One was Dakshita in Hindi Motivational Stories by Lovelesh Dutt books and stories PDF | एक थी दक्षिता

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एक थी दक्षिता

धनानन्द से अपमानित चाणक्य ने नंदवंश के नाश का संकल्प लेने के बाद चंद्रगुप्त को तक्षशिला में प्रवेश दिला दिया। उन्हें पता था कि एक भयानक संकट सिकंदर के रूप में भारत की ओर तेजी से बढ़ रहा है। वह जानते थे कि यदि इस समय सिंधु और उसके आस पास के राज्यों ने एक जुट होकर सिकंदर का सामना नहीं किया तो वह पूरे भारत पर अधिकार कर लेगा जिससे अखण्ड भारत का उनका सपना चूर-चूर हो जाएगा। उधर चंद्रगुप्त युद्ध आदि की शिक्षा ले रहा था और इधर चाणक्य अलग अलग राज्यों से संपर्क करके सिकंदर की सेना का सामना करने के लिए सबको एकजुट कर रहे थे। अपने दो शिष्यों पुरुषदत्त और भद्रभट्ट को साथ ले वह नदियों, पर्वतों, वनों और बीहड़ों को पार करते हुए एक राज्य से दूसरे राज्य जाकर वहाँ के राजाओं से बात करते। वह अपने संकल्प के लिए दिनरात अलग अलग राज्यों की यात्राएँ कर रहे थे।
“आचार्य आपको लगता है कि ये राज्य एकजुट हो कर सिकंदर का सामना कर सकेंगे?”
“यदि नहीं करेंगे तो या तो सिकंदर के दास बनकर रहेंगे या फिर मृत्यु के घाट उतार दिये जाएँगे”
“लेकिन सिकंदर की विशाल सेना का सामना करना...”
“सेना जितनी विशाल होती है, उसके सैनिकों में उतना ही असंतोष होता है, और वह पूरे मन से अपने राजा के लिए युद्ध नहीं करती। सिकंदर की सेना में असंतोष व्याप्त होने लगा है, इसलिए यह आवश्यक है कि सिंधु के आसपास के छोटे-छोटे राज्य आपसी मतभेद भुलाकर उस विदेशी आक्रमणकारी का सामना करें,” पुरुषदत्त की बात पूरी होने से पहले ही चाणक्य ने कह दिया।
“लेकिन अभी तक किसी ने ऐसा आश्वसान नहीं दिया है, आचार्य” पुरुषदत्त ने कहा।
“हाँ, लेकिन उनके चेहरों से यह स्पष्ट था कि वे भयभीत हैं, और भय ही हमें स्वयं की सुरक्षा करने की ओर प्रेरित करता है। जो डरता नहीं है, वह स्वयं की सुरक्षा के प्रति उदासीन हो जाता है, इसलिए मुझे आशा है कि ये राज्य एकजुट होंगे।”
“आचार्य आपको लगता है कि चंद्रगुप्त युद्ध कौशल में इतना निपुण हो सकेगा कि मगधपति धनानन्द से युद्ध कर सकेगा,” भद्रभट्ट ने विषयान्तर करते हुए पूछा।
एक पल के लिए चाणक्य के कदम ठिठक गए लेकिन अगले ही पल आगे बढ़ते हुए उन्होंने कहा, “चंद्रगुप्त ने मुझे अपना गुरु बाद में माना, मैंने उसकी अद्भुत क्षमताएँ पहचान कर पहले ही उसे अपना शिष्य मान लिया था और हर गुरु को अपने हर शिष्य की क्षमताओं का ज्ञान होता है, चंद्रगुप्त असाधारण क्षमताओं से युक्त है...”
“लेकिन आचार्य वह अभी बच्चा है, मन और शरीर से कोमल है और धनानन्द...?”
