Gwalior sambhag ke kahanikaron ke lekhan me sanskrutik mulya - 4 in Hindi Book Reviews by padma sharma books and stories PDF | ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 4

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ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 4

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 4

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

2. मूल्य का अर्थ एवं स्वरूप

(अ) मूल्यों की विशेषतायें

(ब) मूल्यों के नियम

(स) मूल्यों का महत्व

(द) मूल्य और गैर मूल्य

(इ) मूल्यों का वर्गीकरण

(क) मूल्यों का श्रेणीकरण

(ख) मूल्य का संस्तरण

(ग) सामाजिक मूल्यों का महत्व

(घ) मूल्यों की आधारभूमि

(ड.) विभिन्न मूल्य

1- सामाजिक एवं पारिवारिक मूल्य

2- राजनैतिक मूल्य

3- आर्थिक मूल्य

4- धार्मिक मूल्य

5- मानवीय मूल्य

(च) वर्तमान चुनौतियाँ एवं मूल्यों में परिवर्तन

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

3. मूल्य एवं आदर्श

4.

(अ) सामाजिक आदर्श का अर्थ एवं परिभाषाएँ

(ब) आदर्श नियम की विशेषताएँ

(स) आदर्श नियमों का महत्व

संदर्भ सूची

2. मूल्य का अर्थ एवं स्वरूप

मूल्य शब्द संस्कृति की ’मूल-धातु के साथ यत् प्रत्यय संयुक्त कर बना है जिसका अर्थ है- कीमत या मजदूरी। किन्तु हमारा अभिप्रेत मूल्य शब्द अंग्रेजी के टंसनम शब्द का समानार्थी है, जिसका अर्थ है - अच्छा और सुन्दर।

राधाकमल मुखर्जी के अनुसार जो कुछ भी इच्छित, वांछित है, वही मूल्य है। मूल्य एक जटिल सम्पूर्णता और चेतन प्राणीशास्त्रीय सामाजिक आदर्श है।51

मूल्य समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे इच्छाएँ और लक्ष्य हैं, जिनका अन्तरीकरण, सीखने या सामाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से होता है, तथा जो कि प्रक्रिया अधिमान्यताएँ, मानक तथा अभिलाशाएँ बन जाती हैं।52

रोहित मेहता के अनुसार- मूल्य तो जीवन के प्रति एक गुण है, एक अन्तर्दृष्टि है, एक अवधारणा है, एक दृष्टि कोण है।

प्रो. मैकेन्जी के अनुसार - मूल्य से हमारा आशय उस विचार से है जो एक विचारशील प्राणी के चिन्तन का परिणाम है।53

मूल्यों की उत्पतित एक सामाजिक संरचना विशेष के सदस्यों के बीच होने वाली अन्तःक्रियाओं के फलस्वरूप धीरे-धीरे होती हैं। वास्तव में मनुष्य को अपने परिस्थितिगत पर्यावरण से एक संतुलन बनाये रखने की आवश्यकता होती है। अपने जीवन-निर्वाह व भरण-पोशण सम्बन्धी समस्याओं का उसे सामना करना पड़ता है। अपने समाज या समूह के अन्य लोगों के साथ उसे सामाजिक जीवन में भागीदार बनना पड़ता है एवं अपने व्यक्तित्व व संस्कृति के बीच एक आदान-प्रदान की प्रक्रिया में भी सम्मिलित होना पड़ता है। ऐसी स्थिति में यदि समाज के सदस्यों के लिए समाज द्वारा कुछ अधिमान, मापदण्ड आदि को व्यवहार के आधार के रूप में प्रस्तुत न किया जाये तो समाज में अव्यवस्था, असुरक्षा और अशान्ति का साम्राज्य हो जायेगा। इस स्थिति से बचने के लिए ही समाज द्वारा मान्यता प्राप्त कुछ मानदण्ड, इच्छाएँ एवं लक्ष्य विकसित किए जाते हैं और वे समाज में प्रचलित रहते हैं। इन मानदण्डों को व्यक्ति सीखने या सामाजीकरण की प्रक्रिया के दौरान अपने व्यक्तित्व में सम्मिलित कर लेता है। इस तरह समाज में मूल्यों की उत्पत्ति होती है।54

मूल्य वे मानदण्ड हैं, जो सम्पूर्ण संस्कृति और समाज को अभिप्राय और सार्थकता प्रदान करते हैं। जीवन को अस्तित्व और गति प्रदान करे वही मूल्य है। जीवन मूल्यों से तात्पर्य उन समस्त मापदण्डों, आदर्शों एवं सिद्धान्तों से है, जो जीवन को प्रभावित कर उसके संचालन में सहयोगी होते हैं। समय परिवर्तन के साथ-साथ जीवन-मूल्य भी परिवर्तित होते रहते हैं। यही कारण है कि हर युग की मूल्य व्यवस्था, युग सापेक्ष होती है। मूल्य व्यवस्था में प्रमुख भूमिका ’संस्कृति’ की रहती है। अतः स्पष्ट है कि ’मानवता’ की भावना को पुश्पित और पल्लवित करने के लिए अथवा किसी देश या समाज के विभिन्न जीवन व्यापारों तथा सामाजिक सम्बंधों में मानवता की दृष्टि से प्रेरणा प्रदान करने वाले वे समस्त तथ्य मूल्य व्यवस्था में सहयोगी होते हैं, जो तत्कालीन युग से जुड़े रहते हैं।

मूल्य हमारे साहित्य शास्त्र में समाज कल्याण या मानव मात्र का कल्याण जैसे व्यापक अर्थ तक सीमित नहीं हैं। ’मूल्य’ या ’प्रतिमान’ वस्तुतः वे निकश हैं जिनके सहारे व्यक्ति को परखा जाता है। मनुष्य चूंकि पहले व्यक्ति अर्थात् इकाई है। फिर वह वृहत्तर मानव समाज का, परिवार, राज्य और संसार का सदस्य अंग भी है।। वह विशेष होकर भी सामान्य हैं। अतः उसका प्रत्येक विचार, कर्म और चिन्तन या कल्याण तक में मूल्य का प्रश्न महत्वपूर्ण है। हमारे विचारों से शब्द बनते हैं, शब्दों से कर्म, कर्मों के निरन्तर अभ्यास से आदतें अथवा ’स्वभाव’ की निर्मिति होती है और इन्हीं का संघात हमारा चरित्र है। अन्ततः चरित्र ही मूल्यों का निर्धारण करता है। ये मूल्य पृथक्-पृथक् स्तर पर आपस में टकराते भी हैं और कभी-कभी इनका आपस में समाहार भी होता है। व्यक्ति बनता है, बिगड़ता है, बिखरता भी है यही स्थिति विविध मूल्यों की भी होती है और अन्ततः केवल एक मूल्य मानवीय मूल्य शेष रह जाता है। यह भी सदा एकरस नहीं रहता क्योंकि कभी-कभी ऐसी परिस्थिति जन्म लेती है कि किसी विरोध को स्वीकार भी करना पड़ता है। विष्णु प्रभाकर लिखते हैं - ’’जिन बातों का हम प्राण देकर भी विरोध करने को तैयार रहते हैं, एक समय आता है जब चाहे किसी कारण से भी हो, हम उन्हीं बातों का चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं’’।

मूल्यों का सीधा सम्बन्ध हमारे जीवन मूल्यों से होता है और जीवन मूल्य वस्तुतः समाज द्वारा मान्य वे इच्छाएँ तथा लक्ष्य हैं, जिनका अन्तरीकरण सामाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से होता है और जो व्यक्तिपरक अधिमान्यताएँ, प्रतिमान तथा अभिलाशाएँ बन जाती हैं। हमारे ये सरोकार-ये मूल्य परिवर्तनशील होते हुए भी शाश्वत हैं। इनसे जुड़े बिना इनका प्रत्यक्ष या परोक्ष जिक्र किये बिना अच्छी कहानी नहीं रची जा सकती।

भारतीय जीवन मूल्यों को जानने के लिए उनके आधार को समझना आवश्यक है संक्षेपतः भारतीय जीवन मूल्यों के निम्न आधार हैः-

1- जीवन के प्रति आस्था और लगाव

2- विवेकशील चिन्तन

3- परिवेश बोध

4- लोक कल्याण चेतना

5-वैयक्तिक उदारीकरण अथवा आन्तरिक उन्नयन परिभाषा

इन आधारों को ध्यान में रखते हुए मूल्य की परिभाषाए है।

’’किसी देश, काल और परिस्थिति में जन सामान्य की उदात्त मान्यताएँ ही मानव मूल्य होती हैं’’।

उसकी कसौटियां हैंः- 1- जिसका ध्येय व्यापक लोक-कल्याण हो

2- जिससे व्यक्ति का उदारतीकरण है।55

मूल्य के द्वारा समाज में सभी चीजों का मूल्यांकन किया जा सकता है, चाहे वे भावनाएं हो या विचार, क्रिया, गुण, वस्तु, व्यक्ति, समूह, लक्ष्य या साधन। व्यक्ति के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों या विभिन्न कार्यकलापों से सम्बन्धित कई प्रकार के मूल्य होते हैं एवं समस्त मूल्यों में एक बोधात्मक तत्व होता है और वह इस अर्थ में होता है कि एक व्यक्ति को ’’क्या उचित है’’ की धारणा उससे ’’क्या है’’ या ’’क्या सम्भव है’’ की धारणा पर निर्भर करती है अर्थात् मूल्य आदर्श नियमों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। डॉं. मुकर्जी के अनुसार-प्राणी जगत में मात्र मनुष्य ने ही मूल्यों का विकास किया है। यह मूल्य ही है, जो मनुष्य को प्राणी जगत में विशिष्टता प्रदान करता है। मूल्य ही व्यक्ति को जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी में बदल देता है। डॉं. मुकर्जी के अनुसार किसी भी सामाजिक सदस्य के व्यक्तित्व का ताना-बाना मूल्यों के द्वारा ही रचा जाता है।

