अन्नदा पाटनी
उफ़ ! बारह बज गए । जल्दी जल्दी खाना मेज़ पर लगाओ नहीं तो सुनना पड़ जायेगा," खाना भी टाइम से नहीं लगा सकते हो । यह नहीं सोचते कि खाने के बाद मैं आधा घंटा आराम कर लूँ ऑफ़िस जाने से पहले । "
हे भगवान ! रोज़ तो खाना समय से पहले ही मेज़ पर लग जाता है । अगर एक दिन किसी कारणवश पाँच मिनट की देर हो गई तो मजाल है बिना जताए छोड़ दिया जाय।हद है ।टेबल पर खाते समय भी खाने की तारीफ़ करना तो दूर, सुनने को मिलेगा," यह देखो दीवार पर कैसे दाग लगे हुए हैं । किसी को ख़्याल आता है, देखने का या साफ़ करने का । "
शुरू में में तो चुप रह जाती पर अब तो बोलने लगी थी, "सामने सजीव मूर्तियाँ बैठी हैं पर उनको तो देखते नहीं हो, निर्जीव दीवार को निहार रहे हो ।" रोज-रोज एक ही बात,अब तो आदत सी हो गई थी ।
पार्टी में जाना है । तैयार हो कर बड़ी आशा से देखा कि कॉम्लीमेंट मिलेगा कि बहुत सुंदर लग रही हो पर न जी न । डाँट सुनने को मिली," सजने-धजने में कितना टाइम लगा दिया । सब पहुँच जाएँगे, हम ही लेट लतीफ़ होंगे ।" पहुँचने पर देखा कि पहुँचने वालों में हम ही पहले थे । मैं बोली तो बोले," अच्छा चुप रहो ।"
पार्टी में सबने मेरी साड़ी की बहुत तारीफ़ की और यह भी कहा कि मैं बहुत सुंदर लग रही हूँ । घर आकर शिकायत के तौर से कहा कि सबने तारीफ़ की पर आपके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला ।" बोले," सब चापलूसी करते हैं और तुम्हें बड़ा मज़ा आता है ।"
" अरे मेरी चापलूसी क्यों करेंगे ?"
"हर कोई बड़े ऑफ़िसर की बीवी को मक्खन लगाने के चक्कर में रहता है । तुमको यह बात समझ नहीं आएगी ।"
और कुछ समझ आए न आए, एक बात ज़रूर समझ आ गई है कि सारी दुनिया ख़ुश हो जाय, पर आपको ख़ुश करना बहुत मुश्किल है । अगर यह सुना भी दो तो जवाब मिलेगा," क्या हर बात कह कर ही समझाई जाती है, मेरी आँखों में तारीफ़ नहीं पढ़ सकती हो ।"
"तारीफ़ अगर आँखों में पढ़ी जा सकती है तो बुराई भी पढ़ी जा सकती है पर वह कहने में तो नहीं चूकते । एक मौक़ा तक नहीं छोड़ते सुनाने में ।" मैं भी कहाँ चुप रहने वाली थी । इस पर जवाब में मिलती एक मुस्कुराहट और "जी हाँ "
ऊपर से मज़ा यह कि ख़ुद ही कहेंगे," यह क्या हुलिया बना रखा है, गाउन उतार कर ज़रा ढंग के कपड़े पहनो ।"
अजीब तमाशा है, सजो तो मुश्किल न सजो तो मुश्किल । अच्छा जी, मन ही मन तो बड़े ख़ुश होते हो पर कहते इसलिए नहीं हो कि चढ़ न जाऊँ । यह बात पहले समझ नहीं आई पर अब समझ आने पर हँसी आ जाती है । लेकिन सोचती हूँ कह देने से यदि किसी का मन ख़ुश हो जाता है तो अनकहा क्यों रहने दो ।
पूरे दिन प्रतीक्षा करती कि शाम को कहीं घूमने जायेंगे । घर की बालकनी से झाँक कर लोंगों को सज-धज कर जाते हुए देख कर बड़ा अच्छा लगता । पर इंतज़ार करते करते थक जाती । काम से लौटे थके हुए व्यक्ति से शिकायत भी करने कामन नहीं करता । सोचा किसी दिन अप आप समझ जायेंगे । एक दिन सब्र का बाँध टूट गया । जैसे ही ये घर में घुसे मैं अल्मारी के किवाड़ की आड़ में अपने आँसू छुपा रही थी । पास आए तो आँसू देख कर घबरा गए ।बिना कुछ कहे आँसू बहुत कुछ कह गए थे। बोले," कल से जल्दी आऊँगा ।" दो एक दिन आ भी गए पर फिर वहीं के वहीं ।
सिर में दर्द की शिकायत करो तो हमदर्दी दूर, सुनने को मिलेगा, " यह तो होना ही था, रात को देर देर तक जगोगी तो होगा ही ।" पर दूसरे ही पल विक्स लाकर कहेंगे," सेरिडोन लो और चलो लेट जाओ, विक्स लगा कर माथा सहला देता हूँ । थोड़ी देर आँख बंद कर पड़ी रहो ।" फिर सेवक को आदेश," मेमसाब के लिए अदरक की चाय बना कर लिआ और साथ में कुछ नमकीन भी।”