“बच्चे ही देश का भविष्य होते हैं भद्रभट्ट। इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है कोमलता ही कठोरता में बदलती है और कठोरता धीरे-धीरे क्षरित हो जाती है। आज का बच्चा कल का युवा होता है और आज का युवा कल का वृद्ध, धनानन्द तो प्रौढ़ है, आगे तुम स्वयं समझदार हो,” चाणक्य के चेहरे पर आशा की अद्भुत चमक के साथ हल्की सी मुस्कान फैल गयी। वे आगे बढ़ ही रहे थे कि पुरुषदत्त पेड़ से लटकती किसी चीज़ से टकराकर गिर पड़ा।
“सँभलो पुरुषदत्त”, कहकर भद्रभट्ट उसे पकड़ने को लपका।
अर्द्धरात्रि के घने अँधेरे के कारण कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा था लेकिन आचार्य ने सप्रयास देखा कि विशाल वृक्ष से कुछ लटक रहा है और वे वहीं रुक गये। भद्रभट्ट और पुरुषदत्त भी उनके पास आ चुके थे। पुरुष दत्त अपने घुटने सहला रहा था और भद्रभट्ट ने जब हाथ से छूकर देखा तो आश्चर्य मिश्रित भय से बोला, “आचार्य! यह तो किसी का शव है...लगता है किसी ने पेड़ से लटक कर आत्म हत्या कर ली।” आचार्य चाणक्य और पुरुष दत्त भी उसके और निकट आ गये। दोनों ने छूकर देखा। आचार्य के हाथ उस लटकते शव के पैरों पर कुछ टटोल रहे थे कि अचानक बोले, “आग जलाओ और शीघ्र इसे पेड़ पर से उतारो, इसमें अभी जीवन की संभावना है...शीघ्रता करो।”
अग्नि जल चुकी थी और शव को वृक्ष से उतारा जा चुका था। उन्होंने देखा यह एक सोलह-सत्रह वर्ष की युवती थी जिसने आत्महत्या करने का प्रयास किया था। आचार्य चाणक्य ने उसका परीक्षण करके देखा कि उसकी नाड़ी अत्यन्त मंद गति से चल रही थी। उन्होंने भद्र भट्ट को कुछ औषधियों के नाम बताकर आसपास ही ढूँढ़ने को कहा। पुरुषदत्त और आचार्य चाणक्य उस युवती के हाथ और पैर मलने लगे, बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा जल उसके मुख में डालते जाते। भद्रभट्ट औषधि लेकर आ चुका था। आचार्य ने चिकित्सा आरंभ कर दी। पूरी रात बीत गयी सूर्य की किरणें उस घने जंगल में पेड़ों से छनकर आने लगी थीं। युवती की चेतना लौट रही थी। आचार्य चाणक्य और उनके दोनों शिष्यों की थकावट और नींद से बोझिल आँखों में आशा का संचार हो उठा। युवती ने आँखें खोली ही थीं कि तीन अपरिचित पुरुषों से स्वयं को घिरा देखकर वह नारीसुलभ लज्जा व भय से सिहर उठी। उसने उठने का प्रयास किया लेकिन दुर्बलता के कारण वह उठ पाने में असमर्थ थी। वह उठने का बार-बार प्रयास कर रही थी कि तभी प्रातःवंदन करते हुए आचार्य चाणक्य ने कहा, “लेटी रहो पुत्री...चिंता मत करो।”
‘पुत्री’ शब्द सुनकर उस युवती की लज्जा कुछ कम हुई लेकिन भय पूरी तरह से समाप्त हो गया। उसने एकबार पुनः उठने का प्रयास किया और पेड़ के तने का सहारा लेकर बैठ गयी। इससे पहले कि कोई कुछ बोलता वह युवती सुबकने लगी। भद्रभट्ट और पुरुषदत्त उसे आश्चर्य से उसे देख रहे थे। आचार्य चाणक्य ने प्रातःवंदन समाप्त किया और अपने दोनों शिष्यों को फलाहार हेतु कुछ प्रबंध करने की आज्ञा देकर उस युवती के पास आ गए। युवती अभी भी सुबक रही थी। आचार्य चाणक्य ने उसे ढाढस बंधाते हुए कहा, “क्यों विचलित हो पुत्री? ऐसा क्या संकट आ गया जो इतनी अल्पवय में आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध करने जा रही थीं? जानती नहीं कि जीवन लेना महापाप है?”
