Benzir - the dream of the shore - 13 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 13

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 13

भाग - १३

उस रात को मैंने अम्मी से खाना खाने के बाद बातचीत की। उन्हें विस्तार से सारी बातें समझाईं। मेरी बातों को सुनकर अम्मी एकदम से चिंता में पड़ गईं। लेकिन मेरे काम को देख कर उन्हें मुझ पर अटूट भरोसा भी हो चुका था। आखिर बड़ी मान-मनौवल के बाद मानीं। लेकिन अगले ही पल फिर समस्या खड़ी कर दी कि किसके साथ जाओगी, उसके पहले मैंने नहीं बताया था कि मैं मुन्ना के साथ ही आऊँगी-जाऊँगी। पूछने पर मैंने स्पष्ट बता दिया कि, 'और कौन है जिसके साथ में आ-जा सकती हूं। शहर के बाहर कभी अकेले कहीं गई नहीं। इसलिए अकेले जाने की हिम्मत नहीं कर पाऊँगी।' मैं जानती थी कि अम्मी का मुन्ना पर भरोसा उतना ही मजबूत है जितना कि मेरा। मगर फिर भी एक समस्या उठाई उन्होंने कि, 'बेंज़ी रोज साथ-साथ आते-जाते देखकर मोहल्ले वाले कहीं कोई फसाना बनाकर बदनाम ना कर दें। बदनामी को हर तरफ फैलने में वक्त नहीं लगता।'

अम्मी की बात एकदम सही थी। लेकिन लोग फसाना बनाएंगे केवल इस डर से मैं कुछ न करूं, यह मेरे लिए मुमकिन नहीं था। आखिर मैंने कहा, 'अम्मी सच, सच ही रहेगा। किसी के बदनाम करने से मैं बदनाम नहीं हो जाऊँगी। झूठ एक दिन खुलकर सामने आ ही जाएगा । किसी के फसाना बनाने, बदनाम करने से अब कुछ होने वाला भी नहीं है। हां कहती हो तो यह किया करूँगी कि यहां से मैं अकेले ही निकला करूँगी । फिर आगे कहीं मिल लिया करुँगी । जहां मोहल्ले के किसी आदमी के मिलने की आशंका ना हो या ना के बराबर हो।'अम्मी बोलीं, ' चल ऐसा ही सही।'

मुन्ना यह बात सुनकर बोले, 'ऐसा कुछ करने की जरूरत मुझे तो नहीं लगती। सभी जानते हैं कि तुम यहाँ काम करती हो, वैसे जो आपकी अम्मी कहें वही करिए।'

अब मुझे क्योंकि अम्मी को संतुष्ट करना था, तो जिस दिन जाना था मुन्ना से कहा कि चार किलोमीटर आगे मिलूंगी। मैंने उन्हें एक ऐसी दुकान का नाम बताया जो हमारे मोहल्ले में भी काफी फेमस थी। मैं वहां टैम्पो से पहुंची तो मुन्ना वहीं पर मिले। अपनी छह-सात महीने पहले खरीदी गई कार में। मेरे पहुंचते ही उन्होंने बड़े अदब से दरवाजा खोल कर बैठने को कहा। मेरे बैठते ही जल्दी से जाकर अपनी सीट पर बैठ गए।

मैं उनकी बगल वाली सीट पर बैठी थी। उन्होंने दरवाजा ही उधर का खोला था। मेरे मन में भी आगे ही बैठने का इरादा था। अंदर अच्छी खासी ठंडक थी।उन्होंने ए.सी. पूरी रफ्तार से चलाया हुआ था। गाड़ी भी वैसे ही पूरी रफ्तार से चला रहे थे। मैं पहली बार किसी कार में बैठी थी। बड़ी अजीब सी हालत हो रही थी, जैसे कि दम फूल रहा हो। थोड़ा परेशान इसलिए भी हो रही थी कि, पहली बार किसी गैर मर्द के साथ कार में बैठकर अपने शहर से दूसरे शहर जा रही थी। मुझे लग रहा था कि, जैसे उस ठंड में भी मेरी हथेली, मेरे तलवे नम हो रहे हैं। करीब पांच मिनट के बाद मुन्ना बोले, 'आपकी अम्मी आसानी से तैयार हो गईं मेरे साथ भेजने के लिए या फिर आपको बहुत ही ज्यादा कोशिश करनी पड़ी।'

