Trikhandita - 17 in Hindi Women Focused by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | त्रिखंडिता - 17

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त्रिखंडिता - 17

त्रिखंडिता

17

उफ, ये माँ का दिल भी कैसा होता है ? अपने बच्चे उसे हमेशा छोटे, भोले और नासमझ लगते हैं। हमेशा उसे लगता है कि दुनिया के लोग उसके बच्चे को ठग लेंगे। उसका वश चले तो उन्हें सदा अपने आँचल तले महफूज रखे। जबकि बड़े होते ही बच्चों को माँ का अपनी जिन्दगी में हस्तक्षेप खलने लगता है। वे उसकी ममता को नहीं समझ पाते। उसकी चिन्ता उन्हें अपनी आजादी में बाधक लगती है। अक्सर देखने में आता है कि वे अपनी माँ की नसीहत नहीं मानते, जबकि दूसरी औरतों द्वारा दी गई सलाह वे मान लेते हैं। श्यामा ने देखा है कि जो बच्चे अपने घर में एक भी काम करना पसंद नहीं करते, वे दूसरे के घरों में खूब काम करते हैं। क्या अत्यधिक निकटता ऊब पैदा करती है ? माँ से बच्चे का गर्भ-नाल का रिश्ता होता है। उसकी ही रक्त-मज्जा से बने होते हें वे। दुनिया का कोई भी रिश्ता इतना करीबी नहीं होता। बच्चे को जन्म से ही अपनी माँ की गोद ही सुरक्षा बोध देती है। उसकी छाती से लिपटकर ही वह चैन से सो पाता है। माँ उसकी गूँगी भाषा भी समझ लेती है, उसके रूदन से उसकी चाहत।बच्चा भी हर तकलीफ में माँ को ही ढूँढ़ता है। उसका सबसे पहला शब्द भी माँ ही होता है। वही माँ तब क्यों परायी हो जाती है ?जब वह बड़ा हो जाता है| क्यों अपनी जिदंगी में दूसरी स्त्री के आते ही वह बदल जाता है? माँ को झूठी, स्वार्थी, लालची और बोझ समझने लगता है| माँ के किए को नाकाफी कहकर अपमानित करता है | वह यह क्यों नहीं सोच पाता कि माँ ने भले ही उसके लिए बहुत ज्यादा कुछ न किया हो, सम्पत्ति का भंडार एकत्र न किया हो, वह उसके अस्तित्व और व्यक्तित्व की जननी है। उसने एक नन्हें से बीज को अपने रक्त से सींचकर वृक्ष रूप दिया है। जब पुत्र यह कहता है कि तुमने मेरे लिए किया ही क्या है? तब वह धरती, आकाश, प्रकृति, सृष्टि सबको लज्जित करता है। श्यामा को बेटों की यह बात खलती है कि आपने हमलोगों के लिए किया ही क्या है? उसने उन्हें अबोधावस्था में अकेले ही पाला था, बिना उनके पिता के शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और भावनात्मक सहयोग के। माँ के घर भाई बहनों के तानों, पति के बेरोजगारी, खुद की अस्वस्थता व तमाम अभावों के बीच भी उसने बच्चों का पालन इस तरह किया था कि वे हजारों बच्चों के बीच भी अलग से चमकते नजर आते थे। ये सच है कि वह उन्हें मँहगे कपडे़.खिलौने नहीं दे पाती थी, पर लगन से उनकी सेवा करती थी। अपनी पढ़ाई भी पाँच वर्ष तक स्थगित कर दी थी। रात को उठकर गुनगुने तेल से बच्चों के पैर की मालिश करती थी कि दिन भर पैदल चलते हैं, थक जाते होंगे उनके नन्हें मासूम पैर। घर में जो पकता था, बच्चे वही खाते थे। दो वर्ष तक उन्हें ऊपर का कुछ देने की जरूरत नहीं पड़ी। रूखा-सूखा खाने पर भी उसके स्तनों से दूध की नदी-सी उफनती थी। उसने उन्हें दूध के साथ संस्कार भी पिलाया था। आज बच्चों में जो गुण उल्लेखनीय है, वह उसके ही तो थे। पिता से तो उन्हें कुछ कमजोरियाँ मिली हैं, जिसकी वजह से वे उस तरफ सफल व खुश नहीं है, जिस तरह होना चाहिए।