डॉं. राधाकमल मुकर्जी ने अपनी पुस्तक 'The Social Structure of Values' में मूल्य का महत्व का दूसरा नाम बताया है। मनुष्य का सामाजिक जीवन में अनेक वस्तुओं से साक्षात्कार होता है परन्तु सभी वस्तुएँ समान महत्व की नहीं होती है। इनमें कुछ वस्तुओं का महत्व अधिक होता है और कुछ वस्तुओं का महत्व कम होता है। यह भी हो सकता है कि कुछ वस्तुओं का कुछ भी महत्व नहीं हो। इतना ही नहीं जो वस्तु एक व्यक्ति या समूह के महत्व की हो सकती है, वह दूसरे व्यक्ति या समूह के लिए कम महत्व की या महत्वहीन हो सकती है अर्थात् मूल्य एक महत्व है। इस प्रातीतिक माप कहा जा सकता हे। इस माप के सहारे कोई समाज किसी घटना का मूल्यांकन करके उसे ’’अच्छा’’ ’’बुरा’’ या व्यर्थ मानता है।56

(अ)- मूल्यों की विशेषतायेंः-

डॉं. राधाकमल मुकर्जी के अनुसार मूल्यों की निम्नलिखित विशेषताए हैंः-

1- मूल्य सार्वभौमिक है-

मूल्य सार्वभौमिक होते हैं अर्थात् मूल्य सभी समाजों में पाए जाते हैं लेकिन इनकी प्रकृति सार्वभौमिक नहीं होती है। उदाहरणार्थ- ’’विवाह एक सार्वभौमिक मूल्य है’’। लेकिन विवाह की प्रकृति सार्वभौमिक नहीं है। हिन्दू समाज में विवाह एक धार्मिक संस्कार है, परन्तु मुस्लिम समाज में यह एक सामाजिक समझौता है।

2- मूल्य परिवर्तनशील है-

समय के अनुसार मूल्यों में परिवर्तन होता रहता है। आज जो मूल्य समाज में विद्यमान हैं, आवश्यक नहीं है कि कल भी वे विद्यमान रहें।

3- मूल्य सामाजिक व्यवहार में एकरूपता प्रदर्शित करते हैं-

डॉं. मुकर्जी के अनुसार समाज में मूल्यों के संघर्ष और सहयोग पर सभी सामाजिक संबध और व्यवहार आधारित हैं अर्थात् मूल्य सामाजिक व्यवहार में एकरूपता प्रदर्शित करते हैं।

4- प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्ति-

समाज में मूल्यों को कुछ प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है परंपरागत रूप से समाज में लोक गाथाएँ, लोकगीत, लोक कथा प्रतीकात्मक रूप से मूल्यों का अर्थ और महत्व स्पष्ट करती हैं। विवाह में अग्नि के फेरे, कलश, कुण्डली मिलान आदि विवाह की धार्मिकता का प्रतीक है।

05- मूल्यों में प्रतिस्पर्द्धा-

समाज में परम्परागत और आधुनिक दो तरह के मूल्य होते हैं। परम्परागत मूल्य साँस्कृतिक विरासत से जुड़े होने के कारण परिवर्तन पसंद नहीं करते हैं। अतः जब परम्परागत और नवीन मूल्य साथ-साथ क्रियाशील होते हैं तो उनमें प्रतिस्पर्धा होने लगती है।

06- आत्मिक स्वीकृति-

मूल्यों के अन्तरीकरण के लिए व्यक्ति को न तो बाध्य किया जा सकता है न ही उस पर किसी संस्था द्वारा दबाव डाला जा सकता है। मूल्यों की स्वीकृति आत्मिक होने के कारण इनके अन्तरीकरण से व्यक्ति को आत्मिक संतोष मिलता है। वृद्धों का सम्मान या निराश्रित की सहायता करना एक सामाजिक मूल्य होने के कारण हमें आत्मिक सन्तोष प्राप्त होता है।

07- सामाजीकरण द्वारा अन्तरीकरण-

मूल्यों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि व्यक्ति इन्हें सामाजिक अन्तःक्रिया और सामाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा एक सामाजिक विरासत के रूप में प्राप्त करता है। परिवार से ही हम मूल्य प्राप्त करते हैं।57

डॉं. ए. पी. श्रीवास्तव एवम् आर. बी. ताम्रकर ने मूल्यों की निम्नलिखित विशेषताओं का वर्णन किया हैः-

01- किसी भी मूल्य का समाज से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं होता है, ये मूल्य एवं सामाजिक घटना या तथ्य होते है।

02- चूंकि समाज अमूर्त होता है अतएव प्रत्येक समाज के मूल्य भी अमूर्त होते हैं। आकार-प्रकार से रहित इन मूल्यों का मात्र अनुभव किया जाता है। इनको न तो देख सकते हैं और न ही स्पष्ट कर सकते हैं।

03- समाज में मूल्य का विशेष महत्व होता है तथा इनका सम्बन्ध व्यक्ति के मस्तिष्क में होता है।

04- प्रत्येक समाज को मूल्य सामाजिक विरासत के रूप में प्राप्त होते हैं जो समाज के पीढी़-दर-पीढी़ हस्तांतरित होते रहते हैं तथा व्यक्तियों द्वारा मान्य होते हैं।

05- प्रत्येक समाज की संस्कृति का निर्धारण उस समाज के मूल्यों के आधार पर होता है, अतः मूल्य संस्कृति में सहायक होते है।

06- प्रत्येक समाज के मूल्य उस समाज के व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक होते हैं।

07- सामाजीकरण की प्रक्रिया में मूल्यों का विशिष्ट योगदान होता है।

08- नैतिकता और अनैतिकता तथा उचित-अनुचित का मानदण्ड मूल्य होते हैं।

09- समाज में सामाजिक प्रगति का अन्दाजा भी इन्हीं सामाजिक मूल्यों के आधार पर लगाया जाता है।

10- प्रत्येक समाज के मूल्य उस समाज को भावी सामाजिक क्रियाओं के निर्धारण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, तथा भावी क्रियाओं के आधार पर संभव होते हैं।58

(ब)- मूल्यों के नियमः-

डॉं. राधाकमल मुकर्जी ने अपनी पुस्तक ‘THE SOCIAL STRUCTURE OF VALUES’ में मूल्यों के नियम निम्नानुसार बताये हैंः-

01- समाज के नियंत्रण या अनुमोदन के माध्यम से सभी मानवीय अभिप्रेरणाएँ मूल्यों में परिवर्तित हो जाती हैं।

02- समाज में आधारभूत मूल्यों की परिवृत्ति हो जाने पर खिन्नता या उदासीनता पनपती है। ऐसी अवस्था में समाज और संस्कृति मनुष्यों के लिए नवीन इच्छाओं, नवीन लक्ष्यों या नवीन साधनों को प्रस्तुत करते हैं और इसी से नये मूल्य पनपते हैं।

03- मूल्य आपस मे घुल-मिल जाते हैं जिससे इनके सम्मिलन में निरन्तर बदलाव दिखायी देता है।

04- मूल्यों में निरंतर प्रतिस्पर्द्धा होने के कारण ही मूल्यों का संस्तरण विकसित होता है।

05- समाज मे मूल्यों के पारस्पिरक संघर्षों के कारण व्यक्ति कार्यविधियों के विकल्पों को तलाशते हैं जिससे समाज में मूल्यों का विवेकपूर्ण प्रतिपादन सम्भव होता है।

06- समाज में मनुष्यों के विवेक, निर्णय अनुभवों से मूल्यों के सोपान या अधिमान निर्मित होते हैं जिससे उत्तम और अधम मूल्यों से अन्तर स्पष्ट हो जाता है।

07- मूल्यों में वैयक्तिकता, विभिन्नता और अनोखापन होता है अतः मनुष्य अपनी आदतों, क्षमताओं और अभिरूचियों के आधार पर मूल्यों की संतुष्टि अपने-अपने ढंग से करता है।

08- समाज मनुष्य के मूल्यों के आधारभूत प्रतिमान प्रदान करती हैं।

09- मूल्यों में गुणात्मक सुधार मनुष्यों के समूह, संस्थागत सम्बन्धों व अनुभव की सामाजिक परिस्थिति में होता है।

10- प्रत्येक समूह का कार्य लोगों के हितों को पूरा करने के बाद उनके उद्वेगों पर नियंत्रण रखना होता है जिससे समाज में कुछ द्वितीयक मूल्य विकसित होते हैं।59

(स)- मूल्यों का महत्वः-

डॉ. राधाकमल मुकर्जी ने मूल्यों के सिद्धान्त में इसके महत्व की भी विवेचना की है। मूल्यों के महत्व को स्पष्ट करते हुए आपने लिखा है कि किसी सामाजिक विज्ञान को मूल्यों से पृथक् करके नहीं समझा जा सकता है। व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, कानूनी आदि सभी प्रकार के सम्बन्धों की व्याख्या केवल मूल्यों के आधार पर की जा सकती है। समाज मूल्यों का एक संगठन व संकलन है। आपने मूल्यों के निम्नांकित महत्व स्पष्ट किए हैंः-

01- मूल्य व्यक्तियों के व्यवहारों को नियंत्रित एवं सही दिशा में निर्देशित

करते हैं।

02- मूल्य समाज और संस्कृति का निर्माण कर सामाजिक सम्बन्धों, प्रस्थितियों और भूमिकाओं को सुसंगत और व्यवस्थित बनाते हैं।

