param pujy swami hariom tirth ji maharaj - 6 in Hindi Spiritual Stories by रामगोपाल तिवारी books and stories PDF | परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज - 6

Featured Books
Categories
Share

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज - 6

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज 6

एक यात्रा वृतांत

कोल्हापुर दक्षिण काशी कहलाती है। यहाँ के महालक्ष्मी मन्दिर के श्रीयंत्र की महिमा प्रसिद्ध है।

महाराज जी ने यह यात्रा पाँच-सात लोगों के साथ की थी। नरसिंह वाड़ी कृष्णा नदी के तट पर है। यहाँ से महाराज जी ने ओदुम्बर के लिये प्रस्थान किया। कृष्णा नदी के दूसरे तट पर चौसठ योगिनियों का मन्दिर है। यहाँ स्वामी नरसिह सरस्वति रहे हैं।

ताशगाँव-कोल्हपुर से पंजिम के लिये प्रस्थान किया। वहाँ से वास्कोडिगामा के लिये बस पकड़़ी।

यसवन्तगढ़-यहाँ शिवाजी का किला है।

माड़गाँव-वासुदेवानन्द सरस्वति (टेम्वे स्वामी ) के द्वारा स्थापित दत्तात्रेय का दर्शनिय मन्दिर है।

माड़गाँव से 8 किलोमीटर दूर झारापै ग्राम में प0पू0श्री काका खानवलेकर जी जिनकी उम्र 112 वर्ष की हो चुकी थी, उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगया। इन्हेंाने टेम्वे स्वामी जी से अनुग्रह प्राप्त किया था। ये बीस करोड़ जाप कर चुके थे। इन्हें तीन करोड़ जाप के बाद दत्तात्रेय के दर्शन का लाभ हुआ था।

माड़गाँव में उदुम्वर का वृक्ष है। लोग उसके दर्शन करने व उसकी परिक्रमा करने जाते हैं।

वास्कोडिगामा से गोकर्ण, महावलेश्वर के लिये निकले। गोकर्ण से लौटते समय सागर तटपर अन्य मार्ग से आये जो गहन जंगल था। यहाँ गौड सारस्वत लोग रहते हैं। जो कभी कश्मीर से यहाँ आये थे।

निराकार संस्थान का लक्ष्मीनारायण मन्दिर मासे नामक स्थान पर है। पास में ही कोड़-कोड़ जो कंगन के आकार का है। इस क्षेत्र में कोकण भाषा बोली जाती है। कोकण में मल्लिकाअर्जुन समुद्रतट से थोड़ी दूर पहाड़ों में है। यह स्थान भी श्री शैलम् जैसा ही है। इसे श्री क्षेत्र भी कहते हैं। यों हम 334 किलोमीटर की यात्रा करके वास्कोडिगामा लौट आये।

दूसरे दिन वास्कोडिगामा से गोआ दर्शन के लिये निकले। स्टीमर से झुआरी नदी पार करके दूसरे छोर पर पहुँचे। वहाँ हनुमान मन्दिर के दर्शन किये। रामनाकरी में लक्ष्मीनारायण मन्दिर शान्तेरी में कामाक्षी मन्दिर कवड़े में ष्शान्तादुर्गा। बाँधपड़े में महालक्ष्मी। आगेसी में महारुद्र के दर्शन किये। फरमेागुड़ी मंें गणपति। भड़के में नवदुर्गा। मगोसी में भगवान मंगेश ‘शंकर’ मासेल में देवकी कृष्ण के मन्दिर के दर्शन करते हुये आमूर्णा में माण्डवी नदी पर जा पहुँचे।

उसके बाद सिइना गोआ में हरवड़े, ध्वश्वा में महारुद्र का मन्दिर। साँखली दत्तवाड़ी में दत्त मन्दिर। साँखड़ी में विठल मन्दिर के दर्शन करते हुये माण्डवी नदी पुनः पार की। ओलुगोआ में विश्व प्रसिद्ध सेन्टफेन्सिस जेवियर चर्च है। इस चर्च में म्यूजियम भी है। पंजी में महालक्ष्मीनारायण मन्दिर एवं हनुमान मन्दिर के दर्शन करते हुये मडकाई में अपनी परम्परा के साधकों की गुरुबार को साधना चलती है। यह संयोग था वहाँ के साधकों के साथ मुझे दो घन्टे रहने का अवसर मिला है। इस तरह मेरी गोआ यात्रा रही है।

गोआ से चलकर हम सीधे पूना लौट आये। अगले दिन पूना के अपने मठ से कार के द्वारा आलंदी के लिये निकले। इन्द्राणी नदी के तट पर संत ज्ञानेश्वर की समाधि है। इसके दर्शन करते हुये यहाँ से पन्द्रह किलोमीटर दूर देहूरोड़ में संत तुकाराम का स्थान है। वहाँ का विठठल मन्दिर भी इन्द्राणी नदी के तट पर है। इस तपस्थली के दर्शन करते हुये चिंचवड़ में संत मोरिया गोस्वामी की समाधि के दर्शन करते हुये पूना लौट आये।

पूना में अष्टविनायक का विशाल मन्दिर है। इसके दर्शन के बाद ही उस दिन विश्राम किया। अगले दिन महाराष्ट्र में परम पूज्य ब्रम्ह चेतन गोदवले महाराज के दर्शन किये। वहाँ से पण्डरपुर के लिये रवाना होगये। वहाँ पर विठठल भगवान के दर्शन किये। यों यह मेरे जीवन की महत्वपूर्ण यात्रा रही है। जिसे मै आज इस उम्र में भी स्मृति में सजोये हूँ।

000000

एक दिन चलते समय मेरे मुँह से निकला-‘‘ अच्छा चलता हूँ गुरुदेव, कल आऊँगा।’’ यह सुनकर गुरुदेव बोले-‘‘ अच्छा है जाते-जाते एक प्रसंग और सुनते जायें।’’

गुरुदेव का आदेश पाकर मैं प्रसंग सुनने जम कर बैठ गया। बोला-‘‘सुनायें गुरुदेव।’’ यह कहकर मैं उनके चेहरे की ओर निहारने लगा।

महाराज जी बोले-‘‘ एक बार मैं नगर के प्रसिद्ध पण्डित प्रहलाद जी स्वामी के निवास शिव कोलोनी पर उनसे मिलने गया था। जब मैं लौटने को हुआ तो वे बोले-‘‘स्वामी जी बहू ने एकादशी का उद्यापन किया है , प्रसाद लेकर जाये।’’ मैं रुक गया।

वे बोले -‘‘ स्वामी जी आज मैं आपको नवग्रह के बारें में बतलाना चाहता हूँ।’’

उनकी अस्वस्थता के कारण मैंने कहा-‘‘ आज आपका स्वास्थ्य कुछ नरम है। कल आकर सुन लूँगा।’’

पण्डित जी बोले-‘‘ कल का क्या भरोसा! आज ही सुना देता हूँ।’’ यह कह कर उन्हांेने नवग्रह के बारे में बतला दिया। मैं वह सुनकर नोट करके आ गया।

दूसरे दिन पता चला- प्रहलाद जी नहीं रहे। मैं आश्चर्य में रह गया। उस समय मुझे महाराज युधिष्ठर का वह प्रसंग याद आने लगा। महाराज युधिष्ठर के मुँह से किसी प्रसंग बस कल शब्द निकल गया ।

भीम ने उत्सव का आयोजन कर डाला। जब भीम से पूछा गया कि यह उत्सव किस हेतु किया गया है। भीम बोला-‘‘ भइया त्रिकाल दृष्टा हो गये हैं। वे कल के बारे में जानते हैं।’’

मैं गुरुदेव से यह प्रसंग सुनकर लौट पड़ा। मैं समझ गया गुरुदेव ने मेरे कल के जबाब में क्या नहीं कह दिया। निश्चय ही बात कल पर नहीं टालना चाहिये। यह सोचते हुये मैं घर लौट आया।

000000

दिनांक 8ः5ः09 को महाराज जी बोले-‘‘ बात मुम्वई की है। एक धन्नालाल नामका व्यक्ति मेरे से पूर्व से ही परिचित था। बहुत दिनों बाद वह मेरे पास आया। मैंने पूछा -‘‘ कहँा से आ रहे हो ?’’

उसने उत्तर दिया-‘‘जेल से ।’’

मैंने पूछा -‘‘ कितने दिनों तक रहे?’’

वह बोला‘-‘‘ छह माह।’’

‘काम के लिये आये हो’

‘जी।’ मैंने उसे काम पर लगा लिया।

000000

यह बात भी इन्हीं दिनों की है एक 68 वर्षीय साधक बाबा जी के भेष में आश्रम में पधारे। वे टाट पहने व ओढ़े रहते थे। उन्होंने भी महाराज जी से अनुग्रह प्राप्त किया था। किन्तु दीक्षा के बाद उनका कहीं कोई पता नहीं चला। उनके टाट के बिछावन और ओढ़ने का टाट आज भी यहीं है।

0000000

महाराज जी इस बात की चर्चा करते रहते है। उन्होंने सन्यास लेने के बाद प्रथम चार्तुमास की कथा सुनाने लगे। नर्मदा किनारे किटी में पहला चार्तुमास व्यतीत किया था। वहाँ वह झोंपड़ी टपकती रहती थी। नीचे सीड़न थी। सीड़न से बचने के लिये पेड़ों के पत्ते बिछा लेते थे। उस समय बीस दिन तक लगातार बारिस होती रही।

वहाँ साधना के अतिरिक्त निकटवर्ती आदिवासी बालक आने लगे। उन्हें पढ़ाना शुरू कर दिया। यह बात सन् 1993 ई0 की है।

