Repentance Part-10 in Hindi Fiction Stories by Ruchi Dixit books and stories PDF | पश्चाताप भाग -10

Featured Books
Categories
Share

पश्चाताप भाग -10

पश्चाताप भाग -10

लगभग साल बीतने को आया पूर्णिमा गाँव मे ही अपने बच्चो के वियोग की पीड़ा को झेलते हुए ,शशिकान्त से जब भी फोन पर बात होती ,पूर्णिमा बच्चो के पास जाने की जिद करने लगती , शशिकान्त कोई न कोई बहाना लेकर टाल देता | दिन ब दिन पूर्णिमा की सेहत गिरती जा रही थी रात दिन उसे अपने बच्चों की ही चिन्ता लगी रहती | पूर्णिमा के बेटे की हँसी भी उसकी पीड़ा को कम न कर पाती, वह शशिकान्त के बेटे को हंसते -खेलते देखती तो ,दोनो बच्चों के ख्याल से उसका हृदय पीड़ा से भर जाता | शशिकान्त का बेटा अपनी दादी की आँख का तारा बन गया था | शशिकान्त की माँ बेटे के प्रति पूर्णिमा की बेरुखी को भाँपने तो लगी थी, किन्तु कारण न जानने की वजह से वह ,यह सोच उसे अनदेखा कर देती कि आखिर वह इसकी माँ ही तो है | ऐसा नही था कि पूर्णिमा को शशिकान्त के बेटे से प्रेम नही था ,आखिर हो भी क्यों न, वह उसकी माँ जो ठहरी | किन्तु उसके अन्दर का मातृत्व भाव अन्य दो बच्चों की चिन्ता मे कहीं गुम हो जाता था | और वह सुख की अनुभूति कराने के बजाये दुःख और पीड़ा का अनुभव करा जाती थी | एक दिन न जाने कहाँ से शशिकान्त की माँ को उसके दोनो बच्चो के बारे मे पता चल गया | पूर्णिमा को बुलाकर," क्या मैने जो सुना वो सही है पूर्णिमा ?" क्या माँ आपने क्या सुना? यही कि पहले पति से तुम्हारे दो बच्चे हैं !| एक हार की अनुभूति प्राप्त पूर्णिमा कहती है , हाँ माँ !आपने सही सुना! " गहरी चिन्ता के बीच हम्म!! इसीलिए तू शशि के बच्चे को प्यार नही करती?
पूर्णिमा आश्चर्य भरी नजर से "ऐसा नही है माँ !" ऐसा ही है मै देखती न हूँ | तेरे वे दोनो बच्चे इस समय कहाँ हैं ? "मेरे पिता जी के घर ! " पूर्णिमा कहती है | तुझे एक फैसला करना होगा ! या तो तू अपने बच्चों को चुन या शशि और बच्चे को! | मै अपने पोते का प्यार बँटा नही देख सकती ! | तू उन बच्चो के आगे इसे कभी प्यार नही कर सकती | अब फैसला तेरे हाथ मे है !|तुझे क्या चुनना है पति या बेटा या तेरे दोनो बच्चे | पूर्णिमा पर मानो एक साथ कई बिजलियाँ गिर पड़ी हो, आँखें उफनती नदी की तरह जिसका तट टूट गया हो,लगातार संकोचहीन हो बरसने लगती हैं | अचानक बेटे की रोने की आवाज उसे कमरे की तरफ खींच ले जाती है , जहाँ पहले से मौजूद माँ जी उसे गोद मे उठाकर ,पूर्णिमा को धूरती हुई बाहर निकल जाती हैं | बहुत देर बाद भी चुप न होने पर पूर्णिमा बाबू को अपनी गोद मे लेने का प्रयास करती है, तभी माँ जी उसके हाथ को झटक कर हटा देती है ,और उसे कंधे पर उठा घुमाने लग जाती हैं | अब तो पूर्णिमा के दुख की कोई सीमा न रही ,एक तरफ बेटा और शशिकान्त दूसरी तरफ उसके दोनो बच्चों का जीवन | वह किधर जाये कुछ समझ नही पा रही थी | आखीर मन मे एक दृढ़ संकल्प के साथ मेज पर रखा लेटर पैड उठाती है | बगल मे रख्खे पेन मे मन मे व्याप्त सारा पश्चाताप भर कर लिखना शुरू करती है|......