अब इसमें उसका क्या दोष कि बाल्यावस्था मे ही बच्चे उससे दूर कर दिए गए। उनसे मिलने की मनाही हो गई। वे अलग-अलग राज्यों में रहे। श्यामा को किसी का सहयोग नहीं था। खुद भी बेरोजगार थी। कहीं से भी आर्थिक संबल नहीं था। ऐसी हालत में वह बच्चों की वापसी का प्रयास करके भी क्या कर लेती ? अपनी सामर्थ्य भर फिर भी प्रयास किया, पर जल्द ही हार मानकर चुप बैठ गई। उसे पहले खुद को ही इस लायक बनाना था कि बच्चों के लिए कुछ कर सके या सम्मान के साथ जिंदगी जी सके ।वह जानती है कि सम्राट ने बच्चों को मोहरा बनाया था ताकि श्यामा की वापसी हो और वह उसे जी भर प्रताड़ित कर सके। ऐसी मिसाल कायम कर सके कि फिर कोई स्त्री पति के खिलाफ जाने की हिम्मत ना कर सके। वह बदले की भावना से जल रहा था। कोई उससे पूछता तो जानता कि श्यामा ने क्या खिलाफत की थी उससे? सिवाय पढ़ाई पूरी करने की, वह भी तब, जब शादी के दस वर्षो बाद भी उसने उसे मायके में छोड़ रखा था। दो बच्चों के साथ वह अभाव में जीवन गुजार रही थी और वह खुद कुछ नहीं कर पा रहा था। और कितनी प्रतीक्षा करती श्यामा। पाँच वर्ष तो वह बच्चों के पालन में लगी रही, पढ़ाई नहीं की। और कितना सहती ? उसने पढ़ने का निर्णय लिया। जानती थी सम्राट इसके लिए राजी नहीं होगा, इसलिए उससे पूछा नहीं। पहले ही ग्रैजुएशन के समय वह हंगामा कर चुका था। अब पोस्ट ग्रेजुएशन तो लक्ष्मण रेखा पार करना था उसके लिए क्योंकि वह खुद सिर्फ ग्रैजुएट था और उसके अनुसार औरत हर मामले में पुरूष से नीची होनी चाहिए।वह बच्चों की क्या देखभाल करता? हाँ, इस बहाने एक और विवाह कर लिया और अपने नये राग-रंग में व्यस्त हो गया। बच्चे कैद में थे ताकि किसी भी तरह उससे ना मिल सके। वह समझती है कि बच्चों को बहुत कुछ सहना पड़ा होगा। बड़े होने के नाते श्याम को ज्यादा ही। वह क्या करती ?सम्राट ने उसके लौटने के सारे रास्ते बंद कर दिए थे, विवाह करके और भी। छोटी-छोटी नौकरियाँ, मकान दर मकान, रिश्ते दर रिश्ते और हर चीज से मिलने वाला दर्द और बदनामी को झेलती वह जिंदगी का सफर पूरा करती रही ।

श्याम बारहवी पास करने के बाद घर से दिल्ली भाग गया और संघर्ष करता रहा। घर से उसने कोई मदद नहीं ली। बड़ी मुश्किल से उसका जीवन सामान्य पटरी पर आया। उसे याद है जब वह लगभग पाँच-छः वर्ष पूर्व उससे मिलने दिल्ली गई, तो वह एक दरबेनुमा मकान में अभावग्रस्त जीवन जी रहा था, उसे देखकर वह तड़प उठी थी। वह अब सामान्य जीवन में थी, पर इतनी भी हैसियत में नहीं थी कि बेटे की पूरी जिम्मेदारी उठा सके। उस पर बेटे ने उससे कोई भी मदद लेने से इन्कार कर दिया। फिर भी वह अपनी तरफ से मदद की कोशिश करती। बेटे का उसके घर आना-जाना शुरू हुआ, पर पूर्वाग्रहों से ग्रस्त वह हर बात के लिए माँ को जिम्मेदार मान रहा था। उसके विचार पिता से उधार लिए हुए से प्रतीत हो रहे थे। उसका पिता उनके बीच दीवार की तरह खड़ा था।