“मेरे जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके लिए उसे बचाया जाए। मेरा जीवन व्यर्थ है। मेरे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है और निरुद्देश्य जीवन को शव की तरह ढोते रहने से क्या लाभ? इसलिए मुझे मर जाने दिया होता आचार्य,” कहकर वह फिर सुबकने लगी।
“जीवन में उद्देश्य स्वयं चलकर नहीं आता, उद्देश्य मनुष्य को स्वयं ढूँढ़ना पड़ता है और इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जिसकी उत्पत्ति निरुद्देश्य हो। भले ही ये पेड़-पौधे ही क्यों न हों। इनकी उत्पत्ति में भी कुछ न कुछ प्रयोजन अवश्य है,” चाणक्य ने उसे समझाते हुए कहा।
“लेकिन आचार्य जिस प्रकार सूखे वृक्षों और पत्तों से किसी का कोई हित नहीं होता उसी प्रकार मेरा जीवन भी सूखे वृक्ष और पत्तों के समान ही है,” युवती ने कहा।
“यदि सूखे वृक्ष नहीं होंगे तो काष्ठ के उपकरण कैसे बनेंगे? सूखी पत्तियाँ नहीं होंगी तो उन्हें जलाकर, कूटकर, पीसकर उनकी भस्म तैयार करके उनके औषधीय गुण कैसे प्राप्त किये जाएँगे। इसलिए पुत्री यदि चाहो तो मुझे अपने विषय में बताओ, हो सकता है मैं ही तुम्हारें जीवन का उद्देश्य बताने में सहायता करूँ,” चाणक्य ने वात्सल्य भाव से कहा।
अब तक पुरुष दत्त और भद्रभट्ट भी आ चुके थे। उनके पास ढ़ेर सारे जंगली फल थे। चाणक्य ने सभी फलों का निरीक्षण किया और कुछ फल निकाल कर अलग करते हुए बोले, “ये फल क्यों लाए...यह तो विषैले फल हैं। इन्हें तो यहाँ वहाँ फेंकना भी सही नहीं, इन्हें तो किसी गड्ढ़े में ही दबाना होगा।” इतना कहकर चाणक्य ने मीठे और अच्छे फल उस युवती की ओर बढ़ाते हुए कहा, “पुत्री, कुछ फल खा लो।” युवती ने फलों की ओर देखा और विषैले फलों की ओर संकेत करते हुए बोली, “मुझे वे वाले फल दीजिए मुझे वे ही प्रिय हैं।” युवती ने लपक कर अलग रखे विषैले फलों में से एक फल उठा लिया और चाव से खाने लगी।
चाणक्य और उनके दोनों शिष्यों के नेत्र आश्चर्य से खुले रहे गये। चाणक्य ने कहा, “अरे यह क्या? युवती ने कोई जवाब नहीं दिया और दो तीन फल खाने के बाद उसने चाणक्य से कहा, “आचार्य, मैं तो बचपन से ही ये फल खा रही हूँ। इनके अतिरिक्त मुझे कोई और फल अच्छे ही नहीं लगते।”
“किन्तु क्यों? क्या तुम्हें पता नहीं कि ये कितने विषैले हैं? ” चाणक्य ने आश्चर्य से पूछा।
“पहले पता नहीं था, लेकिन जब पता चला तो बहुत देर हो चुकी थी आचार्य,” युवती के चेहरे पर उदासी छा गयी।
“पुत्री, क्या तुम विस्तार से बताओगी कि ऐसा क्या हुआ जो तुम्हें ये फल खाने की आदत हो गयी?” चाणक्य ने कहा।
युवती के नेत्र शून्य की ओर उठ गए । उसने कहा, “आचार्य, मेरी माँ ने मुझे इन फलों को खिलाना आरंभ किया था। पहले तो उसने इस उद्देश्य से मुझे ये फल खिलाए कि मैं मर जाऊँ लेकिन जब मैं नहीं मरी तो उसने मुझे इन फलों की आदत लगवा दी। अब मुझे इन फलों के अतिरिक्त कोई अन्य फल पसन्द ही नहीं आते।”
