Benzir - the dream of the shore - 11 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 11

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 11

भाग - ११

मैं घूमना चाहती थी। खूब देर तक घूमना चाहती थी। रास्ते भर कई बार मैंने बहुत लोगों की तरफ देखा कि, लोग मुझे देख तो नहीं रहे हैं। मैं दोनों हाथों में सामान लिए हुई थी। और आगे बढ़ती चली जा रही थी। मैं इतनी खुश थी कि कुछ कह नहीं सकती। खुशी के मारे ऐसा लग रहा था, जैसे कि मैं लहरा कर चल रही हूं। मन में कई बार आया कि, घर की कोठरी में कैद रहकर हम बहनों ने कितने बरस तबाह कर दिए। कम से कम ज़िंदगी के सबसे सुनहरे दिन तो हम सारी बहनों के तबाह हो ही चुके थे। हम जान ही नहीं पाए कि दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है। अब्बू को यह सब करके आखिर क्या मिला, वह किसकी शिक्षा, किस के नियम को मान कर हम सारे बच्चों और अम्मियों पर अत्याचार कर रहे थे। अम्मी की सारी परेशानी, सारी बीमारी की जड़ भी उनके जुल्म ही थे। कितना परेशान करते थे सबको।

यही सब सोचती-सोचती जब घर पहुंची तो नौ बज चुके थे। अम्मी परेशान हो रही थीं। देखते ही बोलीं, 'अरे बेंजी बिटिया कहां रह गई थी। मेरी तो जान ही हलक में आ फंसी थी। और यह सब इतना सारा क्या खरीद लाई मेरी बिटिया।'

अम्मी ने तीन-चार झोले देखकर कहा। मैंने सारा सामान उन्हें दिखाया। अंदरूनी कपड़े भी। चादर को देखकर अम्मी ने कहा, 'क्या जरूरत थी इसकी। काम तो चल ही रहा था। इसकी जगह तू अपने लिए कपड़ा ले लेती। वहां सेंटर पर सिखाने जाती हो। कुछ अच्छे कपड़े तो होने ही चाहिए ना। मैं घर में ही रहती हूं। मुझसे ज्यादा तुझे जरूरत है।'

अंदरूनी कपड़ों को देखकर कहा, 'यह तुमने अच्छा किया। मैं कई दिन से सोच ही रही थी, लेकिन कुछ समझ नहीं पा रही थी कि, कैसे कहूं, क्या कहूं तुझसे। यह खरीद कर तुमने बहुत अच्छा किया।'

साथ ही अम्मी ने डिज़ाइन देखकर यह भी कह दिया कि, 'ये बड़े कपड़ों वाला लेती जिससे ज्यादा बदन ढकता है। यह तो बहुत खुला है। चलो कोई बात नहीं, अगले महीने तनख्वाह मिले तो जाकर और ले आना।'

यह बातें कहते हुए अम्मी के चेहरे के भाव और आवाज में जो उतार-चढाव था, मुझे उसे समझते देर नहीं लगी कि, अम्मी को ज्यादा खुले कपड़े पसंद नहीं आए। इसलिए साफ-साफ कह दिया कि, अगले महीने जाकर दूसरा ले आना। फल के लिए कुछ ना बोलीं। उन्हें काट कर दिया तो मुझे भी खाने को कहा।

रात जब सोने चली तो अम्मी के बिस्तर पर नया चादर और तकिया का गिलाफ लगा दिया। अपनी कमर सीधी करने के लिए अपने उसी अस्त-व्यस्त, फटी चादर बिछी बिस्तर पर लेट गयी, बिना गिलाफ की तकिया लिए। दिनभर सेंटर में काम और फिर छह-सात किलोमीटर पैदल चलने के कारण मैं बहुत थकान महसूस कर रही थी।

मोबाइल ऑन करके एक सीरियल देखने लगी । वह मोबाइल जिसे बहुत ही हिफाजत से मैं छुपाकर जाती थी, जिससे किसी के हाथ ना लग जाए। थोड़ी देर आराम करके मैं फिर कढाई पर लग गई। उसके पहले कॉपी लेकर मुन्ना ने जो कुछ लिखकर दिया था, उसकी नकल कर डाली थी। सबसे पहले तो, अपने लिए जो छोटे-छोटे कपड़े लाई थी, वह पहन कर नापा। उनकी फिटिंग देखकर मैं दुकानदार की तारीफ किए बिना ना रह सकी।

