The Author रवि प्रकाश सिंह रमण Follow Current Read आखिर वह कौन था? By रवि प्रकाश सिंह रमण Hindi Adventure Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books রাজনৈতিক তরজা রাজনৈতিক তরজা অশোক ঘ... অপরাধী কে? অপরাধী কে? এক নারকীয় ধর্ষণ ও খুনের তদন্ত, বিচার ও কিছু প্রশ্... সংক্ষিপ্ত রামচরিত্র মানবাশোক বিরচিত অথ রামকথা যদি থাকে গজানন, করিনু নমন, রামের... পল্লবিত জনরব অনেকদিন আগের কথা, তখন এই বঙ্গভূমি ছোট বড় নানা রাজ্যে বিভক্... কবিতামঞ্জরী - কবির কবিতাগুচ্ছ শ্রেষ্ঠ প্রাণী অশোক ঘোষ ধরণীর মাঝে যত প্রাণী আছে সবা হতে আ... Categories Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Crime Stories Share आखिर वह कौन था? (1) 1.6k 7.4k उस घटना को बीते 25 साल हो गए फिर भी लगता है जैसे कल की हीं बात हो। बहुत हीं अजीब सा वाकया हुआ उस दिन मेरे साथ।अजीब इसलिए कि उस घटना का मेरे जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।ना डर ना साहस ना खुशी ना गम।बस एक कौतूहल का एहसास था। फिर भी वह घटना इतने दिनों तक हूबहू याद है यही उसके अजीब होने का पुख्ता प्रमाण है। मैंने हाल हीं में हायर सेकंडरी पास की थी फर्स्ट डिवीजन से।घरवाले चाहते थे कि मैं डाक्टर बनूं।यह बात बार बार इतनी बार कही गयी घुमा फिरा कर कि HS पास करने के बाद हीं अपने आप को आधा डाक्टर समझने लगा और पूरा डाक्टर बनने की ख्वाहिश के साथ पटना के एक कोचिंग सेंटर में दाखिला ले लिया।पास हीं एक मेन्स होस्टल में रहने की व्यवस्था कर ली। हास्टल के जिस कमरे में रहने की व्यवस्था हुई वो 15×20 फुट का एक हाल था जिसके चार कोनों में चार तख्त लगे हुए थे यानि चार लोगों को ये कमरा शेयर करना था। महीने डेढ़ महीने क्लास करने के बाद गर्मी की छुट्टियां आ गई और मैं भी घर चला आया। उन दिनों मेरी एक आदत थी। मैं दिन भर भले हीं ना नहाऊं लेकिन शाम को नहा धोकर फिट-फाट होकर कुछ दोस्तों के साथ आस पास की गलियों की सैर को निकल जाता था और ये काम मैं इतनी शिद्दत के साथ करता था कि जैसे कालोनी की सारी लड़कियां मेरे हीं इन्तजार में अपने घर के दरवाजे के पास खड़ी रहती हो और अगर मैं एक दिन भी उधर जाना मिस कर दुंगा तो उनका दिल टूट जायेगा। उस दिन भी हम चार दोस्त रोज की भांति शाम में सैर को निकले। कुछ देर घूमने फिरने के बाद जब थोड़ा धुंधलका छाने लगा तो घर के पास हीं स्थित मंदिर परिसर में बैठकर इधर उधर की गप्पे हांकने में मशगूल हो गए।यह भी हमारे दिनचर्या का हीं हिस्सा था। जिसमें आस पास के और भी लड़के शामिल हो जाते और खूब इधर उधर की बातें होती। उस दिन अपेक्षाकृत कुछ अधिक देर हो गई और सभी लड़के एक एक कर अपने घर चले गए और मैं भगवान के दर्शन कर अपनी नादानियों के लिए क्षमा मांगने।