जब उन्होंने अचानक ही पूछ लिया तो मैं कुछ देर तक समझ ही नहीं पाई कि क्या जवाब दूं। अम्मी ने जो बातें कहीं-सुनी वह बता दूं कि, कुछऔर। मैं सोच ही रही थी कि उन्होंने कहा, 'क्या सोच रही हैं? बताया नहीं आपने।' मैंने कहा, 'अम्मी बोलीं, ठीक है जाओ।' मेरी आवाज में घबराहट साफ थी तो उन्होंने फिर कहा, 'आप इतना परेशान क्यों हो रही हैं, मेरे साथ निश्चिंत होकर चलें।'

'नहीं परेशान नहीं, बस ऐसे ही थोड़ा सा..।'

'मैं समझ रहा हूं आपकी स्थिति।'

करीब आधे घंटे के सफर में हमारी कोई बहुत ज्यादा बातचीत नहीं हुई थी। मैंने एक चीज गौर की कि बात करने में मुझसे कहीं ज्यादा संकोच तो मुन्ना को हो रहा था। मेरी तरफ एक बार भी बिना देखे ही बोल रहे थे। मेरे मन में कई बार आया कि, वह कम से कम एकआध बार मेरी तरफ मुखातिब तो हों । यह तो बोलें कि, तुम इस सूट में बहुत अच्छी लग रही हो। यह सूट तुम पर बहुत फब रहा है या तुम्हारी आंखें, तुम्हारे होंठ, फलां-फलां बहुत खूबसूरत हैं, जैसे कि पिक्चर में हीरो हीरोइन से कहते हैं।

आते समय कितना तो नहा-धोकर, सारी कोशिश करके अच्छे से तैयार हुई थी। मसकारा-वसकारा सब कुछ तो कितना लगाया क्या इनको कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। कैसे मर्द हैं यह। ऐसी तमाम बातें सोचते हुए मैंने ही पहल की, लंबी बातचीत शुरू करने का प्रयास किया। लेकिन उनके बेहद संकोच भरे, उससे भी ज्यादा मुक्तसर से जवाबों से मुझे बड़ी निराशा हुई। बस ऐसे ही सोचते-सोचते सफर पूरा हो गया।

वहां पहुंच गए जहां सारे कार्यक्रम होने थे। वहां मुन्ना का रुतबा देखकर मैं बहुत मुतासिर हुई। कई बड़े-बड़े लोग आदमी-औरत सब उनसे बढियाँ ढंग से पेश आ रहे थे। दिन-भर तैयारी को लेकर कई लोगों से मिलना-जुलना होता रहा। इस मसरूफियत के चलते खाने का वक्त ही नहीं मिला। भूख से आंतें कुलबुलाने लगीं । पानी भी मारे डर के नहीं पी रही थी। घर में भी जल्दी में हल्का-फुल्का ही खा पाई थी। मुन्ना शायद जमकर खा-पी कर आये थे। उन के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी।

करीब पांच बजे जब काम से कुछ राहत मिली तो उन्होंने पूछा, 'आपसे खाने-पीने के लिए भी पूछ नहीं पाया। शाम हो गई है, भूख तो लगी ही होगी।'

सेकेंड भर में मैंने सोचा कि, कहीं यह मुझे भुख्खड़ ना समझ लें। इसलिए कहा, 'नहीं ऐसा कुछ नहीं है। मैं खा-पी कर चली थी।'

