Its mater of those days - 7 in Hindi Fiction Stories by Misha books and stories PDF | ये उन दिनों की बात है - 7

The Author
Featured Books
Categories
Share

ये उन दिनों की बात है - 7

जोरू के गुलाम है दोनों ही, मेरी सोच को विराम तब लगा, जब मैंने धीरज को ये कहते हुए सुना |

जी, कुछ कहा आपने |

तुम अपनी सहेली से जरा दूर ही रहना | तुम उसके साथ रह रहकर कहीं मुझसे ये एक्सपेक्ट मत करने लगना कि मैं भी वहीं करूँ, जो वो दोनों जोरू के गुलाम करते हैं | औरतों को हमेशा मर्दों का कहना ही मानना चाहिये |

और तुम ! कुछ ज्यादा ही हँस रही थी | शर्म नहीं आती, इतनी जोर से हँसते हुए | पता नहीं किस टाइप की औरतों की संगत में रहने लग गई हो आजकल |

दुःख होता है, मुझे | आपकी सोच पर और किसके बारे में कह रहे हैं आप | कामिनी के बारे में, तो उसके सुलझी हुई, समझदार और दोस्ती में कोई शर्त ना रखने वाली लड़की आपने आज तक नहीं देखी होगी |

तुम और तुम्हारी सहेलियाँ ? बस अब दोबारा यहाँ दिखनी नहीं चाहिए|

धीरज का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था, इसलिए मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा | क्योंकि मैं नहीं चाहती थी मेरे बच्चों को इसकी भनक भी लगे |

***************************

मन बहुत उदिग्न हो रहा था, मैंने कामिनी को फ़ोन लगाया |

क्या हुआ दिवू ? क्यों रो रही हो ?

मैं मिलना चाहती हूँ |

मैं बस अभी आई |

नहीं, आज नहीं, कल, और यहाँ नहीं | मेरे घर पर | हमारे पुराने मोहल्ले में |

अब तू रोना बंद कर | मैं जल्दी ही आ जाऊंगी |

********************************************************************

दिवू !! मैं पीछे मुड़ी |

मैं भागकर कामिनी के गले लगी और रोने लगी |

दिवू, दिवू | देख तू रोना बंद कर | बात क्या है ? बता मुझे ?

और मैंने उसे अपने दिल का हाल कह सुनाया |

मैं तो उसी दिन समझ गई थी कि तुम दोनों के बीच कुछ भी ठीक नहीं है | जीजाजी के हाव भाव से ऐसा ही लग रहा था, कामिनी ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा |

पति पत्नी के रिश्ते में जो अंडरस्टैंडिंग होनी चाहिए ना, वो उनकी तरफ से तो बिलकुल भी नहीं है | कभी भी उन्होंने प्यार के दो मीठे बोल भी नहीं बोले | साथ बैठकर चाय पीना तो दूर की बात है | खाना भी साथ बैठकर कभी नहीं खाया | हमेशा कुछ ना कुछ कमी निकाल ही देते हैं | चलो वो तो मैं सहन भी कर सकती हूँ, पर मेरे परिवार और मेरी प्रिय सहेली के बारे में औछी बातें मुझे बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं |

कहकर मैं चुप हो गयी | थोड़ी देर तक हम दोनों ऐसे ही खामोश बैठे रहे |

कुछ खिलाएगी पिलाएगी नहीं | कामिनी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा |

क्या लोगी ? चाय या कॉफ़ी ? मैंने आंसू पूछते हुए कहा |

पर, यहाँ सामान कहाँ है ? कामिनी ने मायूस होते हुए कहा |

किरायेदार है ना | वो किस दिन काम आएंगे, मैंने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा |

किरण, ओ किरण |

जी दीदी |

ज़रा दो कप चाय तो बना दे |

अभी बनाती हूँ दीदी |

और हाँ, राघव को भेज |

राघव नीचे आया |

बेटा सबके लिए कचोरियाँ लेते आना, मैंने उसे पैसे देते हुए कहा |

और कुछ खायेगी तू ?

नहीं, बस काफी है |

ये कचोरी का स्वाद तो अभी भी बरक़रार है, कामिनी ने जैसे ही एक बाईट लिया, उसके मुँह से यहीं निकला |

हम बचपन में खाते थे ना | सच में वे भी क्या दिन थे | काश!! वे पल फिर से लौट आये और फिर मैं जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का वो गीत गुनगुनाने लगी | ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो, मगर मुझको लौटा दो बचपन का मौसम, वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी |

वाह! वाह! कामिनी ने ताली बजाई |

शुक्रिया, मैंने सर झुकाया |

चाय पीने के बाद, मैं कामिनी को उस कमरें में ले गई, जहाँ मेरे बचपन की यादें खिली हुई थी |

कामिनी की आँखें चौंधिया गई थी |

ये देख अपने खिलोने, ये रस्सी, जिससे हम रस्सी कूदा करते थे |

तूने तो सब संभाल कर रख हुआ है |

हाँ, जब भी यहाँ आती हूँ | इन्ही चीजों के साथ कुछ वक़्त बिताती हूँ जो मुझे मेरे बचपन की यादों में ले जाते हैं |

ये देख, मेरी और नैना की गुड़िया | हम इनको अपने पास ही लेकर सोया करते थे | मम्मी ने हमारी गुड़िया के लिए ढेर सारे कपड़े सिले थे ताकि रोज उन्हें नए नए कपड़े पहना सकें |

फिर मैंने उसे वो पुराना संदूक खोलकर दिखाया, जिसमें वे कपड़े थे |

अभी भी बिलकुल नए जैसे हैं, कामिनी हैरान थी |

हाँ, शादी से पहले | ये सब मैंने इसी संदूक में रख दिए थे, ताकि इधर उधर ना हो जाये |

ये वाली फ्रॉक तो अंकल ने तुझे तेरे बर्थडे पर गिफ्ट की थी | वही है ना, कामिनी ने याददाश्त पर ज़ोर डालते हुए कहा |

हाँ वही है | वैसे तुझे भी सब कुछ याद है |

होगा क्यों नहीं | बचपन के दिन भी कोई भूलता है भला |

कुछ फोटोज भी है | लेट मी गेस | ये उन दिनों की तस्वीर है, जब अंकल नया कैमरा लेकर आये थे तो सबसे पहले यही तस्वीर खींची थी उन्होंने, कामिनी काफी चकित थी |

ये आंटी, मम्मी-पापा, नैना, तू और मैं, अंकल, चिंटू | अरे, चिंटू, कितना छोटा सा था !! हाउ क्यूट !

तभी कामिनी की नज़र मेरी डायरी पर गई | उसने उठा ली और पन्ने पलटने लगी | पहले ही पन्ने पर "सागर" लिखा था |

सागर नाम लेते ही कुछ अनकही, दबी हुई, छुपी हुई यादें, मेरे सामने आने लगी | एक-एक कर, परत-दर-परत, खुलने लगी |