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फरीदकोट के उस एक कमरे के घर में बरकतें आने लगी थी । सामने की दीवार पर एक नीम का तखता दो कीलों के सहारे टिकाया गया । उस पर कोरे लट्ठे के कपङे पर गहरे गुलाबी और हल्के गुलाबी रंग के धाने से शेड के गुलाब के फूल निकाल, डी एम सी के धागे से क्रोशिया की लेस लगा कर सुंदर कार्निश सजाई गयी थी । उस पर चार थाल दीवार के सहारे सीधे खङे किए गए । उन थालों के आगे छ गिलास उल्टे टिकाए गये और हर गिलास पर एक कटोरी और एक चम्मच । साथ ही एक भरथ की सगली और एक मुरादाबादी जग । चारपाई पर बिछाई गयी सिंधी टांके की खूबसूरत चादर । एक कोने में ठाकुर जी का मंदिर रहता । उसमें जलते दिए का प्रकाश कमरे में उजास भर देता । धूप की खुशबू से कमरा सुवासित रहता । पूरा कमरा उसकी सुघङता की गवाही देता । जो भी आता,उसकी तारीफ किए बिना न रह पाता । मुँह से अगर कुछ न भी कहता, उसकी आँखें फैलकर सब तारीफें कह देती ।
रवि अब घर जल्दी आने की कोशिश करता । अक्सर आ भी जाता लेकिन घर में उसका बैरागी मन न टिकता तो वह फिर बाहर चल पङता । किसी चौक चौराहे पर ताश खेलती टोली के सिरहाने जा खङा होता और घंटों ताश की चालें देखता रहता या किसी साधु संत की बेसिरपैर की लफ्फाजी सुनने बैठ जाता । धम्मो सुकून की साँस लेती, उसे अपनी कशीदाकारी के लिए फालतू समय जो मिल जाता । वह रात को बुनाई करती । दिन में सिलाई कढाई । जो चार पैसे हाथ आते, उनसे घर गृहस्थी का जुगाङ चल रहा था । किराया, राशन और दूध के भुगतान तनख्वाह से निभते और घर की चीजें धम्मो की मेहनत से, बचत से । धीरे धीरे घर भरने लगा था । बस अब कमी थी तो संतान की जो उन दोनों को जोङकर रखती । घर को घर जैसा बना देती । जिसकी दूधिया हँसी हर दीवार को उजला कर देती । जिसके ठुमक ठुमक कर चलने से घर में रौनकें आ जाती । पर यह कोई बाजार में मिलने वाला गुड्डा या चाबी वाली जापानी गुङिया तो थी नहीं कि बाजार गये । चार पैसे खरचे और खरीद कर ले आए । यह तो कुदरत का आशीर्वाद था जो नसीब से ही मिलना था । जब उसका वक्त होना था, तभी उसने आना था ।
धम्मो फिर से उदास रहने लगी थी । कोई सिनेमा, नाटक उसे अच्छा न लगता । घर में आई कोई नयी चीज उसे कुछ मिनट से ज्यादा खुश न रख पाती । काम वह अब भी करती थी पर मन में कहीं उत्साह न था । हमेशा सोचती, किसके लिए दिन रात इतना मर खप रही है । कोई तो हो जिसके लिए वह चीजें जमा करती जाय । ईश्वर में उसकी आस्था थी । वह रात दिन ठाकुरजी से प्रार्थना करती – हे ईश्वर, हे बंसीवाले मेरी खाली झोली भर दे । इधर नास्तिक रवि भी अब धीरे धीरे उस अलौकिक सत्ता में विश्वास करने लगा था । आते जाते वह जलते दीप के सामने सिर झुका देता । फरीदकोट आने के बाद उसने घर पर माँस खाना छोङ दिया था । अब बाहर भी न खाता । यहाँ तक कि अपने घर जाकर भी हाथ तक न लगाता । धम्मो ने इसे ठाकुरजी की कृपा माना था और रवि ने घर की शांति । दोनों प्राणी अपने अपने तरीके से घर चला रहे थे ।
सिलाई बुनाई उसी तरह अपनी रफ्तार से चलती रही । तीन साल के भीतर उनके पास दो बक्से आ गये । बक्सों में भरने लायक कपङे हो गये । रसोई के लिए जरुरी बरतन हो गये । गुजारा मजे से हो रहा था ।
एक दिन डाकिया चिट्ठी दे गया । सुरसती ने आग्रहपूर्वक लिखा था – तुम दोनों को देखे बहुत दिन हो गये है । कार्तिकपुण्या का नहान है । हो सके तो आ जाओ । हरिद्वार जाकर नहा आएंगे । इस बहाने सबसे मिलना जुलना भी हो जाएगा ।
चिट्टी पढ कर धर्मशीला पुलक उठी । उस दिन उसने मन से पुलाव बनाया । शाम को आते ही चिट्ठी पति को पकङा दी । रवि ने एक साँस में चिट्ठी पढ ली - चलने को तो आज ही चल पडते हैं पर पगार मिलने में अभी बारह – तेरह दिन पङे हैं ।