मैंने कह तो जरूर दिया था कि, मैं खा-पी कर चली थी, लेकिन मुझे अपनी आवाज से खुद ही एहसास हो रहा था कि, उससे साफ-साफ पता चल रहा है कि मैं भूख से हलकान हूं। गला अलग सूख रहा है। होंठ पप्पड़ा रहे थे। आवाज मरी-मरी सी निकल रही थी।

मुझसे ज्यादा मेरी आवाज को मुन्ना ने समझ लिया। उन्होंने कहा, 'नहीं, पूरा दिन बीत गया है, मुझे भी भूख लगी है। चलिए किसी होटल में कुछ खाते हैं।'

मैं चुप रही। मैं यही तो चाह रही थी। वह जिस होटल में लेकर गए वह अच्छा-खासा बड़ा होटल था। मुझे बड़ा संकोच हो रहा था। जीवन में पहली बार किसी होटल में कदम रख रही थी। पांव लड़खड़ा रहे थे, पूरी तरह से उठ भी नहीं रहे थे। कदमों को बहुत खींच-खींच कर उठाना पड़ रहा था। कुर्सी पर बैठने में बड़ा अटपटा महसूस कर रही थी।

वहां पहले से ही कई लोग बैठे हुए थे। मुझे लगा जैसे सब मुझे ही देख रहे हैं। मैं बुरी तरह खुद में सिमटी जा रही थी। मेरी स्थिति मुन्ना ने समझ ली। उन्होंने मेरे बेहद करीब आकर धीरे से कहा, 'आप क्यों इतना संकोच कर रही हैं। यह सब लोग भी हम-आप जैसे लोग ही हैं।' उन्होंने ऐसे ढंग से यह बात कही कि, देखने वालों को लगे कि उन्होंने कुछ कहा ही नहीं। लेकिन उनकी बातों के बावजूद मेरी घबराहट कम होने के बजाय और बढ़ गई।

मेरे चेहरे पर पसीना दिखने लगा था। जबकि ए.सी. कार से उतरकर, सीधी ए.सी. होटल में ही पहुंची थी। मेरे मन में आ रहा था कि यहां से निकल कर जितना हो सके उतनी तेज़ भागूं और सीधे कार में जाकर छुप जाऊं। मैं हकबकाई, इतनी हलकान हुई, लगा कि रो पड़ूँगी । होठों में फड़कन शुरू हो गई थी, लेकिन मैं सबके सामने अपनी और मुन्ना की बेइज्जती किसी भी सूरत में नहीं चाहती थी। मैंने सोचा कि मुझे रोता देखकर तो लोग न जाने क्या-क्या सोचने-समझने लगेंगे। मुन्ना बेवजह मुसीबत में पड़ जाएगा ।

मुझे कुछ नहीं सूझा तो मुन्ना को अपनी बगल में बैठने के लिए बुला लिया। वह मेरे चेहरे को बार-बार देख रहे थे। मेरी हालत को समझ रहे थे, तो तुरंत आकर बैठ गए। मुझे बड़ी राहत मिली। अब मैं दीवार की तरफ और मेरे बाद मुन्ना फिर बाकी लोग । गनीमत थी कि सामने की कुर्सियों पर कोई नहीं था। तभी वेटर मेन्यू लेकर आया और मुन्ना के सामने रख दिया।

उन्होंने उसे उलट-पुलट कर देखने के बाद दो मसाला डोसा ऑर्डर कर दिया।

मैंने मसाला डोसा सुना तो बहुत बार था, लेकिन खाने को कौन कहे, देखा तक नहीं था। सोचा आज देख भी लूँगी और खा भी लूँगी । वेटर के जाने के बाद मुन्ना ने कहा, 'मुझसे गलती हो गई। आपको साथ लेकर आया, पूरा दिन बीत गया लेकिन खाने-पीने के बारे में पूछा ही नहीं। इसलिए मैंने सोचा कि, दिनभर की भूख लगी होगी तो थोड़ा हैवी नाश्ता कर लिया जाए। आपको डोसा पसंद तो है ना।' मैंने कहा, 'हाँ।'

