लम्बी अवधि का योद्धा-जामवंत
घने जंगल की एक गुफा में जामवम्त अपनी बेटी जामवंती और पत्नी के साथ निवास करते थे । एक दिन जामवंत जब गुफा के बाहर जंगल में विचरण कर रहे थे कि उन्होंने देखा एक शेर अपने मुंह में बहुत चमकदार मणि लेकर जा रहा है। जामवंत रूक गए उन्होने देखा िक मणि सूर्य मणि थी। सूर्यमणि यानी कि ऐसी मणि जिसमें सूर्य जैसा उजाला होता है अब जामवंत ने ध्यान से देखा तो पाया कि सिंह ने पास में ही एक राजपुरूश को मार के यह मणि छीनी है , राजपुरूश के शव के पास ही उसके घोड़े का शव भी पड़ा हुआ है। जामवंत ने फुर्ती से शेर पर हमला किया और उसे पराजित कर वह मणि छीन ली ।
उन्होंने अपनी गुफा में आकर मणि रखदी और आराम करने लगे ।
अगले दिन की बात है कि अचानक उनके गुफा में कोई बहुत ही संुदर और बलिश्ठ व्यक्ति बिना आज्ञा के प्रवेश कर रहा था । आने वाले को ध्यान सेदेखा तो जामवंत चौक गए क्योंकि सूर्य मणि से फैल रहे उजाले में आसमान के नीचे चमक रहे सूरज जैसा उजाला था और गुफा में उस उजाले में जामवंत ने देखा था कि नींल वर्ण के चमकत्र बदन का का एक अत्यंत स्वस्थ व्यक्ति मुस्कुराता हुआ उनके सामने खड़ा हैं, जिसके माथे पर मोर पंख बंधा हुआ है , उस व्यक्ति के हाथ में बांसुरी है ।
जामवंत को लगा कि त्रेता में मैंने हाथ में धनुष बाण लिए राम को देखा था, आज वही राम इस रूप में मेरे सामने क्यों उपस्थित है ।
जामवंत खड़े हुए नील वर्ण के दैवीय व्यक्ति कों प्रणाम किया और कहा कि ‘‘आप यह वेश कैसे बदल लिए ?’’
आने वाले व्यक्ति ने पूछा-‘‘ आप कौन?’’
अब जामवंत के चौंकने की बारी थी । उन्होंने कहा प्रभु आपने नहीं पहचाना? रिक्षराज जामवंत मैं ही तो हूं जिसने राजा बलि को बांधते हुए बामन प्रभु के विशाल आकार की सात प्रदक्षिणा पल भर में कर डाली थी । मैं ही तो हूं जिन्होंने हनुमान को इस बात के लिए जागृत किया था कि वे लंका जाने के लिए समुद्र को पार करें, माता सीता जी को आपकी कुशलता की खबर दें और वहां के समाचार लेकर वापस आ जाए।ं मैं वही जामवंत हूं । रीछों का राजा, सुग्रीव का मित्र और अंगद हनुमान का सम्मानीय साथी।’
अभ्यागत नील वर्ण के पुरूश ने कहा मैं नहीं पहचानता आपको मैं वसुदेवपुत्र कृष्ण हूं । अपने एक मित्र के भाई प्रसेनजित का पीछा करते हुए मैं इस जंगल में घूम रहा था कि उसका शव और घोड़े की अधखाई लाश देखी जिसके कुछ आगे एक सिंह मरा हुआ देखा और वहां से लम्बे पांव के निशान इस गुफा तक आते देखे तो मुझे लगा कि मैं सही रास्ते पर हू। आपकी गुफा में यह जो स्यंतक मणि रखी है , यह मेरे एक मित्र सत्राजित को सूर्य से प्राप्त हुई थी । कल उसके भाई प्रसेनजित ने यह मणि पहनी और कहीं निकल गया था तो कल से ना भाई का पता लगा और ना इस मणि । आप यह मनी मुझे दें ,और बताऐं कि यह मणि आपने कैसे प्राप्त की ?आपको प्रसनजीत कहां मिल गया ?’’
