Trikhandita - 18 in Hindi Women Focused by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | त्रिखंडिता - 18

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त्रिखंडिता - 18

त्रिखंडिता

18

सम्राट सारी जिंदगी उसे, उसके हर काम और बात को, उसके सोचने और उसके हर व्यवहार को गलत ही तो सिद्ध करता रहा है | वह बहुत स्वतंत्र है, बहुत डामिनेटिंग है, यह है, वह है | पता नहीं गलत कौन है वह या सम्राट | जो भी हो, इतने वर्षों तक गलत होने के अपराध बोध को उसने किसी न किसी स्तर पर हर दिन ही झेला है और अब उसके बेटे पिता की ही तरह उसी को गलत और अपराधी सिद्ध करने पर तुले हुए हैं और शायद सारी जिंदगी उसे ही गलत सिद्ध करते रहेंगे | उन्हें जब भी वह देखती है, सम्राट सामने आ खड़ा होता है | कितना मिलते हैं वे उससे | वह सोचती है कुदरत का यह कैसा चमत्कार है कि एक आदमी एक छोटे से अणु में अपना चेहरा- मोहरा, आदत-स्वभाव, संस्कार सब कुछ अपने बच्चों में सरका देता है |

श्यामा जब अपनी माँ के विषय में सोचती है तो भी क्रोध, प्रेम, दया, थोड़ी सी नफरत जैसे भावों से एक साथ जूझती है। वह जानती है कि माँ उसे पसंद नहीं करती। इसकी शुरूवात उसके जनम के बाद ही हो गई थी। माँ को पहली बेटी के बाद बेटा चाहिए था, पर वह बेटी हो गई, जिसके कारण माँ को नानी और पति की नजरों से गिरना पड़ा। माँ को इस बात से नन्हीं बच्ची पर गुस्सा आया और उसने बड़ी ही उपेक्षा से पाला जैसे सारा दोष बच्ची का हो। बड़ी होने के बाद भी उसे बच्ची में सिर्फ कमियाँ ही कमियाँ नजर आतीं। उसका रूप-रंग, स्वभाव, कार्य कुछ भी उसे पसंद नहीं था, इसलिए हर बात पर उसे झिड़कती रहती। गाली और मार तो जैसे नन्हीं बच्ची का नसीब बन गया। उसके बाद भाई हो गया तो वह और उपेक्षित हो गई। फिर तो एक-एक कर छह भाई-बहन और हो गए। माँ का प्यार बँट गया। उसे याद नहीं आता है कि कब माँ ने उसे गले लगाया या दुलराया या उसका पक्ष लिया। भाई-बहनों से लड़ाई हो या गाँव.मोहल्ले के बच्चों से, दोषी वही ठहराई जाती। निर्दोष होने पर भी सजा उसी को दी जाती । उसकी जरा -सी गलती पर हंगामा खड़ा हो जाता। बच्ची एंकात में रोती-बिलखती -तड़पती और फिर कल्पनाओं की हसीन दुनिया की सृष्टि कर उसी में खो जाती। कल्पना में सफेद घोड़ों पर सवार एक राजकुमार आता और उसे इस नफरत की दुनिया से दूर प्यार की दुनिया में ले जाता। कल्पना की दुनिया में जीने के कारण वह आदर्शवादी होती गई। यथार्थ की दुनिया उसे बेरंग लगती। अपने-आप में खोये रहना, खुद से बातें करना उसे अच्छा लगता। धीरे-धीरे वह आत्म केन्द्रित होती गई। जरूरत से ज्यादा भावुकता व असुरक्षा बोध भी उसमें पनप गया, जिसके कारण उसमें आत्मविश्वास की कमी थी। हमेशा गलत ठहराए जाने के कारण वह आत्मपीड़क बनती गई। दोष किसी का हो, वह अपनी गलती ढ़ूॅढ़ने लग जाती। यह कमी उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गया और परिपक्व उम्र में भी वह इसका खमियाजा़ भुगतती है। उम्र से साथ वह बढ़ नहीं पाई। वह उपेक्षित बच्ची उसमें हमेशा जिन्दा रही।कम पढ़ी-लिखी होने के कारण माँ उसका मनोविज्ञान नहीं समझ सकी। ना समझने की जरूरत ही महसूस की। अब उसे लगता है कि इसमें माँ का कोई दोष नहीं। वह जिस समाज व संस्कार में पली थी, उसमें लड़की का अपना कोई मन ही नहीं माना जाता था, तो फिर विज्ञान कैसा ? वह भी तो माँ के मनोविज्ञान को अब समझ पा रही है। एक दबाई गई्, उपेक्षित स्त्री विरासत में बेटी को वही दे रही थी, तो यह उसका अज्ञान ही था, ज्यादती नहीं। पर माँ आज भी उसे नहीं समझ रही। उसे नमक हराम कहती है क्योंकि उसे लगता है कि बेटी को पढ़ाया-लिखाया, शादी-ब्याह किया। उसके दो बच्चों को कई वर्षों तक पाला, फिर भी बेटी कहती है-कुछ नहीं किया। अब माँ को कोई कैसे समझाए कि पढ़ना-लिखना लड़की का भी अधिकार है। रही शादी तो लड़की का बाल-विवाह करना उचित नहीं था। जब किशोर दामाद को चुनेंगी, तो वह बेरोजगार ही होगा और बेरोजगार से बेटी ब्याहने पर उनके बच्चों को पालने की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर आएगी। उसमें बेटी के भाग्य का क्या दोष, जिसका हवाला वे देती हैं ।माँ की जिद, अज्ञान व अभिमान ने उसकी जिंदगी को तबाह कर डाला था। उसे ठीक से पढ़ने नहीं दिया। रो-गाकर ही किसी तरह पढ़ पाई। शादी नहीं करना चाहती थी तो दबाव डालकर कच्ची उम्र में किशोर से ब्याह दिया और फिर उसके भाग्य को कोसती रही कि दामाद लड़की को घर नहीं ले जाता। वह शादी करके भी उऋण नहीं हुई। शादी के ग्यारह साल बाद भी जब दामाद आत्मनिर्भर नहीं हुआ, तो बेटी को उसके दो बच्चों के साथ पालती माँ बौखला उठी और रात-दिन बेटी के भाग्य को कोसने में लग गई। बेटी ने फिर से पढ़ाई करने की ठानी, ताकि खुद धन कमा सके तो मान गई | पर बच्चों को उनके पिता के साथ बिना बेटी से पूछे भेज दिया। यह भी नहीं सोचा कि उसकी बेटी बिना अपने बच्चों के कैसे जिएगी ! दामाद बच्चे भी ले गया। बदले की भावना से भर दूसरी शादी भी कर ली। अब बेटी अकेली रह गई तो माँ ने कहा-सारा दोष बेटी का है। वह किसी से निभा नहीं सकती। दुःखी बेटी ने माँ का घर भी छोड़ा और कड़ा संघर्ष कर अपने पैरों पर खड़ी हो गई, तो माँ ने चाहा कि वह सादा जीवन अपना ले और सारा पैसा उनके बेटों को दे। पर बेटी सँभल चुकी थी। वह तटस्थ हो गई, तो माँ ने उस पर एक ठप्पा चिपका दिया.नमक हराम।

