jhanjhavaat me chidiya - 1 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | झंझावात में चिड़िया - 1

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झंझावात में चिड़िया - 1

गोरा - चिट्टा, गोल - मटोल, आंखों से मुस्कराता सा खड़ा था।
पड़ोस की कोठी में काम करने वाली बूढ़ी औरत बोल पड़ी - काला टीका दे दो माथे पर!
- अरे नहीं - नहीं! ऊपर से नीचे तक बस वो टीका ही टीका दिखेगा। देखती नहीं, सेमल के फूल सा खिला खड़ा है सफ़ेद रंग में। कहीं खेल - खेल में हाथ लग गया तो पूरे माथे पर फ़ैल जायेगी कालिख। वाशबेसिन साफ करती - करती खड़ी हो गई घर की कामवाली बाई बोली।
- खेल - खेल में? अरे खेलने ही तो जा रहा है। उसके चेहरे पर क्रीम लगाती मां ने कहा।
- इतना सा? क्या खेलेगा ये? बूढ़ी ने शंका जताई।
बच्चे ने आग्नेय नज़रों से देखा उस बूढ़ी औरत को।
बच्चे की मां ने अपने आंचल से एक बार मुंह पोंछा बेटे का। फ़िर गर्व से बोली - ओ, ऐसे मत बोल। पैदा होने के दिन से ही तो खेल रहा है। देखती नहीं, सर्दी- गर्मी- बरसात कुछ भी हो खेलना नहीं छोड़ता। दो- तीन घंटे रोज़ पसीना बहाता है। इसके पप्पा थक जायें, ये नहीं थकता है।
- वाह रे! बूढ़ी ने लाड़ से देखा।
-जितनी पूरे लालबाग में चिड़िया नहीं होगी उससे ज़्यादा चिड़िया तो ये खेलने में तोड़ चुका है। ये भी बदमाश, इसका बल्ला भी। मां ने कहा।
- ऐसा मत बोल रे। वो कहां बदमाशी करता है? देख तो कैसे भोलेपन से टुकुर- टुकुर ताकता है। बदमाश तो इसका बल्ला है, देखना एक दिन पूरी दुनिया को पीट कर आयेगा। ये आवाज़ पप्पू की दादी की थी जो ठाकुर जी के सामने बैठी मनके फेरती हुई भी कानों का पूरा चौकन्नापन यहीं लगाए हुए थी।
- अरे बाबा, पूरी दुनिया बाद में। पहले इसे तैयार तो करने दो, वरना मेरी ख़ैर नहीं। अभी नाश्ता करना है। दूध ज़रा सा ठंडा हो जाए। मां ने लापरवाही से कहा।
- बाहर गांव जा रहा क्या? बूढ़ी औरत ने पूछा।
अपने डैडी के साथ जाता है। वो आकर खड़े हुए न, तो एक मिनट ठहरने वाले नहीं। जैसा होगा, वैसा का वैसा उठा ले जायेंगे। नाश्ता किया चाहे नहीं किया, दूध पिया चाहे नहीं पिया। एक वो और एक बंदूक की गोली। कोई भी तो फ़र्क नहीं। मां ने लाड़ से बेटे को देखते हुए कहा।
भीतर से फिर दादी की आवाज़ आई - क्या रे, अपने बेटे को सराहने में मेरे बेटे का कचरा करती क्या?
दादी के इस परिहास पर सारी महिलाएं हंस पड़ीं।
पप्पू ने एक सांस में दूध का ग्लास ख़ाली कर दिया। जो अंडा मां ने छील कर रखा वो ऐसे ही छोड़ा, दूसरा उठा, छील कर खाता हुआ पोर्च में भागा। छिलके सारे में गिराता - फेंकता हुआ।
- ऐ ऐ, बैठ के खा... बैठ के। बूढ़ी औरत चिल्लाई।
दादी ने नज़र से ही जैसे पोते की बलइयां लेते हुए हाथ की घंटी को ज़ोर से टनटनाया। मानो ठाकुर जी को याद दिला रही हो कि मेरे पोते की मनोकामना पूरी करना।
पोर्च में गाड़ी रुकने की आवाज़ आई और पलक झपकते ही दोनों पिता- पुत्र उसमें सवार होकर हवा की गति से निकल गए।
घर की सब महिलाएं अपने - अपने काम में लग गईं।
ये पूरी कॉलोनी के लिए कौतूहल का विषय था कि छः - सात साल का बच्चा इतनी बड़ी प्रतियोगिता में खेलने जा रहा था।
जो लोग उसे छुटपन से ही क्लब में पिता के साथ खेलते हुए देखने के आदी थे उनके लिए तो ये कोई अजूबा नहीं था, पर बाक़ी लोग ये सुनकर अचंभित थे कि लड़का वहां खेलेगा जहां उदघाटन के लिए मुख्यमंत्री पहुंच रहे हैं।
घर के बाहर जब चार- पांच बच्चों का झुंड अपनी - अपनी साइकिलों से उतर कर दरवाज़े की घंटी बजाने के लिए बढ़ा तो मां ने जाली से ही देख लिया और घंटी बजने से पहले ही दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गई, बोली - तुम लोग थोड़े से लेट हो गए रे, अभी - अभी तो गया है!