जहां तक मैंने उसे देखा था, तो उसने एक नजर भी ठीक से मुझ पर नहीं डाली थी। यहां तक कि मेरी छातियों की तरफ भूलकर भी नहीं देखा था। फिर भी इतनी सटीक नाप दी थी कि मुझे बिल्कुल फिट थी। यही हाल निचले कपड़े का भी था। यह देखकर मुझे मानना पड़ा  कि तजुर्बा बहुत बड़ी चीज होती है।

सफेद वाली मैं पहने ही रही। कई बार मैंने शीशे में खुद को ऊपर से नीचे तक देखा। देख-देख कर इतराई कि मैं कितनी खूबसूरत हूं। मोबाइल में ऐसे ही छोटे-छोटे कपड़ों में समुद्र किनारे चलती-फिरती तमाम महिलाओं से कहीं ज्यादा मैं अपने को खूबसूरत मान रही थी। लेकिन फिर अपनी स्थिति का अंदाजा होते ही मैं मायूस होकर कढाई में लग गई। बमुश्किल डेढ़ घंटा बीता होगा कि, रियाज़-ज़ाहिदा की आवाज आने लगी। उन्हें सुनते ही मेरी उंगलियां थम गईं। मैं उसी जगह जाकर बैठ गई जहां ऐसे में हमेशा बैठा करती थी। जब वह दोनों थमे तब-तक मेरी हालत बिगड़ चुकी थी।

मैं बिल्कुल बेचैन हो उठी। जिस कप्पड़े पर कढाई कर रही थी, उसे बिस्तर पर ही एक तरफ झटक दिया। कुछ देर पहले तक जिन दो छोटे-छोटे कपड़ों को पहनकर इतरा रही थी उन्हें भी दीवारों पर दे मारा। थकान से चूर होते शरीर को जमीन पर डालकर बहाती रही आंसू, जो रुक नहीं रहे थे। यह दूसरा मौका था जब दरवाजा फिर नहीं बंद किया था और उस दिन भी अम्मी की आवाज सुनकर ही नींद खुली थी। पहली बार ही की तरह उस दिन फिर दीवारों से टकराए पड़े कपड़ों को पहन अम्मी के पास पहुंची थी।'

अपनी इस बात को पूरा करते ही बेनज़ीर अचनाक ही मेरी तरफ गौर से देखती हुई बोलीं, 'एक बात बताइए कि, ये बार-बार दरवाजे के उस पार देखने, कपड़े दिवारों पर फेंकने की बात से आप मुझे सेक्सुएली बीमार या कुछ और तो नहीं समझने लगे हैं। या बार-बार सुनकर कहीं ऊब तो नहीं रहे हैं। मेरी तरह सच ही बोलिएगा ।'

बेनज़ीर ने अचानक ही यह बात कहकर मुझे क्षण भर के लिए चौंका दिया। लेकिन मैंने भी तुरन्त खुद को संभाला और कहा, ' बिलकुल सच कह रहा हूं, एकदम नहीं। मैं आपके लिए ऐसा कुछ नहीं सोच रहा। आप जो कर रही थीं, जिन हालात से तब गुजर रही थीं, वह सब उसका ही परिणाम था। एक स्वाभाविक क्रिया-प्रतिक्रिया थी। इसके सिवा कुछ नहीं। बेहद सामान्य सी बात थी। तो उस दिन आपकी अम्मी नाराज हुईं देर तक सोने के लिए या कुछ शक-सुबह किया?'

'नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं दिनभर ट्रेनिंग सेंटर में खुद को खपाती रही। अपनी हालत, अपनी ज़िन्दगी पर मेरा मन भीतर ही भीतर इतना रो रहा था कि, उसका अक्स मेरे चेहरे पर दुनिया भी आसानी से पढ़ने लगी । मेरा ध्यान इस तरफ तब गया जब बीच में एक बार मुन्ना ने आकर पूछा, 'बेनज़ीर जी क्या बात है? आपकी तबीयत ठीक न हो तो घर जाकर आराम करें ।'

मैंने कहा, 'नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। शायद गर्मी ज्यादा है। इसलिए कुछ पसीना आ जा रहा है।'

मुन्ना घर हो या बाहर हर जगह मुझसे बेहद अदब से पेश आते थे। उन्होंने कहा, 'आप चाहें। तो थोड़ी देर मेरे कमरे में बैठ जाइए। ए.सी. में आराम मिलेगा।'

वह रोज मुझे पढानें से लेकर अपने लैपटॉप पर ऑनलाइन सेल आदि सब के बारे में कुछ ना कुछ बताते रहते थे। मैं उनकी बातें बड़ी जल्दी समझती रही, क्योंकि मोबाइल पर दुनिया भर की चीजें मैं बराबर काफी समय से देखती ही आ रही थी।

कई बार मुन्ना ने कहा भी, 'आप तो बड़ी जल्दी सीख-समझ लेती हैं।' मैंने उनसे नहीं बताया कि मैं मोबाइल बहुत पहले से चलाती आ रही हूं। उनकी मेहनत, मेरी लगन का परिणाम था कि, मैंने अगली तनख्वाह वाले दिन जीवन की एक और सबसे बड़ी खुशी महसूस की। मैंने तनख्वाह अंगूठा लगा कर नहीं साइन करके ली। उस दिन की मेरी खुशी पहली तनख्वाह मिलने की ख़ुशी से कई गुना ज्यादा थी।

एक बार फिर मैं शॉपिंग करने गई, दुगुने पैसे लेकर। असल में अब मैं ऑनलाइन खरीदारी के संजाल में प्रयोग होने वाले शब्दों को अपने व्यवहार में भी ला रही थी। इस बार भी पहले किस्त जमा की, फिर अम्मी के लिए कपड़े खरीदे। अपने लिए दो सेट कपड़ा लिया। दो लेगी और कुर्ता। मैं जब पहले लड़कियों को लेगी-कुर्ता पहने देखती तो मेरा बड़ा जी करता कि मैं भी पहनूं। कई साल पुरानी उस इच्छा को मैंने उस दिन पूरा किया।

एक बार फिर से गड़बड़झाला गई उसी दुकानदार के पास, जिससे पिछली बार खरीदारी की थी। दुकान भूल गई थी इसलिए काफी देर तक ढूंढना पड़ा । जब पहुंची तो कुछ लडकियां पहले से ही खरीदारी कर रही थीं। वह अपनी पसंद बता रही थीं और दुकानदार बड़े अदब से दोनों कपड़े निकाल-निकाल कर दिखाता जा रहा था।

वह पढ़ने-लिखने वाली लड़कियां लग रही थीं। यही कोई अट्ठारह से बीस के बीच की रही होंगी। उनका खुलापन, साफगोई सब कुछ मुझे अच्छी लगी। वह डिजाइनों के तमाम अलग -अलग तरह के नाम बता रही थीं और फिर जो खरीदा उसने मुझे रोमांच के गहरे दरिया में डुबो दिया। मैं गई थी बदन के ज्यादा हिस्से को ढकने वाला कपड़ा खरीदने के लिए, लेकिन खरीद लिया वह, जो उन लड़कियों ने खरीदा था, जिसे वह थोंग कह रही थीं।

मन में आया कि पतली सी पट्टी के अलावा इसमें कोई कपड़ा है ही कहां। आखिर दो सेट मैंने सबसे ज्यादा शरीर ढकने वाला भी खरीद लिया। और बहुत सी खरीदारी करके मैं लदी-फंदी-करीब नौ बजे घर पहुंची।

अम्मी परेशान तो थीं लेकिन पहली बार की तरह नहीं। इस बार उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा कि तूने इतने पैसे क्यों बर्बाद कर दिये। मैंने उन्हें थोंग छुपाकर बाकी सारे कपड़े दिखा दिये। देखकर बोलीं, 'हाँ, यह ठीक है।' लेकिन लेगी देखकर बोलीं, 'बेंज़ी, यह पहनोगी । इसे पहनकर तो लगता है जैसे सारी टांगें खुली हुई हैं। कपड़े पहने ही नहीं हैं, बस शरीर का रंग बदल गया है। यहां दुकान पर बैठी-बैठी दिन भर में तमाम जनानियों को देखा करती हूं। कुर्ता इतना खुला रहता है कि जरा सी हवा चलती है या फिर चलते समय दोनों अंग दिखते हैं। लगता है जैसे...।'