चीजें इतनी तेजी से बदल रहीं थी कि श्यामा अचकचा कर रह गई थी। उसका चेहरा जो कभी भी अपनी माँ-सा नहीं था, माँ की तरह दिखने लगा था। अपने हाव-भाव, बोल-चाल सभी में वह माँ को पा रही थी। क्या एक उम्र के बाद सभी बेटियाँ माँ की प्रतिरूप हो जाती हैं ? माँ की तरह उसकी आवाज भी भारी हो चली थी। स्वभाव भी उसी की तरह होता चला जा रहा था, बस अंतर था तो यह माँ की तरह किसी बात पर एकदम से आपा नहीं खो देती थी। वह चीजों को समझकर प्रतिक्रिया व्यक्त करती थी। शायद यह उच्च शिक्षित होने के कारण था। माँ कक्षा पाँच तक पढ़ी एक घरेलू स्त्री थी। दुःख दोनों ने ही अपार झेले थे, पर दुःख का स्वरूप अलग था| सहने की प्रतिक्रिया भी। पिता जी सीधे-सादे, सच्चे पर अव्यवहारिक व्यक्ति थे, इसलिए माँ पर ही सारी गृहस्थी, घर-बाहर की जिम्मेदारियाँ थीं। यहाँ तक कि पिता बीमार होने पर स्वयं अस्पताल नहीं जाते थे| माँ ही उन्हें रिक्शे पर जबरन ले जाती थी। अकेले सब कुछ करने-झेलने के कारण माँ ने बदनामी भी झेली। वह बहुत सुंदर थी, इसलिए वह जिस भी पुरूष से बात करती, लोग गलत ही अर्थ लगाते। नौ बच्चों की परवरिश के साथ जिसे पति को भी सॅभालना पड़ता हो, उस स्त्री को साम-दाम-दण्ड-भेद का सहारा तो लेना ही पड़ता है। नहीं ले तो काम कैसे चले? पिता बस कमाकर खर्चा दे देते थे, वह भी जरूरत भर का। माँ बताती है कि जब उनका होटल खूब चल रहा था। वे अण्डरवियर के नाड़े में गल्ले की चाभी बाँधकर घूमते थे, पर माँ भी कम न थी, जब वे बाजार चले जाते तो नौकर जो भी बेचते, सारा पैसा खुद ले लेती। बंद गल्ले से भी पतली तीली के सहारे रूपए निकाल लेती। इन रूपयों का उपयोग वह बच्चों की अन्य जरूरतों के लिए करती। पिता जी खाने-खर्चे के अलावा कुछ देना नहीं चाहते। तीज-त्योहार पर कपड़े की थान खरीदकर सारे बच्चों के लिए एक-सा कपड़ा सिलवा देते। बच्चों की स्कूल की फीस तक उन्हें खलती थी। गनीमत था कि उस समय के बच्चों की महत्वाकांक्षाएँ आजकल के बच्चों की तरह नहीं थीं ।मँहगे कपड़ों, खिलौनों और फास्ट फूड की तरफ वे भागते नहीं थे। उनकी जरूरतें सीमित थी या फिर वे अपनी सीमा समझते थे। श्यामा को याद है कि बचपन में उसे कपड़े से बनी गुड़िया, गोटियाँ, गोलियाँ ही खेलने को मिली। सभी भाई-बहन मिलकर इकट्ट -दुकट्ट, आइस-पाइस, चोर-सिपाही जैसे खेल खेलते थे। लड़के-लड़कियों के खेल में ज्यादा अंतर नहीं होता था। लंड़के भी गोटियाँ खेलते और लड़कियाँ भी कबड्डी, खो-खो और गोलियाँ। वह तो ज्यादातर लड़कों के साथ ही रहती और खेलती थी, जिसके कारण उसे अक्सर पिता से डाँट और मार मिलती। पेड़ों पर चढ़ना और कच्चे-पक्के फल तोड़ना उसका शगल था। देह से दुबली -पतली कमजोर होने के कारण खेल में वह कभी-कभी हार जाती, बच्चे चिढ़ाते तो वह उन्हें लड़कों की तरह ही गालियाँ देती। वे मारते तो दाँत काटकर भाग जाती। लड़कियों की तरह घर-गृहस्थी के कामों, यहाँ तक कि सजने-सॅंवरने का भी उसे शौक ना था। हाँ, पढ़़ाई में वह हमेशा अव्वल रहती थी।