फिर हिदायतें शुरू," आप ज़रा अपनी आदतें सुधारिये, यह देर देर तक जगना, टीवी देखना और भी न जाने क्या क्या," बस उपदेशों की झड़ी लग जाती । मैं सोचती कि हे भगवान क्यों बताया, अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली ।
कभी अकेले ही मुझे ट्रेन में लम्बा सफ़र करना होता तो बस देखते ही बनता । कोई देखता तो अवश्य यह समझता कि कोई बच्चा अकेला जा रहा है । पैकिंग करके रखती तो फिर से चैक किया जाता कि कुछ छूट तो नहीं गया। साथ में पूरी आलू और खाना होते हुए भी दही और नमकीन, मिठाई भी मना करने के बावजूद रख दिये जाते । छोटा छोटा सामान बढ़ते बढ़ते इतना हो जाता कि सब मेरा मज़ाक़ उड़ाते थे । मैं चिढ़ती तो कहते, " ट्रेन के सफ़र में हमेशा साथ में ज़्यादा रखने में हर्ज नहीं है, कहीं भी गाड़ी किसी कारण से घंटों रुक गई तो परेशान तो नहीं होना पड़ेगा । उड़ाने दो मज़ाक़ । फिर प्लेन से तो जा नहीं रही हो तो सामान ज़्यादा भी हो गया तो प्रॉब्लम क्या है । सामान भी क़ुली उठाएगा ।"
चलो, पहले तो हमारी मजबूरी थी ट्रेन से यात्रा करने की पर दिल्ली आने के बाद वह नहीं रही । पर हिदायतों में कमी नहीं आई थी।”
कभी कभी बहुत ज्ञानी होना भी तकलीफ़दायक होता है । एक छोटा सा प्रश्न पूछा जाने पर आप छोटे उत्तर की अपेक्षा रखते हैं । पर यहाँ तो पूरी एनसाइक्लोपीडिया का परिचय करा दिया जाता । कभी अच्छ लगता तो कभी कन्फ्यूजन ज़्यादा हो जाता । ऑब्जरवेशन इतना ज़बर्दस्त कि जहाँ भी जाते हर चीज़ पर ध्यान दिलाते और उसके बारें में जानकारी देते । छोट बेटा तो कहीं भी तबले की थाप देता हुआ "बन्नो तेरी अँखियाँ सुरमेदानी " की तर्ज़ पर गाने लग जाता," पापा, आपकी नॉलेज जानखानी ।"
बच्चे छोटे थे तो उनके लालन पालन में उलझन आती थीं । बहुत मतभेद होते और नोंकझोंक भी । बच्चे खाने-पीने में आनाकानी करते तो मैं तो मान जाती पर ये तो बिल्कुल भी रियायत नहीं देते । मुझे और सुनना पड़ता," बच्चों को ज़्यादा लाड़-प्यार में सिर पर चढ़ा लोगी, बाद में ख़ुद ही परेशान होगी ।" अनुशासन में नाम को ढील नहीं हो सकती थी ।
समय समय पर और भी न जाने कितनी बातें ज़िन्दगी की गाड़ी खींचते-खींचते घटित होती रहतीं,कुछ मन माफ़िक़,कुछ खटकने वाली । पर गाड़ी पटरी पर चलती रही । एक बहुत बडा आश्वासन था, दृढ़ विश्वास था कि हमारा सारथी बहुत ही सामर्थ्यवान है जो हमारे पूरे परिवार को मंज़िल तक पहुँचा देगा ।
आज नींद नहीं आ रही । पूरी ज़िन्दगी की तस्वीरें एक एक कर सामने आने लगीं । विचारों की श्रंखला मन को झकझोरने लगीं । जिन बातों को लेकर मन परेशान हुआ करता था, आज वही बातें मन को निश्चिंत और प्रसन्न कर रही थीं । जो आचरण मन में नेगेविटी उत्पन्न कर रहा था, वही एकाएक पोजीविटी की ओर ले जाने लगा ।
कैसा लगता था जब कुछ मन मुताबिक़ नहीं होता था । यह सोचने के लिए प्रेरित हो जाती कि कोई व्यक्ति इतना कठोर कैसे हो सकता है, वह मानव है या कुछ और । पर हाँ, दानव जैसी संज्ञा कभी दिमाग़ में नहीं आई । बल्कि जब पूरी जीवन-यात्रा के पड़ावों पर दृष्टि डालती हूँ तो अनुभव होता है कि जो मुक़ाम हमने पाये हैं, उनमें सभी का कुछ न कुछ योगदान है पर उसमें अधिकतम हाथ, विवेक, अनुशासन, परिवार और समाज के प्रति दायित्व, मानव-मूल्यों की प्रति समर्पण के प्रति प्रबल आस्था रखने वाले व्यक्ति का ही हो सकता है । ऐसा पुरुष उत्तम पुरुष की श्रेणी में तो आ सकता है पर मानवीय कमज़ोरियों के कारण दानव की श्रेणी में कदापि नहीं । सांसारिक प्राणी होने के नाते और मानव के रूप में पैदा होने के कारण अपनी स्वाभाविक कमज़ोरियों के साथ पुरुष को हम मानव ही बना रहने दें, उसे देव पुरुष या महामानव न बनाएँ और न ही दानव ।