बच्चे थोड़े से मायूस हुए क्योंकि वो अपने दोस्त प्रकाश को "ऑल द बेस्ट" बोलने आए थे।
- तुम सब उसके लिए गुड - विशेज करो बेटा, बच्चों की आवाज़ तो सब जगह पहुंच जाती है।
बच्चे लौट गए।
खेल शुरू हुआ तो एक सन्नाटा सा था। पिन ड्रॉप साइलेंस!
ठीक कहती थी बूढ़ी औरत। उसने कहा था कि इसे किसी की नज़र न लग जाए। शायद वही हुआ।
प्रकाश अपना पहला मैच ही हार गया। पापा अच्छी तरह जानते थे कि इतनी सी उम्र में इतनी बड़ी कामयाबी एक आसमानी ख़्वाब ही तो है क्योंकि ख़ुद मैसूर बैडमिंटन एसोसिएशन के सचिव थे।
लेकिन लोगों का क्या, वो चुप रहना थोड़े ही जानते हैं।
दबी ज़ुबान से फुसफुसा कर भी इतना तो बच्चे के कान में पहुंचा ही दिया गया कि "पिता के एसोसिएशन का अफ़सर होने से क्या, उससे तो बस भाग लेने का मौका मिलता है, खेलना तो ख़ुद को ही पड़ता है जीतने के लिए!"
इतना तो काफ़ी था प्रकाश को वहां से लौटते ही अपनी मुहिम हेतु उकसाने के लिए।
अब जैसे नन्हे से बच्चे के लिए ये टूर्नामेंट जीतने का सपना ही ज़िन्दगी का मक़सद बन गया। अब खाना, पढ़ना, सोना, सब बाद में, पहले खेलना। और रात दिन अपना पसीना बहा कर जीतने के सपने को ज़िंदा रखना तथा लगातार उसके लिए कड़ी प्रैक्टिस करना।
उसने अगली बार जीतने का ख़्वाब अपने नन्हे ह्रदय में वैसे ही पाल लिया जैसे किसी पिंजरे में कोई ख़ूबसूरत तोता। और इसी तोते में जान रख दी अपनी।
दो साल बीते और राज्य भर के बच्चों के बीच हुए टूर्नामेंट में जूनियर चैंपियनशिप उसी के नाम रही। रात दिन की कड़ी मेहनत से उसने अपनी कद काठी भी अच्छी निकाल ली।
अब कोई बूढ़ी औरत ये कहने का साहस नहीं कर सकती थी कि इतना सा? ये क्या खेलेगा?
जब कर्नाटक के उडुपी ज़िले की कुंदपुरा तहसील के छोटे से गांव पादुकोण का प्रकाश खेलता तो देखकर महानगर के अच्छे - अच्छे खिलाड़ी और बड़े लोग दांतों तले अंगुली दबा लेते।
उसकी साख पूरे शहर ही नहीं बल्कि राज्य भर में फैलने लगी। एक के बाद एक टूर्नामेंट फतह करता हुआ वो सोलह साल की उम्र में जूनियर राष्ट्रीय चैम्पियन बन गया।
और करिश्मा ये हुआ कि साल बीतते- बीतते सिर्फ़ सत्रह साल की उम्र में उसे सीनियर नेशनल चैंपियन बन जाने का गौरव भी हासिल हो गया। यानी देश का सबसे उम्दा बैडमिंटन खिलाड़ी!