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हैडमास्टर साहब का काम पूरा हो चुका था। उन्हांेने देखंेगे का भाव चेहरे पर चिपकाया ओर शुक्लाजी ने कक्ष से बाहर आकर पसीना पांेछा।
हैडमास्टर साहब शिक्षा के मामले मंे बहुत कोरे थे। वे तो अपने निजि सम्बन्धों के सहारे जी रहे थे, मैनेजमंेट, पार्टी पोलिटिक्स ट्रस्ट, अध्यापक, छात्र, छात्राआंे आदि की आपसी राजनीति उनके प्रिय शगल थे। विद्यालय मंे किसी प्रिन्सिपल की नियुक्ति की अफवाहों से वे बड़े विचलित थे। इस विचलन को ठीक करने का एक ही रास्ता था। मैनेजमंेट के मुख्य ट्रस्टी को अपनी ओर मिलाये रखना। मुख्य ट्रस्टी शहर के व्यापारी थे। उनके पास कई काम थे। उन्हांेने कॉलेज का काम-काज अपनी पत्नी माधुरी के जिम्मे कर दिया था। माधुरी कभी-कदा कॉलेज आती। संभालती। एक-दो को डॉट-डपट करती। निलम्बन की धमकी देती और चली जाती। वो पढ़ी-लिखी ज्यादा नही थी मगर सेठानी थी और पैसा ही उसकी योग्यता थी।
हैडमास्टरजी उससे खांेफ खाते थे, कारण स्पष्ट था। सेठजी खुश तो हैडमास्टरी चलती रहती और नाराज तो हैडमास्टर चले जाते। शिक्षा की दुर्गति ही थी एम.ए., बी.एड., एम.एड., पी.एच.डी. जैसी डिग्रियांे के धारक सेठानी की आवाज पर चुप लगा जाते। स्थानीय अध्यापकांे का गुट अलग था, जो हमेशा से ही मैनेजमंेट का गुट कहलाता था और बाह्य अध्यापकांे को कभी भी कान पकड़कर निकाला जा सकता था।
पढ़ाई लिखाई के अलावा ज्यादा काम कॉलेज मंे दूसरे होते थे। सर्दियांे मंे अवकाश के दौरान सेठजी अपनी दुकान का सामान भी कॉलेज मंे रखवा देते थे। कॉलेज मंे पिछवाड़े सेठजी की गायें, भैंसें बंधती थी और कॉलेज के चपरासी उनकी अनवरत सेवा सुश्रुषा, टहल करने पर ही नौकरी पर चलते थे। कॉलेज मंे मौज-मस्ती, फैशन, करने के लिए पूरे शहर के लौण्डे-लौण्डियां आते थे। नाभिदर्शना-लो-हिप जीन्स और लोकट टॉप के सहारे लड़कियां कॉलेज लाइफ के मजे ले रही थी और लड़के गुरूआंें से ज्यादा लवगुरूआंे के पास मंडराते थे।
माधुरी इस हाईस्कूल को कभी निजी विश्वविद्यालय बनाने के सपने देखती थी। ऐसा सपना उन्हंे हैडमास्टर साहब दिखाते थे। माधुरी का मानना था कि एक बार उन्हंें विधानसभा का टिकट मिल जाये बस यह स्कूल राज्य का विश्वविद्यालय बनकर रहेगा और वे इसकी आजीवन कुलपति रहेगी।
प्रदेश को स्वर्ग बनाने की घोषणाऐं अक्सर होती रहती थी और इन घोषणाआंे की अध्यापक बड़ी मजाक बनाते थे। प्रदेश स्वर्ग होगा और प्रदेशवासी स्वर्गवासी, जैंसे जुमले अक्सर स्टाफरूम मंे सुनने को मिलते थे। दूसरा अध्यापक तुरन्त बोल पड़ता, आप स्वर्ग जाकर क्या करंेगे माटसाब आपके तो सभी रिश्तेदार नरक मंे मिलंेगे। सभी मिलकर अट्टहास करते। वैसे प्राइवेट कॉलेज मंे पूरे वेतन की मांग करने वाले ज्यादा दिन नहीं टिक सकते थे। पूरे वेतन पर हस्ताक्षर, शेष वेतन का मैनेजमंेट के नाम पर अग्रिम चैक और बकाया का नकद भुगतान। इसी फण्डे पर कॉलेज चल रहे थे। माधुरी भी इसी फण्डे पर कॉलेज, कॉलेज की राजनीति को चला रही थी और एक दिन इस चार कमरे के कॉलेज को विश्वविद्यालय बनाने के सपने को साकार करने मंे लगी हुई थी। बस एक टिकट का सवाल था जिसे हल करना बड़ा मुश्किल था।