जो अपने को नहीं देखता

महाराज जी बोले-‘‘कहते हैं, एक व्यक्ति कलकत्ता से बैंक से पैसे निकाल कर दिल्ली के लिये चला। उसने रेल के प्रथम श्रेणी का टिकिट लिया। उसके पीछे बैंक से ही एक व्यक्ति लग गया। उसने भी प्रथम श्रेणी का टिकिट ले लिया और पास की सीट पर आ बैठा। रास्ते में तीन लोग बदल गये। चौथा आदमी साथ यात्रा करने लगा। जब वह उतर कर जाने लगे तो साथ चल रहे व्यक्ति ने पूछा-‘‘आपके साथ यात्रा अच्छी रही। क्या मैं गलत था।’’

उन्होंने उत्तर दिया-‘‘आप गलत नहीं थे।’’

‘‘फिर चूक कहाँ होगई!’’ उन्होंने फिर उत्तर दिया-‘‘मैं अपना पैसा तुम्हारे सिरहाने रख देता था।’’

‘‘मेरे सिरहाने!’

‘‘हाँ, जब आप बाथ रूम जाते , उस समय मैं अपना पैसा आपके सिरहाने रख देता था। मित्र ,गड़बड़ यह रही कि तुम अपन को नहीं देखते थे। इसी कारण तुम चारों लोगों को धोका होता रहा और मैं बच गया।

इसलिये तिवाडी जी ‘ जो अपने को नहीं देखता’’ वह जीवन भर धोका खाता रहता है।

महाराज जी द्वारा कही यह कथा मुझे अपनी ओर देखने की प्रेरणा देती रहती है।

000000000

मैं गुरू निकेतन पहुँचा महाराज जी ऐसी भीषण गर्मी में अपने बगीचे के पेड़ोंको पानी दे रहे थे। मुझे उनके पौधों में लहलहाते फूल दिखे। मैंने महाराज जी से कहा-‘‘ इस मौसम में ये फूल?’’

महाराज जी बोले-‘‘ दिन रात इनकी सेवा करना पड़ती है तब कहीं, मौसम प्रतिकूल होने पर भी इनमें फूल लग रहे हैं।’’

मुझे ज्ञात है महाराज जी अपने पौधों को बच्चे से भी अधिक प्यार करते हैं। एक बार मैंने फूल देखकर उनपर प्यार से हाथ फेर दिया। यह देख कर महाराज जी ने मुझे खूब डाँटा-‘‘ इन पर इतना प्यार उमड़ रहा है तो पहले इनकी सेबा करो फिर इन्हें छुओ। इनमें भी बैसा ही जीवन है जैसा हमारे में।’’’ उस दिन से मैं महाराज जी के जीवन के बारे में दृष्टिकोंण को समझ गया हूँ। वे पेड़- पौधों और चल प्रणियों में समान जीवन देखते हैं।

वे अपने बगीचे के खिलते हुये फूलों को देखकर बैसे ही आनन्दित होते हैं, जैसे एक माँ अपने बेटों को देखकर होती है। देश के विभिन्न प्रान्तों के फूलों के पौधे उनके बगीचे में देखे जा सकते हैं। सम्पूर्ण देश से आने वाले शिष्य गुरूदेव की इस इच्छा को जान गये हैं। इसीलिये वे यहाँ आते समय अपने प्रान्त के ऐसे फूलों वाले पौघे लेकर आते हैं। शिष्यों द्वारा लाये पौधें को मैंने कई बार महाराज जी को स्वयम् उन्हें रोपते हुये देखा है। पेड़-पौधें में कब पानी देना है यह कोई महाराज जी से सीखे। इस सम्बन्ध में लोग उनसे परामर्श लेने आते रहते हैं।

‘अपना अपना सोच’’

‘अपना अपना सोच’कृति प0पू0 स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज के आध्यात्म सोच के सम्बन्ध में एक प्रमाणिक दस्तावेज के रूपमें हमारे सामने है। यह साधको के लिये तो संजीवनी बूटी है। महाराज जी केा जीवन भर परमहंस संतों का सानिध्य मिला है। इसी के परिणाम स्वरूपयह कृति निकल कर सामने आई है। सबसे पहले इस कृति पर जिन अखबारों एवं पत्रिकाओं ने इसके जिन अंशों को प्रकाशित किया है। उन्हें देखें। सवसे पहले देश के प्रसिद्ध अखबार ‘ हिन्दुस्तान’ ने अपना-अपना सेाच’ से एक अंश प्रकाशित किया।

यों यह कृति देशभर में चर्चा का बिषय बन गई। कुछ ही समय में इसकी सारी प्रतियाँ समाप्त होगई। इसकी द्वितिय आवृति की तैयारी की जाने लगी। इसका अंग्रेजी,मराठी तमिल और तेलगू तथा गुजराती जैसी भाषाओं में अनुवाद किया जाने लगा है। शीघ्र ही ये सारे अनुवाद पूर्ण होने के समाचार मिलने लगे हैं।