धम्मो चुपचाप उठी और राधा कृष्ण के तस्वीर के पीछे से एक रुमाल निकाल लाई । रुमाल की गाँठ खोलकर उसके छोर में बेतरतीब बंधे रुपए और कुछ रेजगारी उसने रवि की हथेली पर टिका दिये । रकम गिनी गयी । कुल मिलाकर सवा इक्कीस रुपए बने । रवि अचरज से पत्नि का मुँह ताकता रह गया । उसके पूरे महीने की पगार से भी सवा रुपया ज्यादा । घर में इतना सामान जुटा कर भी उसके पास इतने पैसे बचे हुए थे । अब इंकार का कोई सवाल ही नहीं था । तुरंत तैयारी शुरु हो गयी । तीनों भाइयों को लिए कपङे खरीदे गये । दो सूट धरमशीला के बने । और नहान से दो दिन पहले ये दोनों पति पत्नि सहारनपुर पहुँच गये । वहाँ से नानी मंगला, माँ सुरसती और तीनों भाइयों के साथ रंगपुर घर के बङे बेटे के पास गये । वहाँ धूने पर माथा टेका । समाधी को कच्ची लस्सी का छींटा दिया । चूरमे का भोग लगाया । एक रात वहाँ बङी बहु के पास रहे । भाभी से मिल कर धर्मशीला बहुत खुश हुई ।
अगले दिन ये लोग गंगास्नान के लिए चले । हर की पेङी के घाट पर बहुत भीङ थी । अलग अलग प्रदेशों से आए लोग अपने अपने प्रांत की वेशभूषा पहने अपनी बोली में गंगा माई की जय बोल रहे थे । गंगा की महिमा का बखान कर रहे थे । घाट पर एक छोटे भारत का मिनी संस्करण दिखाई दे रहा था । पुरुष, स्त्रियाँ, वृद्ध, बच्चे,युवा सब गंगा की पावन लहरों में डुबकी लगा रहे थे । माँ गंगा पतितपावनी, पापनाशनी कही जाती है । इसमें कितना सच है, यह तो किसी को मालूम नहीं,पर गंगा के निर्मल जल का स्पर्श करते ही रोग, शोक, थकन सब छूमंतर हो जाते है । तन मन शीतल हो जाता है । रवि दौङ कर फूलों का दोना ले आया । सबने माँ गंगा को पुष्प अर्पित किए । अपने पितरों को जलदान कर तर्पण किया । फिर सब लोग जमना और चंदर से मिलने उसके घर पहुँचे । जमना अपने तीन लङकों के साथ आजकल हरिद्वार में ही रहने लगी थी । माँ – बहन और बेटी तीनों से मिलकर जमना के पांव धरती पर नहीं लग रहे थे । तुरंत खाना बना । बातें करते करते खाना खाया गया । मंगला तो रात का खाना खाती ही न थी । उसने घाट से लाया गंगाजल ही पिया । बातें करते रात कब बीत गयी,किसी को पता ही नहीं चला ।
सुबह सब एकबार फिर घाट पर गये । गंगास्नान कर हर की पेङी से बाहर निकल ही रहे थे कि खन्नी चाची की पुकार सुनाई दी – रवि ओ रवि । चिरपरिचित आवाज सुनकर रवि पल्टा । सामने उसकी पाकपटन की पङोसन खन्ना चाची खङी थी । रवि ने जोर से आँखें मली । नहीं कोई भ्रम नहीं,सामने साक्षात मिसेज खन्ना ही थी जिन्हे वह आदरवश चाचीजी कहता था । उनके पीछे चाचा भी थे । जबतक वह आगे बढकर पैर छूता,चाची ने उसे सीने से लगा लिया । रोती जाए और बलाए लेती जाए । हर की पौङी की सीढीयाँ चित्रकूट हो गयी थी । रवि ने चाचा और चाची के पैर छुए तो धर्मशीला ने भी गले में आँचल बाँध उनकी चरणवंदना की । चाची ने ढेरों आशीषें दी । ढेरों पाकपट्टन की यादें साझा की । बातों बातों में उसने बताया – बहु, वहाँ पाकिस्तान में तुम्हारे दादा ससुर का माँ शीतला और बाबा खेतरपाल का बहुत बङा मंदिर था । बङी मानता थी मंदिर की । लोग दूरदूर से दर्शन करने आते थे । अचानक उसने पूछा – तुम खेतरपाल की कढाई करती हो बहु ।
रवि और धर्मशीला ने एक दूसरे को सवालिया नजरों से देखा । हे राम – खन्नी वही घाट की सीढी पर धम से बैठ गयी – हाय मैं मर जाऊँ । तुम तो बच्चे हो । दुरगी को बताकर करवानी चाहिए थी । उसने गंगाजल हाथ में लिया – अगर दीवाली तक कोई बच्चा होने की तदबीर बना दी बाबा तो ये बच्चे तेरी कढाई करेंगे ।
सुन बहु । अगर बाबे की मेहर हो गयी तो दीवाली वाले दिन सवा कटोरी आटे का हलवा बनाना । एक ग्रास काले कुत्ते का, एक काले कौए का,एक गाय का, एक का प्रसाद खाना और फिर हर होली, दीवाली कढाई करना ।
कोई चार घंटे बातें करके आशीषें देती चाची और चाचा बङी कठिनाई से विदा हुए । उनसे मिलके सब भावुक हो गये ।