Alcoholic Autobiography (satire) in Hindi Short Stories by Alok Mishra books and stories PDF | शराबी की आत्मकथा (व्यंग्य)

Featured Books
  • You Are My Choice - 35

    "सर..."  राखी ने रॉनित को रोका। "ही इस माई ब्रदर।""ओह।" रॉनि...

  • सनातन - 3

    ...मैं दिखने में प्रौढ़ और वेशभूषा से पंडित किस्म का आदमी हूँ...

  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

Categories
Share

शराबी की आत्मकथा (व्यंग्य)



शराबी की आत्मकथा




हाँ मैं शराबी हूँ। लेकिन आप ये भी तो सोचो कि कोई आदमी जन्म से शराबी नहीं होता। बस मैं भी जन्म से शराबी तो था नहीं, बस बनते-बनते बन गया। आपने अनेकों महान लोगों की आत्मकथाएँ पढ़ी होंगी, लेकिन कभी किसी शराबी की आत्मकथा पढ़ी क्या ? आपकों ये बिलकुल नहीं मालुम हो पाया है कि कोई शराबी, शराबी बने रहने के लिए कितनी परेशानियाँ झेलता। आप यह भी नहीं जानते कि कोई शराबी किन हालातों में जीता है और कब मर जाता है। आज मैं अपनी आत्मकथा लिख कर आपको यह बताने का प्रयास करूँगा कि हम शराबी सही लेकिन इंसान हैं। ये और बात है कि नशें में कभी-कभी अलग दिखने लगते हैं।

मेरा मानना है दुनिया में पाँच प्रतिशत लोग हैं जिन्होंने ‘‘मय नहीं चखी।’’ हाँ तो मेरे पंच्चानबे प्रतिशत शराबी दोस्तों। ये कहानी अक्सर जवानी के साथ ही प्रारम्भ होती है। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। किसी महफिल में कुछ वरिष्ठ शराबियों के साथ बैठ कर उनके आग्रह पर मैंने पहली बार थोड़ी-सी चखी। अजीब कसैला-सा स्वाद, गले को तेजाब सी चीरती हुई और बदबू से भरा मुंह। कुछ देर में दिमाग साथ छोड़ने लगा। आवाज और चाल बदलने लगी। ऐसा लगने लगा कि शरीर पर मेरा बस ही न हो। फिर दो चार बार लोगों ने मुफ्त में पिला दी, तो हमने भी मुफ्त का माल समझ के डकार लिया। धीरे-धीरे शराब के नाम से मुंह में लार आने लगी, फिर हमें महफिलों की दरकार न रही। हमारा सबसे बड़ा दोस्त, रिश्तेदार था, साथी था तो बस जाम। कहीं कोई मर जाय, कोई जलसा हो या अकेलापन हमें तो बस पीना होता था। हम खुशी में पीने लगे, गम में पीने लगे, बेगम के होने पर भी पीने लगे और बेगम के मायके में होने पर भी पीने लगे। अब हमने जीना कम कर दिया क्योंकि पीना बढ़ा दिया। काम पर जाते तो पीके, घर पर जाते तो पीके और बाहर कहीं जाते तो भी पीके।

अब आप लोग हमें शराबी कहने लगे। हमें आपके इस फतबे से कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारा मानना है दुनियाँ एक नशा है हर कोई उसमें अपने-अपने तरीके से मदहोश है। हमने आपसे थोड़ा अलग तरीका चुना। अब हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या थी शराबी बने रहना। क्योंकि सारा जमाना हमें शराब छोड़ने की हिदायत देने लगा। हमारे घर वाले हमें एक दिन नशा मुक्ति केन्द्र ले गए। वहाँ जो सज्जन सलाह देने बैठे थे वे अक्सर हमें मयखानो में मिलते थे। उन्होंने हमें चुप रहने का इशारा किया। हम भी उनकी इज्जत के लिए चुप रहे। दवा से न फायदा होना था न हुआ। अब आजकल हर समस्या के साथ अर्थशास्त्र जुड़ा होता है। यही समस्या हमारे शराबी बने रहने में बाधक साबित हो रही थी। पैसों की कमी के चलते हम घटिया वाली पीने लगे लेकिन फिर उसके लिए भी पैसे कम पड़ते। अब हम अपने यार और दोस्तों से दस और बीस रूपये, पत्नि की बीमारी या दवाई या जेब कट गई जैसे बहानों से मांग कर अपने शराबी बने रहने के संकल्प पर डटे रहते। धीरे-धीरे लोगों ने पैसे देना बंद कर दिया। अक्सर लोग हमें देख कर अनदेखा करते हुये निकल जाते। हमसे अब कोई मयखाना नहीं बचा जहाँ हमने उधार न किया हो। जहाँ तगादा ज्यादा होता हम उस तरफ कुछ दिन नहीं जाते। भला हो चुुनाव का कुछ दिन ही सही सभी नेताओं ने हम जैसे लोगों को ये सोचकर सहारा दिया कि हम उन्हें सहारा देंगे। चुनाव के बाद फिर वही ये दुकान, वो दुकान ये भट्टी वो भट्टी।