अब श्याम का विवाह हो चुका है। सरकारी नौकरी पाकर उस के ही शहर में आ गया है। पर उसमें आज भी गम्भीरता नहीं है। बार-बार कहता है-मेरे लिए आपने कुछ नहीं किया। यह तब है जबकि अपनी अर्जित सम्पत्ति उसने उसके नाम वसीयत कर दी है। वह अपने संघर्ष गिनाता है। इंटरमीडिएट के बाद घर छोड़ने को मजबूर किए जाने की कहानी बताता है। अपने अभावग्रस्त संघर्ष की बात करता है और अपने उस विडम्बना पूर्ण अतीत के लिए उसे दोषी मानता है, तो वह गहरे आहत होती है। वह उसे अपने बारे में सब कुछ बता चुकी है सारी उलझन, सारे संघर्ष, सारी स्थितियाँ। फिर भी उसका उसके प्रति अविश्वास झलक ही जाता है। श्याम को यह रहस्य भी पता है कि जब वह पहली बार माँ के पास लौटा तो एक पुरूष मनोज माँ के जीवन में था। दूसरी बार लौटा तो नहीं था। उसने पूछा तो माँ ने उसे बताया कि वह जा चुका है क्योंकि स्वार्थी था। उसकी सम्पत्ति और उस पर काबिज होना चाहता था पर श्याम अविश्वास की हँसी हँसता है। उसे लगता है कि माँ उस आदमी से उसी तरह नहीं निभा पाई जैसे उसके पिता से नहीं निभा पाई थी। अब वह बेटे से क्या बताए? मनोज उसकी जिन्दगी में लगभग उसी समय आया था, जब श्याम ने पिता का घर छोड़कर दिल्ली प्रस्थान किया था। वह अकेली थी | बच्चों के आने की उम्मीद छोड़ चुकी थी। चारों तरफ से हताश और निराश थी, ऐसी मनस्थिति में उसने मनोज का वर्षों पहले से प्रस्तावित साथ रहने का प्रस्ताव मान लिया था। हांलाकि इस साथ की उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। मनोज उसके कंधों पर चढ़कर जीने के उद्देश्य से आगे आया था और वह उसे प्यार समझ रही थी। श्याम के आने के बाद मनोज को अपने आराम व मनसूबे में रूकावट का आभास हुआ। उसे पता चल गया कि श्यामा माँ पहले है साथी बाद में और उसके हिस्से कुछ नहीं आएगा। उसने तो दो बच्चों की माँ को इसलिए चुना था कि वह अभी तक युवा, आकर्षक व स्वतंत्र थी साथ ही कमाऊ भी ।और उसकी छाया में बिना कोई काम किए हुए भी अमन-चैन से रह सकता था। श्याम के आने से स्थिति बदली थी और वह स्वतंत्र होने के लिए बेताब हो उठा था।श्याम को वह क्या बताए? उसे इस बात पर दुःख होता है कि बेटे को उसके साथ किसी का होना अच्छा नहीं लगा था, पर पिता की दूसरी पत्नी व सौतेले दो भाईयों का साथ भाता है। श्यामा एक स्त्री है इसलिए उससे हर बात की जवाबदेही है। उसकी मजबूरी में उठे कदम और पिता के अय्याशी के लिए उठाए कदम में उसे कोई फर्क नहीं लगता ।

जिंदगी भी कैसी है न ! ना जाने कब किस मोड़ पर कहाँ लाकर खड़ी कर दे ! अनगिनत प्रश्न पत्र होते हैं उसके पास | इंसान को उत्तर नहीं सूझता । हर इंसान समय और परिस्थितियों के अनुसार कोई कदम उठाता है, भले ही लोग उसका मूल्यांकन करते समय यह बात भूल जाएं।