03- मूल्य, व्यक्तित्व की संरचना को परिभाषित तथा नियंत्रित करते हैं।

04- मूल्य, व्यक्तियों का मानवीकरण करते हैं।

05- मूल्य व्यक्ति की सामाजिक दशाओं से अनुकूलन करने में सहायता प्रदान करते हैं।

06- मूल्य विभिन्न समूहों के मध्य एकरूपता और एकता में वृद्धि करते हैं।

मूल्यों के महत्व को स्पष्ट करते हुए डॉं. मुकर्जी ने निश्कर्ष दिया है कि, ’’प्रत्येक समाज का अस्तित्व उसके मूल्यों पर ही आधारित होता है। श्रेष्ठ मूल्य ही एक सुसंस्कृत समाज का प्रमुख लक्षण है’’। आपने मूल्यों के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि-’’व्यक्ति और समाज, बाती और तेल की तरह है अर्थात् जिस तरह तेल (समाज) के बिना बाती (व्यक्ति) अधूरी है और ज्योति (मूल्य) के बिना बाती (व्यक्ति) और तेल (समाज) दोनों ही अर्थहीन हैं अर्थात् मूल्य ही समाज और व्यक्ति के जीवन में ज्योति जलाता है। अतः सम्पूर्ण मानव-कल्याण के लिए इन मूल्यों का संरक्षण आवश्यक है।60

(द)- मूल्य और गैर मूल्य

डॉ. राधाकमल मुकर्जी ने समाज के नकारात्मक मूल्यों को ही गैर मूल्य कहते हैं। आपने मूल्यों के सिद्धान्त से स्पष्ट किया है कि सामाजिक व्यवहार के सभी आयामों में मूल्यों के साथ ही साथ गैर मूल्य भी विद्यमान रहते हैं। उदाहरणार्थ- ’’सत्य की सदा विजय होती है’’। यह एक उत्तम मूल्य है लेकिन ’’प्रेम और राजनीति में कुछ भी अनुचित नहीं होता’’- गैर मूल्य है। ’’क्षमा कर देना ही सबसे बड़ी सजा देना है’’- यह एक मूल्य है लेकिन ’’खून का बदला खून’’ एक गैर मूल्य है। ’’दुल्हन ही दहेज है’’ मूल्य है लेकिन ’’दहेज नहीं तो शादी भी नहीं’’- एक गैर मूल्य है। इसी तरह तोड़फोड़ की नीति, हिंसा की राजनीति, शोषण की नीति, साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, क्षेत्रवाद, साम्राज्यवाद, शीतयुद्ध, राष्ट्रद्रोही गतिविधियॉं आदि गैर मूल्य की अभिव्यक्तियॉं हैं। मूल्यों का जटिल विकृतिकरण ही गैर मूल्य है। समाज में गैर मूल्यों के विस्तारित होने से सामाजिक एवं वैयक्तिक विघटन की स्थिति के पनपने का खतरा बढ़ जाता है।61

(इ)- मूल्यों का वर्गीकरणः-

प्रो. स्प्रैंगर ने छः आधारभूत प्रकार के मूल्यों का वर्णन किया है जो कि निम्नानुसार हैः-

01- सैद्धान्तिक या बौद्धिक मूल्य।

02- आर्थिक या व्यावहारिक मूल्य।

03- सौन्दर्यबोधी मूल्य।

04- सामाजिक या परार्थवादी मूल्य।

05- राजनीतिक या सत्ता सम्बन्धी मूल्य।

06- धार्मिक या रहस्यात्मक मूल्य।

डॉं. राधाकमल मुकर्जी भी प्रो. स्प्रैंगर के मूल्यों के वर्गीकरण से सहमत हैं और मानते हैं कि मूल्यों का यह वर्गीकरण समग्र रूप में निर्भर, योग्य तथा उपयोगी है फिर भी उनका मत है कि अच्छा हो यदि हम मूल्यों को दो मुख्य वर्गों में बांटेः-

1- साध्य मूल्य।

2- साधन मूल्य।

साध्य मूल्य की व्याख्या करते हुए मुकर्जी लिखते हैं कि ये लक्ष्य तथा सन्तोष है जिन्हें मनुष्य और समाज जीवन तथा मस्तिष्क के विकास व विस्तार की प्रक्रिया में अपने लिये स्वीकार कर लेते हैं और ये व्यक्ति के आचरण में अन्तर्निंष्ठ होते हैं। ये स्वयं साध्य होते हैं। उदाहरणार्थ- सत्य, शिव, सुन्दरम् से सम्बन्धित मूल्य मनुष्य के आंतरिक जीवन से संबंधित हैं और स्वतः ही पूर्ण हैं। इन्हें अमूर्त मूल्य भी कह सकते हैं।

साधन मूल्य वे मूल्य हैं जिन्हें मनुष्य और समाज प्रथम प्रकार के मूल्यों की सेवा हेतु एवं उन्हें उन्नत करने के साधन के रूप में मानते हैं। स्वास्थ्य, सम्पत्ति, सत्ता , पेशा, प्रस्थिति से सम्बन्धित मूल्य, ’’साधन मूल्य’’ हैं क्योंकि इनका उपयोग कतिपय लक्ष्यों व सन्तोषों की प्राप्ति के साधन के रूप में किया जाता है। इन्हें विशिष्ट मूल्य भी कह सकते हैं।

साध्य मूल्यों का संबंध समाज और व्यक्ति के जीवन के उच्चतम आदर्शों और लक्ष्यों से होता है, जबकि साधन मूल्यों का सम्बन्ध व्यक्ति के लौकिक लक्ष्यों की पूर्ति के साधन के रूप में किया जाता है। औसत रूप में मनुष्य का संबंध-साध्य मूल्यों की अपेक्षा साधन मूल्यों से अधिक होता है। इसलिए साधन मूल्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।62

प्रत्येक मूल्य एक से नहीं होते। उनमें भिन्नता पायी जाती है विद्वानों ने अपने-अपने मतानुसार उनके अलग-अलग वर्गीकरण किए हैंः-

क- श्री इलियट और मेरिल- ने अमेरिकन समाज के सामाजिक मूल्यों को दृष्टिगत रखते हुए तीन प्रकार के मूल्यों का उल्लेख किया हैः-

01- देश भक्ति या राष्ट्रीयता की भावना

02- मानवीय स्नेह या मानव के प्रति प्रेम

03- आर्थिक सफलता

ख- प्रो. सी. एन. केस- ने समाज के मूल्यों को चार प्रकारों में विभाजित किया हैः-

01- सामाजिक मूल्य-

सामाजिक मूल्य सामाजिक जीवन से संबंधित होते हैं, जो जीवन को समुन्नत बनाते हैं। जैसे सत्य बोलना तथा धर्म का आचरण करना।

02- सांस्कृतिकमूल्य-

समाज के सांस्कृतिक मूल्य मानव संस्कृति से संबंधित होते हैं जिनके अंतर्गत समाज की प्रथाएॅ, परम्पराएँ, धर्म, नीति आदि समाहित रहते हैं और यह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते रहते हैं।

03- विशिष्ट मूल्य-

समाज के विशिष्ट मूल्य विशेष सामाजिक परिस्थितियों से संबंधित होते हैं, जिसके अंतर्गत कुछ न कुछ सामाजिक उद्देश्य निहित होते हैं। ये विशिष्ट सामाजिक मूल्य मानवीय कल्याण में वृद्धि के लिए सहायक होते हैं।

04- शारीरिक मूल्य-

शारीरिक मूल्यों का प्रत्यक्ष संबंध शारीरिक स्वास्थ्य और शारीरिक रक्षा से होता है। शारीरिक विकास तथा शारीरिक सुरक्षा आदि से संबंधित मूल्य होते हैं जैसे ’’स्वास्थ्य ही धन है’’ ’स्वस्थ्य शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क रहता है।

(क)-मूल्यों का श्रेणीकरण

01- भीड़-

भीड़ में व्यक्ति मूल्यों से परे हो जाता है।

02- स्वार्थ समूह/हित समूह-

समाज विभिन्न हितों या स्वार्थों के आधार पर बनने वाले संगठन, सामाजीकरण का दूसरा प्रारूप है। ऐसे संगठनों के सदस्य वे ही लोग होते हैं जिनके हित एक-दूसरे के समान होते हैं। हित समूह में परस्पर आदान-प्रदान, एकता, एक-दूसरे के हित का ध्यान रखना जैसे नैतिक सिद्धांत पाये जाते हैं अर्थात् हित समूह में प्राथमिक मूल्यों की अभिव्यक्ति होती है, जैसे, श्रमिक संघ, आदि।

03- समाज-

डॉं. मुकर्जी ने सामाजिक संगठन के एक प्रारूप के रूप में समाज को व्यक्तियों के एक बड़े समूह या समुदाय के रूप में स्पष्ट किया है। हित समूह की तुलना में समाज का संगठन अधिक व्यापक, तर्कपूर्ण और नैतिक मूल्य से बंधा होता है अर्थात् समाज के सदस्य, सामाजिक जीवन में न्याय और समानता को बनाये रखने के लिए अनेक मूल्यों को अभिव्यक्त करते हैं।

04- सामूहिकता-

डॉं. मुकर्जी ने सामूहिकता को नैतिक दृष्टि से मानव समाज का सर्वोत्कृष्ट संगठन कहा है। सामूहिकता या सामान्य हितों के प्रति सचेत संगठन से आपका तात्पर्य सामान्य लोगों के एक ऐसे प्रारूप से है जो जागरूक अनुशासित और सभी के प्रति सद्भाव रखने वाला होता है। इसमें सामाजिक सम्बन्ध सार्वभौमिक होते हैं और इनका आधार स्वतः इसके सदस्य (व्यक्ति) नैतिकता को न तो किसी स्वार्थवश मानते हैं ओर न ही भावनाओं से प्रेरित होकर।

(ख)- मूल्य का संस्तरण-

डॉ. राधाकमल मुकर्जी के अनुसार समाज में सभी मूल्य एक ही स्तर के नहीं होते हैं। आपने अपने अध्ययन में स्पष्ट किया है इनमें एक तरह का संस्तरण होता है इस संस्तरण का संबंध मूल्यों के आयामों से होता है और ये आयाम तीन प्रकार के होते हैं-

