- प्रेम
करोड़ी
'प्रिया ओ प्रिया, देखो तो कौन है बाहर।’ चाय के संग अखबार को पीते हुए सुधांशु ने कहा।
'देखती हूं।’ कुछ झुंझलाते हुए प्रिया रसोई से बाहर आई और मन ही मन बुदबुदाने लगी, 'कौन है न जाने, डोरबेल लगी हुई है, फिर भी दरवाजा पीटे जा रहा है।’
दरवाजा खोला तो देखा सामने एक नाटा सा आदमी धोती-कुर्ता पहने खड़ा है, अकेला नहीं है, उसके साथ देसी ठर्रे की गंध भी जैसे पूरे घर में दाखिल होने को उतावली लग रही है।
प्रिया ने कुछ अजीब सा मुंह बनाते हुए पूछा, 'बोलो क्या काम है?’
'अरे भाभाजी प्रणाम, मैं करोड़ीलाल हूं। भाईसाहब कहां हैं।’
प्रिया के जवाब का इंतजार किए बिना ही वो अंदर दाखिल हो गया। जानी पहचानी आवाज सुन सुधांशु भी बाहर निकल आते हैं और मुस्कुराते हुए करोड़ी से मुखातिब होते हैं, 'अरे करोड़ी जी क्या हालचाल है।’
फिर वो प्रिया से मुखातिब हो कहते हैं, 'ये करोड़ीलाल जी हैं। अपनी शादी का सारा खाना इन्होंने ही तैयार किया था।’
प्रिया उन्हें नमस्ते करती है और यह कहते हुए रसोई में चल देती कि चाय बनाकर लाती हूं।
वो रसोई की ओर बढऩे लगती है कि करोड़ी भी उसके पीछे-पीछे आने लगता है, 'अरे भाभाजी थे तो अठे ही बैठो, मैं अबार चाय बनार लाऊं।’
'अरे नहीं नहीं करोड़ी जी आप बैठे, मैं बना लूंगी।’
'अरे नहीं भाभीजी, थे तो बैठो’
'ठीक है’, प्रिया मुस्कुराते हुए कहती हैं, 'पर मैं आपको चाय-चीनी तो बता दूं।’
'अजी हलवाई हा, रसोई में कुण सा माल कौड़े धरयो है, ढूंढ ही लेसूं।’
प्रिया फिर ज्यादा कुछ नहीं बोली, वैसे भी उसके जिस्म से तेजी से आती देसी ठर्रे की गंध में सांस लेते रहना उसके लिए जरा मुश्किल ही हो रहा था। वह ड्राइंगरूम में बैठे सुधांशु के पास आकर धीरे से फुसफुसाती है, 'ये क्या आफत है, इसके कपड़े कितने गंदे हो रहे हैं। लग रहा है कि आठ-दस दिन से नहाया भी नहीं है। ऊपर से ये गंध।’
'अरे जानेमन तुम्हारी प्रॉब्लम दूर करने के लिए ही तो बुलाया है। रुद्राक्ष का जन्मदिन मनाना है या नहीं।’
'हां, मगर आपने तो कहा था कि इस बार खर्चे ज्यादा हो गए हैं, अफोर्ड नहीं कर सकते।’
'अरे यार, बस सामान का इंतजाम करना है। बाकी जो हम दे देंगे, ले लेंगे वो। तुम्हारे यहां के हलवाई की तरह नहीं हैं, जो भारी-भरकम बिल बना देते हैं।’
उनकी बातचीत में खलल पड़ती है, जब करोड़ी चाय के तीन कप एक प्लेट में रखकर ही बाहर ले आता है।
'ल्यो भाभीजी, जानदार, शानदार चाय।’
प्रिया मुस्कुराते हुए चाय का कप ले लेती है। कुछ अनमनी-सी होकर चाय के घूंट हलक के नीचे उतारती है, करोड़ी की देह से आती दुर्गंध जैसे चाय के कप में समाई हुई हो, पर नहीं चाय तो बहुत ही जायकेदार बनी है। इतनी की प्रिया खुद को रोक ही नहीं पाती और करोड़ी से मुखातिब होती है, इस बार बहुत अपनेपन से, 'अरे वाह करोड़ी जी, चाय तो बहुत ही शानदार है। मैं भी रोज इसी चायपत्ती से चाय बनाती हूं, पर आज तक ऐसा मजा नहीं आया।’
'अरे भाभीजी यो तो करोड़ी रो नुस्खो है शानदार।
अच्छा क्या नुस्खा है, बताइए जरा।’
'चाय बणणे रे बाद ऊपर सूं हल्की सी कॉफी डाल दो। फिर लो मजो।’ पूरे देसी ठसक के साथ करोड़ी ने कहा।
उनकी बातों में बीच में दखल देते हुए सुधांशु ने कहा, 'अरे करोड़ी जी घर ढूंढऩे में कोई दिक्कत तो नहीं हुई?’