पिता जी का व्यवहार उसके साथ सौतेला था, इसलिए वह दुरदुराने के बाद भी माँ से ज्यादा जुड़ी थी। उसे अच्छा नहीं लगता था कि पिता माँ को मादा समझे। माँ बच्चे पैदा करने की मशीन बने, यह वह नहीं चाहती थी, पर उसका क्या वश । एक तो वह छोटी थी, दूसरे लड़की। पिता को उसका पढ़ना-लिखना भी पसंद नहीं था। रात के आठ बजे के बाद ढ़िबरी या लालटेन जलाकर उसे पढ़ते देख वे गुस्से से भर जाते। उनका दाँत पीसकर गुस्से से चिल्लाना वह आज भी नहीं भूल पाई है। आज जब भाई गुस्से में दाँत पीसता है तो पिता जी मानों जीवंत हो उठते हैं । आठ बजते ही पिता जी खाना खाकर सोने के लिए कमरे में चले जाते, जहाँ बिस्तर पर उन्हें माँ मिलनी ही मिलनी चाहिए। एक कमरे और बारांडे वाले घर में लड़के गर्मियों में छत पर सोते, लड़कियाँ बरांडे में। बरांडे में रोशनी रहने पर पिताजी की निद्रा बाधित होती, इसलिए वह उससे और भी नाराज होते। मजबूर होकर श्यामा प्रातः चार बजे उठकर छत की सीढ़ियों पर बैठकर पढ़ती।

आज वह अपने विद्यार्थियों के समझाती है कि आपलोगों को कितनी सुविधाएँ, संसाधन प्राप्त हैं। माता-पिता सबका कितना सहयोग है। फिर भी आप लोगों का मन पढ़ाई में नहीं है। सोचिए हमारी पीढ़ी ने पढने के लिए कितनी मुश्किलें झेली हैं। वह जब अपनी कहानी बताती है तो बच्चे आश्चर्यचकित रह जाते हैं और उसका और ज्यादा सम्मान करने लगते हैं।