इतने वर्षों बाद श्यामा के सामने छोटा बेटा राम था । पर वह भी श्याम की ही तरह पूर्वग्रह से भरा हुआ था| अनगिन प्रश्नों के भण्डार लिए ! वे पूर्वाग्रह जो उसके पिता और उनके घर वालों ने उनमें कूट-कूटकर भरा हुआ था। बेटे की आँखों में वह साफ-साफ अपने प्रति क्रोध, तिरस्कार व बदले की भावना देख रही थी। कैसे वह उसके दिल में भरे गुबार को निकाले ? अपने पूरे जीवन के अनकिए अपराधों को किस रूप में प्रस्तुत करे? वह उसका पक्ष सुनने को तैयार ही नहीं। प्रकारांतर से सुनाती भी, तो वह विश्वास नहीं करता। कहता-यह सब मनगढ़त है। उसे मन ही मन गुस्सा आता, पर वह ऊपर से शांत रहती । जानती है गुस्सा इसका समाधान नहीं। बेटे का क्या कसूर ? बचपन में ही जब उसके पिता ने उसें उससे अलग कर दिया था। इतने दिनों बाद मिला है। इतने दिन जिस तरह के वातावरण में पला, इसका असर तो होना ही था। गलतफहमियों का एक पहाड़ -सा उसके मन में खड़ा हो चुका है। उसके पास मात्र ममता की छोटी -सी कुल्हाड़ी है। इसी से उसे इस पहाड़ को काटना है। स्त्री का जीवन भी कितना विडम्बनापूर्ण होता है। उसे बाल-विवाह का दंश सहना पड़ा, क्या यह विवाह उसका निर्णय था? उसको एक विद्यार्थी से बाँधा गया था। फिर वह कैसे आदर्श पति व पिता बन पाता? उससे पाँच वर्ष बड़ा होकर भी वह उससे मैच्योरिटी में दस-पन्द्रह साल पीछे था। वह बीस वर्ष की उम्र तक चालीस की परिपक्वता हासिल कर चुकी थी, इसलिए पूरी कोशिश की थी अपने विवाह को बचाने की। नहीं बचा पाई तो भी उसे इस बात का सन्तोष रहा कि उसने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी। इससे ज्यादा कोशिश नहीं कर सकती थी, इस बात को उसके बेटे मानने को तैयार नहीं। हांलाकि अब उन्हें यह बात खलती है कि पिता ने माँ से अलग किया और खुद दूसरी शादी कर दो बच्चे और पैदा कर लिए। अब सौतेली माँ और उसके बेटों के प्रति उनका पक्षपात साफ दिखता है। फिर भी वे उसको दोषी मानते हैं कि उसने उन्हें बचपन में छोड़ा और फिर कभी खबर नहीं ली। वह उन्हें क्या-क्या बताए ! दोनों के बीच तो सम्राट हिमाचल की तरह खड़े थे। कोशिश तो की उसने, पर किसी ने उसका साथ नहीं दिया। ना उसके अपने घर वालों ने, ना बाहर वालों ने। एक वकील से मिली तो उसने उसकी स्थिति जानकर प्रेम निवेदन करना शुरू कर दिया। कम उम्र की बेरोजगार छात्रा थी वह। किसी का भी सहयोग नहीं था, क्या करती वह ! सिवाय संतोष के। इस उम्मीद के कि बड़े होकर बच्चे माँ को ढूँढ लेंगे। बेटों की इस शिकायत पर कि वे उनके पास क्यों नहीं लौटी? वह चुप रह जाती है | एक बार सही जवाब दिया, तो छोटा बेटा बोला- सब काल्पनिक बात है। उसका यह कहना उसे अपमानजनक लगा। उसने यही तो कहा था कि उनके पास लौटना सिर्फ पति के पास लौटना था। अपने हाथ-पाँव तोड़वाना या बदसूरत बना दिया जाना था | क्योंकि उनके पिता का ईगो आहत था कि उसने उनकी इच्छा के विरूद्व पढ़ाई शुरू की थी। पति परमेश्वर की मानसिकता वाले सामंती पति के लिए पत्नी पाँव की जूती होती है | जो समय पर पहनी जाए और इस्तेमाल के बाद कोने में रख दी जाए। जूती खराब होने लगे या काटने लगे या अपनी सुंदरता खोने लगे तो उसे बाहर फेंक दिया जा सके, बिना किसी मोह ..