ढक्कन
“तुम मंजू दुबे की बेटी हो?” एक अपरिचिता हमारे घर की सीढ़ियों के गलियारे में खड़ी थीं.
“हाँ,” कहते हुए मैं अपनी साइकिल गलियारे में ले आयी.
“तुम्हारी ममी कहाँ हैं?” गलियारा तंग था और वे मेरे साथ सटने पर मजबूर रहीं. अपरिचिता एक परिचित द्रव्य लगाए थीं. क्या सभी सुगन्धित द्रव्य समरूप गन्ध रखते हैं? अथवा यह मात्र संयोग था कि पिछले महीने माँ ने वैसा ही द्रव्य ख़रीदा था?
“तुम्हारी ममी कहाँ हैं?” अपरिचिता की आवाज़ ने ज़ोर पकड़ा.
“दिल्ली गयी हैं,” मैंने कहा और अपनी ज़ुबान काट ली.
माँ को हवाई अड्डे की बस पर छोड़कर जब पापा सुबह घर पलटे थे उन्होंने मुझे आदेश दिया था : उधर दफ़्तर में कोई नहीं जानता कि मंजू दिल्ली गयी है. कोई पूछे तो यही कहना मंजू तुम्हारी नानी के पास गयी है.
माँ और पापा एक ही दफ़्तर में काम करते थे और हमारा निवास उसी दफ़्तर के पास निर्धारित आवास क्षेत्र में था. माँ के अतिरिक्त इस क्षेत्र की दो अन्य महिलाएँ भी उसी दफ़्तर में काम करती थीं, किन्तु जाने कैसे इधर कुछ महीनों से माँ हमारे पास-पड़ोस के लिए विशेष कुतूहल का विषय बन रही थीं?
“क्या हवाई जहाज से गयी हैं?” अपरिचिता काँपने लगीं.
“हाँ,” उस कँपकँपी से मैं डोल गयी.
“कब आएँगी?” अपरिचिता का भावावेग बेकाबू हो चला.
“परसों.” मुझसे कुछ भी छिपाया न गया.
कुछ दूरी पर खड़ी एक लाल मारुति की ओर जैसे ही वे विद्युत् गति से बढ़ीं, मैं हैरान हुई. मैंने उनका नाम क्यों नहीं पूछा?
तेरह वर्ष के अपने समस्त जीवन काल में मैंने वैसी तूम-तड़ाक पहली बार देखी थी : आपादमस्तक, अलंकृत एवँ भव्य.
यह कैसा चमत्कार था, जो वे कई ऐसी वस्तुओं से युक्त रहीं, जिनके दाम विभिन्न बड़ी दुकानों की वृहदाकार खिड़कियों में माँ मेरे साथ पढ़ चुकी थीं?
माँ को बाज़ार करने का बहुत शौक रहा. हर महीने अपनी तनख़्वाह पाते ही वे मुझे अपने साथ लेकर कुछ न कुछ ‘नया’ अवश्य ही खरीदतीं. कभी साड़ी तो कभी सलवार सूट तो कभी चप्पल तो कभी शॉल तो कभी कार्डिगन तो कभी हाथ-कान के टूम-छल्ले तो कभी गर्दन की कण्ठी. किन्तु अपनी परिचित तंग दुकानों में मोल-भाव तय करने से पहले तड़क-भड़क वाली दुकानों में प्रदर्शित दाम समेत कई वस्तुएँ वे ज़रूर देखतीं और मुझे दिखातीं.....
“देखो तो!” इस अपरिचिता की साड़ी का नमूना शहर की सबसे महँगी दुकान के शीशे में माँ मुझे दिखा चुकी थीं, “गहरे सलेटी रंग की इस क्रेप में हल्के गुलाबी फूल कैसा अनोखा प्रभाव दे रहे हैं!”
यहाँ केवल फूल सलेटी रंग के रहे और पृष्ठभूमि गुलाबी. दाम : अठारह सौ रुपए.
अपरिचिता के सैंडिल का भाँत भी मेरा देखा हुआ रहा. शो-केस वाली सैंडिल का रंग मगर भूरा था, काला नहीं. दाम आठ सौ रुपए.
जो पर्स अपरिचिता ने अपने हाथ में थाम रखा था, उसके दाम का पता भी माँ लगा चुकी रहीं : बारह सौ रूपया.
हाँ, अपरिचिता के कान के बुन्दों की, उसके नाक की लौंग की, उसके हाथ की अँगूठी की, उसकी एक कलाई की घड़ी की और दूसरी कलाई की चूड़ियों की दमक और कीमत ज़रूर मेरे लिए अजानी रही.