शशि ! मै बहुत दिनो से अपने अन्दर ही एक लड़ाई लड़ रही थी, माँ और पत्नी के बीच | आपकी माँ जी की शर्त ने मुझे निर्णय तक पहुँचा दिया | इस लड़ाई मे पत्नी को हराकर माँ जीती है | मुझे नही पता कि मैने जो निर्णय लिया है , वह सही है या नही किन्तु इतना पता है , कि मै तुम्हारे साथ गलत नहीं कर रही | मै तो भाग्य को साक्षी मानकर उसी के दिखाये रास्ते पर चल रही थी, अपने जीवन का आधार अपने बच्चों को लेकर | फिर तुम आये | मेरे जीवन मे सपनो के बीज बो खुशियों का निमंत्रण लेकर| मै मानती हूँ शशि! कि तुमने कुछ दिन ही सही मुझे जीवन मे वो सबकुछ दिया, जिसकी मैने कभी कल्पना भी न की थी | तुम मेरी खुशी हो शशि! किन्तु मेरे बच्चे मेरी साँसे है | हाँ! इस निर्णय के बाद मै अपने बेटे की अपराधी जरूर हो जाऊँगी ! | पर, मुझे पता है ! तुम उसका ख्याल इस कदर रखोगे कि उसे मेरी कमी भी महसूस न होगी आखिर वह तुम्हारी संतान जो है | हमारे बेटे को तो कई रिश्ते नसीब है , जो उसे नाजो से रखेंगे | लेकिन मेरे बच्चों का हर रिश्ता मुझसे ही है | मै उन्हें नही छोड़ सकती | मै तुमसे माफी नही माँगूगी और न ही तुम्हें ही गलत कहुँगी, किन्तु इतना अवश्य कहुँगी कि यदि, ये बच्चे तुम्हारे होते तो क्या तुम उन्हें इतने दिन अलग रखकर चैन से रह पाते | नही शशि! बिल्कुल भी नही ! खुद से ही उत्तर देती हुई पूर्णिमा | शशि हमारे रिश्ते का आधार मेरे बच्चें ही तो थे, हाँ शशि! केवल मेरे , तुमने अपना माना ही कब | अपने परिवार वालों के सामने उन्हें छिपाकर मुझे इन सबके सामने अपराधी बना दिया | कितनी पीड़ा, कितना अपमानजनक है यह, तुम यह नही समझ सकते | अगर तुममे सच बताने का साहस नही था, तो मुझसे विवाह ही क्यों किया | खैर! मै तुम्हें आजाद कर अपने बच्चों के पास जा रही हूँ | तुम चाहो तो दूसरा विवाह कर लेना | मै तुमसे कभी अपना अधिकार माँगने नही आऊँगी | इतना लिख कर पूर्णिमा लेटर गाँव के ही एक व्यक्ति के हाथ पोस्ट करवा देती है | और अगली सुबह छोटे से बैग मे अपने कुछ कपड़े रख , सुबह के अँधियारे मे ही , निकलने से पहले बेटे को गोद मे उठाकर , छाती से लगाती हुई मानो अपने जख़्म सेंक रही हो , उसे इस प्रकार दुलारती है जैसे अपने अपराध के लिए उससे क्षमा माँग रही हो, जो वो करने जा रही है | तत्पश्चात गहरी नींद मे सोई माँ जी के पास लिटाकर स्टेशन की तरफ चल पड़ती हैं | यहाँ तक मैने वेवसीरीज़ के रूप मे अपनी रचना प्रस्तुत की थी अब आगे.......... क्रमश: