Yes, I am a writer - 1 in Hindi Women Focused by Neerja Hemendra books and stories PDF | जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 1

Featured Books
Categories
Share

जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 1

(स्त्री केन्द्रित कहानियाँ )

नीरजा हेमेन्द्र

कहानी- 1

’’ ...........किन्तु मैं हारूँगी नही ’’

सायमा का घर जैसे-जैसे समीप आता जा रहा था, उसके मन-मस्तिष्क में विचारों का प्रवाह गतिमान होता जा रहा था। रेलवे स्टेशन के बाहर आ कर उसने चारों ओर दृष्टि घुमाई। बसें, टैम्पों, आॅटो रिक्शे, गाडि़याँ, कोलाहल व भीड़। जिधर दृष्टि जाती उधर भागते लोग, भागता शहर। बाहर मची आपा-धापी का दृश्य देख कर पहले तो वह धबरा गई। पुनः मनोभावों पर नियंत्रण करते हुए वो साहस के साथ आगे बढ़ी। मनोभाव अनियंत्रित हों भी क्यों न? इस शहर में उसके हृदय का अंश अर्थात उसकी पुत्री सायमा जो रहती है। वैसे तो इससे पूर्व भी वह कई बार इस शहर में आ चुकी है किन्तु सायमा के विवाह के पश्चात् वह प्रथम बार इस शहर में आ रही है। स्टेशन से बाहर आ कर पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अर्तगत् वह अपने एक परिचित को फोन करके बुला लेती है। प्रथम बार अकेले वह सायमा के घर जाना नही चाहती। कोई तो हो साथ में सगे-संबन्धियों जैसा। उसका कोई नही है जो उसके साथ चल सके, उसके साथ खड़ा हो सके । इसी अभाव को पूर्ण करने के लिए उसने अपने एक परिचित् को अपने साथ चलने के लिए बुलाया है।

वह एक आॅटो तय करके उसमें बैठ जाती है। अपने साथ लाए दोनों बैग को सम्हाल कर सीट पर समीप रख लेती है। वह बार-बार उन बैग पर स्नेह से हाथांे को घुमाती है। ऐसा करते समय उसके चहरे पर आत्मसंतुष्टि के भाव आ जाते हैं। इन दोनो बैग में उसकी पुत्री व उसके ससुराल के सदस्यों के लिए उपहार की वस्तुएँ हैं। आॅटो चल पड़ता है। स्टेशन के बाहर साफ-सुथरी सड़क पर आॅटो दौड़ने लगता है। वह पहले भी कई बार देख चुकी है इस शहर को, किन्तु आज यह शहर नया-सा लग रहा है। चैड़ी, साफ-सुथरी सड़क, दानों तरफ ऊँची- ऊँची बिल्ंिडगें, बड़ी-बड़ी दुकानें व कार्यालय, रेस्टोरेन्ट, माॅल्स, सब पीछे छूटते जा रहे हंै। कितना आकर्षक लग रहा है यह शहर। नागरिक सुविधाओं से युक्त व व्यवस्थित। हो भी क्यों न? यह शहर इस प्रदेश की राजधनी है......लखनऊ है। यह शहर इसलिये भी उसे अच्छा लग रहा है क्यों कि उसकी बड़ी पुत्री सायमा का व्याह यहाँ हुआ है। वह यहीं रहती है।

अभी मात्र छः माह पूर्व की ही बात है जब सायमा का व्याह यहाँ के निवासी शशिभूषण जी के इकलौते पुत्र प्रवीण के साथ सम्पन्न हुआ है। सायमा उसके तीनों बच्चों में सबसे बड़ी है। उससे छोटी समायरा स्नातक की शिक्षा ग्रहण कर रही है। एक पुत्र समर्थ है जो दोनो पुत्रियों से छोटा है। वह स्नातक प्रथम वर्ष में है।

आॅटो ज्यों-ज्यों आगे की तरफ दौड़ता जा रहा था, उसका हृदय पुराने दिनों की स्मृतियों में पीछे की तरफ जा रहा था। आज न जाने क्यों उसे भी पुराने दिनों की स्मृतियों में डूब जाने की इच्छा हो रही थी।........पन्द्रह वर्ष व्यतीत हो चुके हैं उस घटना को घटित हुए जब उसके पति ने उसे व उसके इन तीनों बच्चों को छोड़ कर दूसरा विवाह कर लिया था। उसका पति यहाँ से दूर दूसरे शहर में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्य करता था, तथा वो कानपुर के उनके पैत्रिक आवास में तीनों बच्चों के साथ रहती थी। बच्चों के साथ उसे अलग व कानपुर में रहने का कारण था उसके पति की बार-बार स्थाननन्तरित होने वाली नौकरी। उनके बार-बार होने वाले स्थानान्तरण का प्रभाव बच्चों की शिक्षा पर न पड़े इस कारण वह एक ही स्थान पर रहने को वाध्य थी। यही कारण था कि वह अपने पति से अलग कानपुर में रहती थी। अपना पूरा समय बच्चों की देखभाल व शिक्षा पर व्यतीत करती। उसके पति भी घर की प्रत्येक आवश्यकता का समुचित ध्यान रखते थे। कभी भी अपने उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन नही होते थे।