मेरा घर मंदिर परिसर में हीं था। मंदिर परिसर के किसी भी कोने से मेरे घर का पिछला हिस्सा साफ साफ दिखाई देता था इसी मनोविज्ञान के कारण मुझे घर जाने की कोई जल्दी नहीं रहती थी क्योंकि लगता था कि घर पर हीं हूं। लेकिन वास्तव में घर का गेट सड़क की तरफ था जहां घूम कर जाना होता था। जिसमें रास्ते में एक बड़ा पीपल का पेड़ पड़ता था। जिसके बारे में लोग ऐसी वैसी बहुत सारी कहानियां सुनाते थे लेकिन मैंने कभी उन बातों पर यकीन नहीं किया और ना हीं ऐसे वैसे किसी चीज से मेरा कभी कोई सामना हुआ जबकि विशेष परिस्थितियों में 12 बजे रात को भी मेरा मंदिर में आना जाना हुआ था। भगवान के दर्शन कर अब मैं घर जा रहा था जैसे हीं मैं उस पीपल के पेड़ के पास पहुंचा किसी ने पीछे से बहुत धीरे से आवाज दी "भैया सुनिएगा"पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि एक मेरी हीं उम्र का दुबला पतला लड़का करीब एक हाथ की दुरी पर मेरे पीछे खड़ा था।एक अजनबी लड़के को देखकर थोड़ा विस्मय के साथ मैं ने पूछा " क्या बात है"?तब तक वह थोड़ा और करीब आ गया और बोला"कुछ नहीं भैया आप यहीं रहते हैं क्या"? मैंने कहा"हां यहीं रहता हूं और अपने घर के पिछले हिस्से को दिखाकर बोला इसी घर में"'।उसने सहमति में सिर हिलाया।"लेकिन मैं तो तुम्हें पहली बार देख रहा हूं"।मैंने पूछ।"हां भैया मैं अपनी बहन के घर आया हूं।मन नहीं लगता है तो शाम को टहलते हुए इधर आ जाता हूं"। मैं भी पटना पढ़ता हूं।गर्मी की छुट्टी में आया था कल चला जाऊंगा"। मैंने कहा। मेरी बात सुनकर वह बोला- 'हमको भी कल हीं जाना है।साथ में चलेंगे तो अच्छा रहेगा"। मैंने कहा" हां क्यों नहीं फिर कल साथ हीं चलते हैं"।इतना कहकर मैं अपनी घर की तरफ चल दिया। घर पहुंचा तो देखा कि मां रात का खाना पीना बनाकर मुझे कल पटना भेजने के इंतजाम में लगी थी।एक तरफ बेसन के लड्डू बनाकर रखे हुए थे दुसरी तरफ मैदा का नमकीन तला जा रहा था।इसी सब में रात के 11.30 बज गए। मैं जाकर बेड पर सो गया।अभी सोए कुछ हीं देर हुआ होगा कि तभी दरवाजे पर धीरे से दस्तक हुई। मैं थोड़ा कसमसाया क्योंकि मुख्य दरवाजे के सबसे पास वाले कमरे में सोने के कारण दरवाजा खोलने की जिम्मेदारी मेरी हीं थी। मैंने सामने वालक्लाक पर नजर डाली पौने एक बजे थे।तब तक दरवाजे पर दुसरी दस्तक हो गयी।अब कोई शक की गुंजाइश नहीं थी। अतः मैं बिस्तर से उतरा और दरवाजे के पास जाकर पूछा 'कौन है?'उधर से जवाब आया 'रमेश'।कुछ क्षण केलिए मैंने दिमाग की डायरी में 'रमेश' नाम को खंगाला लेकिन कोई रिजल्ट नहीं मिला।हार कर पूछना पड़ा "कौन रमेश"। दरवाजे के पार से आवाज आई " भैया वही जो कल मंदिर में मिला था"।ऐसा लगा मानो कहीं बहुत दूर से आवाज आ रही हो।ये बात मैंने कल शाम को भी नोटिस की थी।मेरे जेहन में ये बात आई कि आखिर कल जब साथ जाना हीं है फिर ये इतनी रात को मेरे घर क्यों आ गया वो भी बिना किसी जान पहचान के।खैर मैंने दरवाजा खोल दिया सामने वही लड़का खड़ा था।उसे सामने देखकर मैंने पूछा-"इतनी रात को परेशानी क्यों उठाई जब कल साथ चलना हीं था"।वो बोला- भैया कल कब किस ट्रेन जाना है ये तो बात हीं नही हो पाई थी इसलिए आना पड़ा।"कल सुबह आ जाते"मैंने कहा।