'अरे नहीं भाई साहब निका पहुंच गयो एकदम।’
'अच्छा प्रिया मैं दफ्तर के लिए तैयार होता हूं, तुम करोड़ी जी से बात करके तय कर लो कि क्या-क्या बनवाना है, सुधांशु प्रिया को कहते हुए कमरे से बाहर चल देते हैं।’
प्रिया करोड़ी से मुखातिब होती है, वो कुछ बोले इससे पहले करोड़ी बोलता है, 'भाभीजी एक कप चाय और बणा लूं, जब तक सुबह तीन-चार चाय कोनी पी लूं, दिमाग काम कोनी करे।’
'हां-हां, बना लो, बिस्किट भी रखे हैं रसोई में, ले लेना चाय के साथ।’
'अरे बिस्किट कोनी चाहिए भाभीजी, रात री ठंडी रोटी या पराठा हो तो दे दो।’
प्रिया ने उसे रात का पराठा दिया, वो कुछ बोलती इससे पहले करोड़ी ने कहा, 'थे बैठो, मैं देख लेसू अब।’
प्रिया अपने काम में लग गई और करोड़ी अपने चाय और पराठे में। करोड़ी ने चाय पीकर चाय के बर्तन भी साफ कर दिए और फिर ड्राइंगरूम में सोफे पर न बैठकर नीचे बीछे कालीन पर ही बैठ गया।
'आओ भाभीजी, अब बताओ, काई-काई बणाना है।’
प्रिया सारा मेन्यू उसे बताती जाती है और फिर इधर-उधर की बातें शुरू हो जाती हैं, प्रिया को अब देसी ठर्रे की गंध ज्यादा परेशान नहीं करती, उसे करोड़ी अब काम का आदमी लगने लगता है, जो उसके बेटे के जन्मदिन पर अच्छा खाना बना सकता है।
उसका बेटा आठ साल का होने वाला है, उसके चेहरे पर चमक आ जाती है, बच्चे कितने जरूरी होते हैं जिंदगी के लिए, खुशी के लिए, अब वो करोड़ी से पूछती है, 'करोड़ी जी आपके कितने बच्चे हैं? शादी-वादी हो गई न?’
'अरे भाभीजी, नौ साल को थो, जद की शादी हूगी मारी तो, चार बेटा और दो बेटी है।’
प्रिया हैरानी से सुनती जाती है और वो बोलता जाता है। 'बडो ही बडो दिलीप कुमार, पाछे जितेंद्र, मनोज और राजेश। बेटियां रेखा और मनभर।’
हंसते हुए प्रिया बोली, 'क्या बात है करोड़ी जी आपने तो पूरी फिल्म इंडस्ट्री जमा कर ली, पर ये मनभर क्या हुआ?’