परिवार के प्रति उनके इस समर्पण को देख कर वह भी अपनी घर-गृहस्थी व बच्चोें की शिक्षा के प्रति समर्पित हो गई। इन सबके मध्य वह अपने दाम्पत्य जीवन के प्रति उदासीन हुई हो या अन्य जो भी कारण रहा हो.... उसके पति वहाँ अपने साथ कार्यालय में कार्यरत किसी महिला के प्रति कब अकर्षित हो गये उसे इस बात का पता तक न चला और जब पता चला.....बहुत देर हो चुकी थी। शहरों की दूरियाँ

हृदय की दूरियों में पतिवर्तित हो चुकी थीं।

इन दूरियों व उसके पति के इस अनैतिक सम्बन्ध का प्रभाव बच्चों के प्रति उनके स्नेह पर भी पड़ा। उसमें भी कमी आयी। वह अब अवकाश के दिनों में कम आने लगे। उसके पूछने तथा बच्चों के बुलाने पर आना बन्द कर दिया। उसे ऐसा महसूस होने लगा जैसे वह अपने तीनो बच्चों को ले कर खुले आसमान के नीचे खड़ी हो। जहाँ चारों तरफ कोई आवरण नही, कोई आश्रय नही। उसके पैरों के नीचे की ज़मीन भी उस समय भरभरा कर टूटती हुई सरक-सी गयी जब उन्होंने तलाक के कागज़ात हस्ताक्षर हेतु भिजवायें। उसने अथक परिश्रम किये अपने टूटते घर को बचाने के लिए किन्तु सारे प्रयत्न व्यर्थ गये। उसके पति ने प्रति माह कुछ पैसे व अपने पैत्रिक घर का कुछ हिस्सा उसके नाम कर दिया।

उसका साहस टूट चुका था.....जीने की इच्छा दम तोड़ चुकी थी। उसे जीवित रहना था तो मात्र बच्चों के लिए। घर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उसने निजी स्कूल मेे अध्यापन कार्य किया। छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ये। यहाँ तक कि बुटीक व रेडीमेड कपड़ो की दुकानों पर कार्य किया।

शनै-शनै सब कुछ सुचारू रूप से चलने लगा। तीनों बच्चे पढ़ने के साथ ही साथ अन्य कार्यों में उसका सहयोग करते । बच्चे इस बात को समझते कि उनकी माँ के साथ अन्याय किया गया है। वह भी अपने उत्तरदायित्व से कभी विमुख नही हुई। वह जानती थी कि बच्चों का अब इस संसार में यदि कोई अपना है तो वह माँ ही है। वह बच्चों से अत्यन्त प्यार करती, पिता के हिस्से का भी। ताकि उन्हे कभी भी किसी प्रकार का भावनात्मक आघात न पहुँचे। उसके स्नेह की छाँव व देख भाल में बच्चे आगे बढ़ने लगे।

समय धीरे-धीरे ही सही आगे बढ़ता गया और उसकी बड़ी पुत्री सायमा विवाह योग्य हो गयी। उसकी शिक्षा भी पूरी हो चुकी थी। उसे ऐसा प्रतीत होता था जैसे अभी कल की ही बात हो जब सायमा नन्ही-सी बच्ची थी। आने वाले प्रत्येक रविवार, अवकाश या किसी पर्व के दिनों में उत्साहित हो कर पूछा करती थी, ’’पापा कब आयेंगे.?...वे हमारे लिये कौन-कौन-सी चीजें लायेंगे.?....इत्यादि अनेक बाल सुलभ प्रश्न, बाल सुलभ बातें। शनै-शनै सायमा बड़ी होती गयी और माँ के साथ हुए अन्याय को समझने लगी। धीरे-धीरे उसके प्रश्न कम होते-होते समाप्त हो गये। उसके साथ समायरा व समर्थ भी समय से पूर्व बड़े हो गये तथा अपने पापा से सम्बन्धित प्रश्न पूछने बन्द कर दिये।

