रत्ना दीप जलाती है एक महाकाव्य
पुस्तक रू रत्ना दीप जलाती है ।
रचनाकार- राजवीर खुराना
समीक्षक - रामगोपाल भावुक
मूल्य- 120.
पृष्ठ- 80
प्रकाशक- पराग बुक्स दिल्ली. 92
समाज में नारी की स्थिति से व्यथित रचनाकार राजवीर खुराना ने अन्तस में पल रही पीड़ा को व्यक्त करने के लिये महाकवि तुलसी की धर्मपत्नी रत्नावली के जीवन को आधार मानकर जो अनुभूतियाँ व्यक्त की हैं वे पाठक के हृदय को उद्वेलित करने में समर्थ हैं। कवि ने नारी हृदय की पीड़ा को गहराई से अत्मसात किया है। तभी वे इस विषय पर कलम चलाने में समर्थ रहे हैं। लगता है रत्नावली आज भी अपने अस्तित्व की तलाश में भटक रही है।
खुराना जी की रत्नावली परित्यक्ता होने के साथ-साथ स्वाभिमान से जीने की राह खोजती दिखाई देती है। इससे मानवीय प्रवृतियों का यह लेखा-जोखा भी बन गया है।
काव्य में सम्वाद शैली बनाये रखना बहुत ही कठिन कार्य है जिसमें खुराना जी सफल रहे हैं। प्रथम सर्ग में रत्ना की काकी के पूछने पर वह उसे साफ-साफ बतला देती है।
धर्म और पौरुष, दोनों पलड़े, हक में किसके जैसे प्रश्न उठाने में रत्ना यहीं डराती है।
बन बैरागी तुलसी जाते
धर्म उन्हें दिखलाता है।
धर्म इसे कह सकते कैसे
रत्ना विन्दु उठाती है।
इसी सर्ग में तुलसी और कबीर के तुलनात्मक चिन्तन की बात भी उठा दी है जिससे पाठक सत्य की खोज में उसमें पूरी तरह डूब जाता है। वे कहतीं हैं।-
फर्ज छोड़कर भागने वाले रण नहीं जीत पाते हैं। इसके दूसरे सर्ग में-
त्ुालसी समझ न पाते इसको
रत्ना समझ न पाती है।
इससे कथा का प्रवाह आगे बढ़ने लगता है। राजापुर के मन्दिर में कही जाने वाली कथा, तुलसी की प्रतिभा के गुणगान की चर्चा कर मानव मनोवृतियों के द्वन्द्व की कहानी कह जाते हैं।
तुलसी की माँ हुलसी की यादों के साथ-साथ तुलसी के कवि सृजक होने की बातें जब रत्ना के पिताजी करते है तो वह उनपर गर्व महसूस करती है। दोनों के लग्न में बाँधने की बात, प्रेम और वासना में द्वन्द्व, उसे व्यक्ति का पशुबत व्यवहार पसन्द नहीं है।
इसी सर्ग में तुलसी और रत्ना के मध्य वार्तालाप, सखियों द्वारा लजाये जाने की बात, तुलसी का चोरी- छुपे ससुराल आना, यह रत्ना को नहीं सुहाता है। जब तुलसी घर आकर बक्सा देखते हैं तो उन्हें ज्ञात हो जाता है कि रत्ना मायके चली गई है। वे उसी क्षण ससुराल के लिये चल देते हैं। नदी चढ़ी है। वे अर्थी पकड़कर नदी पार कर जाते हैं।
यहाँ कवि यह नहीं सोच पाता कि क्या यह समन्वय सम्भव है। कवि इस किवदन्ती को जैसा का तैसा स्वीकार कर लेता है। इसमें यथार्थ की परख नहीं करता।
हाड़मांस की बात रत्ना के मुँह से निकलना, आदि बातों से पाठक का मन बँधा रहता है।
तृतीय सर्ग में-
बना नयन जल तेल यहाँ है।
रत्ना दीप जलाती है।
राह भूलते स्वामी हैं तो
बढ़कर राह दिखाती है।
और इसी राह दिखाने में यह हादसा। लाज-शर्म के मारे मुँह से जो शब्द निकले उससे उसकी जिन्दगी जहाँ की तहाँ खड़ी रह जाती है।
चौथे सर्ग में-
दिल में ना अब हार जीत की,
रत्ना चाह जगाती है।
