The Author Lata Tejeswar renuka Follow Current Read लहराता चाँद - 30 By Lata Tejeswar renuka Hindi Moral Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books પુનર્જન્મના કેટલાક અદ્ભૂત કિસ્સા હિન્દુ ધર્મમાં જ નહી મોટાભાગની પ્રાચીન સંસ્કૃતિઓમાં એ માનવામ... ફરે તે ફરફરે - 31 ફરે તે ફરફરે .-૩૧. કહેછે ગાંડાના ગામ ન હોય પણ તમે વિચ... ભીતરમન - 50 નર્સ હજુ ત્યાં જ ઉભી હતી; એણે તરત જ મારી સામે નજર કરી કહ્યું... ઝંખના અને આશાની ક્ષણો રોઝમિના, મારી પ્રિય વ્યક્તિ! ઘેરી વાદળી આંખો અને સાદા ચશ્માવ... નાયિકાદેવી - ભાગ 38 ૩૮ સહસ્ત્રકલાએ શું કહ્યું? મહારાણીબા નાયિકાદેવી પોતાને મળીને... 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'नहीं अभी नहीं, अभी मैं शादी के बारे में सोच नहीं सकती। मुझे वक्त चाहिए। अगर मैं अवन्तिका और डैड को छोड़कर चली जाती हूँ तो उनका ख्याल कौन रखेगा? जब से माँ गई है अवन्तिका पूरी तरह निर्भर है। वह अभी तक घर या डैड को सँभालने की लायक नहीं हुई है। जब तक अवन्तिका और डैड की जिम्मेदारी किसी को सौंप न दे तब तक वह खुद शादी नहीं कर सकती।' खुद के निर्णय पर स्वयं को दुरुस्त पाकर वह ऑफिस के लिए तैयार होने लगी। अचानक अवन्तिका पीछे से आकर उसे जोर से पकड़कर लिपट गई। - अवि छोड़ो मुझे गिर जाऊँगी। - दीदी, मेरी प्यारी दीदी। अवि ने उसको वैसे ही पकड़े रखा। - अवि क्या कर रही है अब तुम छोटी बच्ची नहीं हो बड़ी हो गई है। अब तो बचपना छोड़ दो। - दीदी आपके लिए तो मैं हमेशा ही बच्ची हूँ। अनन्या के गाल चूमकर बोली। - हाँ, पर कब तक अवन्तिका? तुम्हें अपनी जिम्मेदारी भी लेनी होगी ना? - हाँ पर अब नहीं बाद में। - "बाद में मतलब? - "जब आप की शादी हो जाएगी न उसके बाद मुझे ही घर सँभालना है ना।" - अगर तुम ऐसे ही बचपना करती रहोगी तो घर और पापा को कैसे सँभालोगी? और मैं भला शादी कैसे करुँगी? जाओ मैं शादी नहीं करती। - अच्छा ऐसा है तो ठीक है दीदी, आप जैसे कहोगे सुनूँगी, और पापा भी तो हैं ना मदद करने। लेकिन आप कहीं मत जाना दीदी आप चली जाओगी तो मैं अकेली हो जाऊँगी । - अब छोड़ मैं गिर जाउँगी। और ये बता मुझे आज इतनी मस्का क्यों लगाया जा रहा है? खुद को अवन्तिका के हाथों से छुड़ाए बिना ही बोली। - मैं तो आपसे हमेशा ही प्यार करती हूँ। आप ही नहीं समझती। उम्म' कहकर अवन्तिका ने अनन्या को छोड़ उसकी गालों पर चूमकर पलँग पर बैठ गई। - बोल क्या बात है? ऑफिस नहीं जाना है? - जाना तो है पर आप की परमिशन चाहिए थी। - किस बात की परमिशन चाहिए? - दी हमारे ऑफिस के स्टाफ ने पिकनिक मनाने को सोच रहे हैं। पापा से मुझे परमिशन दिलवा दो ना प्लीज। - तुम खुद भी पूछ सकती हो अवि। अपना निर्णय खुद ले सकती हो। - हाँ पर आप पूछोगे तो पापा ना नहीं कहेंगे। - मेरी सिफारिश की जरूरत नहीं है अभी तुम को खुद पूछना चाहिए। - तो आप नहीं पूछोगी? जिद्द करते हुए कहा। - हरगिज़ नहीं। - दीदी! हठ करते हुए कहा। - यस माय बेबी, उम्मा.. ' अवन्तिका के गाल को प्यार से चिमटी काटते कहा। अवन्तिका की हठ अनन्या पर बे-असर देख वह मुँह फुलाकर उस कमरे से बाहर निकल गई। अनन्या खुद में मुस्कुराती ऑफिस के लिए निकल गई। #### करीब साढ़े दस बजे थे। अनन्या ऑफिस पहुँच कर तीस मिनट ही हुए थे अनन्या का फ़ोन बज उठा, अवन्तिका का फ़ोन था। उसकी आवाज़ काँप रही थी। उसके शब्द दोहरा रहे थे। किसी बात से वह बहुत घबराई हुई थी। उसकी रुक-रुक कर बोलना शब्दों को बार-बार दोहराना ठीक से उच्चारण न कर पाना जैसी मुश्किलें उसकी आवाज़ में ध्वनित हो रही थी। उसकी घबराहट से भरी आवाज़ सुनकर अनन्या दंग रह गई। - दीदी..दी - अवि क्या हुआ? - दीदी दी.. दी। आ..आप ज.ज..