वो बोला-" सुबह 5 बजे से हीं पटना केलिए ट्रेन है फिर कब आता पूछने?"मुझे उसकी ये बात ठीक लगी। मैंने कहा" तुम्हारी बात तो सही है।ऐसा करते हैं 9.30 वाली ट्रेन से चलते हैं"।वो बोला-"हां भैया ये ठीक रहेगा"।"कल 9 बजे टिकट काउंटर के पास मिलते हैं"मैंने कहा।"हां ठीक है परेशानी केलिए माफ कीजिएगा भैया अब मैं चलता हूं"।मेरे ठीक है कहने से पहले हीं वह चल दिया। मैं भी दरवाजा बंद कर बिस्तर पर आ गया। फिर कब आंख लग गयी पता हीं नहीं चला। सुबह आंख खुली तो सवा छह बज रहे थे।नहाते- धोते नाश्ता पानी करते 8.30 बज गए । वैसे मेरे घर से स्टेशन जाने में महज आधे घंटे का वक्त लगता है लेकिन कुछ समय हाथ में लेकर चलना जरूरी होता है इसलिए मम्मी-पापा को प्रणाम कर बिना और देर किए घर से निकल गया।स्टेशन पहुंचा तो रमेश को टिकट काउंटर परिसर के बाहर खड़ा पाया। मैं तेजी से उसके पास पहुंचा और वहीं से टिकट काउंटर पर नजर डाली । वहां लम्बी कतारें देखकर मैं थोड़ा घबराया कि कहीं ट्रेन ना छूट जाए। इसलिए मैंने रमेश से कहा -"जल्दी कीजिए अब समय नहीं है और टिकट भी कटाना है"।वो बोला "घबराने की बात नहीं है मैं टिकट ले चुका हूं"।यह कहकर उसने आसनसोल से पटना का एक टिकट मुझे थमा दिया। टिकट हाथ में लेते हुए मैंने कहा -"ये आपने अच्छा किया नहीं तो ट्रेन छूट जाती"।हम प्लेटफार्म नंबर 4 पर पहुंचे।थोड़े इंतजार के बाद ट्रेन आ गयी और हम उसमें सवार हो गये।ट्रेन में बहुत अधिक भीड़ नहीं थी और हमें आराम से सीट मिल गयी।हम आमने सामने की सीट पर बैठ गये। रास्ते भर मैंने नोटिस किया कि रमेश बहुत कम बोलता था और बात करते समय हमेशा उसकी पलकें झुकी रहती थीं।पूरे रास्ते बातचीत के क्रम में वह इतना हीं बोला था कि वह बिहार के आरा जिला का रहने वाला है।पूरे परिवार में मां बाप के अलावा उसकी तीन बहनें और वह अकेला भाई है। तीनों बहनों की शादी हो गई है और वह आरा में हीं HS 2nd ईयर में पढ़ता है। सात घंटे के सफर में महज आधे घंटे का सफर अब बाकी था मैं थोड़ा टहलने की सोचकर गेट की तरफ गया। वहां एक नाटा गिट्टा आदमी दरवाजे से ओट लगाए हवा खा रहा था मुझे देखकर वह थोड़ा मुस्कुराया। मुझे ख्याल आया कि हमारी बर्थ पर बैठे पांच आदमियों में ये भी एक था। मैं भी उसके बगल में खड़ा हो गया तभी वह बोला " बाबू आप सामने किसी से बीच बीच में बातें कर रहे थे वह कौन हैं आपके" मैं बोला-"मेरा दोस्त है"। मेरी बात सुनकर वह हंसा और बोला-"दोस्त है?"तभी मुझे सू-सू लगी और मैं बाथरूम में घुस गया। बाथरूम से आने के बाद मैं सीधे अपनी सीट की ओर बढ़ गया वैसे भी अब 15-20 मिनट का हीं समय शेष था। मैं जाकर अपनी सीट पर बैठ गया।चूंकि एक बर्थ पर चार लोगों को बैठना था इसलिए सबको फिर से थोड़ा एडजस्टमेंट करना पड़ा। मैंने सामने के बर्थ पर नजर डाली रमेश सिर झुकाए चुपचाप अपनी सीट पर बैठा था। सामने की सीट पर पांच लोग बड़े आराम से बैठे थे मुझे थोड़ा अजीब लगा क्योंकि मेरी सीट पर चार लोग बड़ी मुश्किल से बैठे थे।