इस सर्ग में कडवी विष सी बातों को रत्ना जीवन भर पचाने में लगी रही। दिन में पूजा-पाठ, रात की तड़प और इसके अन्तिम छन्द में पीहर से अपने घर चलने की तैयारी दिखाई देने लगती है।
पंचम सर्ग में-नयन नीर से मन बगिया में
रत्ना सुमन खिलाती है।
जीवन नैया के लिये दोनों पक्षों की आवश्यकता है। यही सोचकर राम नाम की माला के सहारे दीप तुम्हारे भी हिस्से के, रत्ना यहाँ जलाती है। इसी क्रम में वह अपना सारा जीवन व्यतीत करती है। चूल्हा जलाते समय, भोजन करते समय, सोते समय, उठते समय, हर पल उन्हीं की यादों में खोईं रहती हैं।
छठवे सर्ग में- जीवन गाड़ी छोड़ भगे तुम
रत्ना यहाँ डराती है।
धीरज के समय पर्वत सी खड़ी दिखी और अधीर होने पर आँसुओं को रोक नहीं पाती है। पदक्रम-4 में लग्न की बात पुनः उठाई है। यह पुनरावृति है किन्तु नये कथ्य को लेकर बात आगे बढ़ती है। पूर्ण न तुम हो, पूर्ण न मैं हूँ। वह ऐसी ही सोच में आगे बढ़ती रहती है- प्रेम गंध है प्रेम हवा है
प्रेम जगत की साँसें हैं।
प्रेम प्यार से ऊपर कुछ ना
रत्ना मनन जगाती है।
नारीहठ होने जैसी मनोवृतियों का सार्थक चित्र मन को अच्छा लगता है।
सप्तम् सर्ग में - ‘रत्ना हार मनाती है।’ स्वामी की चित्रकूट में उपस्थिति की बात जब कान में सुन पड़ती है तो वह चित्रकूट जाने की तैयारी करने लगतीं हैं।
चित्रकूट में तुलसी सभी को तिलक लगा रहे है, रत्ना भी उसी पक्ंित में लग जाती है। वे तिलक लगाकर सभी को आगे बढ़ा रहे हैं। वह सोचतीं हैं कंही मुझे भी इसी तरह न सरका दें। वह यह सोचकर घबरा जातीं हैं। ऐसे प्रसंगों के साथ चित्रकूट का मनोरम वर्णन कवि का श्रेष्ठ प्रयास है।
अष्टम सर्ग में- कवि घटनाओं को जल्दवाजी में पूरा करता दिखाई देता है- चित्रकूट में तिलक करें तो
काशी मंच सजाती है।
रामचरित मानस की रचना
होती जान अयोध्या में
खवर सरक कर कानों-कानों
रत्ना तक आ जाती है।
रत्ना की काशी यात्रा में मानस के प्रसंगों की चर्चा। उनका काशी से दुःखी होकर वापस लौट कर आना।
इस कृति का अन्तिम सर्ग नौ है। यहाँ तक आते आते रत्ना निडर हो जाती है। उसे अब किसी बात का डर नहीं रहता। यों रत्ना का सारा जीवन रोते-रोते ही कटा है। इसके वाबजूद भी वह सत्य की राह पर चलती रही। इसमें बचपन की यादों से लेकर उनके बुढापे में शरीर के क्षीण होने तक की बातें और साधना में लगे रहने से समय आनन्द में व्यतीत हो जाता है।
जीवन की अन्तिम घड़ी का वर्णन अनहद नाद ऊँ..... ऊँ..... की गूँज में प्राण निकलना, उनके पंचतत्व में विलीन होने तक की कथा कवि सहजता से कह जाता है।
कृतिकार ने इसका गीत संग्रह नाम दिया है। इसकी कथा तो रत्नावली कें समग्र जीवन की कथा है। जिसे कवि ने सफलतापूर्वक कही है। इस कारण मेरी दृष्टि से इसे महाकाव्य का नाम दिया होता तो श्रेष्ठ होता । इसमें महाकाव्य के अधिकांश लक्षण भी हैं। फिर किस संकोच में इसे गीत संग्रह का नाम दिया है।
ऐसे कथानक से सजी-सँवरी कृति के लिये कवि वधाई का पात्र है।
रामगोपाल भावुक
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पता- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा
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