शुक्लाजी ने हैडमास्टर साहब के चारे पर घर आकर शुक्लाइन से विचार-विमर्श किया। शुक्लाईन को मामला जम गया। वैसे भी घर मंे बैठकर बोर हाने से यह अच्छा था। शुक्लाजी ने हैडमास्टर साहब का दामन पकड़ा, हैडमास्टरजी ने माधुरी को कहा, माधुरी ने शुक्लाइन को घर पर साक्षात्कार के लिए बुलाया और इस प्रकार शुक्लाइन भी हाईस्कूल मंे प्रोफेसराईन हो गयी। मगर माधुरी ने कच्ची गोलियां नही खेली थी, वे शुक्लाईन के सहारे राजनीति की सीढ़ी चढ़ना चाहती थी।
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उत्तर आधुनिकता की इस आंधी मंे वैश्विक समानीकरण की दौड़ मंे जब स्वतन्त्र अर्थ व्यवस्था और विश्व एक गांव की अवधरणा का तड़का लग जाता है तो देश प्रदेश की जो स्थिति होती है, वही इस समय पूरे देश की हो रही है। गरीब और गरीब हो रहा है, अमीर और अमीर हो रहा है। ऐसा लगता है कि शेयर बाजार ही देश है, शेयर बाजार मंे मामूली उठापटक से सरकारांे की चूले हिलने लग जाती हैं। कुलदीपकजी यही सब सोच रहे थे। देखते-देखते धर्मयुग, सारिका, पराग, दिनमान रविवार, सण्डेमेल, सण्डे ओब्जवर, इतवारी पत्रिका और सैकड़ांे लघु पत्रिकाएं काल के गाल मंे समा गई थी। साहित्य पहले हाशिये पर आया, फिर गायब ही हो गया। कुछ सिरफिरे अभी भी साहित्य की वापसी का इन्तजार करते करते हथेली पर सरसांे उगाने का असफल प्रयास कर रहे है। लघु पत्रिका का भारी उद्योग अब इन्टरनेट और ब्लागांे की दुनियां मंे चल निकला था। छोटे-बड़े अखबार अब प्रादेशिक होकर पचासांे संस्करणांे मंे छप रहे थे। विज्ञापनांे की आय बढ़ रही थी, सेठांे के पेट भर रहे थे। अखबारांे के पेट भर रहे थे, मगर पत्रकारिता, साहित्य और रचनात्मक मिशनरी लेखन भूखे मरने की कगार तक पहुंच गया था।
ऐसे मंे कुलदीपकजी को सम्पादक ने बुलाया और कहा।
‘लेखक की दुम तुम्हारी समीक्षाआंे से न तो फिल्मांे का भला हो रहा है और न ही हमारा। बताआंे क्या करंे।’
‘जैसा भी आपका आदेश होगा, वैसी पालना कर दूंगा।’ कुलदीपकजी ने कहा आप कहे तो कविता लिखने लगंू।
‘कविता-सविता का नाम मत लो। उसे कौन पढ़ता है। कौन समझता है। कहानी उपन्यास मर चुके है ऐसी घोषणाऐं उत्तर आधुनिक काल के शुरू मंे पश्चिम मंे हो चुकी है।’