किसी संवेदना के।वह जूती की हैसियत नहीं स्वीकार कर सकी। अपने आत्म सम्मान को हर पल कुचला जाना नहीं स्वीकार कर सकी, तो उसके पीटा गया। मानसिक व भावनात्मक रूप से तोड़ा गया। जब तक घड़ा भरा नहीं, वह सहती रही...सहती गई | पर जब घड़ा भर गया, वह झटके से मुक्त हो गई। हांलाकि उसके सामने तब तक कोई मजबूत विकल्प नहीं था। माँ का साथ भी तो डूबते के लिए तिनके की तरह था, पर उस समय यही उसके लिए बहुत था।

बेटे क्या जाने, इस समाज में अकेली स्त्री को क्या-क्या झेलना पड़ता है ? वे लड़की होते तो शायद कुछ समझते भी, पर वे लड़के हैं और ऊपर से एक दंभी और सामंती पिता के पाले हुए। गनीमत तो यह है कि उसके संस्कार, गुण व विशेषताएँ भी उनमें मिली हुई हैं। बड़े बेटे के बाल और चेहरे की बनावट उससे इतनी मिलती है कि उसे देखते ही कोई कह देता है कि यह आपका ही बेटा है। छोटे बेटे के दाँतए आँखें और लम्बाई उस पर पड़ी है। बडे़ का स्वभाव पिता की तरह है, छोटे का उसकी तरह। हाँ, दोनों का उसी की तरह प्रकृति से जुड़ाव है। छल-कपट, दिखावा-बनावट उनमें नहीं। कोई ऐब नहीं। आजकल के लड़कों की तरह नहीं है। बड़ों का सम्मान करते हैं व्यवहार कुशल हैं। बस उसके प्रति उनकी नाराजगी गाहे-बगाहे झलक जाती है। कुछ कटु बातें भी वे कह जाते हैं | पर धीरे-धीरे धुँधलके साफ हो रहे हैं और उन्हें अतीत साफ नजर आने लगा है। बड़ा बेटा तो उस अतीत को हथियार की तरह इस्तेमाल करता है और छोटा भी अक्सर कह उठता है- आप लोगों का किया हम लोगों को भुगतना पड़ रहा है। गनीमत है कि आपलोगों में सिर्फ वही नहीं, पिता भी शामिल है। उसके कहने पर भी बेटे उसके घर नहीं रहते अलग मकान लेकर रहते हैं। एक शहर में रहकर भी उनका अलग रहना अच्छा नहीं लगता, पर यही उनके पिता का आदेश है| जिसे मानना वे अपना कर्तव्य समझते है। कभी-कभी वह सोचती है कि क्या उसके प्रति उनका कोई कर्तव्य नहीं? बस उनके घर जाने पर मेहमान सा स्वागत ही एक माँ को संतुष्ट कर सकता है | वे कहते हैं कि हम लोगों की स्थिति सामान्य नहीं। सौतेली माँ, सौतेले भाइयों व पिता के प्रति वे ईमानदार हैं ।उनका अहसान मानते हैं कि उन लोगों ने उन्हें पाला, पढा़या-लिखाया। वह सोचती है कि इतना तो उनका अधिकार था ही। वे कोई नाजायज बच्चे तो नहीं थे कि उनको पालने को अहसान समझा जाए। वह भी तब जब उन्हें उनकी माँ से धोखे से अलग किया गया हो। कैसी विडम्बना है कि अपने दो-दो बेटों, बहुओं के होते हुए भी वह अकेले जीवन जी रही है। हारी-बीमारी में भी घिसट-घिसट कर घर का काम निपटाती है। बेटों को उसके प्रति कोई संवेदना नहीं।