01- जैविक

02- सामाजिक

03- आध्यात्मिक

मूल्यों के उपरोक्त आयामों की विवेचना करते हुए डॉं. मुकर्जी लिखते हैं कि जैविक मूल्य मनुष्यों के स्वास्थ्य, जीवन-निर्वाह, कुशलता, सुरक्षा आदि से संबंधित होते हैं। सामाजिक मूल्य, सम्पत्ति, प्रस्थिति, प्रेम और न्याय सम्बन्धी एवं आध्यात्मिक मूल्य सत्य, सुंदरता, सुसंगति और पवित्रता विषयक होते हैं। आध्यात्मिक मूल्यों का स्तर समाज में सबसे ऊँचा होता है क्योंकि इसकी विशेषता आत्म-लोकातीतत्व है और ये ’’साध्य मूल्यों’’ का प्रतिनिधित्व करते हैं। आध्यात्मिक मूल्य के बाद सामाजिक मूल्यों का स्थान आता है जिसका उद्देश्य सामाजिक संगठन और सुव्यवस्था को बनाये रखना है इसलिए ’’साधन मूल्य’’ कहा जाता है। अन्त में जैविक मूल्य का स्थान आता है जो कि जीवन को बनाये रखने और आगे बढ़ाने के लिए होते हैं अतः इन्हें ’’साधन मूल्य’’ कहा जाता है। मूल्यों के संस्तरण को डॉं. राधाकमल मुकर्जी ने एक सारणी द्वारा स्पष्ट किया हैः-

मूल्यों का आयाम मूल्यों के गुण मूल्यों का संस्तरण

01- जैविक- स्वास्थ्य, कुशलता,

सुरक्षा, उपयुक्तता, निरंतरता साधन मूल्य, बाह्य, मूल्य क्रियात्मक मूल्य। जीवन-निर्वाह तथा अग्रगति।

02- सामाजिक- सम्पत्ति, प्रस्थिति, प्रेम और न्याय। साधन मूल्य, बाह्य मूल्य, क्रियात्मक मूल्य। सामाजिक संगठन और सुव्यवस्था।

03- आध्यात्मिक- सत्य, सौन्दर्य, सुसंगति, पवित्रता साध्य मूल्य, अन्तयर्निष्ठ मूल्य, लोकातीत मूल्य। आत्म-लोकातीकरण।

मूल्यों के संस्तरण में प्राथमिकता एवं आरोहण का अध्ययन कर डॉ. मुकर्जी ने निम्नानुसार सामान्यीकरण किया हैं-

01- साध्य मूल्य, साधन मूल्यों से श्रेष्ठ होते हैं और इनकी सर्वश्रेष्ठता इसी तथ्य पर निर्भर हैं कि वे सम्पूर्ण मानव जीवन व अनुभव को सुव्यवस्थित व सार्थक बनाते हैं।

02- मूल्यों के प्रकार्य के दृष्टिकोण से आत्म-यथार्थीकरण तथा आत्म लोकातीकरण का कार्य केवल जीवन को बनाये रखने और उसे आगे बढ़ाने के कार्य से निश्चय ही उच्च श्रेणी का हैं।

03- साध्य मूल्य तथा साधन मूल्य वास्तविक अनुभव में आपस में निरन्तर घुलते-मिलते और एक-दूसरे में व्याप्त होते रहते हैं। साधन मूल्य स्वयं में लक्ष्य नहीं होते अपितु वे साध्य मूल्य के साथ संयुक्त रहते हुए अपना क्रिया रूप बनाये रखते हैं।

04- मूल्यों के आरोहण में विशेषता यह हैं कि वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र सिद्धान्तों, मूल्यों तथा अनुभवों की एक द्वन्द्वात्मक गति होती हैं।

05- मूल्यों के संस्तरण में वास्तविक अनुभव में जैविक आयाम से ऊपर वाले मूल्यों में से कुछ को तो प्राप्त किया जा सकता हैं, पर कुछ के पास तक पहुँचना सम्भव नहीं होता हैं। लेकिन फिर भी मनुष्य उच्चतर मूल्यों के साथ एकात्मकता को बनाये रखते हुए जीवन के उच्चतर लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ता रहता है।

06- अनन्त, शाश्वत् व सार्वभौमिक मूल्य अपनी अनिवार्यता को उस लोकातीतत्व से प्राप्त करता हैं जो कि मूल्यों के संस्तरणात्मक व विकासात्मक व्यवस्था को निर्देशित व नियन्त्रित करता हैं अतः ये आदर्श नियम कहलाते हैं।

श्री राधाकमल मुकर्जी ने मूल्यों के संस्तरण को सामाजिक संगठन के चार प्रारूपों के सन्दर्भ में भी श्रेणीकृत किया है। ये निम्नानुसार हैं-

01- भीड़- डॉं. मुकर्जी ने भीड़ को सामाजिक संगठन की प्रथम अवस्था बताया है। भीड़ की प्रकृति अस्थायी होती है और यह संवेग प्रधान होती है। भीड़ में बुद्धि का निम्न स्तर होता है और इसके सदस्य विवेक से काम नहीं करते हैं। डॉं. मुकर्जी के अनुसार भीड़ की कोई नैतिकता नहीं होती लेकिन जब भीड़ को नैतिकता का ज्ञान हो जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया तीव्र/उग्र हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि भीड़ में व्यक्ति किसी आदर्श नियम से बंधा हुआ नहीं रहता। भीड़ में मूल्यों का पूरी तरह अभाव पाया जाता है।63

समाजिक मूल्य वे सामाजिक मानक व्यंग्य या आदर्श हैं। जिनके आधार पर विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों तथा विषयों का मूल्यांकन किया जाता है। ये मूल्य हमारे लिए कुछ अर्थ रखते हैं, इसीलिए हम इन्हें अपने सामाजिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण समझते हैं। इन मूल्यों की एक सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होने के कारण प्रत्येक समाज में इनमें भिन्नता परिलक्षित होती है। उदाहरणार्थ- हिन्दू समाज में विवाह एक पवित्र बन्धन है, इस कारण इसे अपनी ईच्छानुसार तोड़ा नहीं जा सकता अतः इस मूल्य का समाजिक प्रभाव यह है कि हिन्दुओं में विवाह-विच्छेद की भावना पनप नहीं पाती है। लेकिन वहीं ईसाई समाज में विवाह मूल्य का अभाव होने के कारण वे विवाह-विच्छेद व्यापक स्तर पर परिलक्षित होता है। इसीलिए सामाजिक मूल्य को समाज का मान माना गया है।

सामाजिक मूल्यों के अभाव में समाज कभी भी प्रगति नहीं कर सकता और न भविष्य में प्रगतिशील क्रियाओं का निर्धारण किया जा सकता। प्रत्येक समाज के मूल्यों के अनुसार समाज के कुछ निश्चित मानदण्ड होते हैं जिसके द्वारा समाज में सामाजिक परिस्थितियों तथा विभिन्न विषयों का मूल्यांकन किया जाता है। जीवन में सामाजिक मूल्यं का अत्यधिक महत्व होता है। चूंकि प्रत्येक समाज की सामाजिक परिस्थितियों में विभिन्नता पाई जाती है, अतः प्रत्येक समाज के सामाजिक मूल्यों में भी भिन्नता पाई जाती है। प्रत्येक समाज में सामाजिक मूल्य सामाजिक विरासत के रूप में विद्यमान रहते हैं तथा सभी समाजों में इन सामाजिक मूल्यों की रक्षा की जाती है, तथा इसके अस्तित्व को बनाये रखने का प्रयास किया जाता है। जिससे समाज का मूल्यांकन किया जा सके ये सामाजिक मूल्य समाज में व्यक्ति और समूह दोनों के पास निहित रहते है। समाज में व्यक्ति की मनोवृत्तियों का निर्धारण भी इसी सामाजिक आधार पर होता है। सामाजिक संगठन और समाज के अस्तित्व में सामाजिक मूल्यों का महत्वपूर्ण स्थान होता है।

श्री इलियट और मैरिल के अनुसार- ’’सामाजिक मूल्य वे वस्तुए हैं जो हमारे लिये अर्थपूर्ण होती हैं तथा जिन्हें हम दिनचर्या में महत्वपूर्ण मानते हैं’’।64

डॉं. राधाकमल मुकर्जी के अनुसार सामाजिक मूल्यों का सीधा संबंध, सामाजिक संगठन और सामाजिक व्यवस्था से होता है। ये सामाजिक मूल्य चार प्रकार के होते हैंः-

01- प्रथम प्रकार के वे सामाजिक मूल्य होते हैं, जो समाज में समानता और सामाजिक न्याय का प्रतिपादन करते हैं। जिसमें सामाजिक संगठन और व्यवस्था सुदृढ़ रह सके।

02- द्वितीय प्रकार के वे सामाजिक मूल्य होते हैं, जिनके आधार पर सामाजिक जीवन प्रतिमान तथा आदर्श प्रतिमानों का निर्धारण होता है, जिनके अंतर्गत एकता, उŸारदायित्व की भावना, सहयोग आदि की भावना निहित होती है।

03- तृतीय प्रकार के वे सामाजिक मूल्य होते हैं, जो आदान-प्रदान तथा सहयोग आदि से संबंधित होते हैं जिनके आधार पर आर्थिक जीवन समुन्नत होता है तथा आर्थिक जीवन में संतुलन का विकास होता है।

04- चतुर्थ प्रकार के वे सामाजिक मूल्य होते हैं, जिनके आधार पर मानवीय जीवन में उच्चता आती है तथा मानव समाज में नैतिकता का विकास होता है।

उपर्युक्त वर्गीकरण से स्पष्ट होता है कि समाज में पाए जाने वाले सामाजिक मूल्य सामाजिक जीवन के सभी पक्षों से संबंधित होते हैं। जैसे आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक आदि से संबंधित विभिन्न प्रकार के सामाजिक मूल्य प्रत्येक समाज में विद्यमान रहते हैं जो अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं।

(ग)- सामाजिक मूल्यों का महत्वः-

प्रत्येक सामाजिक मूल्य का विशिष्ट महत्व होता है। सामाजिक मूल्यों के द्वारा ही मनोवृत्तियों का निर्माण होता है। व्यक्ति को उचित-अनुचित का ज्ञान होता है तथा व्यवहार और आचरण, व्यक्ति इन मूल्यों के आधार पर ही करता है। समाज और सामाजिक जीवन में सामाजिक मूल्यों के महत्व को संक्षेप में हम निम्न प्रकार समझ सकते हैंः-