कुलदीपकजी चुप ही रहे। आखिर सम्पादक उनका बोस था। और वे जानते थे नेता, अफसर और सम्पादक जब तक कुर्सी पर होते है किसी को कुछ नहीं समझते और कुर्सी से उतरने के बाद उन्हंे कोई कुछ नहीं समझता। अभी सम्पादक कुर्सी पर था। समीक्षाएं छप रही थी और सायंकालीन आचमन हेतु कुछ राशि नियमित रूप से हस्तगत हो रही थी। कुलदीपकजी इसी से खुश थे। सन्तुष्ट थे।
सम्पादकजी आगे बोले
‘यार आजकल टी.वी. चैनलांे पर लाफ्टर शोज का बड़ा हंगामा है, तुम ऐसा करो एक हास्या-व्यंग्य कालम लिखना शुरू कर दो। समीक्षा को मारो गोली...............।’
कुलदीपकजी की बांछे खिल गई। वे मन ही मन बड़े खुश हुए। चलो कालम मिला। अब वे पुराने शत्रुआंे से गिनगिन कर बदला ले सकंेगे। मगर अभी रोटी एक तरफ से सिकी थी। सम्पादक ने आगे कहा।
‘लेकिन तुम्हंे कालम लेखन का कुछ ज्ञान है क्या। लेकिन ज्ञान का क्या है। तुम लिख देना, मैं छाप दूंगा। करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।’
इस प्रकार एक हास्यास्पद रस के कवि हास्य के चलते इस व्यंग्य के स्तम्भ लेखन की पटरी पर दौड़ने लगे।
सायंकाल जब वे घर पहंुचेे उन्हंे असली ज्ञान मिला। जब मां ने बताया कि यशोधरा ने सम्पादकजी से आर्य समाज मंे शादी रचा ली थी और यह खम्भ-लेखन उन्हंे इसी उपहार मंे मिला था।
रोने-धोने के बाद मां, बाऊजी ने बेटी को विदा कर दिया। मोहल्ले पड़ोस को एक पार्टी दी और बिटिया इस एक कमरे के महल को छोड़कर पासवाली बड़ी बिल्डिंग के तीसरे माले पर सम्पादकजी के फ्लेट पर रहने चली गई।
उत्तर आधुनिक साहित्य मंे ऐसी घटनाएंे या दुर्घटनाएं जो भी आप कहना चाहे अक्सर घटती रहती है, जिन्हंे सोच समझ कर कहानी या उपन्यास मंे ढाला जा सकता है। आखिर टी.वी. चैनलांे के सास बहू मार्का धारावाहिकांे का कुछ असर तो समाज पर भी होना ही चाहिये। अच्छी बात ये रही कि यशोधरा ने नौकरी छोड़कर घर-बार संभाल लिया। कुलदीपकजी का काम अब और भी कठिन हो गया था, मगर नियमित लेखन की आमदनी और बापू की पंेशन से आराम से गुजारा हो रहा था। मगर ऊपर वाले से किसी का भी सुख लम्बे समय तक देखा नहीं जाता।
रात का दूसरा प्रहर। कुलदीपकजी प्रेस से निकलना चाहते थे कि सूचना आई। बाबूजी का स्वास्थ्य अचानक गड़बड़ा गया है। कुलदीपकजी घर की और दौड़ पड़े। बापू को श्वास की पुरानी बीमारी थी, मगर अभी शायद हृदयाघात हुआ था। सब तेजी से बापू को लेकर रावरे की डिस्पेन्सरी तक ले गये। वहां पर नर्स थी, सौभाग्य से डॉक्टर भी था, मगर आपातकालीन दवायंे नही थी। सघन चिकित्सा इकाई नहीं थी। डॉक्टर ने बापू को देखा। समझा। समझ गया। सौरी बोला। मगर तब तक कुलदीपकजी ने पास पड़ोस के कुछ लड़के इकट्ठे कर लिये, जो ऐसे शुभ-अशुभ अवसरांे पर वहीं सब करते थे जो करना उन्हंे उचित लगता था। उन्होंने डॉक्टर से गाली-गलोच की, नर्स के कपड़े फाड़े, चपरासी की पिटाई की। अस्पताल मंे तोडफोड़ की, हल्ला मचाया। यहां तक तो सहनीय था, मगर जब लड़कांे ने, नर्स और डॉक्टर को एक साथ पीटना शुरू किया तो डॉक्टर ने पुलिस को फोन कर दिया।