“बड़ी विचित्र थी तुम्हारी माँ, यह जानते हुए भी कि ये विषैले फल हैं, तुम्हारी माँ ने इनकी आदत लगवा दी...पर क्यों?” भद्रभट्ट से न रहा गया और वह पूछ बैठा।
“माँ कहती थी कि ये फल तेरे रक्षक बनेंगे, तेरे लिए ये फल आशीर्वाद हैं। इन्हें सदैव खाती रहना...लेकिन आज लगता है कि ये फल मेरे जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप बन गए...इन्होंने मुझसे मेरी खुशियाँ छीन ली, मेरे स्वप्न छीन लिए,” दुखी होते हुए युवती बोली।
चाणक्य ने शान्त चित्त से कहा, “अपने जीवन के विषय में विस्तार से बताओ पुत्री, जहाँ तक मैं अनुमान लगा पा रहा हूँ अवश्य ही नियति ने किसी विशेष उद्देश्य से हमारी भेंट करवाई है, बताओ सबकुछ बताओ...संभव है तुम्हारे जीवन का उद्देश्य भी मिल जाए।”
युवती ने चाणक्य की ओर देखा और फिर शून्य की ओर ताकते हुए कहने लगी, “मेरा नाम दक्षिता है। मैं अत्यन्त निर्धन माँ की पुत्री हूँ। मुझे मेरे पिता का नाम नहीं पता। मैंने होश सँभाला तो माँ की गोद ही देखी। बचपन में मैं पिता के विषय में जब भी माँ से पूछती तो वह रो देती और कहती कि वह हमें छोड़कर चले गए। लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गयी। मुझे पता चल गया कि मेरी माँ मगध नरेश धनानन्द के महल में एक दासी थी। एकबार छोटी सी भूल हो जाने के कारण धनानन्द ने मेरी माँ को दंड स्वरूप उन्मादी और व्यभिचारी दंडाधिकारियों को सौंप दिया। उसके बाद मेरी माँ को नगर के एकान्त में बने वेश्यालय पर पहुँचा दिया गया। वेश्यालय पर माँ से बलपूर्वक वेश्यावृत्ति करवायी गयी और एक दिन जब उसे घातक रोग लग गया तो उसे जंगल में फिंकवा दिया गया। जंगलों में भटकते हुए ही माँ को पता चला कि मैं उनके गर्भ में थी। उन्होंने यही विषैले फल खाकर अपनी व मेरी जान लेनी चाही लेकिन विष के प्रभाव से माँ अचेत हो गयी। जब उसे होश या तो उसने स्वयं को वनवासी स्त्रियों के साथ पाया और वहीं रहकर उनकी सेवा से अपना पेट भरने लगी। मेरे जन्म लेते ही उसने मुझे मारने का प्रयास किया लेकिन वनवासी स्त्रियों ने मुझे बचा लिया।”
“किन्तु तुम्हारी माँ तुम्हें मारना क्यों चाहती थी?” पुरुषदत्त ने पूछा।
“मगध के उन्मादी और व्यभिचारी दंडाधिकारी दंडित होने वाली स्त्री को इतनी नारकीय यातना देते हैं कि स्त्री को अपने स्त्री होने पर भी पछतावा होता है। वे उन्मादी अधिकारी एक-एक करके तो कभी समूह में बंदी बनी स्त्री से कई रातों तक अपनी काम-पिपासा शान्त करते हैं। भूखे श्रगालों की भाँति वे स्त्री के अंगों को नोचते रहते हैं। यह क्रम तब तक चलता है जब तक दूसरी दंडित स्त्री नहीं आ जाती। उसके आने पर पहले वाली स्त्री को वेश्यालय पर पहुँचा दिया जाता है। ऐसा ही न्याय है उस अधर्मी और नरपशु धनानंद का।...संभवतः इसीलिए दक्षिता की माँ उन विधर्मियों के संसर्ग से पैदा हुई कन्या को मारना चाहती हो या फिर इसलिए कि कहीं इस कन्या को भी स्त्री होने का दंश और वैसी ही नारकीय पीड़ा न झेलनी पड़े,” दक्षिता को मौन देखकर चाणक्य ने उत्तर दिया।