सायमा के विवाह हेतु जब किसी परिचित्, रिश्तेदार या अपनों ने कोई रिश्ता नही बताया तो उसने स्वंय ही समाचार पत्रों में प्रकाशित वैवाहिक विज्ञापनों के माध्यम से यह रिश्ता तलाश लिया था।

रिश्ता सुनिश्चित् करते समय उसके हृदय में कितनी आशंकाये उठ रही थीं। कितनी दुविधाओं, कितने अन्र्तद्वन्द्व से जूझना पड़ा था उसे तब जा कर वह इस रिश्ते को हाँ कह पाई। उसका हृदय यह सोच कर काँप जाता कि उसके किसी ग़लत निर्णय से भावी जीवन में बच्चियों को कोई दुःख पहुँचता है तो वह तो अपराध भाव से ग्रस्त् हो जायेगी। आखि़र वह ही तो है इन बच्चियों की सर्वस्व।

विवाह के पश्चात् आज वह सायमा की ससुराल प्रथम बार आ रही है। अपने आने की सूचना उसने सायमा के ससुराल में दे दी है। अपने एक परिचित को भी बुला लिया है। वह आज असहज अनुभव कर रही है। यूँ तो वह प्रति दिन फोन द्वारा सायमा से बातें कर लेती है किन्तु उसका कुशल क्षेम पूछ लेती है किन्तु उसने आज सायमा से कोई बात नही की है। उसने सोचा था कि वह आज सीधे सायमा के समक्ष जा कर खड़ी हो जाएगी तथा उसे अचम्भित कर देगी। यही आज उसकी इच्छा हो रही है।

घर्र.........घर्र.....घर्र....आॅटो सायमा के घर के सामने आ कर रूक जाता है। वह आॅटो से बाहर चारो तरफ दृष्टि घुमाती है । यही है सायमा का घर। सामने एक बहुमंजिला अपार्टमेन्ट, जिसकी पाँचवी मंजिल पर सायमा की ससुराल है। परिवार में सास-श्वसुर, उनका दामाद प्रवीण, प्रवीण की एक छोटी बहन व सायमा है। उसे संतोष है कि उसने पिता विहीन अपनी बच्ची का विवाह एक शिक्षित, सम्पन्न घर में किया है।

उसने आॅटो से उतर कर देखा तो अपार्टमेंट के मुख्य गेट पर उसके वो परिचित पहले से ही खड़े थे। उन्हे देख कर उसे प्रसन्नता की अनुभूति हुई कि साथ में कोई तो है वह अकेली नही है। अपार्टमेंट की लिफ्ट से ऊपर चढ़ते समय लिफ्ट में खामोशी-सी पसर गयी किन्तु उसके मन-मस्तिष्क में चिन्तायुक्त उथल-पुथल मची हुई है। चिन्ता एक माँ की कि उसकी बेटी सुखी रहे। चिन्ता इस कारण भी कि जि़न्दगी ने उसे पग-पग पर छला है। वह अपनी बेटी के किंचित दुख भरे जीवन की कल्पना मात्र से सिहर जाती है। लिफ्ट रूक जाती है। वो साड़ी का आँचल सिर के ऊपर से ढकते हुए एक सिरा जोर से मुट्ठी में दबा लेती है।

बेटी के घर के दरवाजे की घंटी बजाते ही कुछ क्षणों उपरान्त शशिभूषण जी दरवाजा खोलते हैं। अभिवादन के आदान-प्रदान के पश्चात् वो मुस्करा कर उन दोनों को अन्दर आने के लिए कहते हैं। उन्हे ड्राइंग रूम के सोफे पर बैठने का संकेत करते हुए स्वंय भी बैठ जाते हैं। वह उनके कुशल क्षेम पूछने के औपचारिक प्रश्नों के जवाब देते ड्राइंग रूम के दरवाजे से दिखाई देने वाले घर के हिस्से की तरफ बार-बार देख लेती है। कदाचित् वहाँ सायमा दिखायी दे जाये क्यों कि शशिभूषण ने उन्हे ड्राइंग रूम में बैठाते समय ही थोड़े ऊँचे स्वर में घर के अन्दर आवाज लगा कर उसके आने की सूचना दे दी थी। कुछ क्षणों उपरान्त शशिभूषण की पत्नी यशोदा भी आ कर ड्राइंग रूम में बैठ गयीं तथा बातें करने लगीं। बातें सब्जियों की, मौसम की, सड़कों पर बढ़ते ट्रैफिक की, महंगाई इत्यादि की। सायमा अब तक सामने नही आई थी। उसकी अधीरता बढ़ती ही जा रही थी। अन्ततः वह यशोदा की तरफ मुखातिब हो कर पूछ बैठी-’’सायमा क्या कर रही है?’’

