Ek Duniya Ajnabi - 14 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | एक दुनिया अजनबी - 14

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एक दुनिया अजनबी - 14

एक दुनिया अजनबी

14-

उसके गले तक आकर कुछ ठहर गया था, अटक गया था भीतर ही जैसे गले में किसी कठोर ग्रास को उसने ज़बरदस्ती भीतर धकेला था | विभा और भी असहज हो उठी, चाय के इंतज़ार में गैस रानी भी शायद रसोईघर में कुलबुला रही होंगी ----|

वह बड़बड़ाने लगा था | बहस उसमें और मृदुला में हो रही थी और परेशानी महसूस कर रही थी विभा, अभी पति आ जाएंगे तो बस, उसकी आफ़त ---! उन्हें कचर-पचर बिलकुल पसंद नहीं थी |

"हाँ, ये ही हैं सब हमारे परिवार, ये हैं हमारे बच्चे ----" मृदुला ने तड़पकर कहा | और कुर्सी से खड़ी होकर चारों तरफ़ हाथों से इशारा कर दिया उसने |

"तू बच्चे पैदा कर-करके दुनिया पे बोझ बढ़ाता चल, तुझे कदर है न तभी तो तू उन्हें छोड़कर भटक रहा है ? " उसकी आवाज़ चूल्हे पर रखे पानी की तरह खदक रही थी जैसे !

"चूहा न चूहे का बच्चा क्या --तू तो चींटी भी पैदा नहीं कर सकती, तब भी अकड़ रही है, बेशरम !"कमाल ! वो तो पायजामे से निकला ही जा रहा था और मृदुला उसे नंगा करने पर तुली थी |

"काम करते हैं, मेहनत करते हैं | तुम्हारे जैसे मुफ़्तखोर नहीं हैं |" मृदुला ने दाँत पीसकर कहा और एक ज़ोरदार ताली उसके मुँह पर दे मारी |

"इधर मुड़के देखा तो देखना ---" मृदुला ज़ोर से चिल्लाई, वह सही में घबरा सा गया |

"तेरे बाप का घर है ---? " अपनेको संत कहने वाला चिल्लाया |

"पता भी है, तेरा बाप है कौन ? " गेट के बाहर जाते-जाते उसने मुड़कर मृदुला को घूरकर देखा |

"बताऊँ तुझे अपने बाप का नाम ---? "मृदुला उसके पीछ बरामदे में पड़ी चप्पल उठाकर भागी |

विभा जाने क्यों चुपचाप ही खड़ी रह गई, हो जाने दो न जो हो रहा है | बहुत ऊब चुकी थी वह उससे ! आज तो और भी हद हो गई थी | अपने स्वभाव से विपरीत ये संग्राम सा देखते हुए उसका शरीर काँपने लगा था |

अपना झोला समेटते हुए वह गेट से बाहर लगभग भागकर जाने लगा,

"ये भक्तन भी --ऐसे लोगों को घर में घुसाके ---अरे! क्या भला होगा इनसे ? हमारे से पंगा ले रही है, हम संतों से ----"

"बाहर आऊँ क्या----संत का बच्चा !" मृदुला ने फिर घुड़ककर उसकी तरफ़ पैर बढ़ाने का इशारा किया और हाथ में पकड़ी चप्पल फेंककर पटापट तालियाँ बजाने लगी |

आसपास के लोग मज़ा लेने के लिए घरों से झाँकने लगे थे, वे सब भी मृदुला का इस प्रकार विभा के पास आना पसंद नहीं करते थे किन्तु विभा व परिवार की ओर किसी का आँख उठाकर देखने का साहस नहीं था |जब उस घर के मालिक को ही कोई ऐतराज़ नहीं था फिर दूसरा कौन होता है कुछ कहने वाला ?

जो इतने सालों में विभा नहीं कर सकी थी वो मृदुला ने कर दिखाया , उस संत महाराज को भगाकर ही दम लिया उसने | विभा देख रही थी, समझ रही थी मृदुला की असहजता ! उसके भीतर बोया हुआ धतूरे का बीज पेड़ बनकर अचानक ही बड़ा होने लगा था |

उसके जाने के बाद मृदुला ने विभा से माफ़ी मांगी ;

"दीदी! माफ़ कर दीजिएगा , कुछ ज़्यादा ही बोल गई ---"उसने हाथ जोड़कर अपने कानों को हाथ लगाया | विभा ने एक सरल मुस्कान से उसके मन का बोझ हल्का कर दिया |

"चलो, तुम्हें चाय बनाकर पिलाती हूँ ----" मृदुला का मन अब चाय पीने का नहीं था, बहुत ही असहज थी वह | पता था विभा को उसकी असहजता का कारण भी लेकिन कुछ बोल पाने में असमर्थ थी | न जाने कितने -कितने अपने राज़ विभा से शेयर करके हल्की हो जाती थी मृदुला ! लोगों को उसकी व विभा की मित्रता भ्रमित करती |