01- सामाजिक मूल्यों के आधार पर ही मानव समाज में समाज द्वारा स्वीकृति तथा मान्यता प्राप्त नियमों का पालन करता है तथा उनके अनुकूल व्यवहार करके समाज में जीवन यापन करता है, समाज के योग्य बनता है।

02- मानव की अनन्त आवश्यकताए होती हैं जिनकी पूर्ति के लिए वह निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। समाज के प्रचलित सामाजिक मूल्य, आवश्यकताओं की पूर्ति में पूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं।

03- समाज सामाजिक संबंधों का जाल है, संबंधों के इस जाल को संतुलित करने में तथा समाज के सदस्यों में सांमजस्य रखने में सामाजिक मूल्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तथा सामाजिक मूल्यों के द्वारा समाज में एकरूपता का विकास होता है।

04- सामाजिक मूल्यों के आधार पर समाज के सदस्यों को प्रवृत्तियों एवं मनोवृत्तियों की निर्धारण होता है जिनके आधार पर मानव समाज में व्यवहार करता है तथा उसके आचरण का निर्धारण होता है।

05- समाज के सामाजिक तथ्यों और घटनाओं जैसे विचार, अनुभव तथा प्रक्रियाओं का ज्ञान भी सामाजिक मूल्यों के आधार पर होता है इसलिए सर्वश्री दुर्खीम का कथन है कि सामाजिक तथ्यों को जानने और समझने के लिए सामाजिक मूल्यों का जानना अनिवार्य है।

06- सामाजिक मूल्यों के आधार पर ही व्यक्ति समाज में अपनी इच्छा, आकांक्षाओं और उद्देश्यों को वास्तविकता प्रदान करता है तथा इनकी पूर्ति में सामाजिक मूल्य सहयोग प्रदान करते हैं।

07- सामाजिक मूल्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास और सामाजीकरण में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

08- सामाजिक मूल्य सामाजिक क्रियाओं तथा समाज के कार्यकलापों का सही ढंग से मूल्यांकन करने में मापदण्ड का कार्य करते हैं।

09- सामाजिक मूल्य, समाज में व्यक्ति के व्यवहारों का मूल्यांकन करके उन्हें समाज के तथा सामाजिक प्रतिमान के अनुकूल व्यवहार करने की सीख प्रदान करते हैं।

10- सामाजिक मूल्य समाज में सामाजिक संगठन तथा सामाजिक संरचना को स्थिरता प्रदान करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।65

(घ)- मूल्यों की आधार भूमिः-

वैदिक ग्रन्थ भारतीय संस्कृति एवं जीवन मूल्यों के आधार के रूप में हमारे समक्ष हैं। इन जीवन मूल्यों से वेदों के त्रैतवाद से लेकर ऋषियों की वैज्ञानिक चेतना तथा अनुप्राणित है। सत्, रज एवं तम जहॉं भौतिक प्रकृति के गुण हैं वहीं मानव मात्र के सामाजिक गुणों, कर्मों एवं प्रवृत्तियों से भी इनकी सत्ता प्रमाणित होती है। प्रकृति के इन गुणों के सांस्कृतिक एवं वैज्ञानकि स्वरूप पर आयुर्वेद की चरक संहिता से प्रकाश पड़ता है। समाज विश्व इन पर आधृत है एवं इन्हीं से संचालित होता है।

भारतीय मूल्यों की आधार भूमि वेद है। वेदों के माध्यम से ऋषियों ने जो जीवन के लिए सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं। वे ही शाश्वत् मूल्य बने। उन्हीं मूल्यों के आधार पर भारतीय जीवन व्यवस्थित माना जाता है। सादा जीवन विताते हुए ऋषियों ने स्रश्टा की महिमा का अनुभव किया और अपनी लघुता से साक्षात्कार किया। इस व्यवस्था में यह सबसे बड़ा मूल्य है। सम्भवतः इसलिए ऋग्वेद, यजुर्वेद, और सामवेद उस महत् तत्व की प्रार्थना में मन्त्र गाते रहे। एक ’सद्विप्राः बहुधा वदन्ति’ अर्थात् उस एक ब्रह्मा को विद्वान् अन्यान्य रूपों में वर्णन करते हैं। इस प्रकार जीवन का साध्य-मूल्य बनाया- उसी में समाहित होना। उसके साधन-स्वरूप ज्ञान, भक्ति और कर्म को प्रश्रय दिया। मनुष्य की प्रकृति के अनुरूप इसके अनुपात में अन्तर हो सकता है अथवा किसी एक साधन को भी मुख्यतः अपनाया जा सकता है। अपने कर्मानुकूल ही फल प्राप्त होगी। इस मूल-सिद्धांत ने भारतीय मानव के जीवन केा व्यवस्थित करने में विशेष सहायता दी, क्योंकि अनुचित कर्म करके उचित व अच्छे फल की प्राप्ति हो ही नहीं सकती और मानव कभी भी दुष्फल पाना चाहता ही नहीं, जो विवेकशील मानव की बुद्धि सदा ही बुरे कर्मों से बचने का प्रयत्न करती है, पर भौतिकता के प्रति आग्रहशील चंचल मन उसे बार-बार उधर खींच भी ले जाता है। संसार में होने वाले दुर्वृत्तों का यही मूल कारण है, चाहे रावण सीता-हरण हो या दुर्योधन द्वारा श्रीकृष्ण का कथन न मानकर महाभारत का युद्ध। ’आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरते’ अर्थात् जो अपने लिए उपयुक्त न प्रतीत हो, वह किसी के लिए भी न करें। यह कहकर ऋषि ने भारतीय मूल्य-व्यवस्था की आधार-भूमि ही स्पष्ट कर दी। सम्भवतः लोक-व्यवहार के लिए यह सबसे बड़ा मूल्य है। कोई भी अनुचित कार्य करने से पहले अन्तःकरण की एक बार आवाज़ अवश्य आती है। वैदिक मूल्य-व्यवस्था विवेेक पर आधारित जीवन व्यतीत करते हुए अन्तःकरण से उसकी पुष्टि करने में है। इसे भारतीय जीवन-मूल्य का स्वर्णिम नियम कहा जा सकता है।

वैदिक मूल्य व्यवस्था एक उत्कृष्ट समाज के निर्माण की व्यवस्था है। वर्तमान युग कुण्ठा, संत्रास, संदेह व दुविधा का युग है, यह युग मूल्यों के विवाद का युग है। वर्तमान युग बोध मूलतः मूल्य-बोध के प्रश्न से जुड़ा है। सभी मूल्यों को मानव से सम्पन्न करके उनकी अर्थवŸाा को समझने का प्रयास किया जा रहा है। आज भौतिकवाद की अंधी दौड़ से मानव के मानसिक वल को अकल्पनीय क्षति हुई है।

(ड़)- विभिन्न मूल्यः

01- सामाजिक एवं पारिवारिक मूल्य-

वेद कालीन समाज पितृमूलक समाज था, पिता ही घर का मुखिया होता था। वेदकालीन समय में स्त्रियों के मौज्जी - बन्धन का उल्लेख प्राप्त होता है। कुछ स्त्रियाँ शिक्षा ग्रहण कर गृहस्थ कार्यो में लग जाती थीं, कुछ ब्रह्मचारिणी बन कर अध्यात्म की उपासना करती थीं। ऋग्वैदिक समाज चार वर्गों में विभक्त था। सुप्रसिद्ध ’पुरूषसूक्त’ में समाज की परिकल्पना पुरूष के रूप में करके विभिन्न वर्गों की योजना उसके विविध अवयवों के अनुसार की गयी है। यह व्यवसथा जन्मना न होकर कर्मणा थी। जिस प्रकार शरीर के सभी अंग एक दूसरे से सम्बद्ध हैं उसी प्रकार ये वर्ण भी एक दूसरे से जुड़े हैं।

वैदिक काल में समस्त मानव समुदाय को विभु ने असि, मषि कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छः कर्मों के द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नामक चार वर्णों में विभक्त किया। विभु ने अपने मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शूद्रों के उत्पन्न होने की बात कही है।

’’चत्वार आश्रमाः प्रोक्ताः सर्वे गार्हस्थ्यमूलकाः।’’ अर्थात् गृहस्थ आश्रमों का मूल है क्योंकि उसी से सबका भरण पोषण होता है। प्राचीन काल से ही ग्रहस्थ जीवन के सुखी होने के वर्णन मिलते हैं (मनुस्मृति 9.10) वैदिक काल में निर्धारित किए गये करणीय कर्तव्यों में से पंच-महायज्ञ व षोडश-संस्कार भी गृहस्थ जीवन में सम्पन्न होते हैं। परिवार मानव का सर्वांगीण विकास करने के साथ-साथ परलोक में शुभगति प्राप्त करता है।66

ऋषियों ने स्त्री-पुरूष को मानव-जीवन की गाड़ी के दो चक्र समझकर स्त्री को पुरूष के समकक्ष स्थान दिया है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार पत्नी पुरूष की आत्मा का आधा भाग है (शतपथ ब्राह्मण 5.2.1.10) गृहस्थी के दायित्वों के प्रति गृहिणी को ’गार्हपत्याय जागृहि’ कहकर जागरूक रखा गया है।

शतपथ ब्राह्मण में ’मातृमान् पितृमान, आचार्यवान् पुरूषों वेद कहकर माता को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है। तैŸिारीय उपनिषद् में कहा गया है- मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्य देवो भव। यहाँ भी माता को पिता एवं आचार्य से पहले पूजनीय माना गया है। नारी जननी रूप में मानवता की परम उपकारिणी है। वह न केवल मानव जाति की जन्मदात्री है अपितु इस सृष्टि की संचालिका शक्ति भी है।67

