करवट लेकर साँझ को पुकारती, उस वक़्त उसका हृदय मरण पर सुदूर का रुदनगीत हो जाता और रात के नीम अंधेरे में उसकी जवानी खेत हो जाती. उसे प्रेम का सूद चुकाना था. द्वैत चाहनाओं की बाती अनुल्लंघ्य नियमों की ढिबरि में रात भर जलती. उसकी रातें रीति ही रहती.
हृदय का ऐसा शिशुहठ, अनुरागी की ज़िद दुल्हिन जी की अनुभवी आँखों से छुपी न रह सकी. अनुग्रह की याचना कर बैठी – उसे इस नर्क से निकाल दो.
एक पल के लिये वह शर्त हो गया था, वह भोगी नहीं भक्त था, किंतु प्रेम से बड़ी कोई उपासना नहीं. अमावस की काली रात में स्वर्णिम सुबह की चाह लिये उसका हाथ पकड़ निकल पड़ा. दुल्हिन जी ने पोटली में रुपये पैसे गहने बाँध दिये थे. अश्रुपुरित नेत्रों से इतना ही कहा था ‘जट्टा तुमको बेटा ही समझे, तुम इसको सम्भालना. हम चिरैय्या को संभाल लेंगे. जाओ.. कहीं दूर चले जाओ, पीछे मुड़ कर नहीं देखना.’ पैरों पर गिर पड़े थे दोनों, दुल्हिन जी ने दोनों को सीने से लगा कर विदा कर दिया था.
भाइयों की लाड़ली प्रियम्बदा राजकुमारी की तरह पलने लगी. उसे कभी पता भी नहीं चला..माँ और ताई जी में क्या फ़र्क़ है. दादा का चिरैय्या से अतिरिक्त स्नेह था. वह दादा को दादा से अधिक गुरु समझती थी. एक ऐसा गुरु जो उसके मन पर पड़ी काइयों को कोमलता से हटाता है, जो उसे अंधेरी कोठरी से निकाल कर रोशनी दिखाता है.
समय ने करवट ली थी. ठाकुर साहब-ठकुराइन के बाद दुल्हिन जी के राज काज में पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा. दुल्हिन जी और चिरैय्या की सुध लेने जट्टा वर्षों बाद लौट आया था.
प्रियम्बदा डॉक्टर बन गई थी. लोगों के दुःख दर्द दूर करती थी. दादा के साथ बुलाने पर अाई थी. शायद सबकुछ पूर्व नियोजित था. दादा प्रतिमानों और प्रतीकों द्वारा उससे कुछ कहना चाहते थे. वह भी पूछना चाहती थी – क्या मेरी माँ भी इससे प्रेम करती थी? अंतस में शूल की तरह उठा यह सवाल भीतर गोदने लगा था.
‘प्रेम सौंदर्य का उपासक नहीं, अपितु निष्पक्ष होता है.’
दादा प्रेम को निष्कलंक मानते थे.
दादा ने जट्टा को गले लगाते हुए कहा – यह कलयुग का भक्त प्रेमी नहीं, उपासक है. इसने मात्र पूजा की है.
जट्टा की आँखों में अनुरक्ति की धारा बह निकली थी. प्रियम्बदा अनायास ही उसके पैरों पर झुक गई.
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