बात सितम्वर 2000र्9 इै0 की है, देश की प्रसिद्ध पत्रिका कादम्बिनी में ‘अपना अपना सोच’ से इसका एक अंश पत्रिका के ‘हरबार ऊंची बातें’ र्शीषक के तहत प्रकाशित किया गया।जिसमें गुरूदेव का चित्र भी छपा है।

‘‘ बिन गुरू कृपा सिद्वि न होई’’

यदि साधक ने पठन-पाठन और लेखन को अपनी साधना का अंग बना लिया तो उसमें अहंकार की वृद्धि होने लगेगी। बुद्धि तर्क-वितर्क में उलझकर संसार के लौकिक व्यवहार को प्रभावित करने लगेगी।इसकी अपेक्षा यदि पठन-पाठन और लेखन को साधना के सहायक अंग के रूपमें अपनाया गया तो वह चित्त की शुद्धि में सहायक होगा। कुछ लोगों को पुस्तकें पढ़ने का व्यसन होता है। बिना पढ़े उन्हें न तो चैन पड.ता है और नाहीं उनको नींद आती है। साधना की दृष्टि से इसे भी विक्षेप ही कहा जायेगा। क्योंकि इससे साधक के चित्त पर पुस्तक के विषय के संस्कार संचित होते चले जाते हैं जो चित्त की मलिनता में वृद्धि का कारण बनते हैं।बहुधा तो लोग आध्यत्मिक साहित्य को खरीदकर पढ़ना पैसे का अपव्यय ही समझते है।जहाँ तक मैं इसका कारण समझ पाया हूँ,अध्यात्म का संबंध आत्मिक भूख से है जबकि व्यक्ति का प्रत्येक आयोजन और अपेक्षाएं लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिये ही होते हैं। कृपायोग अर्थात शक्तिपात दीक्षा में साधक के लिये सभी कुछ सहज और सुरक्षित हो जाता है।उसके स्वयम् केलिये करने को कुछ शेष नहीं रह जाता। जो भी कुछ उसके लिये आवश्यकहोता है,भगवती स्वयम् करती जाती है। इससे पूर्व तो व्यक्ति जो कुछ भी करता आरहा था,वह सारे प्रयास साधन शुरू करने के लिये ही थे, । एक तैयारी मात्र ही थे,जिसे वह भूल से साधन समझे बैठा था। दरअसल,साधन किया नहीं जाता,साधन तो होता हैऔर वह भी स्वतः ही किन्तु गुरू के अनुग्रह के पश्चात ही। बस यही समझने की बात है। जिस प्रकार एक कृषक सर्व प्रथम अपनी भूमि में जल सिंचन करके उसे जुताई के योग्य बनाता है,फिर जुताई करके उसमें से अवांछनिय पुरानी जड़ें निकालता है,फिर उसमें आवश्यककीटनाशक दवाएं और खाद इत्यादि डालकर पुनः उसको एक जैसी और मुलायम करने के लिए पटेला बांधकर हमबार कर लेता है तब कहीं उसमें बीज डालता है। फल प्राप्ति की प्रक्रिया तो बीजारोपण के पश्चात ही प्रारम्भ होती है। ठीक इसी प्रकार सद्गुरू की प्राप्ति के पश्चात ही फल की निश्चितता प्राप्त होती है। गुरू के अनुग्रह के पश्चात साधक का साधन उसके चित्त की अवस्था के अनुसार चलने लगता है।उसके विकास की गति भी उसके संस्कार और प्रयास के आधार पर निर्भर रहती है। यदि साधक ने यह समझकर कि अब तो गुरू की कृपा हो ही गई हैऔर कुंडलिनी भी जागृत हो गई है,साधन करने की क्या जरूरत है,तो उसके लिये ऐसा सोचना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण ही सिद्ध होगा। साधक को अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिये गुरू के चरणों में निष्ठा रखकर साधना में तो बैठना ही पड़ेगा।

मुझे तो इस कृति में जो तपस्वी महापुरूषों के चरित्र दिये हैं वे मेरे भटकाव के समय मुझे मार्ग दर्शन करने लगे। मैंने उन चरित्रों को अनेक बार पढ़ा है। मुझे तो यह साधक जीवन की आचार संहिता लगी है। जब-जब भटकाव की स्थिति होती है र्मैं इस कृति को पढ़ने के लिये उठा लेता हूँ। मेरे भटकाव को विराम मिल जाता है।

यों लम्बा समय निकल गया। कृति पाठकों के समक्ष बनी रही। दिनांक17अप्रैल2010 को हिन्दुस्तान समाचार पत्र में ‘धर्मक्षेत्रे’ शीर्षक के अन्तर्गत महाराज जी के चित्र के साथ उनका एक लेख प्रकाशित किया गया।