’’कुछ नही! अभी आ रही है।’’ उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए यशोदा के होठों पर हल्की-सी औपचारिक मुस्कान उभर आयी।

लगभग आधे घंटे के पश्चात् सायमा आ गयी। उसके हाथ की ट्रे में पानी की बोतल व कुछ गिलास थे। सायमा ने मुस्कुराते हुए उसे देखा तथा उसके पास आ कर बैठ गयी। उसने यह अनुभव किया कि सायमा की यह मुस्कुराहट सायमा के चेहरे की ऊपरी सतह तक ही सीमित है। उसकी आँखें खामोश हैं। वरना सायमा के होठों पर मुस्कुराहट आने से पहले उसकी आँखें मुस्कुरा पड़ती थीं। उसकी आँखों से झाँकती उदासी उससे छिपी न रह सकी। फिर भी वह हृदय को यह समझाती रही कि यह मात्र भ्रम है। सायमा यहाँ खुश है।

वह उहापोह की स्थिति में बैठी रही। उसने समीप बैठी सायमा को ध्यान से देखा। थकी-थकी सी लग रही थी वो। नई-नवेली दुल्हन-सा कोई बनाव-ऋंगार नही था उसका। साधारण -सी, चुप-सी। वह सायमा से अकेले में बातें करने के लिये वह अधीर हो उठी, किन्तु यह सम्भव न था। क्यों कि सायमा आज उसके साथ नही जा रही थी। सायमा से अकेले में बातें करने का कोई अवसर नही मिला उसे। अपने साथ लाई उपहार की वस्तुओं को उसने सायमा की सास को दे दिया। कुछ देर रूकने के पश्चात् शाम होते ही वह घर के लिए निकल पड़ी। जाते-जाते अगले माह के प्रथम सप्ताह में सायमा की विदाई तय कर गयी। वह शीघ्र सायमा को अपने पास बुला कर कुछ समय के लिए अपने पास रखना चाह रही थी। उससे उसका हाल पूछना चाह रही थी।

दिन निकलता, रात ढलती पुनः दूसर दिन आता। वह अज्ञात आशंकाओं में घिर कर दिन व्यतीत कर रही थी। वह सायमा के आने की तिथि की प्रतीक्षा अधीरता के साथ कर रही थी। जब सायमा यहाँ आएगी,उसके पास। समय अपनी ही गति से चलता है। यदि हम समय से शीघ्र व्यतीत होने की अपेक्षा भी करें तो भी वह अपनी ही धुन, अपनी ही गति से चलता है। हमारी अपेक्षाओं की, हमारी शीघ्रता या विलम्ब की परवाह नही करता।

अन्ततः वह दिन भी आ ही गया जब सायमा प्रवीण के साथ आ गई। सायमा के आ जाने से वह प्रसन्न थी। दोपहर के भोजन के उपरान्त सायमा से बातें करने का अवसर मिला। सायमा भी अपनी माँ से अपने हृदय की बातें, अपने दुख-सुख की बातें बताना चाह रही थी। बातों का क्रम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जा रहा था खुशियाँ मुट्ठी में बन्द रेत सी धीरे-धीरे फिसलती जा रही थी। कारण था सायमा के ससुराल वालों द्वारा उसके साथ किया गया विश्वासघात, झूठ, छल। ’’विवाह पूर्व प्रवीण एक निजी कम्पनी में नौकरी करता था, किन्तु कुछ अनियमितताओं की वजह से उसे नौकरी से हटा दिया गया था। इस बात का प्रवीण के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा, तथा वह अवसादग्रस्त हो गया व असमान्य व्यवहार करने लगा। छोटी-छोटी बातों पर क्रोध व चिड़चिड़ापन उसके स्वभाव में सम्मिलित हो गया। इलाज करवाने के पश्चात् भी उसकी दशा में कोई सुधार न होता देख उसके घर वालों ने उसका विवाह कराने का निश्चय यह सोच कर किया कि विवाहोपरान्त पत्नी के सम्पर्क में आने के बाद उसकी मानसिक स्थिति सामान्य हो सके। इसके लिए उन्हंे मिली पिता विहीन बच्ची सायमा। विवाहोपरान्त भी प्रवीण की मानसिक स्थिति में सुधार नही आया। वह काई काम भी नही करता है। अभी वह आर्थिक रूप से अपने पिता पर निर्भर है भविष्य में क्या होना है ? ज्ञात नही।’’ सायमा की यह बातें सुन कर उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकती जा रही थी। यूँ लग रहा था जैसे प्राण ही शरीर से निकल जायेंगे।

