Third people - 7 in Hindi Moral Stories by Geetanjali Chatterjee books and stories PDF | तीसरे लोग - 7

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तीसरे लोग - 7

7.

ट्रैन शायद किसी बड़े जंक्शन पर रुकी थी। किसना की अंतड़ियां मारे भूख और प्यास के सिकुड़ गई थी। जेब में पैसे तो थे, पर उतरने की हिम्मत और ताकत नहीं थी उसकी भीतर। बगल में बैठे सहयात्री से कहा की उसकी जगह रोक के रखे और अपना रुमाल जगह बिछाकर नीचे उतर गया। बैठ-बैठ कमर और गर्दन अकड़ गई थी उसकी। सामने ही प्याऊ नजर आई तो ओक लगाकर जन्मों के प्यासे की तरह भरपेट पानी पीता ही चला गया। नजदीक के एक स्टॉल में कढ़ाई पर खोलते तेल पर तैराती फूली-फूली पुरियों की सौंधी महक ने पेट के भीतर सुलगती भूख की चिंगारी को और हवा दी तो वहीं खड़े-खड़े छककर गरमागरम पूरी और आलू की रसेदार तरकारी का भोजन किया।

जठरागिनी के शांत होते ही शरीर में ऊर्जा संचार का अनुभव हुआ। गार्ड के हरी झंडी दिखते ही गाडी ने रेंगना शुरू किया तो लपक कर किसना कम्पार्टमेंट में चढ़ गया। सुबह की घटनाओं का असर अब उसे घटता दिखाई दे रहा था। कमीज में अब भी मिसिरजी के गंदे खून के छींटें पड़े थे, परंतु होली के रंगों में धुलने के कारण किसी भी संदेह का शिकार होने से बच गया था किसना। चेहरा तो पहले ही धो-पोंछकर साफ़ कर चूका था। अभी तो मुंबई पहुंचने में रातभर का सफर बाकी था। खिड़की से भीतर आती शीतल हवा के झोंकें और पटरियों के सीने पर लयबद्ध रेलगाड़ी की झिझिक-झिझिक, की ताल ने किसना को थपकियां देते हुए नींद के आगोश में कस लिया।

शोर-गुल और खोमचे-रेहड़ीवालों के नकियाते सुरताल से किसना की निद्रा भंग हुई। कल्याण स्टेशन था। गाडी दो मिनट के हॉल्ट के बाद चल पड़ी। आधा कंपार्टमेंट खाली हो चुका था। किसना खिड़की से सटी बर्थ पर बैठ गया। कंक्रीट के जंगलोंवाली इस मायानगरी को वह हैरत के साथ देख रहा था। वी.टी स्टेशन यानी सी.एस.टी. (छत्रपति शिवजी टर्मिनल) आने की तैयारी थी। रेलगाड़ी की गति धीमी हो चुकी थी और लाल कमीज, सफ़ेद नौका टोपी पहने कुली दनादन सवारी की तलाश में चढ़ते चले जा रहे थे। हलके से झटके के साथ गाडी प्लेटफार्म पर थम गई।

"अरे बाप रे ! इतना बड़ा स्टेशन ! " किसना का सिर चकरा गया। इंसानों का समंदर है तो ये तो। वो दिशविहीन सा प्लेटफार्म पर ही खड़ा रहा। शहर और वह दोनों ही तो एक-दूसरे के लिए अजनबी थे।

प्लेटफार्म के नल पर ही सिर गीला करके कुल्ला-पानी किया फिर स्टाल पर खड़े होकर चाय और दो पाव ख़रीदे। पाव को चाय में डुबोकर खाते हुए वह भावी योजना में खो गया। तलाश थी उसे आबोदाना की तो कोई कमी नहीं, लेकिन आशियाने के लिए जमीन का एक टुकड़ा मिल जाना, यानी ईश्वर को पा लेने के बराबर था।