अम्मी कुछ आगे बोलें उसके पहले ही मैंने कहा, 'अम्मी मैं कुर्ता नीचे तक सिला हुआ पहनूंगी। फिर भी तुझे ठीक ना लग रहा हो तो मैं कल वापस करके दूसरा ले आऊँगी । परेशान ना हो।'

मेरी बातें सुनकर अम्मी पता नहीं क्या सोचती रहीं। मैं भी भीतर ही भीतर दुखी हो रही थी कि, मुझे यह सब नहीं करना चाहिए था। अम्मी जो आज़ादी दिए जा रही हैं, हमें उसका बेजा फायदा नहीं उठाना चाहिए। यह सब करना एक तरह से उन्हें दुखी करना है, यह मुनासिब नहीं है। उन्हें एकदम गुम-सुम देखकर मैं एकदम परेशान हो गई। इतनी भावुक हो गई कि आंखों में आंसू आ गए। मुझे अम्मी की भी आंखें आंसुओं से भरी लगीं। उनके होंठ मुझे फड़फड़ाते हुए से लगे। मुझे यकीन हो गया कि, मेरे कारण उनको बहुत दुख हुआ है। उनकी मंशा उनका मिज़ाज़ मुझे पिछली बार ही समझ लेना चाहिए था। जब उन्होंने दोनों कपड़ों को देखकर कहा था कि यह बहुत छोटे हैं।

मैंने अम्मी का एक हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, 'अम्मी तू बिल्कुल परेशान ना हो, मैं यह सब कल वापस कर आऊँगी । जैसा तू कहेगी मैं वैसा ही ले आऊँगी। तेरी मर्जी के खिलाफ मैं एक भी कदम नहीं बढ़ाने वाली। अब शांत भी हो जाओ।'

मेरी बात सुनकर वह एकदम से मुझे देखते हुए बोलीं, 'अरे बेंज़ी तुम यह क्या कह रही हो। मैं ऐसा कुछ नहीं सोच रही हूं। मैं तो यह सोच रही हूं कि, मैंने जीवन भर शौहर के चक्कर में पड़ कर अपने सारे बच्चों की नरम भावनाओं, उनकी छोटी-छोटी इच्छाओं को कैसे एक जल्लाद, कसाई की तरह जबह करती आई। कैसे अपने ही हाथों अपने बच्चों की फूल सी नाजुक दुनिया में आग लगाती रही। तब-तक लगाती रही जब-तक कि उनकी दुनिया जहन्नुम ना बन गई, ऊबकर सारे बच्चे छोड़ कर चले ना गए।

वह दोनों बड़ी लड़कियां भी घर छोड़ भागीं तो इसके लिए वह नहीं, अकेले मैं ही जिम्मेदार हूं। ये तो ऐसे हालात हैं कि, तेरे जैसी मासूम जहीन संतान आज भी मेरी चुन्नी पकड़े मेरे पीछे-पीछे चल रही है। मैं परवरदिगार की शुक्रगुजार हूं बिटिया कि, तूने मेरी आंखें खोल दी हैं। मुझे आईने में मेरे गुनाह और सच दोनों दिखा दिये हैं। मेरी बेनज़ीर, मेरी प्यारी बेंज़ी तू अभी की अभी यह सारे कपड़े पहन कर मुझे दिखा। मैं देखना चाहती हूं कि इन प्यारे-प्यारे कपड़ों में मेरी बेंज़ी कितनी प्यारी लगती है। यह कपड़े ज्यादा प्यारे हैं या मेरी बेंज़ी। जा बेटा, जा जल्दी।'