सचमुच पढ़ाई के लिए कितना कुछ उसे सहना पड़ा। हाईस्कूल के बाद तो माँ ने भी साथ देना बंद कर दिया था। जल्दी शादी कर दी फिर पति पढ़ाई के विरूद्ध हो गया। फिर एक के बाद एक दो बच्चे। दो बच्चों के साथ घोर अभावों से जूझते हुए भी उसने पोस्ट ग्रैजुएशन किया। जिसके दण्ड स्वरूप पति ने बच्चे छीन लिए और उसे अकेले तड़पने के लिए छोड़ कर दूसरी शादी कर ली। क्या पढ़ने की चाह रखना पाप था ? अपराध था ?अब उम्र के तीसरे पहर में बच्चे लौटे हैं तो उसकी व्यस्तता इतनी बढ़ गई है कि उसे अपने लिए समय ही नहीं मिल पा रहा है| उनके मन में जड़ जमा चुके पूर्वाग्रहों को निकालने में खासा समय जाया हो रहा है । फिर भी वे अक्सर उसके दिल को दुखाने वाली बातें कह ही देते हैं। जवान बेटों के आ जाने के बाद से ही वह अपनी माँ -सी दिखने लगी है। अब तक वह अकेली थी। अब बेटों का आना-जाना शुरू होने से चीजें बदल रही हैं। हाँलाकि वे साथ नहीं रहते, ना साथ रहने की इजाजत उनके पिता दे रहे हैं, पर अब वह दूरी नहीं रही कि वह बच्चों को देख भी ना सके, बातें करना तो दूर।

पर बेटे उससे मन नहीं जुड़ पा रहे हैं | जुड़ना चाहते भी है तो पिता का डर उन पर हॉवी हो जाता है। यह डर पितृ सम्मान का है। वे उस पिता की बात नहीं टालना चाहते है, जिसने उन्हें पाल-पोष कर बड़ा किया । यह बेटों की नैतिकता ही है, वरना आजकल के बच्चों में यह संस्कार तेजी से लुप्त हुआ है। पर माँ के प्रति भी तो उनका कोई फर्ज है! अब जबकि सच्चाई खुल चुकी है कि उसने उन्हें नहीं त्यागा था, वरन वे जबरन अलगा दिए गए थे, क्या उन्हें उससे जुड़ना नहीं चाहिए? इतने दिन वह किस भयावह अकेलेपन से गुजरी है, इसको क्या महसूस नहीं करना चाहिए? वे उसे अपने घर बार-बार आने को कहते हैं, पर अपने परिवार को नहीं लाते। खुद कभी-कभार गेस्ट की तरह आते हैं, बेटे की तरह नहीं। उसकी जरूरतें, उसकी परेशानियाँ, उसके अभाव नहीं समझते। वह अपनी जरूरतों के लिए दूसरों पर निर्भर रहती है। इस उम्र में भी अकेले ही घर-बाहर की समस्याओं से जूझती है। वह भी उनके अपने ही शहर में कुछ ही दूरी पर रहते हुए। क्या यह सब अजीब नहीं? कभी-कभी उसे लगता है कि बेटों के प्रति उसका प्रेम एकतरफा है। उनके दिल में उसके लिए जगह नहीं। अपने पत्नी-बच्चे, ससुरालियों और पिता और दूसरी पत्नी के प्रति वे जो जिम्मेदारी महसूस करते है, वह उसके प्रति नहीं। तो क्या उसे भी अपना मन कड़ा कर लेना चाहिए ? क्या वह ऐसा कर पायेगी? माँ होने की यह भी एक सजा है। तो क्या सदियों से माँ के साथ ऐसा होता रहा है ? या फिर व्यक्ति माँ होना ही उसका अपराध है? क्या पढ़े-लिखे बेटे भी माँ के पारम्परिक रूप;जो सिर्फ दात्री का है, को ही पसंद करते हैं ? क्या माँ का स्वतंत्र व्यक्तित्व उन्हें खलता है? सादी साड़ी में लिपटी, रंग-रोगन से कोसो दूर, मदर टेरेसा -सी माँ मूर्ति ही उन्हें पसन्द है। तो क्या अब बेटों के कारण वर्षों की तपस्या के बाद निर्मित सुदृढ़ व्यक्तित्व को तोड़ना होगा? देशी माँ का मुखौटा पहनना होगा? निरीह, बेचारी, दयनीय बूढ़ी माँ का मुखौटा। नहीं वह ऐसा रूप कभी धारण नहीं करेगी। कभी नहीं।

