Chhalaang Film Review in Hindi Film Reviews by Mahendra Sharma books and stories PDF | छलांग फ़िल्म रिव्यू

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छलांग फ़िल्म रिव्यू

छलांग फ़िल्म रिव्यू
ऐमेज़ॉन प्राइम पर रिलीज़ हुई छलांग अच्छी स्टारकास्ट का ड्राय फ्रूट कूट कर खट्टी दही जैसी कहानी में घोलकर मीठी लस्सी बनाने का विफल प्रयास किया गया है। वैसे केवल अंतिम 15 मिनिट देखने के अलावा आप इस फ़िल्म को स्किप स्किप करके देखोगे तो समय बच जाएगा।

आज कल राजकुमार राव फ़िल्म में हों तो फ़िल्म से उम्मीदें बढ़ जातीं है और साथ हो सतीश कौशिक, ज़ीशान आयूब, सौरभ शुक्ला, इला अरुण जैसे कलाकार उम्मीदों की इमारत में एकाद मंज़िल बढ़ा ही देते हैं। राजीव गुप्ता जिन्होंने छोटे रोल में बड़े कमाल किए हैं। जोली एल एल एल बी में वे अक्षय के एसिस्टेन्ट वकील थे। हंसल मेहता ने निर्देशक के तौर पर अपने झंडे बॉलीवुड में गाड़ दिए हैं, वेब सीरीज़ स्कैम 1992 के जबदस्त निर्देशन के लिए तो अब भारत और विदेश में भी उनके नाम की चर्चा हो रही है। इस फ़िल्म के निर्माता हैं अजय देवगन और लव रंजन। फ़िल्म देखने का एकमात्र कारण यह सभी नाम थे जिनसे निराशा की उम्मीदें नहीं थी।

कहानी की बात करें तो थोड़ा स्टूडेंट ऑफ ईयर ले लो, थोड़ा लगान ले लो, थोड़ा छिछोरे ले लो और उसमें थोड़ा दंगल वाला जज़्बा ले लो। फिर हरयाणा का गाँव वाला माहौल ले लो। सब अच्छा होने के बावजूद फ़िल्म आपको बांध नहीं रही है क्योंकि कहानी में नवीनता की खोट है। डायलॉग्स पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। कोई भी कुछ भी बोल रहा है। लगता है केवल स्पोर्ट्स और भारत की स्पोर्ट्स मानसिकता को लेकर सोशल मेसेज देने की जल्दी में कहानी बनाई गई है जो अधपकी खिचडी बनकर रह गई है। स्पोर्ट्स में बारीकी बिल्कुल नहीं बस जुगाड़ दिखाया गया है। जैसे दौड़ना है तो कुत्ते पीछे लगा दो। बास्केट बॉल की प्रैक्टिस में गोबर के गोले लगा दो।

मुख्य किरदार राजकुमार राव, जो है मोंटू , वह एक पीटी टीचर है , गांव के एक सेकंडरी स्कूल में। उसे उसकी नौकरी और बच्चों में कोई दिलचस्पी नहीं। उनके पिता हैं सतीश कौशिक, जो पेशे से हैं वकील। बाप बेटे के बीच अच्छा सम्वाद है पर कॉमेडी नहीं बन पा रही। स्कूल में आतीं हैं नुसरत बरूचा ( सोनू के टीटू की स्वीटी वाली स्वीटी ) । बस जवान लड़का और लड़की में होता है प्यार पर मोंटू का सुस्त स्वभाव उसे खटकता है ओर होती है अनबन। तब आते हैं ज़ीशान अयूब, एक पड़े लिखे पीटी टीचर, जिन्होंने इस काम के लिए विशेष पढ़ाई की है, वह हैं इस पोस्ट के सही हकदार। पर वहां तो हैं मोंटू, तो एक पीटी टीचर की पोस्ट के लिए होगा तकरार। लड़की थोड़ी देर नए लड़के के साथ रहती है ताकी मोंटू को आए गुस्सा और वह लड़े अपनी जॉब के लिए। फिर लड़की वापस मोंटू के पास आती है क्योंकि मोंटू तैयार है लड़ने के लिए। दोनों पिटी टीचर बनाते हैं अपनी अपनी टीम। शुरू होता है सोशल ड्रामा, बच्चों के माता पिता के लिए बड़े उपदेश, सिख और उनका फिर बच्चों को खेलने देना। 2 दिन का एक जबदरस्त मुकाबला और होती है हीरो की जीत। बस इतना ही है।