संसार में प्रत्येक व्यक्ति एक ऐसे जीवन की कल्पना करता है जिसमें किसी प्रकार की कोई उठापटक न हो। सभी कुछ सहज गति से चलता रहे और हर क्षण सुखमय व्यतीत हो।इस कामना के साथ वह मन ही मन एक ऐसे जगत की रचना कर लेता ह ैजिसका वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता। वह अपने अतीत से अनभिज्ञ बना,जोकि उसका प्रारब्ध है और वर्तमान की उपेक्षा करके स्वप्न लोक में विचरण करने लगता है। जब वह किसी का सुन्दर भवन देखता है तो उसकी छवि को मन में बैठा लेता है और जब कोई अन्य वस्तु उसे पसन्द आ जाती है तो वह उसको लाकर भवन में सजा देता है।धीरे-धीरे उसके उस भवन में इतनी भीड़ इकट्ठी होती चली जाती है कि वह स्वयम् को ही विस्मृत कर बैठता है। उस विस्मृत को खोज पाने के प्रयास का नाम ही तो साधना है।

कल्पना के कोमल पंखों की छांव में बसे जगत और प्रारब्ध के कठोर हाथों से निर्मित सृष्टि में घोर असमानता के कारण आपसी टकराव का होना निश्चित है। परिणामतः व्यक्ति का जीवन अशांत होता चला जाता है। दुर्भाग्य तो यह है कि व्यक्ति अपनी भूल स्वीकारने के लिये भी तैयार नहीं होता और हारे हुये जुआरी की भांति अपने चारो ओर असंतोष की पौध उगाता चला जाता है। जीवन के अशांत होने के पीछे वही एक मात्र कारण है जिसका उपचार किया जा सकता है। इस विषम स्थिति से बाहर निकलने का बस एक ही उपाय है कि वह अपनी वर्तमान क्षमताओं का ईमानदारी से पुनर्मूल्यांकन करे, पश्चात अपनी अपेक्षाओं को, उपलब्ध साधनों की सीमाओं का अतिक्रमण न करने दे। एक तमोगुण प्रधान व्यक्ति के लिये ऐसा कर पाना जितना असंभव प्रायः है एक रजोगुण प्रधान व्यक्ति के लिये भी कुछ कम कठिन नहीं है, फिर भी एक दृढ़ संकल्प व्यक्ति के लिये गुरु की कृपा और अपेक्षित प्रयास से वांछित लक्ष्य की दिशा में बढ़ा जासकता है। जो व्यक्ति धैर्य और परीक्षा की कसौटी पर जितना खरा उतरता है वह उतना ही गंतव्य के निकट पहुँच जाता है। सर्वप्रथम तो आपको अपने सोचने के वर्तमान तरीके पर विचार करना पड़ेगा। उसकी दिशा में अपेक्षित सुधार लाना पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर सबसे पहले दूसरों के दोषों की उपेक्षा करनी होगी। अनायास दिख जाने पर भी उधर से अपनी दृष्टि फेर लेनी होगी। इससे पहले कि आपका मन उसमें रस लेने लगे आपको किसी सकारात्मक पहलू पर अपनी सोच को स्थिर कर लेना होगा। इस अभ्यास से धीरे-धीरे लोगों में दोष ढंूढ़ने की प्रवृति पर भी अंकुश लगना प्रारम्भ हो जायेगा। संयोग से किसी का दोष दिख भी जाय तो उस तरफ से दृष्टि हटाकर, तत्काल अपने अन्दर उस दोष को खेाजने में लग जाइए। आप देखेंगे कि न्यूनाधिक वही दोष आप में भी है। जरा विचार करके देखिये कि अभी जिस दोष के कारण सामने वाला व्यक्ति आपको हेय लग रहा था, उसके सामने आप कितने श्रेष्ठ है। यद्यपि आपका अहंकार आपको फिर भी श्रेष्ठ ठहराने का प्रयास करेगा किन्तु आपको दृढ़ता से उसकी उपेक्षा करनी होगी। आप देखेंगे कि आपको अपने उस दोष के प्रति स्वतः ही ग्लानी का अनुभव होने लगेगा। बस यहीं से अपको मुक्ति यात्रा का श्रीगणेश हो जायेगा।

यों मर्ज सौ, दवा एक

वर्तमान में रहो ,क्षमता पहचानो का संदेश जन-जन तक पहुँच गया है किन्तु यह बात किसी की समझ में भर आजाये तभी उसका कल्याण संभव है।

पूना आश्रम से प्रकाशित होने वाली मराठी भाषा की पत्रिका ‘श्री वामनराज’’ ‘अपना-अपना सेाच’ को क्रमबद्ध रूपसे मई 2010 से मराठी भाषा में प्रकाशित करने लगीं है।

एक दिन जब मैं महाराजजी के यहाँ पहुँच वे परम पूज्य गुरुदेव शिवोम् तीर्थ जी की अन्तिम कृति ‘अन्तिम रचना’’ का अध्ययन कर रहे थे। महाराजजी मुझे भी उस कृति के अन्तिम दस पृष्ठों को पढ़कर सुनाने लगे। मैंने उनके इस संकेत को समझकर घर आकर उन पृष्ठों को पुनः पढ़ना शुरु कर दिया। इन दस पृष्ठों में सम्पूर्ण कृति का सार निहित है।