मैं अचरज में पड़ गई कि, अम्मी को ये क्या हो गया है। यह मेरी वही अम्मी हैं जो आंगन में भी सिर से दुपट्टा हट जाने पर भी चीख पड़ती थीं। और आज...। मारे खुशी के मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। मैं उनकी बात को टालना चाह रही थी, लेकिन अम्मी की जिद के आगे मुझे मानना ही पड़ा। जब मैं पहन कर आई, तो देखा अम्मी सामने की दीवार एकटक देखे जा रही हैं। उनकी पीठ मेरी तरफ थी।

मेरे मन में अचानक ख़याल आया कि कुछ ऐसा करूं कि, अम्मी के चेहरे पर मुस्कान आ जाए। बड़ी ग़मगीन सी बैठी हैं। तुरत-फुरत मुझे जो सूझा मैंने वही किया। दरवाजे पर एकदम ऐसे खड़ी हो गई, जैसे कपड़ों के विज्ञापन में तमाम मॉडल खड़ी होती हैं। ऐसे ढंग से कि ज्यादा खूबसूरत लगें, लोगों की नजर उन पर से ना हटे। मैं एक हाथ ऊपर करके दरवाजे को पकड़े हुए थी।दूसरा कमर पर था, कमर के पास से एक तरफ को लोच दिए हुए थी। एक पैर बिल्कुल सीधा था, तो दूसरा घुटने के पास से थोड़ा मुड़ा हुआ। मैं चेहरे पर गुमान के भाव लाकर खड़ी हुई, बिल्कुल मॉडल की तरह। फिर जैसे पिक्चरों में हिरोइनें सुरीली आवाज में ''हेलो'' बोलती हैं, उसी तरह आवाज बदल कर बोली, ''हेलो मॉम।''

अम्मी की जगह मॉम बोली। यह सुनकर अम्मी चिहुंकते हुए पलटीं और मुझ पर नजर पड़ते ही कुछ देर तक मुझे देखती रहीं। फिर उन्हें हंसी आ गई। कहा, 'अरे तू ऐसे आवाज बदल कर बोली कि, मैं समझी ना जाने कौन आ गया, अच्छा एक बार फिर से वैसे ही बोल जैसे अभी बोली थी।'

मैं अभी तक चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए मॉडलों की तरह ही स्थिर खड़ी थी। कमर पर रखे हाथ में नया मोबाइल था, जो आज ही खरीदा था। लेकिन डर के मारे अम्मी को बता नहीं पाई थी। अम्मी के कहने पर मैंने दोबारा ''हेलो मॉम '' कहा। वह खिलखिला कर हंस दीं । उनकी खुशी देखकर मैं खुशी से पागल हो गई। दौड़ उनके गले से लिपट गई।

मैंने कहा, 'अम्मी तू अब ऐसे ही खुश रहा कर। मैं तेरे चेहरे पर उदासी नहीं देखना चाहती। हमेशा हंसी-खुशी देखना चाहती हूं।'

अम्मी मेरी बात सुनकर सिर सहलाते हुए बोलीं, 'बेंज़ी जैसी खूबसूरत, हूर सी होनहार बेटी जब मेरे साथ है, तो उदासी मेरे पास फटक ही नहीं सकती मेरी बच्ची।'

अम्मी की खुशी, अपनी तारीफ, उनकी दुआओं से मैं फूली न समाई और अम्मी को संकोच के साथ मोबाइल के बारे में बताया कि, 'अम्मी तुम्हें मालूम ही है कि मुन्ना कह रहे थे कि, एंड्रॉयड फोन जरूरी है। तो पिछली बार के कुछ पैसे मिलाकर यह ले आई, तुमसे पूछे बिना।अम्मी माफ करना।' अम्मी ने मुझे कुछ कहने के बजाय गले से लगा लिया।

'तो यह कह सकते हैं कि, यह वह समय था जब आपके जीवन में आज़ादी, एक इंसान को इंसान होने का अहसास कराने वाले अधिकार मिलने शुरू हुए। सांसों पर लगीं पाबंदियां हटनी शुरू हुईं।'

'हाँ, कह सकते हैं, यह वह समय था जब हमने, मेरे घर ने कैद, जाहिलियत में घुटी सांसों की जगह आज़ादी, नॉलेज की रोशनी देखनी शुरू की। देखना शुरू किया कि, ऊपरवाले ने जीवन, दुनिया कितनी खूबसूरत बनाई है।'