jhanjhavaat me chidiya - 6 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | झंझावात में चिड़िया - 6

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झंझावात में चिड़िया - 6

प्रकाश को ये भी नहीं रुच रहा था कि अब वो कुछ भी न करके केवल आराम ही आराम करें।
कुछ वर्ष तक भारतीय बैडमिंटन संघ के अध्यक्ष रहने के बाद इस विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा संपन्न खिलाड़ी को ऐसा महसूस हुआ कि नई पीढ़ी के युवकों में खेल के लिए ज़ुनून तो हमेशा से रहता ही है, हौसलों की कमी भी नहीं रहती। लेकिन फ़िर भी उन्हें एक मार्गदर्शन की दरकार तो हमेशा रहती ही है। ख़ुद उनके मामले में तो उन्हें ऐसा मार्गदर्शन अपने पिता से ही मिलता रहा था क्योंकि पिता भी बैडमिंटन से ही जुड़े हुए थे और खेल जगत के प्रतिष्ठित पदाधिकारी थे। किंतु ऐसा हर खिलाड़ी के साथ तो नहीं हो सकता।
फ़िर खेल को लेकर भारत में सामान्य लोगों का दृष्टिकोण शुरू से ही कुछ अलग तरह का रहा है। यहां किसी बच्चे के बचपन में उसके अभिभावक ये सोच भी नहीं पाते कि कोई खेल ही किसी बच्चे की ज़िंदगी या करियर बन सकता है। कितना भी प्रतिभाशाली खिलाड़ी बच्चा हो, पहले- पहल उसे यही नसीहत दी जाती है कि वो मन लगाकर अपनी पढ़ाई पूरी करे। खेल को हमेशा हॉबी की तरह एक पार्टटाइम काम अथवा शौक़ ही माना जाता है।
जबकि कई विकसित देशों में ऐसा नहीं है। वहां बचपन से ही संभावित खिलाड़ी की प्रतिभा को पहचान कर उसे भविष्य की खेल संभावना के तौर पर गहन प्रशिक्षण में उतार दिया जाता है।
वहां आप सालभर के बच्चे को किसी कोच के सख़्त हाथों से स्विमिंग पूल में गोते खाते देख सकते हैं। किसी शिशु खिलाड़ी को पूरे क्रिकेट किट में सज कर बल्ला उठाए देख सकते हैं। छोटे - छोटे बच्चों को शतरंज और टेनिस के करतबों में उलझा देख सकते हैं।
यही कारण है कि जब हम ओलिंपिक, राष्ट्रमंडलीय, एशियाई, या विश्वकप जैसी स्पर्धाएं देखते हैं तो वहां चौदह पंद्रह साल के किशोर और युवा हमें पदकों की झड़ी लगाते हुए दिखाई दे जाते हैं जबकि भारत में वयस्क हो जाने के बाद भी कई उम्दा खिलाडि़यों को हम सरकारी छात्रवृत्तियों, सहायता या बड़े क्लबों की सदस्यता के लिए प्रतीक्षारत ही पाते हैं।
यद्यपि ये स्थितियां अब धीरे- धीरे बदल रही हैं किंतु पिछली सदी के अंतिम दशक में ये समस्या बेहद मुखर थी।
प्रकाश का ध्यान अपने समकक्ष अन्य खेलों के कुछ और सफ़ल साथी खिलाड़ियों की भांति इस तथ्य पर गया। उनके मन में भी ये आया कि इस दिशा में कुछ प्रयास किए जाने चाहिएं।
लगातार नौ वर्ष तक सीनियर राष्ट्रीय चैम्पियन का खिताब अपने कब्जे में रखने वाले प्रकाश को ये भी एहसास था कि उचित मार्गदर्शन के बिना अच्छे खिलाडि़यों को भी किस तरह की पेचीदगियां झेलनी पड़ती हैं।
उनके बाद राष्ट्रीय चैम्पियन बने प्रतिभाशाली खिलाड़ी सैय्यद मोदी का उदाहरण भी पूरे देश के सामने था जिन्हें छोटी सी आयु में सन उन्नीस सौ अट्ठासी में ही एक हादसे का शिकार बन कर दुनिया छोड़नी पड़ी।
सैय्यद मोदी का निधन यद्यपि एक त्रिकोणीय प्रेम प्रसंग की दुखद परिणति थी पर आज भी बहुत से विशेषज्ञ ये मानते हैं कि एक बेहतरीन खिलाड़ी को यदि अपने करियर के उठान के दौरान इन बातों में न उलझने की सीख किसी सक्षम मार्गदर्शक से मिली होती तो शायद आज कहानी कुछ दूसरी ही होती।