स्टेशन के बहार गल्लों-ठेलों पर सस्ते कपड़ों का अंबार लगा था। " रस्ते का माल सस्ते में, पचास ! पचास ! पचास रूपये में सलमान का टी शर्ट , शारुख की पैंट ले लो भाई ! हां ! आ जाओ, ले जाओ। " इन फेरीवालों की कनफोड़वा आवाज़ से वह भी कौतूहलवश चला आया। फिर उसने अपने खून के छिंटेवाली कमीज को देखा। इलाहबाद से तो खाली हाथ ही चला था। उसने दो-दो जोड़ी कपडे लिए और रोजमर्रा के इस्तमाल की आवश्यक वस्तुएं खरीदी फिर निरुद्देश्य-सा सड़के नापने लगा। धुप तेज हो चली थी और उमस के कारण वह पसीने से तर-बतर हो चला था। नजदीक ही नुक्कड़ पर उसे एक उड्डपी रेस्तरां नजर आया तो भूख उसे वहां खींच के ले गई। अपने मसाला दोसा का ऑर्डर दिया। काउंटर पर तिलक भभूतधारी एक काले रंग का अधेड़ व्यक्ति सफ़ेद रंग की लुंगी फतुए में बैठा था। किसना ने अनुमान लगाया शायद यही मालिक होगा। पैसे चुकाकर उसने सहमते हुए पूछ ही लिया की उसे कोई काम मिल सकता है क्या। होटल के मालिक ने कहा की उन्हें ऑर्डर लेने के लिए एक आदमी चाहिए। आज उसकी किस्मत के सितारे बुलंद थे। हइस्कूल पास किसना को बैरे की नौकरी मिल गई। रेस्तरां मालिक " अन्ना शेटटी " ने मुंबइया लहजे में कहा, " कल सुबु (सुबह) से काम पे लग जाने का। महीना का दो हजार रुपया पगार और एक टाइम खाना। बराबर सात बजे आने का ! दारु-गीरु पीके भंकस करने का नई क्या ! कोई जात का लफड़ा नई मंगता अपने को क्या ! रहने का बंदोबस्त तुमेरा, वो अपुन की जवाबदारी नहीं, समझा क्या ! मंगता है तो आजा काम पे क्या ! "

शेटटी साहब का तकियाकलाम था शायद " क्या "। दो हजार रूपये वाह ! उसे तो अपनी किस्मत पर यकीन ही न हुआ। शाम तक का वक्त उसने वहीं गुजार दिया और बैरों को काम करते हुए, ऑर्डर लेते हुए देखता रहा। वहां से निकलकर वो यूं ही शहर की रंगीन शाम का नजारा देखते हुए क्रॉफोर्ड मार्किट तक पैदल ही चलता रहा। सब कुछ एक सपना- सा लग रहा था उसे। वी.टी स्टेशन का रास्ता पूछते हुए वह वापस प्लेटफार्म में चला आया। दिन भर की थकान से किसना की पलकें भारी हो चलीं थी। चंद मुसाफिर या उसी की तरह कुछ बेघर यहां-वहां पसरे थे। उसने भी अपने लिए एक जगह बनाते हुए जमीन पर पुराने अख़बारों का सेज बनाया और सुबह ख़रीदे हुए थैले को सिर के नीचे दबाकर आंखों में नए सूरज को संजोए गहरी नींद में सो गया।

सुबह उसकी आंखें जल्दी ही खुल गई। प्लेटफार्म के अंतिम छोर पर इंजन धोनेवाले बड़े-बड़े नलके लगे हुए थे। झर-झर बह रहा था। कुछ कुली किस्म के लोग वहीं उसके नीचे बैठे नहा रहे थे। वह भी वहीं एक धार के नीचे स्नान करने बैठ गया। रोज दिन में दो बार स्नान करनेवाला किसना आज दो दिन के बाद नहाने बैठा तो जी भर के नहाता ही चला गया। नए कपडे पहने, बालों में अच्छे से तेल डालकर करीनेसे कंघी करके अब वह एक नई जिंदगी की शुरुआत करने को बिलकुल तैयार था।

स्टेशन से रेस्तरां पांच-सात मिनट का पैदल सफर था। समय से पहले ही वह काम पर पहुंच गया। वहां के दूसरे बेरौं और कर्मचारियों के संग परिचय हुआ और उसे भी नीले रंगोंवाली बैरे की पोषक पहनने को दी गई। सारा दिन रेस्तरां में लोगों का हुजूम लगा रहता। डेली पैसेंजरों की ग्राहकी सबसे अधिक थी। वे यहां आकर हल्का-फुल्का नाश्ता कर अपने-अपने दफ्तरों के लिए चल देते। रेस्तरां बहुत बड़ा न होने पर भी सुना है एक दिन में लगभग बीस-पच्चीस हजार की कमाई हो जाती थी।