श्यामा जब अपने पिता के बारे में सोचती है तो महात्मा गाँधी की शक्ल सामने आ जाती है। बुढ़ापे में पिता जी लगभग उन्हीं की तरह लगते थे। खल्वाट सिर, लम्बी नासिका, छोटी आँखें, पतले होंठ और लम्बा दुबला-पतला शरीर। पर वे बड़े गुस्से वाले थे| बहुत कम हँसते-मुस्कुराते थे।उनकी विचारधारा पुरानी थी। लड़कियों को पढ़ाने के पक्ष में वे बिल्कुल नहीं थे। कहते--लोटा -थाली देकर पाँव पूज देंगे। पर माँ के समझाने पर श्यामा को हाईस्कूल तक पढ़ने की इजाजत मिल गई। पर जब उसने आगे पढ़ना चाहा तो नाराज हो गए। उनके अनुसार ज्यादा पढ़ने पर लड़कियाँ बिगड़ जाती है। उनके गुस्से की सबसे ज्यादा शिकार वही हुई। उसके पैदा होने पर वे उसे देखने अस्पताल तक नहीं आए कि लड़की है। बड़े होने पर जब गॉव-मोहल्लों से उसकी शरारतों की शिकायत होती तो वे छड़ी उठा लेते थे। श्यामा की लड़कों जैसी हरकतों से उन्हें चिढ़ थी वह या तो पेड़ों पर होती या फिर गोटी-कबड्डी के खेल में। घर में रहती, तो हर वक्त किताबों में डूबी रहती। बाबूजी को आम लड़कियों से अलग उसकी आदतें बिल्कुल नहीं भाती थी। उनके हाथ जो भी आता, उसी को चलाकर मारते। माँ से उन्हें मोह की हद तक प्रेम था। उसके आगे बच्चों की कोई पूछ नहीं थी। माँ जो कह दे, वही सही था। माँ के कहने पर वे उसे डाँटते-मारते और कलूठी कहकर जलील करते। अक्सर कहते कि यह मेरी बेटी नहीं है अस्पताल में बदल दी गई है। हाँलाकि पिता की लम्बाई व नाक-नक्श उसने ही पाया था। बस अंतर था तो यह कि पिताजी अंग्रेजों की तरह गोरे थे और वह सॉंवली । पिता से वह ज्यादा नहीं जुड़ पाई। उनका गम्भीर स्वभाव उसके हँसमुख स्वभाव से बिल्कुल अलग था, पर वही पिताजी जब भीषण रूप से बीमार पड़े तब वह उसके काफी करीब हो गए। शुगर लास्ट स्टेज पर था, तब उनकी बीमारी का पता चला। उस समय शुगर का इलाज इतना सुलभ नहीं था | उसके लिए बड़े शहर जाना पड़ता था। आर्थिक स्थिति डांवडोल थी। नौ बच्चों व माता-पिता का खर्चा चाय-मिठाई की छोटी दुकान से चल रहा था ।पिता जब बिस्तर से जा लगे, तो छोटे भाई ने दुकान सॅंभाला। बाकी मिल-जुलकर उसका सहयोग करने लगे। पिता जी का बेहतर इलाज नहीं हुआ | उनकी हालत बिगड़ती गई। उनको बेडसोर हो गया। उनकी पीठ से भयंकर बदबू आती। कोई भी भाई-बहन उनके पास नहीं फटकता था, पर वह अक्सर कॉलेज से लौटकर पिता के पास बैठती। वे उससे अपने बचपन की बातें बतातें। कहानियाँ सुनाते। सबसे अच्छी तो उनकी अपनी कहानी लगती। ग्रामीण परिवेश का एक बालक मात्र दस वर्ष की उम्र में ब्याह हो जाने व अपने से बड़ी पत्नी की माँगों से परेशान होकर दक्षिण भारत की तरफ भाग जाता है। वहाँ एक होटल में नौकरी करता है और खूब तोहफे लेकर अपने घर वापस आता है, पर वहाँ सब कुछ बदल चुका है। पत्नी ने दूसरा घर कर लिया है। उदास होकर लड़का वापस नौकरी पर चला जाता है। कई वर्षों बाद उसका दूसरा विवाह होता है औार वह नये जीवन में प्रवेश करता हैं। पर दूसरी पत्नी दक्षिण नहीं रहना चाहती, तो वह पत्नी के ही कस्बे में दुकान खोलकर वहीं बस जाता है। अब उसके लिए पत्नी व बच्चे ही पूरी दुनिया हैं।