भारतीय पुलिस नियमानुसार घटना घटने के बाद पहुंचती है।। दोनांे पक्षांे को समझाने का असफल प्रयास पुलिस ने किया। दरोगा ने नर्स-डॉक्टर और लड़को को रातभर थाने मंे बंद कर दिया और बोला।
‘सुबह देखेंगे।’ ‘यह हत्या थी, आत्महत्या थी या प्राकृतिक मृत्यु।’ इस वाक्य से दोनांे पक्ष सहम गये। मगर पुलिस तो पुलिस थी। रातभर बापू की लाश अस्पताल के बरामदे मंे पड़ी रही।
पास मंे ही जबरा कुत्ता पहरेदारी कर रहा था। काफी रात गये तक कुत्ता भौंकता रहा मगर प्रजातन्त्र के कानांे तक उसकी बात नहीं पहुंची।
सुबह होते-होते दोनांे पक्षांे ने सम्पादक की सलाह पर केस उठा लिए और बापू के क्रियाकर्म के पैसे डॉक्टर, नर्स, चपरासी से वसूल पाये।
जैसा कि सौन्दर्यवान महिलाएं और बुद्धिमान पुरूष जानते है अस्पताल वह स्थान है जहां पर आदमी जिंदा जाता तो है, मगर उसका वहां से जिन्दा आना बहुत मुश्किल काम है। डॉक्टर मरीज के बच जाने पर खुद को शाबाशी देता है और मर जाने पर ईश्वर को दोष देकर अलग हो जाता है। ज्यादा होशियार डॉक्टर साफ कह देते हैं कि मैं इलाज करता हूं, मरना-जीना तो ईश्वर के हाथ मंे है। वास्तव मंे ईश्वर और किस्मत दो ऐसी चीजंे है जिन पर कोई भी दोष, अपराध आसानी से मढ़ा जा सकता है और मजा ये यारांे कि ये दोनांे शिकायत करने कभी नहीं आते। सब संकट झेल जाते हैं।
डॉक्टर और नर्स ईलाज मंे लापरवाही के आरोप से तो बच गये मगर जो कुछ हुआ उससे डॉक्टर और नर्स की बड़ी सार्वजनिक बेइज्जती हुई थी, डॉक्टर परेशान, दुःखी था। नर्स अवसाद मंे थी, और चपरासी ने अस्पताल आना बन्द कर दिया था। डॉक्टर अपना स्थानान्तरण चाहता था। नर्स भी इसी फिराक मंे थी, मगर ये सब इतना आसान नहीं था। आज अस्पताल मंे नर्स की ड्यूटी थी, डॉक्टर शहर से ही नही आया था, उसका कुत्ता बीमार था और उसे पशु चिकित्सक को दिखाना आवश्यक था।
नर्स अस्पताल मंे अकेली बैठी-बैठी बोर हो रही थी। ठीक इसी समय झपकलाल ने मंच पर प्रवेश किया। झपकलाल को देखते ही नर्स पहचान गई। वो चिल्लाना चाहती थी, मगर दिन का समय, सरकारी कार्यालय और सिस्टर के पवित्र कार्य को ध्यान मंे रखकर क्राइस्ट का क्रास बनाकर चुप रह गई। झपकलाल भी आज ठीक-ठाक मूड मंे थे। आते ही वो बोल पड़े ।
‘सारी नर्स उस दिन हम लोग नशे मंे कुछ अण्ड-बण्ड बक गये। सॉरी....वेरी सॉरी।’
नर्स क्या कहती। शिष्टाचार के नाते चुप रही। झपकलाल फिर बोल पड़े।
‘यह डॉक्टर महाहरामी है। महीने मंे एकाध दिन आता है और तुम को मरने के लिए यहां छोड़ा जाता है।’
नर्स फिर चुप रही। अब झपकलाल से सहन नही हुआ।
‘अरे चुपचाप सूजा हुआ मंुह लेकर कब तक बैठी रहोगी।’ आज शाम को कुलदीपक के बाप की बैठक है। चली आना। ‘सब ठीक हो जायेगा।’