'अरे भाभीजी, टाबरो से मन भरग्यो, जिकेसूं बीको नाम मनभर काड दियो।’
आज का खाना करोड़ी ने ही बनाया, प्रिया को रसोई में घुसने ही नहीं दिया। प्रिया को बहुत राहत मिली। रूद्राक्ष के स्कूल से आने का समय हो गया था। करीब दो बजे आता है वो, उसके आने तक तो करोड़ी खाना खाकर सो गया, वहीं कालीन पर।
रुद्राक्ष ने घर में घुसते ही बैग बाहर आंगन में पटका और ड्रॉइंगरूम में टीवी चलाने के लिए भागा, लेकिन किसी को सोते देख, उल्टे पैर ही बाहर निकल गया।
'मम्मा, ये कौन हैं?’
'बेटा ये हलवाई जी हैं, आपके बर्थडे पर यही खाना बनाएंगे।’
'अरे मम्मा, इनके खर्राटे सुनो, कितने भयंकर हैं।
प्रिया का ध्यान भी उन खर्राटों की ओर चला गया और उसे जोर की हंसी आ गई। दरअसल करोड़ी अपने मोबाइल पर गाने चलाकर सो गया था। राजस्थानी गाने चल रहे थे, इन गानों के साथ करोड़ी के खर्राटे मिलकर कुछ अलग ही संगीत बना रहे थे। रुद्राक्ष भी वैसी ही आवाज निकालने की कोशिश करने लगा और दोनों की बहुत जोर से हंसी छूट गई।
'श्श्श चुप...सोने दे उन्हें थोड़ी देर।’, प्रिया बोली, 'चल खाना खा ले।’
प्रिया ने भी खाना नहीं खाया था, दोनों हमेशा साथ ही खाना खाते थे, रुद्राक्ष के स्कूल से आने के बाद।
डायनिंग टेबल पर अब दोनों मां-बेटे आमने-सामने बैठ गए और खाना शुरू कर दिया।
'अरे मम्मा, बहुत टेस्टी सब्जी बनाई आपने, और ये क्या है?’
'मैंने नहीं बनाया, हलवाई जी ने बनाया, तुझे मेरे हाथ का पसंद नहीं आता न? तू कभी मेरे हाथ का खाना खाकर तो ऐसे नहीं बोला।’
'अरे नहीं मम्मा, आप तो बहुत अच्छा बनाती हो, पर आज कुछ अलग टेस्ट है न।’
मां-बेटे दोनों खाना खा लेते हैं, तब तक करोड़ी की नींद भी पूरी हो जाती है। करोड़ी ड्रॉइंगरूम से ही आवाज लगाता है, 'भाभीजी-भाभीजी’
प्रिया आवाज की ओर चल देती है, पीछे-पीछे रुद्राक्ष भी
'अरे छोटे भाईसाहब’
'हां करोड़ी जी, ये रुद्राक्ष है, इसी का जन्मदिन है।’
'अरे वाह।’ करोड़ी उसकी तरफ प्यार से देखकर कहता है, 'और बाबू साहब खाणे में मजो आयो कि नहीं।’
रुद्राक्ष हंस देता है, कोई जवाब नहीं देता।
'अरे भाभीजी बहुत कमजोर है यो तो, एक-दो महीने गांव की हवा खिला दो, वहां की साग-सब्जी, गाय का दूध-दही, मक्खन खाकर सेहत बन जाएगी बाबू की।’
रुद्राक्ष अब भी हंसे जा रहा था, हंसते हुए वो कमरे से बाहर निकल जाता है।
रुद्राक्ष के जन्मदिन पर दो सौ लोगों का खाना अकेले करोड़ी ने ही बनाया और इतना लजीज की सभी को पसंद आया। रुद्राक्ष को भी।