चाणक्य के पुनः पूछने पर दक्षिता बोली, “माँ को असाध्य रोग तो था ही, कुछ ही समय पश्चात जब रोग ने अपना भयावह रूप लिया तो वह शैया पर पड़कर अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगी। अब मैं वनवासी स्त्रियों की सेवा करके अपना और माँ का पेट भरने। जब भी मैं जंगलों में घूमती इन फलों को खाती रहती थी, क्योंकि इनका स्वाद मुझे बहुत पसन्द था। फल खाने के बाद जो हल्का सा नशा मुझपर चढ़ता था उसमें मुझे बहुत आनन्द मिलता था। मुझे नहीं पता था कि मेरे शरीर में इनका दुष्परिणाम क्या हो रहा था? एक दिन बच्चों के साथ खेल-खेल में मेरा झगड़ा हो गया और मैंने एक बालक के हाथ में काट लिया। कुछ ही पलों में वह बालक मूर्च्छित हो गया और उसका पूरा शरीर नीला पड़ गया। बहुत प्रयासों के बाद भी उस बालक को नहीं बचाया जा सका। मेरे अतिरिक्त यह कोई नहीं जानता था कि वह कैसे मरा? मैं बहुत डर गयी और माँ के पास भाग आई, मैंने अपनी माँ को जब बताया तो वह सन्न रह गयी। पहले तो खूब रोई लेकिन कुछ देर बाद उसने मुझे गले लगाकर कहा कि “ये फल तेरे लिए आशीर्वाद बन चुके हैं। इन्हें खाना मत छोड़ना। ये तेरी रक्षा करेंगे,” फिर उसने कहा, “याद रख दक्खी कि तू अब किसी के साथ खेलने नहीं जाएगी। तू दूसरे बच्चों-सी नहीं है।” उस समय मुझे कुछ समझ नहीं आया लेकिन कुछ वर्षों बाद जब मैं यौवन की सोलहवीं सीढ़ी पर आई तो मुझे एक वनवासी युवक से प्रेम हो गया। हम लोग जंगलों में, नदियों के किनारे, पर्वतों पर घूमते, नाचते गाते थे। हम दोनों बहुत खुश थे। हम दोनों ने अपने भविष्य के लिए ढ़ेरों स्वप्न देखे थे। वह मुझसे विवाह करना चाहता था और एक दिन हम अपने प्रेम के आवेग को रोक नहीं पाए तो एक हो गए। लेकिन कुछ ही देर में मेरा प्रेमी अचेत हो गया और उसका शरीर भी ठीक उसी तरह नीला पड़ गया जैसे बचपन में मेरे काटने से वह बालक। देखते ही देखते उस युवक की भी मृत्यु हो गयी। मेरा प्रेम मुझसे बिछड़ गया। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मेरे साथ ऐसा क्या है कि संपर्क में आते ही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। मैं भागती-भागती घर आई और अपनी माँ से लिपट कर रोने लगी। सारी बात जानने के बाद उसने मुझसे कहा था कि ‘मैं दूसरी लड़कियों की तरह नहीं हूँ। मुझे प्रेम या विवाह करने का अधिकार नहीं है। मैं दूसरों से अलग हूँ।’ उस दिन मैं माँ से खूब लड़ी थी और उससे जानना चाहा था कि ‘मैं और लड़कियों से अलग क्यों हूँ? ऐसा क्या है जिसने मुझे दूसरों से अलग बना दिया है?’ उस दिन माँ का स्वास्थ्य बहुत खराब था। उसकी श्वास अनियंत्रित हो रही थी, संभवतः उसके जीवन का अन्त आ चुका था। उसने मृत्यु शैया से ही इन विषैले फलों का रहस्य मुझे बताया। उसने बताया कि इन विषैले फलों को खाते-खाते मेरे शरीर में विष हो गया है। वह इतना तीक्ष्ण हो चुका है कि यदि मैं किसी को काट लूँगी या कोई पुरुष मेरे साथ संसर्ग करने का प्रयास करेगा तो विष के प्रभाव से तुरन्त उसकी मृत्यु हो जाएगी।” मैंने सुना तो स्वयं पर विश्वास नहीं हुआ...मैं कन्या नहीं विषकन्या थी। इससे पहले कि माँ से कुछ और पूछती, वह यह संसार त्याग चुकी थी। अब मैं अनाथ थी।
मेरा प्रेमी जिसके साथ अपना परिवार बसाने का स्वप्न देखा था, मेरे अभिशाप रूपी आशीर्वाद से पहले ही मर चुका था, अब माँ भी नहीं रही। अब मैं किसके लिए जीवित रहूँ, मेरे जीवन का क्या उद्देश्य रह गया था। मैं किसी से प्रेम नहीं कर सकती थी, घर नहीं बसा सकती थी, पत्नी नहीं बन सकती थी, माँ नहीं बन सकती थी। मैं एक सामान्य स्त्री की तरह नहीं जी सकती थी तो मेरे जीवन का क्या लाभ? हर स्त्री का स्वप्न होता है कि वह प्रेमिका बने, पत्नी बने, माँ बने लेकिन यह सुख मेरे जीवन में कभी नहीं आ सकता था अर्थात् मेरे जीवन में न कोई सुख था, न स्वप्न और न ही कोई उद्देश्य था। मेरी माँ ने मुझे विषैले फल के रूप में जो आशीर्वाद दिया था वह अब मेरे लिए अभिशाप बन चुका था। इसलिए मैंने अपना जीवन समाप्त करने के उद्देश्य से आत्महत्या का मार्ग चुना...लेकिन आपने मुझे बचा लिया। क्यों बचाया आपने मुझे? बताइए आचार्य क्यों बचाया?” कहकर वह बुरी तरह बिलखने लगी।
आचार्य चाणक्य जो अब तक मौन बैठे हुए दक्षिता के जीवन की कथा सुन रहे थे। शान्त चित्त से बोले, “हर घटना के पीछे कोई न कोई कारण होता है, कोई उद्देश्य होता है, भले ही वह हमें अभी दिखाई न दे लेकिन नियति ने जो कुछ लिख दिया है, वह घटता अवश्य है...तुम्हारे विषकन्या बनने में भी नियति का कोई उद्देश्य अवश्य होगा।”
“क्या उद्देश्य होगा और अगर है भी तो उसके लिए मैं ही क्यों?” दक्षिता ने रोते हुए ही पूछा।
“विधाता ने प्रत्येक कार्य के लिए अलग अलग ही व्यवस्था की है। जल का काम अग्नि से और अग्नि का काम जल से नहीं हो सकता। हर वस्तु और हर व्यक्ति कोई न कोई विशेष गुण लेकर ही इस संसार में आता है। ऐसे ही तुम हो पुत्री, इन फलों को तुमने पचा लिया जो सैकड़ों में कोई एक व्यक्ति ही कर सकता है, यही तुम्हारा विशिष्ट गुण है। एक और महत्त्वपूर्ण बात कि पुरुष और स्त्री दोनों की अपनी-अपनी शक्तियाँ हैं तो अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। पुरुष स्त्रियों से कई बातों में बहुत पीछे है। पुरुष को विजय प्राप्त करने के लिए शस्त्र उठाकर युद्ध करना होता है लेकिन स्त्री बिना शस्त्र