02- राजनैतिक मूल्य-

संसार में इकाई के रूप में होता है एक मनुष्य। कई मनुष्यों से मिलकर बनता है एक परिवार। कई परिवारों का होता हैं एक समाज। और कई समाजों से मिलकर बनता है एक राष्ट्र। वेेदों में स्वस्थ परिवार, समाज व राष्ट्र से सम्बद्ध अनेक मन्त्र हैं। इनमें राजधर्म एवं राष्ट्रधर्म से सम्बन्धित अनेक राजनैतिक मूल्यों की स्थापना की गयी हैं- जैसे राष्ट्र की रक्षा के लिए राजा के शरीर और राष्ट्र में तादात्म्य की स्थापना की गयी हैै, राजा को प्रत्येक क्षत्रियकुल में प्रतिष्ठित माना गया है। राष्ट्र का स्वरूप केवल भूमि आदि नहीं, अपितु श्रेष्ठ वीरों से सम्पन्न होना हैं। ब्रह्मगवी सूक्त में उन कारणों को गिनाया गया है जिससे राष्ट्र ष्ट हो जाता हैं अर्थात् राजनैतिक मूल्योेें की रक्षा की आवश्यकता पर बल दिया गया हैं। ब्रह्मजाया सूक्त में ब्रह्मविद्या की रक्षा को राजा का धर्म बताया गया है। वेदों में सामाजिक व्यवस्था के संचालन हेतु राजा के वरण अथवा चयन के संकेत हैं। वैदिक ऋषि राजा की निरंकुशता के पक्ष में नहीं थे इसलिये उन्होंने मंत्री में राजा पर जनता का अंकुश लगाने के लिये जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्मित सभा व समिति का विधान किया - तं सभा च समितिश्च सेवा च (अथर्व 15/9/2)। राजनीति गुणवत्ता पर आधारित थीं। पराधीन जीवन को अनुमति नहीं थीं। स्वराज्य की अर्चना तक की गयी हैं। (ऋग्वेद-1/80/9)। ऐसे स्वराज्य की परिकल्पना की गयी हैं जो जनप्रतिनिधियों द्वारा संरक्षित व संचालित हैं। नैतिकता, सदाचरण शीलता एवं कर्तव्य-निष्ठा राजनैतिक मूल्यों की आत्मा हैं।

ऋग्वेद के संज्ञानसूक्त में राष्ट्रीय एकता का संदेश हैं। विचारों की एकता के साथ-साथ सभा की एकता और हितकारक भावों की एकता पर भी वेद में बल दिया गया हैं। राष्ट्र प्रेम, राष्ट्रीय एकता उसके प्रति प्रतिबद्धता एवं सुरक्षा की भावना, पारास्परिक सौहार्द्र्र्र, सोंमनस्य और सहयोग आदि बातों पर बल दिया हैं। ऋग्वेद में ऐसे राजनैतिक सिद्धातों का उल्लेख हैं, जिनकी स्थापना ऋग्वैदिक ऋृषियों ने राज्य-संगठन हेतु की थी और जिनका प्रयोग आर्यों ने सर्वप्रथम किया था। जन्मभूमि को ’माता’ मानकर सम्मानित करने की भावना वेदों में ही प्राप्त है।

03- आर्थिक मूल्य-

प्राचीन भारतीयों की दृष्टि में समाज की भौतिक आवश्यकता का सम्पादन करना प्राप्त की हुयी सम्पदा का रक्षण करना, रक्षित की हुयी सम्पदा करे बढ़ाना और बढ़ी हुयी सम्पदा को योग्यपात्रों में बांटना-इनमें जीवन-मूल्यों की मूलभावना सन्निहित थी। दान की प्रेरणा की गयी है। समाज में समानता के लिये आवश्यक है कि मनुष्य अकेला न खाए, बांट कर खाए। धन परिश्रम से प्राप्त किया जाना चाहिये। जुए आदि अनुचित कार्यों से प्राप्त धन की निन्दा की गयी है।

जीवन में प्रवृत्ति ओर निवृत्ति का अनुसरण करना चाहिये। जहाँ जीवन के प्रति मोह हैं तो योग भी, कामना है तो साधना भी, आसक्ति है तो त्याग भी। इस जीवन-शैली में भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता और लौकिकता के साथ पारलौकिकता का अद्भुत समन्वय मिलता है।

जीवन के अन्तिम लक्ष्य में ’मोक्ष’ के साथ-साथ अर्थ और काम को भी मान्यता प्राप्त है। जो भी काम्य है वह अर्थ है। वेदों में अर्थ के लिये अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ है। वह सन्तुष्ट और प्रसन्न से करने के कारण धन, दान देने से ’रमि’ जीवन-धारण करने और दारिद्रम को आच्छादित करने से ’वसु’ गतिमान होने से ’हिरण्य’ और पुण्य से प्राप्त होने से ’भग’ है।

घर भले ही साधारण हो पर वे अन्न, धन आदि पदार्थाें से सदा भरे रहने चहिये। परिवार और गृहागतों का समुचित सत्कार हैै। पर गृहस्थ अपनी अतिशय उदारता और दानशीलता से ऋणी न हो जाये। संयमपूर्वक अल्पव्यय करते हुए, भविष्य के लिये कुछ बचाकर भी रखना चाहिये।

04- धार्मिक मूल्य-

भारत की प्राचीन संस्कृति में धर्म का अपरिहार्य स्थान है। धर्म एक कायक शब्द है। धर्म आदिम समय से ही मानव जाति का मार्गदर्ष न करता आ रहा है, धर्म शब्द का अर्थ है- धारण करना। वैदिक काल से धर्म को पुरूषार्थ- चतुष्टय का प्रथम अंग स्वीकार किया गया। प्रकृति पूजा धार्मिक जीवन का स्त्रोत है। वैदिक काल के धार्मिक जीवन में दो धारा में प्रस्फुटित हुईः- 01- भविष्य की धारा 02- कर्म काण्ड की धारा। धर्म ही प्राणी को पारलौकिक जगत के प्रति चिन्तनशील बनाता है। भारतीय धर्म का लक्ष्य है अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि।

धर्म नवम् भाव है जो सबको धारण करता है, जिसे सब धारण करते हैं। आधार और आधेय की श्रृंखला को विश्व कहते हैं। यह विश्व ही धर्म है। सारा संसार आधार और आधेय के रूप में विभक्त है। आधार से पृथक्् आधेय की सत्ता सम्भव है। फल का आधार है फूल। फूल का आधार है पल्लव। पल्लव का आधार है वृत्त (शाखा) शाखा का आधार है तना (वृक्ष)। वृक्ष का आधार है अंकुर। अंकुर का आधार है बीज, बीज का आधार है भूमि। भूमि का आधार है जल (शेष भाग) जल का आधार है अग्नि (कच्छप), अग्नि का आधार है वायु। वायु का आधार है शून्य (आकाश), शून्य में सब हैं, शून्य सबमें है इसीलिए शून्य धर्म है।

05- मानवीय मूल्यः-

धर्म, जन्म, रक्षा, दान, मैत्री, प्रतिज्ञा, लाभ, शरणागत रक्षा, भाग्यवाद, पुरूषार्थ का लाभ, जीवन दर्ष न आदि मानवीय मूल्यों का उत्कृष्ट आधार है। सदाचरण प्राप्ति के लिये प्रार्थना की जाती थी। त्यागपूर्वक योग पर बल दिया जाता था। आत्मसंयम, अनाशक्ति, पितृभक्ति के उज्जवल दृष्टान्त हैं। जो प्रवृŸिा सद्व्यवहार पूर्ण आचरण से युक्त होती है एवं मानव को ’रामदिवत प्रवर्त्तितव्यं न रावणादिवत्’ का ज्ञान कराती हुयी सत्मार्ग पर प्रवृत्त करती है वह नैतिकता कहलाती है। नैतिक व्यवस्था किसी समाज की संस्कृति का आवश्यक और सर्वप्रधान अंग होती है। आर्यों का समाज पंच महायज्ञ पुरूषार्थ चतुष्टय, वर्णाश्रम चतुष्टय तथा ऋणत्रय की मान्यताओं पर आधारित था। धन, ऐश्वर्य समृद्धि यश, विजय आदि की कामना के साथ-साथ नीति और सदाचरण- प्राप्ति के लिए भी प्रार्थना की जाती थी। त्यागपूर्वक योग का समर्थन था।

ऋतु, श्रम, अहिंसा मानव-प्रेम विश्व बंधुत्व एवं लोक कल्याण आदि नैतिक भावनाएं ही वस्तुतः मानव समाज एवं मानव की आधारशिला है। ऋग्वेद, ऋत, सत्य अहिंसा मानव, लोक कल्याण दान एवं उदारता आदि उन सभी नैतिक मूल्यों का आदि स्त्रोत है जिन्हें वाद में संसार के विविध धर्म ग्रन्थों एवं धर्माचार्यों ने स्वीकार किया। प्रेम और मित्रता के द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति सुनिश्चित है।

शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है संसार तीन वस्तुओं का समूह है नाम रूप और अर्थ, इसीलिए कर्म समाज की एक महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा है। विचार, मन, चिŸा और वाणी से ही कर्म उत्पन्न हुआ। शरीर के प्रत्येक अंग द्वारा किया गया कार्य कर्म कहलाता है - मन द्वारा संकल्प, वाणी द्वारा भाषण, चक्षुु द्वारा दर्ष न तथा श्रोत्र द्वारा श्रवण आदि। मनुष्य के जीवन में कर्म का स्थान सर्वोपरि है। जैसी इच्छा होती है वैसा ही आचरण होता है, जैसा आचरण होता है वैसा ही कर्म होता है, और जैसा कर्म होता है वैसी ही गति मिलती है। निष्काम कर्म पर चलने वाले पुनः जन्म नहीं लेते। कर्म ही सभी नैतिक मूल्यों का आधार है।

वेद अध्यात्म के साथ व्यवहार का, परलोक के साथ इहलोक का, पुरातन के साथ अद्यतन का, देश के साथ काल का, सामंजस्य प्रस्तुत करता है।