जन्मदिन वाली रात करोड़ी वहीं रुक गया था। अगले दिन जब विदा होने का था तो सुधांशु से बोला, 'भाईसाहब मारे वास्ते कोई हलवाईगिरी रो काम ढूंढ दो, गांव में तो कोई कमाई भी न होवे, बस दाल-रोटी रो जुगाड़ हो जाये।’
'हां करोड़ीजी मैं देखता हूं। एक तो आप कपना विजिटिंग कार्ड छपवा लो। मुझे भी दे देना, किसी को कोई काम होगा तो मैं आपका कार्ड दे दूंगा। यहां तो आए ही दिन कोई न कोई पार्टी होती ही है।’
'अरे कार्ड तो है मेरे पास। करोड़ी ने आठ-दस कार्ड निकालकर दे दिये।’
करोड़ी फिर प्रिया से मुखातिब होते हुए बोला, 'अरे भाभीजी कोई छोटे भाईसाहब रा पुराना कपड़ा-लत्ता हो तो म्हने दे द्यो। कोई स्कूल-बैग, टिफिन...टाबर खुश हू जासी।’
प्रिया अंदर जाती है और सुधांशु को आवाज लगाती है।
'अरे पुराने कपड़े देने का मन नहीं होता, मैं ऐसा करती हूं कि पास से ही टी-शर्ट खरीद लाती हूं।’
'अरे दे न पुराने कपड़े, वो चलाकर मांग रहे हैं न। टी-शर्ट फिर कभी ला देना। अभी दे दो, बेचारा गरीब आदमी को दो बार दे दोगी, तो दुआएं ही मिलेंगी। कितना बढिय़ा खाना खिलाया है तुम्हारे मेहमानों को।’ सुधांशु ने कहा।
प्रिया ने आंखें थोड़ी और गोल करते हुए कहा 'अरे तो मैं देने से कब मना कर रही हूं, पर बच्चों को आजकल किसी के पुराने कपड़े कहां पसंद आते हैं!’
'तुमने अभाव देखे नहीं हैं न मैडम इसलिए कह रही हो। निकाल दो, कितने सारे कपड़े रखे होंगे, अपने तो किसी काम के नहीं न। अच्छे देखकर छांट दो बस।’
'हलवाई खूब कमाते हैं।’
'हां कमाते तो हैं, पर क्या करे। करोड़ी जी बहुत लापरवाह है, फिर दारू की आदत। अपनी शादी से पहले तो सारी रिश्तेदारी में जब भी काम पड़ता था, यही खाना बनाते थे। एक बार बुआजी के यहां सवामणी का काम था। सारा काम अच्छे से हो गया। बस घरवाले ही बचे थे खाने के लिए कि करोड़ी जी दारू पीकर आ गए और फैल गए, तबसे उन पर भरोसा कम हो गया सबका।’
'अरे, तो तुम फिर इन्हें ही पकड़कर क्यों लाए, अपने काम के लिए। बर्थडे खराब कर देते तो?
'किया तो नहीं न।’
'पर करते तो?’
'ये तुम औरतें भी न, जो हुआ नहीं, उसका रोना लेकर पहले बैठती हो। मेरे पास नहीं थे अभी इतने पैसे। तुम जानती हो न, कब तक किराए के मकान में रहना है।’
'तो दो-चार हजार का ही फर्क पड़ता, क्या हो जाता है इतने में? घर आ जाता!’ कुछ खीजते हुए प्रिया ने कहा।
सुधांशु की आवाज भी थोड़ी ऊंची होती गई 'तो कोई लॉटरी तो लग नहीं सकती न मैडम, यही दो-चार हजार इकट्ठे करके डाउन पेमेंट का जुगाड़ कर रहा हूं। जितना किराया देते हैं, उतनी किस्तों में घर आ जाएगा। बस पांच लाख हो जाए...’