बिल्कुल झूठ बोला था मैंने। दरअसल मैं यह नहीं कहना चाहती थी कि, मैंने आज तक मसाला डोसा खाया ही नहीं है। उन्होंने अब मुझसे ज्यादा बात करना शुरू कर दिया था। मेरी हिचकिचाहट संकोच को वह दूर कर रहे थे। बातचीत दस मिनट ही चली होगी कि वेटर दो प्लेटों में मसाला डोसा रख गया और सांभर भी। उन्हें देखकर मैं हैरानी में पड़ गई कि, इतनी बड़ी, सफेद कड़क सी रोटी में लपेट कर क्या-क्या भरा हुआ है।

बड़ी इतनी कि प्लेट से बाहर निकली हुई है, और देखने में आटे की तो बिल्कुल नहीं है। कटोरी में दाल, जिसमें लौकी, मसाला न जाने क्या-क्या पड़ा है । मैंने मन ही मन सोचा कि नाम बड़े दर्शन थोड़े। यही है मसाला डोसा।

पता नहीं मैं मन से खा भी पाऊँगी कि नहीं। वैसे खाना तो हर हाल में ही है। भूख बहुत लगी है, उससे भी पहले यह कि मुन्ना ने मंगाया है। वेटर के जाने के बाद मुन्ना ने मेरी प्लेट मेरे करीब खिसकाते हुए कहा, 'यहाँ का मसाला डोसा बहुत अच्छा होता है।' जिसे मैं दाल समझ रही थी, मेरी तरफ करते हुए कहा, 'सांभर का तो जवाब नहीं।' तब मैं समझ पाई कि यह दाल नहीं सांभर है।

अब मेरी समस्या यह कि खाऊं कैसे? समझ ही नहीं पा रही थी। तो सोचा कि मुन्ना शुरू करें तो उन्हें ही देखकर शुरू करूं। वह बार-बार मुझसे शुरू करने को कहे तो मैं कहती, 'जी हां, पहले आप शुरू कीजिए।'

वह मेरे संकोच को समझते ही खाने लगे। एक तो भूख, ऊपर से गर्म डोसे की खुशबू मुझे अच्छी लग रही थी। मुंह बार-बार पानी से भरा जा रहा था। एक बार देखते ही मैं समझ गई कि डोसा कैसे खाना है। पहले निवाले से ही वह मुझे बहुत ही जायकेदार लगा। मेरे मुंह से बरबस ही निकल गया, 'वाकई बहुत ही जायकेदार है।'

'यह साउथ इंडियन डिश है। ये जायकेदार बने इसीलिए होटल ने साउथ इंडियन एक्सपर्ट कुक भी रखा है।'

मुन्ना ने लखनऊ के कुछ होटलों का भी नाम लिया। जहां मसाला डोसा बहुत ही अच्छा मिलता है। तभी मैंने महसूस किया कि, वह कुर्सी जो दो लोगों के लिए बनी है या तो बहुत छोटी है या फिर मैं ज्यादा फैल गई हूं। क्योंकि मुन्ना और मैं दोनों बहुत प्रयास कर रहे थे, फिर भी हमारे कंधे, बांहें आपस में छू जा रही थीं। यही हाल कमर और जाँघों का भी था। जैसे ही बदन छूता, मुझमें अजीब सी सिहरन दौड़ जाती। मगर भूख फिर याद दिलाती है कि डोसा सामने रखा है। जल्दी ही हम दोनों ने डोसा खत्म किया।'

'मुझे पूरा विश्वास है कि, यह अनुभव आप जीवन भर भूल नहीं पाएंगी। क्योंकि मैं देख रहा हूं कि, यहां केवल आपका नाश्ता ही नहीं चल रहा है। बल्कि उससे भी बढ़ कर, एक दूसरी बात, एक ख़ास तरह का अहसास भी आपमें पनप रहा है, जो आपको मुन्ना की तरफ खींच रहा है। आप-दोनों लिए एक ब्रिज तैयार कर रहा है। जिस पर आप दोनों एक साथ चल सकें। मैं गलत तो नहीं कह रहा हूं।'