झपकलाल बैठक की सूचना देने ही आया था। सूचना देकर चला गया। बैठक की सूचना अखबार मंे भी छप गई थी। विज्ञापन के पैसे भी नहीं लगे थे।
शाम का समय। बैठक का समय। घर के सामने ही दरियां बिछा दी गई थी। बापू की एक पुरानी फोटो लगाकर उस पर माला चढ़ा कर अगरबत्ती लगा दी गई थी। पण्डित जी आ गये थे। धीरे-धीरे लोग बाग भी आ रहे थे। कुछ पास पड़ोस की महिलाएंे और रिश्तेदारी की अधेड़ चाचियां, मामियां, काकियां, भुवाएं आदि भी धीरे-धीरे आ रही थी। नर्स बहिन जी भी आ गई थी। गीता रहस्य पढ़ा जा रहा था।
लोग-बाग आपस मंे अपनी-अपनी चर्चा कर रहे थे। कुछ महिलाएं एक-दूसरे की साड़ियांें पर ध्यान दे रही थी। कुछ अपने आभूषणांे की चिंता मंे व्यस्त थी। मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए पाठ जारी था। पुरूष लोगांे को अपने उतारे हुए जूतांे और वाहनांे की चिन्ता थी। कुछ दूर जाने की चिंता कर रहे थे। मृतक की आत्मा अब शान्त थी। राम-राम करके पाठ पूरा हुआ। पुष्पाजंलि हुई। तुलसी बांटी गई। और बैठक शिव मन्दिर मंे जाकर पूरी हुई। कुलदीपक ने सबको नमस्कार किया। सबने उन्हंे और रिश्तेदारांे को प्रणाम किया। लोग-बाग धीरे-धीरे घर गृहस्थी की चर्चा करते-करते चले गये।
महिलाएं मृतक की पत्नी को सांत्वना देकर आंसू पौंछती चली गई। रह गया केवल शून्य। सन्नाटा। घर मंे उदासी। कुलदीपक के मन मंे भविष्य की चिन्ता। यशोधरा ने सब संभाल रखा था। मां को भी। कुलदीपक ने झपकलाल की मदद से दरियां समेटी। पण्डित जी को दक्षिणा सहित विदा किया और मां के पास आकर बैठ गये।
‘मां।’
‘हा।’
‘अब आगे क्या।’
‘मेरे से क्या पूछता है बेटा अब तू ही घर का बड़ा है। जो ठीक समझे कर।’
‘मगर फिर भी तू बता।’
‘श्राद्ध तेरहवीं की तैयारी तो करनी पड़ेगी। बापू के बैंक मंे कुछ है ले आना।’
‘अच्छा मां।’
धीरे-धीरे दिन बीते। दुःख घटे। अवसाद कम हुए। कुलदीपकजी वापस दैनिक कार्यक्रमांे मंे रमने लगे। बापू नित्यलीला मंे चले गये। मां और भी ज्यादा बुढ़ा गई। यशोधरा का आना-जाना लगा रहा। कुलदीपकजी अपना खटकर्म करते रहे।
मां को एक बहू चाहिये थी। मगर इधर समाज मंे लड़कियांे की संख्या निरन्तर गिर रही थी। और अच्छी, खानदानी लड़कियांे की तो और कमी थी। कोई रिश्ता आता ही नहीं था। आता तो दायें-बायें देखने लायक। कन्या भू्रण हत्याआंे के चलते नर: नारी का अनुपात अपना असर दिखाने लग गया था।
मां की चिन्ता वाजिब थी। मगर क्या करती। कूलभूषण जहां कभी पूरे गांव शहर की लड़कियांे से इकतरफा प्यार करते थे, एक प्रेमिका, पत्नी के लिए तरस गये।
शाम का जुटपुटा था। बाहर रोशनी हो रही थी मगर कुलभूषण के अन्दर अन्धकार था। वे आप्पदीपांे भव की भी सोच रहे थे। तमसो मां ज्योतिर्गमय उवाच रहे थे। मगर इनसे क्या होना जाना था। किसी के जाने से जीवन ठहर तो नहीं जाता।