शायद बैठने में परेशानी के हीं कारण वो नाटा गिट्टा आदमी अपनी सीट छोड़ गेट पर खड़ा था। रमेश के दायें बायें दो बूढ़े लोग बैठै थे जिनकी उम्र कम से कम 65 के पार होगी। रमेश को सोया समझ मैंने उसके घुटने पर हल्के से हाथ मार कर कहा "अब स्टेशन आने वाला है तैयार रहिए" वो बोला " ठीक है" । मैं भी अपना सामान तैयार करने लगा। रमेश के पास सामान के नाम पर एक झोला हीं था जिसे वह पीठ के पीछे सीट पर हीं रखकर बैठा था। जिन्हें पटना उतरना था वो यात्री धीरे धीरे गेट की तरफ बढ़ने लगे। मैं भी अपना बैग उठा कतार में हो लिया। रमेश मेरे पीछे पीछे था। आखिर ट्रेन प्लेटफार्म पर लग गयी और हम ट्रेन से उतर गये।हम साथ साथ स्टेशन के निकास द्वार की ओर बढ़े,चलते चलते मैंने पूछा "आपको आगे कैसे जाना है? रमेश बोला"भैया आगे बस से जाउंगा"।" बस से!आरा केलिए ट्रेन भी तो है"मैंने कहा।"हां ट्रेन तो है लेकिन आरा स्टेशन से मेरा घर 25 Km दूर गांव में पड़ता है।रात भर मुझे स्टेशन पर हीं रुकना पड़ेगा क्योंकि 7 बजे के बाद घर जाने केलिए बस नहीं मिलती"राकेश ने जबाव दिया। मैंने कहा फिर मेरे हास्टल चलो सुबह में बस पकड़ लेना क्योंकि अभी बस से जाने से भी रात हो जायेगी और फिर तुमको आगे जाने में परेशानी होगी। बात करते हम स्टेशन परिसर से बाहर निकल आए।पटना में स्टेशन से सटा एक भव्य और प्रसिद्ध हनुमान मंदिर है वहां अभी अभी शाम की आरती शुरु हुई थी।आरती की आवाज सुन मैं उधर हीं बढ़ गया।बाहर लगे टैप पर हाथ पैर धोया और कुछ समय केलिए आरती में शामिल होने की सोचकर मंदिर में घुस गया।हाथ जोड़कर एक बार हनुमान चालीसा का पाठ किया। फिर झुककर मंदिर के फर्श को छुआ। वापस जाने की सोचकर जब घुमा तो पाया कि रमेश कहीं नहीं था। जबकि मुझे आशा थी कि वह मेरे आस पास हीं होगा।खैर मैं मंदिर से निकला तो देखा कि वह बाहर हीं मेरा इंतजार कर रहा है। मैंने पूछा " आप नहीं आए?"वो बोला "ऐसे हीं मैंने सोचा आप जा हीं रहे हैं तो मुझे क्या जाना और आपके जूते पर भी ध्यान रखना था।सुना है यहां जूता बहुत चोरी होता है"। मैं बोलते हुए आगे बढ़ रहा था वहीं 20-25 कदम पर हीं स्टेशन के एकदम पास एक सिनेमा हॉल है शायद रिगल नाम है उसका।जब मैं सिनेमा हॉल के बगल से गुजरा तो देखा कि दलाल फिल्म लगी हुई है मिथुन की। सिनेमा हॉल के पास इतनी भीड़ की बयान करना मुश्किल है। मैंने घड़ी देखी 5.15 बज रहे थे। मैंने कहा "फिल्म देख लेते हैं अभी हास्टल जाकर क्या करेंगे"रमेश ने भी सहमति जताई लेकिन वहां के हालात देखकर मुझे टिकट मिलना मुश्किल लगा। मैंने कहा"लगता नहीं कि टिकट मिलेगा"। रमेश बोला "ब्लैक में मिल भी सकता है। मैं देखता हूं"।कहकर वह टिकट लेने के लिए टिकट काउंटर की ओर बढ़ने लगा। मैंने कहा" पैसे तो ले लीजिए और 200₹ निकाल कर उसकी तरफ बढ़ा दिए"।वह चुपचाप पैसे लेकर काउंटर की तरफ चला गया और मैं उसका इंतज़ार करने लगा। करीब 5-7 मिनट बाद हीं रमेश दिखा,वह इधर हीं आ रहा था। मुझे लगा शायद टिकट नहीं मिला। उसने पास आकर मुझे बालकनी का एक टिकट दिया और 175 ₹ भी। मुझे विस्मय हुआ।