'कोई ढंग का काम ढूंढो न फिर’
'मुझे क्या करना है मैं देख लूंगा। अभी तुम तो करो कुछ ढंग का काम, चलो कपड़े निकालो, मैं जरा उनसे हिसाब कर लूं।’
सुधांशु बड़बड़ाते हुए बाहर निकल आता है, बड़बड़ाना प्रिया का भी जारी रहता है।
प्रिया बेटे के छोटे हुए कपड़े ले आती है, साथ ही अपनी एक साड़ी भी, जो उसे किसी दूर की रिश्तेदारी में मिली थी, कोरी थी, उसने एक बार भी नहीं पहनी थी, पुराने कपड़े देने में उसे जो अजीब लग रहा था, उस ग्लानि को कम करने के लिए।
साड़ी देखते ही करोड़ी बोला, 'अरे म्हारी लुगाई तो घाघरा-लूगड़ी पहने, पर थे दे दो, म्हारी बड़ी बेटी इरो सूट सिल लेसी।’
'ठीक है करोड़ी जी’, प्रिया को कुछ तसल्ली हुई।
करोड़ी अब कमरे से बाहर निकल चुका था, लेकिन घर के मुख्य गेट से बाहर निकलने से पहले ही उसकी नजरें शू-रैक पर पड़ी। एक जोड़ी जूतों पर धूल का साम्राज्य था, जिसे देखते ही लग रहा था कि इसे बहुत दिनों से किसी ने नहीं पहना।
'भाभीजी ये पुराने जूते आपके काम के नहीं तो मैं ले जाऊं।’
प्रिया ने एक नजर सुधांशु पर डाली, सुधांशु की आंखें जैसे बोल रही थी, दे दो न बेचारे गरीब आदमी को, तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा।
प्रिया एकदम झटके से बोली, 'हां-हां करोड़ी जी आप ले जाओ।’ अपने पिटारे में करोड़ी जूते भी समेट लेता है और हंसते हुए निकल जाता है।
करोड़ी अब अक्सर वहां आने लगा और पुराने चीजें एक-एक करके ले जाता।
बेचारा गरीब आदमी, एक रोज प्रिया ने कहा, 'सही कहा है किसी ने, नाम से कुछ नहीं होता, करोड़ी नाम है और कैसे-कैसे दिन देखने पड़ रहे हैं बेचारे को।
प्रिया का मन अक्सर पसीज जाता और करोड़ी के स्वाभिमान को ठेस न पहुंचे इसलिए वो कभी उससे अचार डलवा लेती, कभी लड्डू बनवा लेती। बदले में करोड़ी कभी चाय के पुराने कप ले जाता, तो कभी पुरानी चादर। पुरानी प्रेस, पुराना टीवी, धीरे-धीरे सारी पुरानी चीजें करोड़ी के हवाले होती गई और करोड़ी खुशी-खुशी जो भी काम होता कर देता। कभी-कभी वो गांव से छाछ भी लेकर आ जाता। प्रिया खूब कहतीं कि मत लाया करो खट्टी हो जाएगी।
और करोड़ी कहता, 'अरे भाभीजी खूब पीओ, छोटे भाईसाहब को पिलाओ, देसी माल है। बाकी की मैं राबड़ी बणा दूंगो।’
करोड़ी का छाछ लाना, प्रिया का मना करना और करोड़ी का राबड़ी का बखान करना बदस्तूर जारी रहता। करोड़ी छाछ लेते हुए सीधे रसोई में पहुंचता और शुरू हो जाता, 'अरे भाभीजी बाजरे रो आटो दो, अबार बण जासी, दो-तीन दिन आराम सूं नाश्ता करिया। दो मिनट री मैगी सू बहुत चोखी है म्हारी राबड़ी।’
प्रिया हंसने लग जाती, उसे कैसे कहे कि उसके जाने के बाद बस वो उस राबड़ी को इधर-उधर ठिकाने लगाने की सोचती है। उसे लगता कि इंकार किया तो करोड़ी यानी बेचारा गरीब आदमी कुछ सामान ले जाने में झिझकेगा।
इस बार करोड़ी कुछ मांगने नहीं आया था, छाछ भी नहीं लाया था, वो न्यौता देने आया था। उसके छोटे बेटे का मुंडन संस्कार होने वाला था।
दो दिन भी नहीं हुए थे इस न्यौते को मिले की एक दिन सुबह पहले फोन घनघना उठा।
सुधांशु ने दो तीन बार हैलो हैलो कहा और उधर से आती हुई आवाज को पहचानते हुए कहा, 'हां बोलो बेटा, ठीक तो हो’
सुधांशु के बोलने का लहजा प्रिया को जता गया कि कहीं कुछ ठीक नहीं है। उसने सुधांशु की ओर देखा और एक शब्द मुंह से निकाले बिना सवाल किया।
सुधांशु ने बताया कि करोड़ी का एक्सीडेंट हो गया।
'क्या! क्या हुआ उन्हें? कैसे!’