जल्दी से आजाओ। - लेकिन हुआ क्या है अवि? - पहले आप आ जाओ। रोते हुए अवन्तिका बोली। - ठीक है मैं अभी... अभी आ रही हूँ पर तुम शांत हो जाओ और बताओ कि तुम कहाँ हो? - दी... मैं मैं... पापा पापा पा कक .. क्लि कि ल. " - बस मैं समझ गई वहीं रुको मैं आ रही हूँ, कहीं मत जाना ठीक है। वही पर इन्तेजार करना।" कहकर क्षमा को ऑफिस सँभालने को कहकर वह निकल गई। कुछ ही मिनटों में अनन्या अवन्तिका के कही जगह पर पहुँची। उसे क्लीनिक के पास न देख कर इधर-उधर तलाश की। कुछ ही दूरी पर बच्चों की पार्क के एक कुर्सी पर बैठ रोते हुए दिखी। वह दौड़कर उसके पास पहुँची। उसकी पैर पर चोट लगी थी। एक हाथ से खून बह रहा था। डॉ.संजय उसे सँभालने की नाकाम कोशिशकर रहे थे। जैसे कि अनन्या वहाँ पहुँची अवन्तिका उससे लिपटकर जोर-जोर से रोने लगी। - अनन्या हैरान थी कि अचानक क्या हुआ जो अवि इस तरह घबराई हुई है। उसकी शरीर पर चोट थी। - "अवि चलो बेटा क्लिनिक में चलते हैं, गहरी चोट लगी है पट्टी बाँधनी होगी।" अनन्या लाख समझाने की कोशिश करने के बावजूद वह क्लीनिक में जाने से इनकार कर दिया। - "डैड अवि को क्या हुआ ? क्यों वह इस हालत में है?" संजय के पास शब्द नहीं थे। - अवि को अनन्या चुप कराने की कोशिश कर रही थी। लेकिन वह 'माँ माँ' कहकर अविराम रोती रही। बहुत देर बाद उसकी सिसकियाँ बंद हुई। तब तक डॉ.संजय ने अनुराधा को फ़ोनकर फर्श्ट एड बॉक्स मंगवाये। अनन्या धीरे-धीरे उसके घाव को साफ करने लगी। वह डॉ.संजय को पास आने नहीं दे रही थी। अनुराधा ने उसकी चोट पर पट्टी कर दी। अनन्या अवि के सिर गोद में लिए एक हाथ से। अपने छाती को लगाये रखी दूसरे हाथ से उसकी पीठ थपथपाती रही। अवन्तिका को जैसे सब पर भरोसा उठ गया था। - अवि पहले ये बताओ तुम्हें ये चोट कैसे लगी? - स्कूटर ... ट...टकरा गई। - आखिर तुम्हें बिना देखे भागने की जरूरत क्या थी। चलो क्लीनिक चलो एक्सरे निकलना है और इंजेक्शन करवाना जरूरी है। - नहीं पापा के क्लीनक में नहीं। - क्यों बेटा क्या हो गया? संजय ने पूछा। - आप मुझसे बात मत करो आप खु.. ..खु.... नी हो। मेरी माँ के..... कातिल हो। - ये क्या कह रही हो अवि चुप हो जाओ। - मैं सच क..ह, वह ठीक से कुछ बोल नहीं पा रही थी। - पहले पट्टी करने दो फिर बात करते हैं। डॉ.संजय जब उसे निकट लेकर सहलाने की कोशिश की वह उनकी हाथों को जोर से धक्का दिया और चिल्ला उठी, "आप आ...आप ने म मम माँ को मा...मा..डाला। जा... जाइए, चले जाइए यहाँ से। दीदी डै..ड़ ने मामा मामा को.. मामा को...।" पहली बार अनन्या को उसके शब्द समझ में नहीं आ रहे थे। वह आश्चर्य चकित थी, समझ नहीं पा रही थी कि कहना क्या चाहती है अवन्तिका? उसने संजय से कहा, "पापा आप क्लीनिक जाइए। आप के लिए रोगी इन्तजार करते होंगे। मैं सँभाल लूँगी अवि को। - बेटा अवि ने गलत समझ लिया। मुझे रहने दे उसके पास। उसे समझाने दे कि वह जो सोच रही है वह गलत है फिर उसको बहुत चोट भी लगी है। मैने मैने..." संजय दुखी था। - पापा अभी आप जाइए प्लीज। मैं अवन्तिका को समझाकर ले आऊँगी। वह संजय को समझा कर भेज दिया और खुद अवन्तिका के पास बैठी। संजय समझ गया जो डर था वह प्रलय बनकर उसके जिंदगी में आ चुका है। उसकी एक गलती उसकी जीवन को तहस-नहस करके रख देगी। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि वह जब ड्राइवर अमर से बातकर रहे थे उस वक्त अवि वहाँ पहुँचकर उनकी बातें सुन लेगी यह उसके सोच से परे था। जो बातें सालों से उन्होंने छिपाकर रखे थे वह बात सामने आते ही एक बम की तरह बिस्फोट होना ही था। जो हम नहीं सोचते वह हो जाए यही तो जिंदगी है। जिंदगी हर वक्त इंसान की परीक्षा लेती है। न जाने किस घड़ी क्या हो जाए कौन जाने। जैसे रम्या का चले जाना। आज अमर संजय का पुराना ड्राइवर उससे मिलने डिस्पेंसरी आना और उनकी बातें अवन्तिका का सुनना भी तकदीर का ही खेल है। यह कब क्या खेलेगी किसे पता। समय संयोग का इंतेजार करता है और कब क्या होना है यह भी तय रहता है। हम सिर्फ उसकी मोहरे बन नाच रहे होते हैं। ‹ Previous Chapterलहराता चाँद - 29 › Next Chapter लहराता चाँद - 31 Download Our App