मैत्री उपनिषद् में कहा गया है अन्न इस सम्पूर्ण संसार की योनि है, काल अन्न की योनि है, सूर्य काल की योनि है। सामाजिक जीवन एवं जीवन मूल्यों में भी काल परिलक्षित होता है।

सत्य-आचरण पृथ्वी एवं द्युलोक को सुस्थिर करने वाला आधार सत्य ऋतु के समीकृत हुआ है उपनिषदों में तो ’बृह्म’ सत्यरूप ही है। सत्य की चुनौती को भय, कामना व अहंकार से युुक्त व्यक्ति नहीं स्वीकार कर पाता इसीलिए धूर्त, छली व कपटी बन जाता है। भय, काम, क्रोध को जीतकर ही सत्यनिष्ठ बना जा सकता है। ’निर्भय जन को असत्य के पर्दे मे पाप छिपाने की जरूरत नहीं रहती। ’सत्य’ के विविध आयाम भी होते हैं। वैयक्तिक पारिवारिक, सामाजिक तथा वैश्विक स्तरों पर सत्य को साधना होता है।

हम मन, वचन एवं कर्म से एकता के भाव को ग्रहण करें। एकता के लिये दान श्रेष्ठ है। सभी नैतिक मूल्यों की सार्थकता तब ही है, जबकि व्यक्ति अपनी मातृभूमि के प्रति अटूट श्रद्धा रखता है। वर्तमान परिदृश्य में आतंकवाद एवं उग्रवाद के परिहार के लिये नैतिक जीवन मूल्य ’अहिंसा’ की अत्यन्त आवश्यकता है। समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है और यह जाल सामाजिक सहयोग एवं सामाजिक संघर्ष द्वारा बुना होता है। जब समाज में सहयोग की मात्रा अधिक होती है तो मनुष्य सामाजिक संबंधों का आनन्द प्राप्त करते हुए सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाता है। दूसरी ओर जब समाज में संघर्ष की मात्रा अधिक होती है तो सामाजिक व्यवस्था के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। आज समाज में संघर्ष की समस्या विश्वव्यापी है। इसका कारण है कि मनुष्य ने मूल्यों को भुला दिया है। वर्तमान में मूल्यहीनता सबसे बड़ी समस्या है।

(च)- वर्तमान चुनौतियाँ एवं मूल्योें में परिवर्तनः-

आधुनिकता के नाम पर नगरीकरण, मध्यवर्गीय संस्कृति, जटिलता, विघटन, कुण्ठा, शक्तिहीनता की छाया मंडराने लगी है। व्यक्ति, परिवार और समाज को सीमित कर सामाजिक भावनाओं को जकड़ दिया गया है।

सत्य को व्यवहार में आचरण में उतारकर उसकी चुनौती मैत्री, लोक कल्याण, सदाचार एकता विश्व वंधुत्व आदि नैतिक मूल्यों का निरन्तर ह्रास हो रहा है। आज शिष्यों एवं शिक्षकों में बढ़ते हुए असन्तोष एवं उनमें बिगड़ते संबंधों के कारण समाज में फैलती भ्रष्टाचार एवं हिंसा की प्रवृत्ति आधुनिक शिक्षा प्रणाली में मूल्यों के ह्रास के कारण ही है। आज शिक्षा का आचरण से दूर-दूर तक संबंध नहीं रहा।68

3- मूल्य एवं आदर्शः-

डॉं. राधाकमल मुकर्जी ने मूल्य का अर्थ इस प्रकार बताया है- मूल्य एक जटिल सम्पूर्णता और चेतन प्राणीशास्त्रीय सामाजिक आदर्श है’’। मूल्य एक आन्तरिक गुण है परन्तु मानव इसे सामाजीकरण की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्र्रियाओं के माध्यम से प्राप्त करता है।

समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है, जो बाह्म रूप से सरल और आन्तरिक रूप से अत्यन्त जटिल होता है, जो विभिन्न नियमों के द्वारा व्यवस्थित है। इस प्रकार समाज में सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए तथा मानव की व्यक्तिवादी, स्वार्थवादी और अराजक प्रवृत्ति पर अंकुश लगाए रखने के उद्देश्य से तथा मानवीय व्यवहारों को नियन्त्रित करने के लिए, प्रत्येक समाज में कुछ न कुछ नियम बनाए और निर्धारित किए जाते हैं, जिनका पालन करना प्रत्येक सदस्य के लिए अनिवार्य समझा जाता है। समाज के द्वारा प्रतिपादित इन्हीं नियमों को आदर्श नियमाचार, मानक, मानदण्ड अथवा सामाजिक प्रतिमान कहा जाता हे। छवतउे शब्द का हिन्दी में प्रयोग समाजशास्त्र कोष के अनुसार मानदण्ड या आदर्श नियमाचार होता है, जिसे हम सामान्य अर्थ में सामाजिक प्रतिमान या आदर्श नियम भी कहते हैं। समाज के ये आदर्श नियम ;छवतउेद्ध समाज के प्रत्येक सदस्य को सामाजिक मूल्यों के अनुरूप कार्य और व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं तथा समाज के सदस्य इस मानव के अनुकूल कार्य करते हैं।

प्रत्येक समाज में सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक संरचना को बनाने के लिए, उसे संचालित तथा नियमित रखने के लिए, सामाजिक प्रतिमान या आदर्श सामाजिक नियमों का होना अति आवश्यक एवं अनिवार्य होता है। क्योंकि सामाजिक नियमों आदर्श नियमों या सामाजिक प्रतिमान के अभाव में मानव मनमानी करने लगता है। पथभ्रष्ट हो जाता है तथा उसके व्यक्तित्व में विकार उत्पन्न हो जाता है और उसका समाज में अस्तित्व नहीं रह जाता। इस सम्बन्ध में डेविस का कथन है ’’अर्थात सामाजिक प्रतिमानों का आदर्श । नियमों के अभाव में मानवीय समाज का कोई अस्तित्व नहीं होता’’।69

(अ)- सामाजिक आदर्श का अर्थ और परिभाषाएँः-

समाज की आदर्शात्मक व्यवस्था का समाज की तथ्यात्मक या ब्याहारात्मक व्यवस्था से अत्यधिक महत्व होता है तथा इसी आदर्शात्मक व्यवस्था के नियमों द्वारा मानव के व्यवहार को नियन्त्रित किया जाता है। इसी आदर्शात्मक सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत पाए जाने वाले मान को, प्रतिमानों अथवा आदर्शों को ही सामाजिक आदर्श नियम या सामाजिक प्रतिमान कहते है। जैसे चोरी नहीं करनी चाहिए, झूठ बोलना पाप है, बड़ों का आदर तथा अतिथियों का सत्कार करना चाहिए,समाज द्वारा स्वीकृत इन्हीं आदर्शों या मानकोें को सामाजिक प्रतिमान या आदर्श नियम कहा जाता है। अतएव हम कह सकते हैं कि समाज के अनुरूप बनाए रखते हुए नियन्त्रण के कुछ नियमों की व्यवस्था होती है। इन्ही नियमों की व्यवस्था को सामाजिक प्रतिमान या आदर्श नियम कहा जाता है। सामाजिक आदर्श नियम या सामाजिक प्रतिमान अपने परिभाषिक रूप में कर्तव्यों की भावना से ओत-प्रोत रहते है अर्थात् सामाजिक प्रतिमानों का बोध कर्तव्यों की आदर्शात्मक धारणा से होता है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि विद्यमान सामाजिक परिस्थितियों में किस प्रकार से व्यवहार करना चाहिए। जो समाज तथा सामाजिक आदर्श के अनुकूल हो, इस प्रकार सामाजिक परिस्थितियों में मानव व्यवहार के नियमन और नियन्त्रण के लिए समाज द्वारा निर्धारित मानक, आदर्श नियमों को ही सामाजिक प्रतिमान या सामाजिक आदर्श नियम कहा जाता है।

सामाजिक आदर्श नियम या मानक को कुछ समाज वैज्ञानिकों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-

प्रोफेसर ग्रीन के अनुसार-

’’सामाजिक आदर्श नियम मानवीय सामान्यीकरण है, जिसके फलस्वरूप सदस्यों से एक निश्चित व्यवहार करने की अपेक्षा की जाती है।’’

किंग्सले डेविस के शब्दों में

’’ये (आदर्श प्रतिमान) नियन्त्रक हैं जिनके द्वारा मानव समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों को इस प्रकार नियन्त्रित करता है कि अपनी जैविकीय इच्छाओं को दमन कर भी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए विभिन्न क्रियाओं को करें।’’

डेविस की इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि सामाजिक मानदण्ड या आदर्श नियम समाज से मानवीय व्यवहारों को नियन्त्रित करने के लिए ऐसे साधन हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति की मूल इच्छाओं या प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करके समाज के अनुकूल व्यवहार एवं कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाता है।

राबर्ट वीरस्टीड के अनुसार

’’सामाजिक मानदण्ड संक्षेप में कार्य प्रणालियों की वे प्रामाणिक विधियाँ हैं, जो समाज को मान्य होती हैं’’।

इससे स्पष्ट होता है कि आदर्श नियम कार्य करने की प्रमाणित विधियाँ हैं, जिन्हें समाज द्वारा स्वीकार किया जाता है जो समाज की स्ंास्कृति के विशाल क्षेत्र होते हैं, क्योंकि ये संस्कृति के अनुकूल होते हैं।

किम्बाल यंग के शब्दों में ’’सामाजिक मानक, समूह की अपेक्षाएँ हैं’’।

प्रत्येक समूह और समाज अपने सदस्यों से कुछ अपेक्षाएँ रखता है जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होती तथा समाज में व्यक्ति के व्यवहारों को इन्हीं के द्वारा नियन्त्रित किया जाता है। अतएव समाज द्वारा स्वीकृत या प्राप्त अपेक्षाएं ही सामाजिक प्रतिमान है।

प्रोफेसर पी.सी.खरे के शब्दों में ’’सामाजिक आदर्शनियम सामाजिक जीवन रूपी खेल के नियम कहे जासकते हैं’