कल्लू मोची जिस ठीये पर बैठकर जूतांे की मरम्मत का काम करता था। उसके पास की एक गन्दा नाला था, जो चौबीसांे घन्टे बहता रहता था। नाला खुला था। इसकी बदबू पूरे शहर का वातावरण, पर्यावरण, प्रदूषण आदि से जुड़ी संस्थाआंे को रोजी-रोटी देती थी। वास्तव मंे स्वयं सेवी संस्था का मतलब खुद की सेवा करने वाली संस्था होता है। कल्लू मोची को इस नाले से बड़ा डर था। नाला आगे जाकर झील मंे गिरता था। नाले के किनारे पर खुली हवा मंे संडास की सार्वजनिक व्यवस्था थी। अक्सर मुंह अन्धरे से ही लोग-बाग इस नाले को पवित्र करने का राष्ट्रीय कर्मकाण्ड प्रारम्भ कर देते थे। नाल मंे मल, मूत्र, गन्दगी, एमसी के कपड़े आदि अनवरत गिरते बहते रहते थे। शहर के बच्चे यहां पर लगातार मल-मूत्र का विसर्जन करते रहते थे। साथ मंे हवा मंे प्राणवायु का भी संचार करते रहते थे।
सभी रात का खाया सुबह इस नाले मंे प्रवाहित करते थे। महिलाएं भी मुंह अन्धेरे इस दैनिक कर्म को निपटा देती थी। सरकारी शौचलाय नहीं था। सुलभ वाले दुर्लभ थे और सबसे बड़ी बात नाले की सुविधा निःशुल्क, निर्वाध थी, जो हर किसी को रास आती थी। नाले के और भी बहुत सारे उपयोग थे।
सुबह-सवेरे नाले के किनारे पर बड़ी भीड़ थी। कल्लू मोची, उसका जबरा कुत्ता, और सैकड़ांे की भीड़ वहां खड़ी थी। नाले के अन्दर एक कन्या भू्रण पड़ी थी। झबरे कुत्ते की बड़ी इच्छा थी कि नाले मंे कूदे और भू्रण का भक्षण करे। मगर नाले की गहराई देखकर हिम्मत नहीं हो रही थी। भीड़ तरह-तरह के कयास लगा रही थी। घोर कलियुग की घोषणा करते हुए एक पण्डितजी ने राम-राम करके सबको पुलिस को सूचना देने का आदेश दिया। मगर पुलिस के लफड़े मंे कौन पड़े।
मगर पुलिस बिना बुलाये ही आ गई। भीड़ छट गई। पुलिस ने सबसे पूछा और भू्रण को कब्जे मंे किया। पंचनामा बनाया, अस्पताल मंे भू्रण को रखवाया और एक दरोगा को इन्क्वायरी आफिसर नियुक्त कर दिया। ये सब कार्यवाही करके पुलिस ने अपनी पीठ थपथपाते हुए मीडिया को सूचित किया कि शीध्र ही ये पता लगा लिया जायेगा कि कन्या भू्रण की हत्या कब कहां कैसे हुई और हत्यारे या भू्रण के माता पिता को शीघ्र ही ढूंढ़ निकाला जायेगा।
पुलिस के अनुसार इस जघन्य अपराध के लिए किसी को भी बख्शा नहीं जायेगा। पुलिस ने जांच शुरू कर दी और सबसे पहले कल्लू मोची को ही थाणे मंे बुला भेजा।
कल्लू मोची हॉफता-कॉपता थाने पहुँचा, उसकी समझ मंे ये नहीं आया की उसका कसूर क्या है? मगर कसूरवार को थाणे मंे कौन बुलाता है। अपराधी तक तो थानेदार खुद जाता है। गरीब, असहाय निरपराधी को थाणे बुलाने का पुराना रिवाज चला आ रहा है और थानेदार की निगाह मंे घटना स्थल पर सबसे नजदीक कल्लू ही था।
थानेदार ने डण्डा दिखाते हुए पूछा,
‘क्यों बे तूने किसी को नाले मंे भू्रण फंेकते देखा था। या ये पाप साले तेरा ही है।’