अपनी साइकिल में ताला लगाकर मैंने घर की सीढ़ियाँ एक ही साँस में तय कर लीं.
घर के मुख्य दरवाज़े पर ताला मैंने अपनी हिचकियों के बीच खोला.
अपरिचिता की छटपटाहट का एक बड़ा अंश मेरे अंदर उतर लिया था.
पिछली रात माँ को दिल्ली जाने से मैंने फिर रोका था, “मैं यहाँ अकेली न रहूँगी,” मैं रो पड़ी थी, “तुम्हारे बिना पापा बहुत दिक करते हैं.....”
अकेली माँ जितनी देर घर से बाहर रहतीं, पापा को देखते न बनता. मानो वे काँटों पर लोट रहे होते. कभी आगे की खिड़की से बाहर झाँकते, कभी पिछवाड़े के रोशनदान तक पहुँचने के लिए नीचे स्टूल पर खड़े होते, कभी सीढ़ियों पर चहलकदमी करते तो कभी बाथरूम में भागते.....
“तुम चिन्ता न करो,” माँ डहडहायी थीं, “वे ठीक रहेंगे. मेरी दिल्ली यात्रा का पड़ता उन्हीं ने बैठाया है.”
“मतलब?”
“तुम्हारे पापा मुझे खुद दिल्ली भेज रहे हैं.”
“मगर क्यों?” चौंककर मैंने पापा की ओर देखा था.
पापा क्षुब्ध लग रहे थे.
माँ के साथ पापा सदैव झूमा-झूमी की अवस्था में रहते. माँ उद्यत होतीं तो पापा विनम्रता दिखाने लगते, माँ मेल का मंत्रोच्चार प्रारम्भ करतीं तो पापा द्रोह कर बैठते.
“मंजू वहाँ सिर्फ़ दो दिन के लिए जा रही है,” पापा ने माँ को संगति दी थी. पापा को समझना असम्भव था : पिछले कई दिन उन्होंने माँ की दिल्ली यात्रा को असंगत एवँ वीभत्स घोषित करने में बिताए थे, “कल सुबह हवाई जहाज से जाएगी और परसों दोपहर तक हवाई जहाज से लौट आएगी.....”
“मगर क्यों?” मैं झल्लायी थी.
“दिल्ली में उसका एक इन्टरव्यू है. इन्टरव्यू अगर ठीक बैठ गया तो हम दोनों की नौकरी में तरक्की जल्दी होगी.....”
“स्कूल से तुम कितने बजे लौटी थीं?” दफ़्तर से लौटते ही पापा ने मुझसे पूछा.
“ग्यारह बजे,” शनिवार होने के कारण मुझे आधी छुट्टी रही थी.
“यहाँ कोई कुछ पूछने आया था क्या?”
“नहीं,” जोख़िम उठाने के लिए मैं तैयार न हुई.
“मुझे भूख़ लग रही है,” पापा ने डबलरोटी और अंडे फ्रिज से निकाले, “क्या चाय के साथ तुम मेरे लिए अंडे वाले टोस्ट बना सकती हो?”
“मंजू घर पर है?” रात आठ बजे दो स्त्रियाँ हमारे घर पर पधारीं, “हम दोनों उसके दफ़्तर में टेलीफोन ऑपरेटर हैं.”
“मंजू अपने मायके गयी है,” पापा तुरन्त बरामदे में चले आए, “उसकी माँ की तबीयत ठीक नहीं.”
“कब लौटेगी?” एक ने पूछा.
“यही दो-चार दिन में,” पापा ने कहा, “कहो, कोई ख़ास बात है क्या?”
“बता दो,” दूसरी ने पहली को कुहनी मारी, “सभी तो जान गए हैं.....”
“जाने दो,” पहली ने कहा.
“बॉस उसे पूछ रहे थे,” दूसरी ने पहली को चिकोटी काटी.
तभी कुछ और लोग आ धमके.
सभी हमारे आवास-क्षेत्र के रहे.
“क्या बात है?” पापा ने पूछा.
“सुना है,” एक पुरुष-स्वर ने ढक्कन खोला, “बॉस के साथ आज एक वारदात हो गयी है.....”
“क्या हुआ?” पापा लगभग चीख़ पड़े.
“सुना है बॉस की बीवी ने उसे आज शाम ख़त्म कर दिया.....”
पापा का रंग सफ़ेद पड़ गया.