'नहीं आपने बिल्कुल सही कहा है। मैं देख रही हूं कि आप बहुत बारीकी से बातों के सूत्र पकड़ रहे हैं। लेकिन एक बार फिर कहूंगी कि, 'मुझे यूं आखों में आँखें डाल-डालकर देखते ना रहिए। मुझे आपकी आंखों में पता नहीं क्या-क्या तैरता दिख रहा है। जो मुझे गड़बड़ा देता है।'

यह कहकर बेनज़ीर हंसी, तो मैं भी हंस दिया। मैंने कहा, 'मेरीआंखों में सिर्फ और सिर्फ आपका नॉवेल है। बस वही दिख रहा होगा। पहचानिए उसे।'

'आप बातें भी खूब बना लेते हैं। शायद इसीलिए लेखक हैं।'

मैं हंसा, फिर बात आगे बढाते हुए बोला, 'डोसा ने जो ब्रिज तैयार किया उस.............।' 'बताती हूं। थोड़ा धैर्य रखिए, तो जब घर को चले तो आठ बज रहे थे। अंधेरा घना हो चुका था। मैंने अम्मी को फोन करके बताया कि, काम अभी खत्म हुआ है। बस थोड़ी देर में घर के लिए चल रही हूं। अम्मी बोलीं, 'अच्छा जल्दी करना। रात हो गई है।' मैंने कहा, 'जी अम्मी, बस पहुंच रही हूं।'

अचानक मेरा ध्यान इस तरफ गया कि, अम्मी ने यह तो जरूर कहा कि रात हो गई है। लेकिन उनकी आवाज में कोई घबराहट कोई अफनाहट नहीं थी, कि रात हो गई है और मैं एक गैर मर्द, वह भी एक गैर मजहब का, जिन्हें अब्बू काफिर कहा करते थे, के साथ घर से करीब पचीस-तीस किलोमीटर दूर रात हो जाने पर भी हूं। मेरा ध्यान इस तरफ भी गया कि स्वयं मुझ में भी कोई घबराहट नहीं है।

मैं ऐसे निश्चिंत थी जैसे कि घर के ही किसी सदस्य के साथ बिलकुल सुरक्षित हूं। इसकी भी चिंता नहीं थी कि, अम्मी के लिए खाने-पीने का इंतजाम करना है। क्योंकि सवेरे का खाना बनाकर उनके पास रख आई थी कि, जब उनका मन होगा तब खा लेंगी। डोसा खाते समय ही मुन्ना ने फोन पर ही अम्मी के लिए भी खाना ऑर्डर कर दिया था। चिकन बिरयानी। उन के कहने पर ही अम्मी को मैंने फोन पर बता दिया कि होटल से कोई खाना लेकर आएगा, आप उसे लेकर रख लेना। कोई पैसा नहीं देना है। पैसा दे दिया गया है।

मुन्ना ने पूछने पर भी नहीं बतया कि उन्होंने ऑनलाइन कितना पेमेंट किया है। उन्होंने डोसा खाना शुरू करने से पहले खुद ही कहा था कि, तुम्हारी अम्मी और तुम्हारे लिए भी खाना ऑर्डर कर देते हैं। तुम दिन भर बहुत थक गई हो। जाकर खाना क्या बनाओगी। मेरे मना करने पर भी वह नहीं माने थे।

वापसी में मुन्ना से मैंने उसी जगह छोड़ देने के लिए कहा, जहां सुबह मिली थी। मैं घर        तक उनके साथ नहीं जाना चाहती थी। लेकिन उन्होंने कहा, 'अब देर हो चुकी है। आठ बज रहे हैं। तुम्हें पहुंचने में ज्यादा देर हुई तो तुम्हारी अम्मी फिर कभी जाने के लिए मना भी कर सकती हैं।'

मुझे उनकी बात सही लगी, लेकिन मन डर रहा था कि, मोहल्ले का कोई देख ना ले। मैंने उनसे कहा कि, वह गाड़ी अपने घर के गेट पर बिल्कुल सटाकर रोक ले। मैं वहां से जल्दी से घर चली जाऊँगी।

घर पहुंची तो अम्मी बड़ी बेसब्री से इंतजार करती हुई मिलीं। देखते ही बोलीं, 'कहाँ रह गई थी बेंज़ी? इतनी देर काहे हो गई?'