उठाए ही अपने प्रेम, समर्पण और त्याग से विजय प्राप्त कर लेती है। स्त्री में सम्मोहन शक्ति होती है जो कि पुरुष में नहीं होती। ईश्वर ने स्त्रियों को ऐसी विशेष शक्तियाँ प्रदान की हैं जिनसे पुरुष सर्वथा वंचित है। स्त्रियों में पुरुष से छह गुना अधिक साहस और आठ गुना अधिक इच्छाशक्ति होती है,” चाणक्य ने दक्षिता को समझाते हुए कहा, “इसीलिए तुम्हारे विषकन्या बनने के पीछे भी ईश्वर की कोई न कोई बड़ी योजना है। तुम निश्चिंत रहो तुम्हारा जीवन व्यर्थ नहीं जाएगा।”
दक्षिता और अपने दोनों शिष्यों को आगे यात्रा की तैयारी करने के लिए कहकर चाणक्य ध्यान में चले गए। कुछ देर बाद जब यात्रा की सारी तैयारियाँ हो गयीं तो तीनों आचार्य चाणक्य के पास बैठ गए और उनके ध्यान से जागने की प्रतीक्षा करने लगे। चाणक्य ने धीरे-धीरे नेत्र खोले और दक्षिता की ओर देखकर धीरे से मुस्कुराते हुए बोले, “तुम्हारे जीवन का उद्देश्य मिल गया पुत्री।”
दक्षिता के सुन्दर चेहरे पर आशा की हल्की-सी किरण दिखाई देने लगी। वह बोली, “क्या उद्देश्य आचार्य?”
“राष्ट्रप्रेम...हाँ, राष्ट्रप्रेम से बढ़कर संसार में दूसरा कोई प्रेम नहीं है, जिस व्यक्ति के हृदय में अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं है, वह कितनी भी सौगंध खा ले, वह किसी से प्रेम नहीं कर सकता। सच्चा प्रेम वही है जो मातृभूमि के लिए होता है। अब तक तुम्हारे मन में अपने प्रेमी के लिए प्रेम था, यह प्रेम तो मात्र दो शरीरों के लिए है जो किसी न किसी रूप में स्वार्थ के वशीभूत है लेकिन मातृभूमि के लिए प्रेम निस्वार्थ होता है, उसमें केवल समर्पण होता है, त्याग होता है। हाँ, पुत्री, तुम अपने प्रेम को बढ़ाकर राष्ट्रव्यापी बना दो। मातृभूमि के कण-कण में अपना प्रेम न्योछावर कर दो, फिर देखो तुम्हें तुम्हारे जीवन का उद्देश्य दिखाई देने लगेगा।”
“किन्तु कैसे आचार्य, मुझे विस्तार से समझाइए,” दक्षिता ने प्रश्नभरी दृष्टि से पूछा।
“पुत्री, मैंने नंदवंश के विनाश और अखंड भारत की सौगंध खाई है। उसके लिए मैंने अपने एक वीर और विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न शिष्य चंद्रगुप्त को मगध का सम्राट बनाने की योजना बनाई है। मैं चंद्रगुप्त के लिए एक ऐसी अभेद्य सेना के निर्माण की योजना बना रहा हूँ जो किसी भी रूप में शत्रु का विनाश करने में सक्षम हो। तुम्हारी जीवनगाथा सुनकर मुझे सेना की एक विशिष्ट टुकड़ी बनाने की एक योजना सूझी है, और वह विशिष्ट टुकड़ी होगी विषकन्याओं की। उस टुकड़ी का नेतृत्व तुम करोगी।”
इतना कहकर आचार्य चाणक्य अपने दक्षिता और अपने दोनों शिष्यों को लेकर आगे की यात्रा के लिए निकल पड़े।

संपर्क
डॉ० लवलेश दत्त
165 ब, बुखारपुरा, पुरानाशहर, बरेली (उ.प्र.) पिनकोड-243005
मो0-9412345679 ईमेल lovelesh.dutt@gmail.com