उस समय बालकनी का टिकट 25₹ का मिलता था। मैंने पूछा "अपना टिकट नहीं लिए क्या" वो बोला "ले लिए। आपको बाहर रहना है पैसे की आपको जरूरत पड़ेगी इसलिए अपना पैसा लगा दिया और टिकट काउंटर से हीं मिल गया ब्लैक से नहीं लेना पड़ा।"उसकी बात और वहां की भीड़ के हालात मेल नहीं खा रहे थे इसलिए मुझे बहुत विस्मय हुआ लेकिन मैं कुछ बोला नहीं। अच्छी खासी मसाला फिल्म थी।समय अच्छा पास हो गया। सिनेमा हॉल से निकल कर हम ऑटो में बैठे।महज 15 मिनट का रास्ता था।अभी महज 200 मीटर की हीं दूरी तय हुई होगी कि ना जाने कहां से एक स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस आई और ऑटो को साईड से टक्कर मारते हुए निकल गई। मुझे लगा कि मेरा पूरा शरीर हवा में लहरा रहा है और मैं ऑटो को सड़क पर चरखी की तरह नाचते हुए देख रहा हूं तभी जैसे किसी ने मुझे हवा में थाम लिया।जब होश आया तो खुद को ऑटो के पास खड़ा पाया तभी पीछे से धीमी आवाज आई "भैया आप ठीक तो है"ये रमेश की आवाज थी। मैंने देखा ऑटो ड्राइवर बुरी तरह जख्मी था और उठने की कोशिश कर रहा था।हम तीनों के अलावा एक और पैसेंजर था जो सड़क पर निस्तेज पड़ा हुआ था।उसके चारों ओर उसके शरीर का खून फैला हुआ था। शायद अब वह इस दुनिया में नहीं था।"भैया अब चलिए यहां से"फिर वही धीमी आवाज आई। मैं बुत की तरह उसके आदेश पर अपने हास्टल की दिशा में चल दिया। कुछ देर बाद हम हास्टल के पास थे।अब मैं थोड़ा नार्मल फील कर रहा था।जब मैं अपने कमरे में पहुंचा तो मेरे तीनों पार्टनर मौजूद थे। मैं सबसे एक एक कर मिला। रमेश का परिचय दिया। कपड़े बदले और अपने बेड पर आ गया। रमेश भी मेरा बेड शेयर कर रहा था। मैं दीवार की तरफ लेटा था और वह मेरे बगल में।लेटे लेटे हीं रूम पार्टनर्स के साथ इधर उधर की चर्चा होते-होते बात एक्सिडेंट पर आ गयी। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ।रात के 12 बजने वाले थे। मुझे अब झपकी भी आ रही थी। मेरा ध्यान गया कमरा अन्दर से बन्द नहीं था। मैंने कहा"अरे यार किसी ने कमरा बन्द नहीं किया"। तभी कुंडी लगने की हल्की आवाज आई चुकि दरवाजा मेरी ही साइड में था इसलिए थोड़ा सिर घुमाकर देखा कुंडी बन्द थी। फिर निंद आ गयी। सुबह आंख खुली तो देखा रमेश नहीं था।तब तक रूम पार्टनर भी जाग चुके थे। किसी को भी रमेश की खबर नहीं थी। मैं नीचे जाकर देखा मेन गेट में अभी भी ताला लगा हुआ था।हम मकान मालिक के पास गये और पूछा कि कोई मेन गेट खोलने केलिए चाभी मांगने आया था क्या ? उसने साफ इंकार कर दिया।उसका कहना था कि रात में 10.45 पर ताला लगने के बाद एक बार भी मेन गेट नहीं खोला गया है।इसी सब में 6.30 बजे का मेरा कोचिंग क्लास छूट गया।और उस दिन मैं यही सोचता रह गया "आखिर वो कौन था" और हास्टल के लोग भी नहीं समझ पाए कि "आखिर मेन गेट के बन्द रहते हुए वो कैसे चला गया"? © रवि प्रकाश सिंह "रमण" Download Our App