पुस्तक: यश का शिकंजा
लेखक: यश वन्त कोठारी
प्रकाषक: सत्साहित्य प्रकाषन, प्रभात प्रकाशन 205 बी. चावड़ी बाजार,दिल्ली-6
मूल्य: 30 रु.
पृप्ठ 171 ।
यशवंत कोठारी का तीसरा व्यंग्य संकलन आया है इस से पहले वे कुर्सी सूत्र व् हिंदी की आखरी किताब लिख कर चर्चित हो चुके हैं.उनकी रचनाएँ धर्मयुग,सारिका नव भारत टाइम्स ,माधुरी समेत सभी राष्ट्रीय पात्र पत्रिकाओं में स्थान पा चुकी है.
यश का शिकंजा यश वन्त कोठारी का राजनीतिक पक्ष पर कटाक्ष करता उपन्यास है, जो कि सफेदपोष नेताओं पर तीखे और मीठे प्रहार करता हुआ फलागम की और बढ़ता है।किस तरह सरकारें बनाई और गिराई जाती है यह इस उपन्यास का मूल बिंदु है
उपन्यास के हर एक वाक्य में दुधारी भापा का प्रयोग कर लेखक ने वर्तमान समाज का सजीव चित्रण किया है। यश का शिकंजा उपन्यास को हिंदी व्यंग्य उपन्यासों में उच्च स्थान प्राप्त है तब हिंदी में व्यंग्य लिखना भी मुश्किल था व्यंग्य उपन्यास तो दूर की बात है. पुस्तक के अंत में कुछ व्यंग्य भी सकलित हैं, जिसमें आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक कमियों को लेखनी ने ढंग से उजागर किया है। बाढ़ सूत्रः वार्पिक प्रतिवेदन, चमचा सूत्र, साहब का कुत्ता, षरद ऋतु आ गई प्रिये, कुंवारा किरायेदार, आवष्यकता है एक कुलपति की आदि इस खण्ड की अच्छी कृतियां है। कहने की आवष्यकता नहीं कि यश वन्त कोठारी की रचनायें व्यक्ति को अपने गिरेबां में झाकने पर मजबूर करती हैं।
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पुस्तक: यश का शिकंजा
लेखक: यशवन्त कोठारी
प्रकाषक: सत्साहित्य प्रकाषन, 105 बी चावड़ी बाजार, दिल्ली-2
मूल्य: 30 रु.
पृप्ठ: 171 ।
यह प्रसन्नता की बात है कि अब व्यंग्य विद्या को साहित्य में प्रतिप्ठा मिल गयी है, नही ंतो पहले व्यंग्य को साहित्य में दूसरे दर्जे का लेखन माना जाता था। यह उत्तरोत्तर निखरे और पैने व्ंयग्य साहित्य क ेलेखकों के कारण ही सम्भव हो सका है। साहित्य अकादमी को भी 1982 में आखिर व्यंग्य को ही सर्वश्रेप्ठ साहित्य का सम्मान देना पड़ा। ‘चकल्लस पुरस्कार’, ‘काका हाथरसी पुरस्कार’ तथा ऐसे कुछ और पुरस्कारों ने भी इस विद्या के विकास को नयी दिषाएं तथा प्रोत्साहन प्रदान किये है।
उपरोक्त पुस्तक ताजा प्रकाश न हैं, और अपनी-अपनी तरह से व्यंग्य को को समृद्ध करने के लिए सचेप्ट हैं। ‘यष का षिकंजा’ एक लघु उपन्यास जैसा है, जो राजनीतिक भ्रप्टाचार का पर्दाफाष करने का प्रयास है। इसमें एक चिरपरिचित ष्षैली का सहारा लेखक ने लिया है, जो निहित व्यंग्य को उभरने नहीं देता। पाठक कहानी में इस तरह बह जाता है कि लेखक इसके जरिये व्यंग्य समाज और व्यवस्था पर चोट संप्रेपित नहीं कर पाता। कथा के घिसे हुए फ्रेम को तोड़कर व्यंग्य को कुछ ऐसा संस्कार आज के नये व्यंग्यकार ने दिया है, जो उसे व्यंग्य निबंध से भी साथ ही अलग कर देता है। इस तरह वह हर वाक्य को और पैना करता चलता है, जैसे कि उसका हर वाक्य एक नष्तर हो और हर वाक्य के नष्तर का निषान भी कोई नया ही हो। यह पैनापन इस लघु उपन्यास में नहीं आ सका है। इसे व्यंग्य उपन्यास न कहकर महज राजनीतिक उपन्यास कहना उचित होगा।
मनमोहन सरल,सहायक संपादक धर्मयुग मुंबई
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