“अब आपसे क्या छिपाएँ?” पहली स्त्री बोली, “सुनने में तो यह भी आया है कि बॉस की पत्नी ने मंजू को भी ख़त्म कर दिया है.....”
“ज़रूर किसी ने झूठी उड़ायी है,” निंधड़क होकर पापा ने अपनी नटसारी शुरू की, “मंजू तो अपनी माँ के पास कस्बापुर में है, दिल्ली गयी ही नहीं.....”
“मैं आपको बताती हूँ,” चिकोटी काटने वाली स्त्री उत्तेजित हो चली थी, “आज दोपहर डेढ़ बजे जैसे ही मैंने अपनी ड्यूटी ज्वाइन की, हेड ऑफिस से बॉस के लिए फ़ोन आया, ज़रूरी बात है. उन्हें कहिए, फ़ौरन सम्पर्क करें. बल्कि मैंने पहले दफ़्तर के दिल्ली वाले गेस्ट हाउस का ही नम्बर मिलाया. वहाँ से जवाब मिला, बॉस अपनी स्टेनो के साथ होटल में रुके हैं. और मालूम, होटल में फ़ोन किसने उठाया? मंजू ने.”
“मेरी भी सुनिए,” पहला पुरुष-स्वर फिर सक्रिय हुआ, “बॉस की बीवी दफ़्तर में आज दो बार मेरे पास आयी. पहले सुबह दस पाँच पर : मैं मंजू दुबे से मिलूँगी. जब मैंने बताया मंजू दुबे आज दफ़्तर नहीं आई, आज उसकी दो दिन की छुट्टी की अर्जी आई है तो बोली : उसे मिलना ज़रूरी है. उसके घर का पता दे दो. ग्यारह दस पर वह दोबारा दफ़्तर आयी. दिल्ली वाले होटल का पता और कमरा नम्बर दो.”
“मेरा अन्दाज़ा है,” भीड़ में से एक दूसरे पुरुष-स्वर ने कहा, “बॉस की पत्नी ने यहाँ से तीन बीस वाला हवाई जहाज पकड़ा, चार पचपन पर वह हवाई जहाज से उतरी, पाँच तीस पर वह होटल पहुँची, पाँच पैंतीस पर लिफ़्ट में सवार हुई, पाँच चालीस पर उसने बॉस को मंजू के साथ देखा, पाँच इकतालीस पर उसने बॉस पर गोली चलाई, पाँच बयालीस पर उसने मंजू पर गोली चलाई, पाँच पैंतालीस पर.....”
“माँ मेरी वजह से मरी हैं, पापा,” मैं फट पड़ी, “मैं जब स्कूल से आयी थी तो वह नीचे सीढ़ियों के गलियारे में खड़ी थी. उसे मैंने बताया था माँ हवाई जहाज से दिल्ली गयी हैं.....”
“अजीब बात है,” पापा बौखलाए, “तुमने मुझे नहीं बताया मंजू दिल्ली गई और वह भी हवाई जहाज से.....”
“अब कोई नया तमाशा मत खड़ा करिए,” तीसरे पुरुष-स्वर ने पापा पर लगाम चढ़ायी, “लड़की की माँ मर गयी है. लड़की से अब ऐसे सवाल-जवाब मत करिए.....”
“माँ के भेद लड़कियाँ छिपा लेती हैं,” चिकोटी खाने वाली स्त्री बोली, “उन पर ढक्कन टिका देती हैं.....”
“जाओ, तुम अन्दर जाकर बैठो,” पापा ने दाँत पीसे, “मैं देखता हूँ मुझे अब क्या करना होगा.”
भीड़ के छँटते ही पापा मेरी ओर लपक लिए, “देखा, मंजू का नाम अब बदनाम हो गया है. हम उसके लिए बुरा बोलेंगे तो हमीं फ़ायदे में रहेंगे. तुम्हारी शादी में मुश्किल नहीं आएगी. सब यही कहेंगे, बाप-बेटी तो निर्दोष रहे, सारा दोष उसी औरत का था.....”
पापा के संघ-भाव को मैंने अनन्तकाल तक सम्मान दिया.
अपने नानाविध आख्यानों में माँ के प्रति घोर विमुखता दिखाने में मैं लाभान्वित भी हुई. मेरे साथ की लड़कियों ने मुझसे अपनी साझेदारी तोड़ी नहीं, बनाए रखी.
उत्तरवर्ती घटनाओं पर भी मैं पापा के संग ही आशंकित हुई, पापा के संग ही प्रसन्न हुई.