इस कृति में प्रश्न परम पूज्य गुरुदेव शिवोम् तीर्थ जी महाराज ने अपने गुरुदेव परम् पूज्य स्वामी विष्णू तीर्थ जी से किये हैं। उन प्रश्नों का समाधान परम पूज्य गुरुदेव ने किया है। साधकों के लिये यह कृति बहुत उपयोगी है।

परम् पूज्य गुरुदेव स्वामी विष्णू तीर्थ जी से परम पूज्य शिवोम् तीर्थ जी महाराज ने प्रश्न किया -आपने यह अवस्था कैसे प्राप्त की?

परम पूज्य स्वामी विष्णू तीर्थ जी महाराज ने इसका उत्तर यों दिया है-‘‘इसमें गुरुकृपा के अतिरिक्त भला और क्या कारण हो सकता है। बस यूं समझो कि जिधर गुरुजी ने लगाया उधर लग गया। गुरुकृपा तभी फलीभूत होती है जब शिष्य में सम्पूर्ण समर्पण हो। समर्पण के बिना अनन्य भक्ति की कल्पना दिवास्वप्न मात्र है।

जब मैंने ऐसा किया तो अन्तर्गुरु प्रत्यक्ष होकर, उनकी अन्तर्कृपा प्रकट होने लगी। जन्म-जन्मान्तर से चित्त पर जमी मैल धुलने लगी। फिर मन की ऐसी स्थिति भी आई कि सिद्ध महापुरुषों का दर्शन भी प्राप्त होने लगा। इसमें मेरा कोई पुरुषार्थ नहीं जो कुछ है गुरु-कृपा का ही फल है। पुरुषार्थ का अभिमान साधन में विघ्न बन कर उपस्थित होजाता है। साधक का यही कर्तव्य है कि गुरुदेव पर भरोसा रखें, तब गुरुदेव अन्तर् में आकर बैठ जाते हैं। वही साधन करते हैं, रक्षा करते हैं, विध्नों,संशयो, भ्रान्तियेंा, विकारों,,संस्कारों को हटाते हैं।

मैंने यानी शिवोम् तीर्थ ने कहा-आपके इस वक्तव्य से ऐसा आभास होता है कि श्री गुरुदेह के महत्व का बखान कर रहे हैं जब कि पहले आप कई बार कह चुके हैं कि सद्गुरु ईश्वर है, उसकी चैतन्य सत्ता है।

महाराज श्री ने समझाया-‘‘यह मैं अब भी कहता हूँ कि कृपा गुरुदेह नहीं करता वरन् गुरुदेह के माध्यम से चैतन्य अन्तर्गुरु करते हैं।तुम्हें यह शंका संभवतः इसलिये हुई कि हमने कहा कि गुरु शिष्य के अन्तर में आकर बैठ जाता है। यह बात करने की एक शैली है जिसका भाव यह है कि शिष्य में पहले से ही विराजमान प्रसुप्त अन्तर्गुरु जाग्रत होकर क्रियाशील होजाते हैं।

एक साधक ने महाराज श्री से प्रश्न किया-‘‘क्या साक्षी भाव स्थाई है।’’

महाराज श्री ने समझाया-‘‘ नहीं, जब तक दृश्य है तभी तक साक्षीभाव है।जब तक चेतना की क्रियाशीलता है,तभी तक साक्षीभाव है।जब तक कोई लक्ष्य अभिमुख है, तभी तक साक्षीभाव संभव है।’’

उसी साधक ने पुनः प्रश्न किया-‘‘ॅिफर साक्षित्व को इतना, साधन के लिये आवश्यकक्यों माना जाता है?’’

महाराज श्रीबोले-‘‘क्योंकि साक्षित्व अस्थाई तथा मिथ्या होते हुये भी, अन्तिम शिखर पर चढ़ने के लिये सीढ़ी के समान है।छत पर पहुँच जाने पर जिस प्रकार सीढ़ी छूट जाती है उसी प्रकार अन्तिम लक्ष्य प्राप्त होजाने पर साक्षीभाव भी छूट जाता है। अन्तर में चेतना की क्रियाशीलता का, साक्षीभाव का अवलोकन चित्तशुद्धि का एक मात्र उपाय है। साक्षीभाव चित्त की मलीनता दूर करने के लिये, चेतन को उन्मुक्त क्रियाशीलता का अवसर प्रदान करता है,इसलिये इसे साधना में उन्नति हेतु आवश्यकमाना जाता है।

वैसे साक्षीभाव भी मन की चंचलता का सूक्ष्मतम स्तर ही है, जिसमें मन का एक अंग कार्यरत रहता है। साधना में क्रियाओं का स्वरुप चाहे बदलता रहता हो पर मन साक्षीभाव से चेतन की क्रिया पर स्थिर रहता है। जगत के प्रति चंचलता में मन, विभिन्न विषयों में अनेकाग्रता धारण किये रहता है।