कलाकारों की बात करें तो सौरभ शुक्ला को एक मात्र अच्छा सीन दिया गया है जिसमें भी कहानी का लॉजिक नहीं बैठा। बाकी पूरी फिल्म में उनके स्तर की प्रतिभा को वेस्ट किया गया है। वही हाल है सतीश कौशिक का, बेटे के साथ दारू पीना और सफलता के लिए लड़ना सिखाना। उनके बाप वाले डायलॉग्स अतिशय और अत्याचार जैसे ही लगे।

राजीव गुप्ता को क्यों इस फ़िल्म में लिया गया है पता नहीं। वे नुसरत के पिता के रोल में हैं पर उनका कोई खास रोल ही नहीं। पी के फ़िल्म में अमीर खान को पहली बार पीके बोलने वाले पुलिस ऑफिसर वे थे। फुकरे रिटर्न में मंत्री जी बनकर भी उन्हीने अच्छा कॉमेडी किया था। कृपया ऐसे बढ़िया एक्टर को मामूली रोल देकर उनकी बेज्जती न करें।

इला अरुण वैसे तो प्रिंसिपल के रोल में अच्छी लगीं पर कहीं न कहीं स्क्रिप्ट की कमज़ोरी उनके रोल को मज़बूत नहीं कर पाई।
नुसरत बरूचा का किरदार कम्प्यूटर टीचर का है पर उन्हें कभी कम्प्यूटर पर बैठे नहीं दिखाया गया। ब्लैक बोर्ड पर कम्प्यूटर पढ़ातीं हुईं ग्लैमरस टीचर, जिन्हें पाने के लिए मोंटू को ज़्यादा फील्डिंग करनी नहीं पड़ी। फ़िल्म में टीचर को उनके होने वाले ससुर और पति के साथ दारू पीते दिखाना काफी फॉरवर्ड विचार लगा पर आज कल सब चलता है वाला एटीट्यूड है तो भाई चलने दो।

ज़ीशान अयूब हैं नए पीटी टीचर। ये वो बंदा हो जो आपको तनु वेड्स मनु में दिखा, कंगना के पिता के घर वह बिना किराया दिए रहता था, वकील था और कंगना को चाहता था। उस रोल में ज़ीशान ने कमाल कर दिखाया था। पर छलांग में वह ज़्यादा कुछ कर नहीं पाए। हीरो को परेशान करने में वे कहीं न कहीं सफल नहीं हो पा रहे हैं।

स्कूल के बच्चों का काम बढ़िया है। पता नहीं चल रहा वे सच में स्कूल के बच्चे हैं या आर्टिस्ट हैं।

कहीं न कहीं लगा कि आज कल जो स्पोर्ट्स को प्रोत्साहन देने की बात हमारे आस पास चल रही है, भाग मिल्खा, मारी कॉम, दंगल, धोनी, सांड की आंख जैसी बायोपिक बहुत ही बढ़िया प्रदर्शन कर पाईं, वहीं काल्पनिक कहानियां जैसे पंगा या छलांग से लोग खुद को जोड़ नहीं पा रहे हैं। लोगों को सच्चे किरदारों के साथ जुड़ने अच्छा लगता है, तो अगर देश के बच्चों को प्रोत्साहित करना है तो असली स्पोर्ट पर्सन की कहानियां ही ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों को प्रोत्साहित कर पाएंगी ऐसा मेरा निजी विचार है।