'एक्सीडेंट हो गया, क्या कैसे पता नहीं। उनका बेटा था फोन पर, अब बच्चे से मैं क्या पूछता। वैसे ही बहुत रुंआसी-सी आवाज आ रही थी।’
'हे भगवान! ज्यादा चोट न आई हो। सुनो कुछ करना चाहिए न हमें उनके लिए।’
'आज चलते हैं उनके यहां। तुम्हारे पास रखवाये थे न पांच हजार रुपए अलग से। वो ले लेना। जरूरत होगी उन्हें।’
प्रिया जल्दी से अपने घर के काम निपटाने लगी। रुद्राक्ष के स्कूल से आने के बाद दोनों ने उसे पड़ोसी के यहां छोड़ा और करोड़ी के गांव सिंहपुरा के लिए रवाना हो गए।
कच्चे-पक्के रास्तों पर उनकी कार दौड़ी जा रही थी, लेकिन शायद न कार को पता था कि कहां जाना है, न ही सुधांशु को।
सुधांशु ने एक राहगीर से पता पूछा और उसके बताए रस्ते के मुताबिक आगे बढऩे लगा। सुधांशु कुछ देर उसी अनुसार गाड़ी आगे बढ़ाता रहा, उसे फिर लगने लगा कि वह कहीं गलत रस्ते पर तो नहीं आ गया है। उसने फिर एक राहगीर से पूछा, 'क्यों भाई यह सिंहपुरा ही है न?’
'हां जी, भाई जी, आपणे कुण के जाणो है?’
'करोड़ीलाल हलवाई के’
'अरे भाईजी म्हने भी बैठा लो साथ में, मैं बठे ही जा रह्यो हूं।’
'जी, बैठिए’
वो पीछे जाकर बैठ जाता है और बोलना जारी रखता है कि सुधांशु उसकी बात बीच में काटते हुए पूछता है, 'एक्सीडेंट कैसे हो गया?’
'अरे भाई जी पी रखी थी उसने बहुत। थड़ी पर बैठे-बैठे तबियत एकदम से खराब हू गी।’
'पर बेटे ने तो कहा कि एक्सीडेंट हुआ।’
'अब आ मैं काई बताऊं! घर री इज्जत ढांपने वास्ते कह दियो हुसी। पीणे-पीणे में ही खराब हु ग्यो। सब कुछ है भगवान की मेहरबाणी से। सिंहपुरा में सबसे ज्यादा जमीन है बीके पास, दो-दो ट्रेक्टर, खेती-बाड़ी, गाय-भैंसा, दो-दो मोटरसाइकिल और कितरा ही एकड़ जमीन पर बबूल और सागवान रा पेड़। दस-दस हजार रो एक पेड़ बिके हैं। कोई सौ से ऊपर तो पेड़ ही है उसकी जमीन पर। अब काई जाने कि कुण ऊपर रो कई करवा दियो बी पर जो दारू पी-पी खुद ने खत्म कर रियो है।’
रास्तेभर वो करोड़ी की जमीन दिखाता रहा और उसकी संपत्ति का बखान करता रहा। गाड़ी में आगे बैठे प्रिया ओर सुंधाशु कभी पीछे मुड़कर उसे देखते और कभी एक-दूसरे को।
गाड़ी अब किरोड़ी के घर के आगे रुक गई, गाड़ी से उतरते हुए प्रिया ने अपने पर्स को गाड़ी में ही छोड़ दिया।
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