जामवंत ने प्रणाम कर कहा कि ‘‘ आपके मित्र का भाई आखेट खेलने जंगल में आया था और वह स्वयं सिंह का आखेट बन गया। कल सुबह मुझे एक शेर जंगल में मुझे दिखा जिसके मुंह में खून लगा था और इसके कुछ दूरी पर एक घोड़ा और एक राज पुरुष उसी शेर का शिकार किया हुआ पड़ा हुआ था, मैंने बाकयादा द्वंद्व युद्ध करके उस शेर को मारा और उसी सिंह के पास से यह मणि मिली है। आपको मणि तो नहीं दी जा सकती क्योंकि यह मणि प्राप्त करने में मैंने जिस हिंसक शेर के साथ कुश्ती लड़ते हुए अपनी जान कीबाजी लगा दी थी । ’’
श्री कृष्ण ने कहा ‘‘ आपकी बात ठीक है , लेकिन कृपा कर आप यह मणि मुझे दीजिए क्योंकि इस मणि की वजह से मुझ पर लालच और चोरी का कलंक लग रहा है। कल यादव की राज सभा में इस मणि को पहनकर सत्राजित जब मेरे दरबार में आए तो मैंने कहा था मणि बहुत अच्छी लग रही है, हमको पसंद आ रही है ,सत्राजित ने कहा था कि मुझे सूर्य ने दी है मैं आपको नहीं दे सकता।’’
‘ तो इसमें आपको बुरा मानने की क्या बात है?’ जामवंत ने पूछा।
‘‘ कल से प्रसनजीत और यह मणि गायब है तो मुझ पर चोरी का आरोप लग रहा है। स़त्राजित कह रहे हैं कि मैने उनके भाइ को मार के मणि चुरा ली है।’’
जामवंत ने कहा ‘‘ मैं चलकर भरी सभा में कह सकता हूं कि शेर ने प्रसनजीत और उनके घोड़े को मार दिया , उस सिंह को मार के यह मणि मैंने छीन ली है।’’
लेकिन श्री कृष्ण ने कहा कि ‘‘मैं आपसे निवेदन करूंगा कि आप मेरे साथ यादवों की सभा में भी चलिए और यह बात सबके सामने बताइए लेकिन मणि अभी मुझे दीजिए जिससे मैं अपने ऊपर लगे लालच और चोरी के कलंक को हटा सकूं ।’’
जामवंत ने कहा ‘‘ देखिए मैंने खूंखार सिंह के कब्जे से यह मणि छीनीहै। श्।ेर से कुश्ती लड़ना कितना खतरनाक होता है ?मैंने खतरा उठा कर यह मणि प्राप्त की है । आपको ऐसे नहीं दे दूंगा, अगर आपको यह मनी चाहिए तो मुझसे कुश्ती लड़ के मुझे हराइए और मणि प्राप्त कर लीजिए ।’’
कृष्ण ने कहा ‘‘जामवंत जी आप बहुत बुजुर्ग हैं । आप सतयुग से अब तक लंबी उम्र प्राप्त कर चुके हैं। मैं हमेशा आपका सम्मान करता हूं आपके साथ कुश्ती नहीं लड़ पाऊंगा । ’’
तो जामवंत ने कहा ‘‘आप डरते क्यों हैं ? अब मैं बूड़ा हो चुका हूं और मैं वादा करता हूं कि अगर आप हार भी जाएंगे तो आपको प्राणों से हाथ नहीं धोना पड़ेगा।’’
यह सुनकर कृश्ण मुस्कुराए और बोले ‘‘आप की शायद मुझसे कुश्ती लड़ने की सदा से इच्छा रही है, चाहे मैं बामन रहा हूं और चाहे राम । आ जाइए हम लोग कुश्ती लड़ते है।’’ कृश्णजी ने अपना पटुका कमर में बांध और ताल ठोकने लगे ।
जामवंत भी कुश्ती के लिए तैयार हो गए तो दोनों योद्धा आपस में कुश्ती लड़ने लगे । कई दिनों तक लगातार गुत्थमगुत्था होते हुए अंत में कृष्ण ने एक विशिष्ट दांव चलकर जामवंत चित्त कर दिया और उनके सीने पर पांव रखकर खड़े हो गए ।
यह देख कर जामवंत की बेटी जामबंती और उनकी मां दौड़ी आई और श्रीकृश्ण से प्रार्थना करने लगी कि ‘‘ प्रभु यह अत्यंत बुजुर्ग हैं इन्हें छोड़ दीजिए ।’’
तो मुस्कुराते हुए कृष्ण ने कहा कि ‘‘ मैं इन्हें जान से नहीं मारूंगा क्योंकि यह हमारा पहले ही तय हो चुका है।’’
जामवंत नीचे पड़े हुए मुस्कुरा रहे थे वे बोले ‘‘ प्रभु मुझे पता लग गया आप में कितनी ताकत है । मैं हार स्वीकार करता हूं और आपको कुश्ती के लिए ललकारा इसके लिए शर्मिंदा हूं । यह मणि आप ले जाइए और इसके साथ मेरा एक अनुरोध और स्वीकार करिए।’’ कृष्ण ने कहा बोलिए ‘‘क्या कहते हैं जामवंत जी?’’
तो जामवंत ने कहा कि ‘‘मैं आपके साथ इस तरह के अभद्र व्यवहार के लिए क्षमा मांगने के परिणाम स्वरूप अपनी बेटी जामवंती का विवाह आपसे करना चाहता हूं।’’
यह सुनकर श्री कृष्ण ने सहज भाव से जामवंत को अनुमति दी तो अत्यंत सुंदरी जामवंती के साथ वहीं गुफा में विवाह संस्कार किया गया और कुछ देर बाद कृष्ण बाएं हाथ में जामबंती का हाथ पकड़े दाएं हाथ में स्यंतकमणि लिए गुफा से आते दिखाई दिए ।
जिनके पीछे आ रहे थे रिक्षराज जामवंत जो सामान्य आदमी से दोगुने लंबे थे और चार गुने हष्ट पुष्टं
लोग अचरज से देख रहे थे वे लोग यादवों की राजसभा के लिए तेज गति से चलपड़ें।
------