उसी साधक ने यह प्रश्न किया-‘‘ऐसा कहा जाता है कि यदि कोई साधक गुरु के प्रति पूर्णरुप से समर्पणयुक्त होजाये तो उसके साधन की उन्नति के लिये यही बहुत है बाकी सभी उत्तरदायित्व गुरुदेव वहन करते हैं।

महाराज श्रीबोले-‘‘ इसमें क्या शंका है? समर्पण यदि पूर्ण होजाये तो बाकी करने के लिये क्या बचता है? मुक्ति अपने समय पर उदय होती रहेगी, किन्तु साधक अभी से सभी चिन्ताओं, उत्तेजनाओं तथा उत्तरदायित्वों से मुक्त होजाता है। जाग्रति के पूर्व एवं पश्चात् समर्पण ही साधन का आधार है।’’

साधक-‘‘यदि समर्पण इतना महत्वपूर्ण है तो साक्षीभाव का क्या हुआ,?’’

महाराज श्री बोले-‘‘यह दोनों परस्पर विरोणी कहां है? अपितु एक दूसरे के पूरक हैं।’’

साधक-‘ गुरु शिष्य का मिलन क्या पूर्व नियोजित होता है अथवा केवल संयोगवश?’’

महाराज श्री-‘‘ दोनों ही बातें संभव हैं। जहाँ गुरु शिष्य संबंध जन्म-जन्मान्तर से चला आरहा होता है ,वहां पूर्व नियोजित होता है। ऐसे संबंध में गम्भीरता तथा अपनत्व का भाव अधिक गहरा होता है। किन्तु जहां संबंध नया जुडता है वहां पूर्व नियोजित भी हो सकता है तथा संयोगवशात भी। किन्तु फिर भी कुछ न कुछ पूर्व भूमिका, चित्त स्थिति अथवा पूर्व इतिहास अवश्य रहता है। शीध्र ही संबंध टूट जाने की भी संभावना होती है। काफी लम्बे समय तक गुरु के प्रति संशयात्मक वृति भी बनी रह सकती है। एक अन्य साधक-‘‘ क्या गुरु का परीक्षण करके ,मन का संतोष होजाने के उपरान्त ही गुरु करना चाहिये?’’

महाराज श्री-‘‘ क्या तुमने अपना परीक्षण कर लिया है? क्या तुमने अपने आप को जान लिया है जो गुरु की वास्तविकता जानकर संतोष करने में समर्थ हो। तुम अपने मलीन मन से गुरु की निर्मलता का निश्चय करना चाहते हो। वह कैसे संभव है? आँख पर पट्टी बांधकर प्रकाश की खेाज कैसे की जा सकती है?’’

परम पूज्य शिवोम तीर्थ जी ने इस संबध में समझाया-‘‘ गुरु की निर्मलता को परखने से उत्तम है कि जो किसी को अच्छी लगे ,उस साधना में तत्पर होजाये। जप करो,स्वाध्याय करो, भजन-कीर्तन करो, जो मन को भाये वह साधना करो। यथा समय गुरु स्वयम् को, अपने आप प्रकट कर देंगे, या ऐसी परिस्थितियां निर्मित होजायेंगी कि आप गुरु के पास पहुँच जाओगे।

00000000

यहाँ महाराज जी एवं माता जी का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जारहा था। मैं पहले चर्चा कर चुका हूँ कि महाराज जी के इष्ट धूनीवाले दादाजी हैं। माँजी की भी इन महान संत में पूरी आस्था है। महाराज जी एवं माता जी अपने को जीवन के अन्तिम पड़ाव पर महसूस कर रहे हैं। इस स्थिति में कहाँ की यात्रा करना उचित रहेगा। आपसी सोच-विचार के बाद तय किया गया कि खण्डवा में धूनीवाले दादाजी के आश्रम के दर्शन किये जायें। वहाँ से शिरडी के साँई बाबा के दर्शन किये जायें। यही सोच कर महाराज जी ने एक दिन मुझे रिजर्वेशन कराने के लिये बुला लिया। उस दिन रिजर्वेशन कराने मैं और महाराज जी दोनों ही गये तो कम्पूटर खराव था। उस दिन रिजर्वेशन नहीं मिला। महाराज जी ने फिर किसी शिष्य से कह कर खण्डवा का रिजर्वेशन करा लिया। 17ः6ः10 को दादर -अम्तसर ट्रेन से जाने का तय हो गया।

17ः6ः10 को दादर -अम्तसर ट्रेन से महाराज जी को बैठाने मैं भी स्टेशन गया था। श्री माँ यानी गुरुदेव की एक शिष्या भी इस प्रवास में उनके साथ थीं। वे जम्मू-कश्मीर में अंग्रेजी बिषय की प्रोफेसर हैं। श्रेष्ठ साधक हैं। ऐसीं विद्वान मनीषी को गुरुदेव ने दीक्षा का अधिकार प्रदान किया है।