मैंने जल्दी से उन्हें दिन भर का काम-धाम बताया तो वह बोलीं, 'तुम इतना सब काम कैसे कर पाओगी ? चेहरा तो देखो कैसा हो रहा है। जैसे दिन भर भट्ठी के सामने बैठकर खाना पकाती रही हो। कैसा लाल सा हो रहा है। कुछ खाया-पिया कि नहीं या दिन भर ऐसे ही बीत गया।' 'हाँ, हमने खाया-पिया भी। दिन भर गर्मी इतनी थी कि, हालत खराब हो गई। दूसरे पहले कभी इस तरह दिन भर निकली नहीं इसीलिए और भी ज्यादा गर्मी महसूस हुई।तुम बताओ, तुमने दिन में खाना खाया था कि नहीं या दिन भर भूखी ही बैठी रहीं।'

'हाँ, खा लिया था। बहुत ही ज्यादा था, बच गया तो फ्रीज में रख दिया है। तुमने दोबारा फिर भिजवा दिया, काहे बेवजह इतना पैसा बर्बाद किया और होटल वालों को हमारा पता कैसे मिल गया।'

अम्मी को मैंने यह नहीं बताया कि, खाना मुन्ना ने ही भिजवाया था। यह भी नहीं बताया कि मैंने उनके साथ होटल में डोसा भी खाया। मैंने कहा, 'अम्मी कुछ कंपनियां हैं, जिन्हें फोन पर कह दो तो खाना घर पहुंचा देती हैं।'

'लेकिन वह पैसा कैसे लेती हैं?' मैंने अम्मी को ऑनलाइन पेमेंट के बारे में बता दिया। उन्होंने तुरंत कहा, 'तुम्हारा तो कोई बैंक अकाउंट है नहीं, फिर कैसे पैसा दे दिया?'

मैंने कहा, 'पैसे मैंने मुन्ना को दे दिए। मुन्ना ने अपने अकाउंट से होटल को पेमेंट कर दिया।और सुनो अम्मी, तुम कितनी जल्दी भूल जाती हो, जब ऑन लाइन बिजनेस शुरू किया तो उसी समय बैंक अकाउंट भी खोला था, क्यों कि बिना उसके काम हो ही नहीं सकता था, लेकिन आज उससे पेमेंट फेल हो रहा था, तो मुन्ना ने किया।'

'अरे हाँ, यह तो भूल ही गई थी। बिटिया बुढ़ापे में कहाँ याद रहता है। '

मुझे मज़ाक सूझा तो मैंने कहा, 'मेरा निकाह नहीं भूलती न, इसीलिए तुम्हें बाकी कुछ याद नहीं रहता, मेरा निकाह भुला दो तो तुम्हें बाकी सब कुछ याद रहेगा।'

यह कहकर मैंने उन्हें प्यार से पकड़ कर धीरे से हिला दिया तो वह गहरी सांस लेकर बोलीं, 'बिटिया तुम नहीं समझ पाओगी उस दिल का दर्द, उसकी हालत, जिसकी तुझ सी ज़हीन, जवान लड़की का निकाह पैसों की तंगी, परिवार के लोगों के साथ छोड़ देने की वजह से न हो पा रहा हो, उसकी नज़रों के सामने लड़की का जीवन तिल-तिल कर बर्बाद हो रहा हो।'

अम्मी की आवाज़ में इतनी गहरी पीड़ा थी कि मेरा कलेजा फट गया, सोचा क्यों मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया, जो मैंने ऐसी पागलपन की बात कह दी।