प्रकाश ने तो ज़िन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य हासिल हो जाने तक इस दिशा में न सोचने तक के अनुशासन का पालन कड़ाई से किया था।
ख़ैर, ये तो सबके अपने - अपने भाग्य और फितरत का मामला है, इसमें किसी को कोई दोष नहीं दिया जा सकता, बहरहाल नए खिलाड़ियों को उनका सच्चा हितैषी और गार्जियन बन कर एक आत्मीय सहयोग प्रदान करने की आकांक्षा ज़रूर प्रकाश के दिल में ज़ोर मारने लगी।
इसके साथ ही प्रकाश ओलिंपिक खेलों में भारतीयों की पदक प्राप्ति की संभावनाओं पर भी कुछ ठोस करना चाहते थे।
वर्ष उन्नीस सौ तिरानवे से लेकर छियानवे तक की अवधि में उन्होंने भारतीय बैडमिंटन टीम को कोचिंग देने का महत्वपूर्ण कार्य भी किया।
नए खिलाड़ी जब देखते हैं कि प्रशिक्षक के रूप में सोने के हाथ वाला पारस पत्थर जैसा कोच उनके साथ है तो उनके आत्मविश्वास में कई गुणा वृद्धि हो जाती है। तीन साल तक बहुमूल्य कीमती टिप्स प्रकाश पादुकोण के माध्यम से उभरते हुए खिलाडि़यों को मिले। उनके मार्गदर्शन में सफ़लता से पैर जमाने वालों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है।
इसी बीच कुछ दिलचस्प बातें प्रकाश और उनके परिवार ने और भी देखीं।
उनकी दोनों बेटियों का बचपन भी गुड़ियों के खेल और सहेलियों के जमघट से ही नहीं गुज़रा बल्कि उन्होंने भी अपने पिता की भांति देश का उम्दा खिलाड़ी बनने का सपना देखा।
विश्वस्तरीय खिलाड़ी होने के चलते प्रकाश अपने हर कदम और गतिविधि के दौरान मीडिया और फोटोग्राफर्स से तो घिरे रहते ही थे। बच्चे भी बचपन से ही ये भांप रहे थे कि कैमरों की नज़र उन पर भी रहती है। ये आम बात थी कि गाहे बगाहे मीडिया में उन पर भी कुछ - कुछ छपता रहता था।
सदी का अंतिम दशक दुनिया भर में खेलों के प्रति आम लोगों के रुझान, रवैय्ये और रंजन की दृष्टि से ख़ास बनता चला गया।
भारत ने इसी दशक में अंतरराष्ट्रीय खेलों की पदक तालिका में भारत के खिलाडि़यों का धमाकेदार प्रवेश देखा।
भारत ने ये भी देखा कि क्रिकेट जैसे खेल में भारत दुनिया का सिरमौर भी बन सकता है।
तकनीकी रूप से अत्यंत समृद्ध मीडिया की आक्रामक पकड़ के चलते खिलाडि़यों के दुनिया के लिए सनसनी बनने के किस्से भी इन्हीं दिनों गूंजे।
बाईस बार लगातार चोटी की प्रतियोगिताओं की सिरमौर रहने के बाद जर्मनी की स्टेफी ग्राफ जैसी लोकप्रिय टैनिस खिलाड़ी को दुनिया की कई प्रतिष्ठित खेल पत्रिकाओं ने अपने कवर पेज पर जगह दी।
इतना ही नहीं, एक धनाढ्य पत्रिका समूह ने तो उन्हें पत्रिका के लिए अपना न्यूड फ़ोटो देने के लिए एक करोड़ की पेशकश तक कर डाली।
लगातार जीतती चली आ रही मोनिका सेलेस जैसी सितारा खिलाड़ी पर खेल के मैदान में किसी बौखलाए हुए विक्षिप्त प्रशंसक ने जानलेवा हमला कर डाला।
और संसार भर में मीडिया का ध्यान बटोरने और रातों रात लोकप्रिय हो जाने के खिलाडि़यों के अच्छे -बुरे प्रयासों ने लोगों का ध्यान खींचा।
प्रशंसकों के साथ कम वस्त्रों में तस्वीरें खिंचवाना, खेल के रोमांचक क्षणों में उत्तेजक पहनावे से अपने अंतर्वस्त्र तक झलका देना, जीतने के बाद भरे स्टेडियम में कपड़े उतार फेंकना जैसे खेल भी खेलों से जुड़ने लगे।
ये लहर यहीं नहीं थमी। प्रसिद्ध अखबारों और पत्रिकाओं के दिग्गज छायाकार खिलाडि़यों के चेंजरूम तक में घुस पैठ बनाने लगे।
खेल से भी खेल शुरू हो गए!