इस दौरान हमने अपने दो प्लाॅट और कुछ जेवर केवल शराबी बने रहने पर कुर्बान कर दिये। अब पत्नि भी अक्सर मायके में ही रहने लगी है। अब पैसों के लिए केवल ये घर है जिसे बेचा जा सकता है लेकिन मेरी बेवकूफ पत्नि मेरे त्याग को नहीं समझती है। मुझे आश्चर्य होता है कि जब सरकार को यह मालूम है कि शराब कितनी महत्वपूर्ण है तो इसे मुफ्त में क्यों नहीं बांटती। हम शराबीयों का कोई यूनियन भी नहीं है जो हमारे हित की आवाज उठा सके। सच्चाई तो ये है ना कि आप में से अधिकांश लोग चोरी-चोरी शराबी हैं। अब आप खुलकर शराबीयों के अधिकारों के लिए तो बोलने से रहे।

अब हम इस हालत में पहुँच चुके हैं कि सुबह का कुल्ला भी शराब से होने लगा। यूं कहें कि अब हम पीकर होश में आते थे। आप ऐसा भी समझ सकते हैं कि हमारी जिंदगी उस बोतल में ही थी। कभी हम देर सबेर घर पहुँच जाते, कभी किसी भट्टी या नाली में पडे़ आराम फरमा रहे होते। कभी हाथ में चोट, कभी पैर में और कभी सिर पर, परन्तु हमें यह मालूम भी नहीं होता कि ये चोट आई कैसे। हमें ये याद नहीं था कि हमारा कौनसा बच्चा कौन-सी क्लास में है। लेकिन ये मालूम था कि कौन-सा ब्रांड कितने का है। अब पुराने दोस्तों का साथ छुट चुका था। ये जो दोस्त आस-पास थे वे सब मेरे ही जैसे थे। अक्सर हफ्ते दो हफ्ते में उनमें से एक-दो के अल्लाह को प्यारे होने की खबर आती। कई मर गए लेकिन मयखाने पहले से अधिक भरते गए।

आज जब मैं ये आत्मकथा लिख रहा हूँ तो अस्पताल के बिस्तर पर अपनी अंतिम सांसे गिन रहा हूं। लोग कहते हैं मैं शराब के कारण मर रहा हूँ। मेरे कई दोस्त इसी प्रकार दम तोड़ चुकेे हैं। चूंकि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूँ इसलिए ये कैसे स्वीकार लूँ कि मैंने अपना जीवन बर्बाद कर दिया। मैं तो यहीं कहुँगा कि मैंने अपना जीवन शराब की राह में कुर्बान कर दिया। एक बात आपसे भी कहनी थी, ये शराब अभी और कुर्बानी चाहती है। अभी बहुत से सूरमा इसकी राह में कुर्बान होने को तैयार हैं। कुछ युवा अभी तैयार हो रहे हैं। क्या आप भी अपनी कुर्बानी देना चाहते हैं ?

इस संक्षिप्त आत्मकथा का अंत में हम शराबीयों की गीता की कुछ इन पंक्तियों से करना उचित समझता हूँ-( सभार मधुशाला हरिवंश राय बच्चन)

मेरे शव पर वह रोए वो

जिसके आँसू में हाला,

आह भरे वह, जो हो सुरभित

मदिरा पीकर मतवाला।

दे मुझको वे कंधा जिनके

पद मद-डगमग करते हों,

और जलूँ उस ठौर, जहाँ पर

कभी रही हो मधुशाला।





आलोक मिश्रा mishraalokok@gmail.com