‘हजूर मांई बाप है, जो चाहे कहे मगर न तो मैने किसी को भू्रण फंेकते देखा और नही ये पाप मेरा है।’
‘तेरा नही है ये तो मान लिया। क्यांेकि इस उम्र मंे तेरे से ये सब नहीं होगा। मगर तू साला मरदूद सुबह से शाम तक वहां पर रहता है तो किसी को आते-जाते देखा होगा।’
‘आते-जाते तो सैकड़ांे लोग है, आधा शहर यही पर मल-मूत्र का त्याग करता है, मगर ये भ्रूण का मामला मेरी समझ के बाहर है।’
थानेदार ने कल्लू को एक तड़ी देकर जाने का कहा और जाते-जाते कहा।
‘देख बे कल्लू कोई ऐसी वैसी बात सुनाई पड़े तो मुझे तुरन्त खबर करना। तुझे सरकारी मुखबिर बनाकर बचा लूंगा।
कालू चुपचाप अपनी किस्मत को रोता हुआ चला गया।
इधर स्थानीय पत्रकारांे, चैनल वालांे ने मीडिया मंे इस कन्या भू्रण हत्या की बात का बतंगड़ बना दिया, राई से पहाड़ का, निर्माण कर न्यूज कैपसूल सुबह पंाच बजे से निरन्तर दिखाये गये। ऐसा शानदार मसालेदार, समाचार स्थानीय चैनलांे से लेकर नेशनल चैनल तक दिखाये जाने लगे। मीडिया के अलावा स्वय सेवी संगठन, छुटभैये नेता, महिला संगठनांे के पदाधिकारी और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने हंगामा खड़ा कर दिया।
पुलिस भी कुछ कम न थी। उन्हांेने धीरे-धीरे खोजबीन करके एक वेश्या से यह कबूल करवा लिया कि भू्रण मेरा था मैंने फिकवा दिया। मगर लाख टके का सवाल ये था कि भू्रण का बाप कौन था। वेश्या से बाप का नाम उगलवाना आसान न था, मगर वो किस-किस का नाम लेती। सो कन्या भू्रण हत्या का यह मामला धीरे-धीरे अन्य मामलांे की तरह ही मर गया। दो-चार दिन समाचार पत्रांे मंे पहले पन्ने पर फिर तीसरे-चौथे पन्ने पर फिर धीरे-धीरे समाचार अपनी मौत मर गया। समाज मंे यह सब चलता ही रहता है, ऐसा सोचकर भीड़ ने अपना ध्यान अन्यत्र लगाना शुरू कर दिया, वैसे भी भीड़ की स्मरण शक्ति बड़ी कमजोर होती है।
कन्या भू्रण हत्या का मामला निपटा ही था कि कल्लू पर एक और मुसीबत आई। उसका जबरा कुत्ता कहीं भाग गया था। कल्लू ने इधर-उधर दौड़ धूप की और कुछ दिनांे के बाद झबरा कुत्ता वापस तो आया, मगर उसके साथ कुतिया भी थी। कल्लू अब घर से दो रोटियां लाने लगा। दोपहर मंे उन दोनांे को चाय पिलाने लगा और सामने वाले हलवाई के यहां सर कड़ाई मंे डाल दोनांे एक साथ डिनर करने लगे। कुतिया पेट से थी। उसने अपने पिल्लांे की भू्रण हत्या नहीं करके उन्हंे जन्म दिया।
कल्लू के ठीये के पास के पेड़ के नीचे कुतिया अपने पिल्लांे को दूध पिलाती, चाटती, उनसे खेलती, खुश रहती, मगर नगरपालिका वालांे से यह सुख देखा नहीं गया वे कुतिया और उसके पिल्लांे को पकड़कर ले गये और जंगल मंे छोड़ आये। कल्लू का जबरा कुत्ता फिर अकेला हो गया।
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