उनके अतिरिक्त श्रीनगर की रहने वाली दो विद्वान मनीषी बहिन भक्ति एवं विरक्ति जी को भी यह अधिकार प्रदान किया हैं। उनकी दिव्यता दर्शनीय है।

यह बात दिनांक 3ः509 की है। जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा-आश्रम में प0पू0 गोपाल स्वामी जी आये हुये थे। मैंने उनका विधिवत पूजन किया और उनके पास बैठ गया। वे बोले-‘‘गुरु पर जहाँ से दृष्टि पड़े वहीं से उन्हें सास्टांग प्रणाम करें। फिर पास आकर उन्हें पुनः प्रणाम किया जा सकता है।’’ यह कह कर वे शिवोम् तीर्थ जी का भजन गाने लगे। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। वे कुछ देर बाद अन्दर चले गये।

उसके बाद किसी प्रसंग बस प0पू0 गोपाल स्वामी जी की जन्म कुण्डली मुझे देखने को मिली-

लग्नकुण्ड़ली 15ः12ः07 से गुरु की महादशा शुरु 00000

यहाँ मैं गुरुदेव परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी की जन्म कुण्डली समय भी प्रस्तुत कर रहा हूँ- समय 19,20जनवरी 1932 समय सुवह 5.30

15ः3ः2010 से केतु की महादशा शुरु

000000

महाराज जी के सन्यास ग्रहण की कुन्डली19.2.93 समय सुवह के 5 बजे छिप्रा तट उज्जैन

000000

इस रचना को भी महाराज जी से अनेक बार सुना है-

माता-पिता पैदा करें जग में देय फसाय,

हमको जननी वह मिली सद्पथ दियो लगाय।।

हरिहरस्वामी

महाराज जी का चिन्तन चलता रहता है। एक सुबह वे सोच रहे थे-दीपक में बाती और तेल रहता है जब तक तेल रहता है तभी तक लौ का अस्तित्व है। मानव शरीर में जब तक शक्ति का संचार है तभी तक इसकी लौ प्रज्वलित बनी रहती है।

0000000

मैं पुनः अपनी बात समाप्त करते समय‘‘ अपना अपना सोच’’कृति की ओर आपका ध्यान अकृर्षित करना चाहता हूँ। इन दिनों यह कृति मेरे जीवन की ‘आस्था के चरण’ कृति की तरह आचार संहिता बन गई है। मैं आपका ध्यान इस कृति के ‘‘ एक दृष्टि ’’ अध्याय में पृष्ठ क्रमांक 101 पैरा दो पर केन्द्रित करना चाहता हूँ। गुरुदेव ने उसे इन शब्दों में यों दर्शाया है। देखें-

इन आने वाले विध्नों से निराश अथवा हताश न होकर व्यक्ति को अपने साधन के प्रति उत्साह और विश्वास बनाये रखना चाहिये। विध्न तो साधक के जीवन में आने स्वाभाविक ही है। किन्तु एक धैर्यवान व्यक्ति इनसे विचलित नहीं होता और विश्वास का पल्लू थामे रहता है। जिस प्रकार एक पनिहारिन अपने सिर पर पानी से भरे कई-कई मटकों को लिये हुये अपनी सहेलियों के साथ बातें भी करती जाती है और मटकों का भी ध्यान बनाये रखती है ,ठीक इसी प्रकार का साधक का जीवन भी होना चाहिये। जगत में अपने कर्तव्य कर्मो को कुशलता पूर्वक निभाते हुये अपने चित्त में श्री गुरुचरणों का ध्यान बनाये रखना चाहिये। किसी महापुरुष ने ठीक ही कहा है कि यदि गेाता लगाना है तो श्रीगुरु के चरणोंदक से बढ़ करकोई पावन जल नहीं है। यदि मस्तक पर चन्दन लगाना है तो श्रीगुरु के चरणों की रज से बढ़ कर शीतल और सुगन्धित कोई अन्य पदार्थ नहीं है। यदि ध्यान करना है तो श्रीगुरु के चरणों से बढ़ कर परमेश्वर का वास कहीं अन्यत्र नहीं है। यदि शीश नवाना हो तो श्रीगुरु के पदचिन्हों से उत्तम कोई अन्य स्थान नहीं है। यदि तुझे तेरे गंतव्य का ज्ञान नहीं है तो उनके पदचिन्हों का अनुसरण करे जा पहुँच जाएगाा।

000000

महाराज जी का साधकों को यह अचूक सन्देश-

आपको जब कभी भटकन का अनुभव हो तो आप सब तरफ से ध्यान हटा कर उस क्षण को याद कर लेना, अपनी उस मनः स्थिति में डूब जाना जब आपके हृदय में श्रद्धा का अंकुर प्रस्फुटित हुआ था।

000000