उसने तो सायमा का विवाह शिक्षित, सम्पन्न घर व आत्मनिर्भर योग्य वर देख कर किया था। उसे यदि किसी बात की आशंका थी तो मात्र यह कि सायमा के ससुराल वाले सब कुछ देने के पश्चात् भी और दहेज की मांग न करें तथा और पैसों के लालच में सायमा को प्रताडि़त न कर बैठें। किन्तु उन्हांेने तथ्यों को छिपा कर पढ़ी-लिखी, संवेदनशील उनकी पुत्री का जीवन विध्ंवसित व बरबाद कर दिया है।

सायमा की पीड़ा सुन कर वह बेबस हो रही थी। उसकी पीडा़ की कोई थाह, कोई सीमा नही थी। आज इस दःुख की घड़ी में उसके पास कोई नही है। अपने तीनों बच्चों के साथ एक वह ही है। माँ के साथ-साथ पिता के रूप में भी। उसके साथ है मात्र उसका साहस और आत्मविश्वास। जब से उसके पति ने दूसरा विवाह कर लिया था तब से फिर कभी भी पलट कर उसने उसका या बच्चों का हाल नही पूछा। किन-किन दुरूह परिस्थितियों का सामना करते हुए उसने बच्चों का पालन पोषण किया। आर्थिक अभावों व सामाजिक जटिलताओं से संर्घष करते हुए उसने उन्हे उच्च शिक्षित किया। आज उसके साथ....उसकी बच्ची के साथ छल किया गया है। क्या उसे बेसहारा व अकेली समझ कर ऐसा किया गया......?

सायमा की बातें सुन कर उसका मन हो रहा था कि वह तीव्र स्वर में फूट-फूट कर रोये.....इतने तीव्र स्वरों में कि असमान थर्रा जाये या धरती काँपने लगे। किन्तु वह ऐसा न कर सकी और न करना चाहती। बच्चों के समक्ष वह कमजोर होना नही चाहती। यदि वह ही ऐसे टूट जाएगी तो सायमा कैसे अपने आप सम्हाल पाएगी। उसके विचलित होने या रोने से उसके अन्य दोनों बच्चों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। उसने स्ंवय को संयत किया व सायमा को ढाढ़स बँधाया। आँसुओं को आँखों में ही कैद कर लिया।

दूसरे दिन प्रवीण चला गया, सायमा को कुछ दिनों के लिए उसके पास रहने के लिए छोड़ कर। प्रवीण ने सायमा के नेत्रों में भरी रिक्तता और चेहरे पर पसर चुकी उदासी की लकीरों को कदाचित् पढ़ लिया था। वह जान गया था कि सायमा भावी जीवन की आशंकाओं से भयभीत है। प्रवीण का बिना कुछ कहे चुपचाप चले जाना इस बात का साक्ष्य था।

वह पल-पल सायमा के भविष्य को ले कर चिन्तित रही। कुछ दिनों तक वैचारिक संघर्षों से जूझती रही कि वह सायमा को कैसे विदा कर पाएगी उसकी ससुराल ? सायमा कैसे रहेगी एक बेमेल जीवन साथी के साथ ? कैसे करेगी वह भविष्य में आने वाली आर्थिक, सामाजिक, मानसिक कठिनाईयों का सामना नितान्त अकेली ?

पिछले दो दिन उसने इसी वैचारिक मंथन में निकाल दिये हैं। उहापोह भरे दो दिन कष्टप्रद तरीके से व्यतीत किये हैं.....किन्तु अब और नही। अब उसका यह दृढ़ निश्चय है कि सायमा अब यही रहेगी उसके साथ। यहाँ रह कर अर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने का प्रयत्न करेगी। उसने प्रबन्धन में परास्नातक की शिक्षा ली है। वह यहीं रह कर अपने लिये नौकरी की तलाश करेगी। सायमा को वह इतना सक्षम बनायेगी कि जीवन के झंझावातों का सामना वह अकेली रह कर भी कर सके। वह स्वंय को कमजोर या अबला न समझे। उसने निश्चय कर लिया है कि आँधियाँ चाहें जितनी भी तीव्र वेग से चलें, उसे लक्ष्य से विचलित करने का प्रयत्न करें.....किन्तु वह हारेगी नही।

नीरजा हेमेन्द्र