उपर्युक्त परिभाषा की विस्तृत विवेचना और विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि सामाजिक प्रतिमान या आदर्श नियम के अंतर्गत समाज की प्रचलित कार्यप्रणालियों तथा रूढ़ियों, परंपराओं एवं प्रथाओं आदि को भी सम्मिलित किया जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि ’’समाज के प्रचलित मूल्यों, मानकों, नियमों, के विशिष्ट संग्रह को समाज या समूह के सामाजिक प्रतिमान या आदर्श नियम कहा जाता है। अतएव सामाजिक मूल्य होते हैं। अर्थात् वे सामाजिक मूल्य जो व्यक्ति के व्यवहारों को नियमित एवं नियन्त्रित करते हैं, सामाजिक प्रतिमान कहलाते हैं।70

(ब)- आदर्श नियम की विशेषताएँः-

सामाजिक आदर्श नियम या सामाजिक प्रतिमान की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैंः-

01- सामाजिक आदर्श नियम या सामाजिक प्रतिमान का नैतिक कर्तव्य की भावना से बड़ा घनिष्ठ संबंध होता है यहाँ तक कि दोनों को पूर्णतः पृथक् नहीं किया जा सकता।

02- सामाजिक मानक या आदर्श नियमों का संबंध समाज विशेष के सांस्कृतिक प्रतिमान से ही घनिष्ठ होता है तथा इन प्रतिमानों में सांस्कृतिक नियमों की उपेक्षा नहीं की जाती है तथा समाज के संस्कृति के नियम व्यवहार से अनेक विकल्प प्रस्तुत करता है।

03- प्रत्येक समाज के आदर्श नियम या सामाजिक मानक उस समाज के सदस्यों को पूर्णतः प्रभावित करने के साथ उससे प्रभावित भी होते हैं। इस प्रकार की विरोधाभास की विशेषता भी निहित है।

04- प्रत्येक समाज के आदर्श नियम या सामाजिक मानदण्ड अत्यन्त उपयोगी होते हैं। समाज के सदस्य इनका पालन इसकी उपयोगिता के आधार पर नैतिक कर्तव्य समझकर करते हैं। भय तथा दण्ड के कारण इनका पालन नहीं किया जाता। अन्य व्यक्तियों द्वारा प्रतिमान का कभी भी उलंघन नहीं किया जाता, जबकि कानून का उलंघन किया जाता है।

05- समाज के आदर्श नियम सामाजिक मानदण्ड समाज के सदस्यों के समक्ष अनेक प्रकार के नवीन व्यवहार प्रस्तुत करता है, जिसमें से कुछ या सबको व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से चयन करता है। नवीन सामाजिक परिस्थितियों में सामाजिक प्रतिमान

व्यक्ति को उचित व्यवहार के लिए मार्गदर्ष न करता है तथा व्यवहारों को नियंत्रित करने का कार्य करता है।

06- समाज के सामाजिक मानक या आदर्श नियम प्रायः स्थायी होतेे हैं जो समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं तथा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं।

07- प्रत्येक समाज में आदर्श नियमों का विकास एकाएक न होकर शनैःशनैः होता है जो समाज में प्रचलित सामाजिक व्यवहार प्रतिमान तथा सांस्कृतिक प्रतिमान के आधार पर विकसित होते हैं।

08- समाज के आदर्श नियम या सामाजिक मानदण्ड लिखित और अलिखित दोनों प्रकार के होते हैं। जैसे- प्रथायें, रूढ़ियाँ आदि अलिखित होती है, जबकि कानून लिखित होते हैं।

अतः स्पष्ट होता है कि सामाजिक आदर्श नियम या प्रतिमान द्वारा मान्यता प्राप्त व्यवहार की विशिष्ट विधियाँ हैं, जिनका पालन प्रायः समाज के समस्त सदस्य स्वेच्छा से करते हैं। ये सामाजिक जीवन के समस्त क्षेत्र में विद्यमान रहते हैं, जो सामाजिक मूल्यों के अनुरूप व्यक्ति को व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं जैसे- अतिथि का सत्कार करना, अभिवादन करना, कक्षा में अध्यापक के प्रवेश पर छात्रों का खड़ा होना, सड़क पर वायीं ओर चलना, लाइन से टिकट लेना आदि। इस प्रकार सामाजिक जीवन के क्षेत्र में आदर्श नियमों या सामाजिक प्रतिमानों को व्यक्तियों के व्यवहार करने का मार्गदर्ष न करने वाली आचार संहिता कहा जाता है।71

प्रत्येक समाज में कई प्रकार के सामाजिक प्रतिमान या आदर्श नियम होतंे हैं। सामान्य रूप से भारतीय समाज के आदर्श नियमों का सामाजिक प्रतिमानों को, जो कि समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हैं, इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है। जैसे-जनरीतियाँ, प्रथायें, रूढ़ियाँ, विधि।

(स)- आदर्श नियमों का महत्वः-

सामाजिक प्रतिमान या आदर्श नियम, समाज में तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं समाज में मानव के वैयक्तिक एवं सामाजिक व्यवहार के निर्धारण और नियमन में सामाजिक प्रतिमानों या आदर्श नियमों का अत्यन्त मत्वपूर्ण योगदान रहता है। ये आदर्श नियम अपने विभिन्न प्रकारों जैसे प्रथा, परम्परा, जनरीति, रूढ़ि और कानून के माध्यम से समाज में व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित एवं नियन्त्रित करते हैं इस प्रकार सामाजिक नियंत्रण में आदर्श नियमों की विशिष्ट भूमिका होती है। समाज के आदर्श नियम मानव के व्यक्तित्व एवं सामाजिक व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति उन्हें उचित और अनुचित व्यवहारों के बारें में पूर्ण ज्ञान कराते हैं तथा विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में कार्यों एवं व्यवहारों के संबंध मे, समाज के निर्णय या समाज की मान्यता से व्यक्ति को अवगत कराने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।

इतना ही नहीं सामाजिक प्रतिमान या आदर्श नियम, समाज के सदस्यों के व्यवहार, भावनाओं, विचारों आदि को भी अत्यधिक प्रभावित करते हैं तथा इन्हीं के द्वारा उनके चरित्र का उनके साथियों, अन्य समूहों के व्यक्तियों के आचरण के साथ अनुकूलन एवं सामन्जस्य एवं एकीकरण होता है। समाज के सामाजिक एकता एवं समानता को आदर्श नियमों द्वारा अत्यधिक प्रोत्साहन प्रदान किया जाता है, यहाँ तक कि सामूहिक व्यवहार और सामूहिक सामजिक जीवन की आधारशिला हम आदर्श नियमों या सामाजिक प्रतिमानों को कह सकते हैं। सामाजिक आदर्श नियमों या प्रतिमानों का विकास समाज के एक अंग के रूप मे ही होता है, जो समाज की मौलिक आवश्यकाओं की पूर्ति करने में सहायक होते हैं। ये समाज में सन्तुलन बनाये रखने का कार्य करते हैं तथा मानव व्यवहारों को नियन्त्रित रखते हैं। इसीलिए इन्हें सामाजिक मानदण्ड भी कहा जाता है। सामाजिक प्रतिमानों या आदर्श नियमों की महत्ता को स्पष्ट करते हुए बीरस्टीड ने कहा है कि, ’’समाज स्वयं एक व्यवस्था है जिसका अस्तित्व सामाजिक प्रतिमानों से ही सम्भव हो पाता है’’। अतएव स्पष्ट है कि समाज और सामाजिक जीवन में इनकी विशिष्ट महत्तृा है क्योंकि ये सामाजिक संगठन के वास्तविक आधार-स्तम्भ होते है।72

संदर्भ सूची

51- डॉं. ध्रुव कुमार दीक्षित-समाज शास्त्र, पृ. 150

52- डॉं. ए. पी. श्रीवास्तव एवं डॉं. आर. बी. ताम्रकार - समाजशास्त्र, पृ. -202

53- डॉं. हुकुमचंद, आर. राजपाल -काव्य में नवीन जीवन मूल्य, पृ. 61

54- डॉं. ध्रुव कुमार दीक्षित - समाजशास्त्र, पृ. 149

55- डॉं. धर्मपाल मैनी- भारतीय जीवन मूल्य (आलेख) वैदिक डॉं. शशि तिवारी- वैदिक मूल्य व्यवस्थाः समसामयिक प्रासंगिकता और चुनौतियाँ, प्रारम्भ

56- डॉं. ध्रुव कुमार दीक्षित - समाजशास्त्र, पृ. 149-150

57- वही पृष्ठ, 150-151

58- डॉं. ए. पी. श्रीवास्तव एवं डॉं. आर. बी. ताम्रकार - समाजशास्त्र, पृ. -151

59- डॉं. ध्रुव कुमार दीक्षित - समाजशास्त्र, पृ. 153

60- डॉं. ए. पी. श्रीवास्तव एवं डॉं. आर. बी. ताम्रकार - समाजशास्त्र, पृ. -204

61- डॉं. ध्रुव कुमार दीक्षित - समाजशास्त्र, पृ. 154

- वही पृ. 151

63- डॉं. ध्रुव कुमार दीक्षित - समाजशास्त्र, पृ. 152-153

64- डॉं. ए. पी. श्रीवास्तव एवं डॉं. आर. बी. ताम्रकार - समाजशास्त्र, पृ. -201-202

65- वही पृ. 204-205

66- डॉं. शशि तिवारी- वैदिक मूल्य व्यवस्थाः सम सामयिक प्रासंगिकता और चुनौंतियॉं (स्मारिका) वेव्स इण्डिया - 2007, रमन रेती वृन्दावन, पृ. 61-62

67- वही पृ. 57-59

68- वही पृ. 70-74

69- डॉं. ए. पी. श्रीवास्तव एवं डॉं. आर. बी. ताम्रकार - समाजशास्त्र, पृ. -198

70- वही पृ- 199 - 200

71- वही पृ- 200 - 201

72- वही पृ- 201