काम की व्यस्तता के बीच अतीत को याद करने का उसे वक्त ही नहीं था। प्रयाग भूमि का पुत्र होने के कारण सुबह सबेरे जब वह नहा-धोकर रेस्तरां में प्रवेश करता तो सर्वप्रथम तिरुपति बालाजी और बजरंगबली की विशाल तस्वीर के समक्ष हाथ जोड़कर आंखें मूंदें बड़ी तन्मयता से प्रार्थना करता। किसना को रोज हनुमान चालीसा के दोहा-चौपाइयों को सुर में गाते सुनकर उसके मालिक थिरूवल्लुवर शेटटी यानी अन्ना शेटटी गदगद हो उठते भक्तिभाव से। त्रिपुंड तिलकधारी अन्ना शेटटी को किसना से खासा स्नेह हो गया था। अक्सर अन्य बैरों को डांटते हुए कहते, " देखा वो कल का आयेला छोकरा कितना अच्छा काम करता और तुम लोग साला सबका सब कामचोर। घडी-घडी छुट्टी मांगता है मवालीगिरि करने के वास्ते। नई तो पईसा मांगता है। खाली, काम करने का टाइम तुम लक्खा मवालयों को नानी मरती है। स्साला हरामी लोग। " वे जी भरके गालियां देकर अपने को हल्का कर लेते थे, परंतु बेशरम बैरे पीछे खीं-खी, ठी-ठी क्र हँसते और किसना अपनी तारीफ़ दुगने जोश के साथ काम करता दिखाई देता।

पहली तनख्वाह मिलते ही किसना। डाकखाने हो आया और अम्मा के नाम सात-सौ रूपये का मनीऑर्डर भेजा। वह अभागा तो दूध का जला हुआ था, इसलिए छाछ भी फूंककर पीता। तभी तो फॉर्म के छपे पते के स्थान पर अपना पता गलत लिखकर आ गया, क्योंकि वह जानता था की शक आधार पर इलाहाबाद की पुलिस अवश्य ही एड़ी-चोटी का जोर लगाकर उसे ढूंढ़ती होगी और बात सही भी थी।

मिसिरजी की सिर कटी वीभत्स लाश को पहले मंगलू पहलवान ने ही देखा था। वह दौड़ता हुआ थाने गया और चौकी के थानेदार को घटना से अवगत करते हुए एफआईआर भी दर्ज करा आया। मिसिरजी जैसे कददावर राजनेता की सनसनीखोज पुरे इलाहाबाद में चर्चा का विषय बन गई। हर नुक्क्ड़ और चाय की लारियों पर गरमागरम चाय के साथ इस खबर का बाजार भी गर्म रहता। लोग अपने-अपने ढंग से कयास लगा रहे थे। जितने मुंह उतनी बातें, " जरूर विरोधी दल की साजिश है ! अजी नहीं जनाब अईसा है कि हत्या का जो पैटर्न है, उससे तो लगता है पुरानी रंजिश का मामला है। " दूसरे सर्वज्ञात ने अपना ज्ञान का पिटारा खोलते हुए, कहा, तो जवाब में एक मुल्ला ने मुंह में जर्देवाला पान गुलगुलाते हुए अपने फाजिल होने का प्रमाण दिया, " अय जनाब ! आप लोग जो हैं गलत ट्रैक पकडे हो। अरे मियां हम टो (तो) कहते है कि पराई लुगाई या किसी जोरू का चककर रहा होगा। शौहर ने देख लिया होगा और एक ही झटके से काम तमाम कर दिया। " कहकर मुल्ला साहब ने मुंह से पान कि पिचकारी को पच्चसे थूककर, नजदीक कि सटी दिवार को रंग दिया।

सुरसतिया, संगम स्नान कर जब घर लौटी तो दरवाजे के ऊपर सांकल चढ़ी थी। " लगता है बिना कलेवा किए ही लड़का होली खेलने चला गया। " सोचते हुए पूजा कि थाली को ताक पर रखने चाय ही थी कि मुड़े कागज पर नजर पड़ी। कृष्णजी कि छोटी-सी मूर्ति तले दबे हुए नोटों पर भी ध्यान गया। उसके कपाल पर किसी आशंका कि सलवटें पड़ गई। कांपते हाथों से कागज खोला और बांचने लगी। अतीत में, बंगाली महाशय बनर्जी बाबू के यहां फुर्सत के वक्त परुलदेवी ने उसे थोड़ा-बहुत पड़ना लिखना सीखा दिया था। वह सुरसतिया को अक्सर बनावटी गुस्से से झिड़कती, " क्या रे सुरसतिया तुमरा नाम तो सरस्वती हाय, लेकिन पढ़ाई के नाम पर अंगूठा छाप। अभी से रोज दोपहर बेला को हम पढ़ाएगा और देखते ही देखते उस स्नेहसिक्ता मास्टरनी कि कृपा से छह-सात महीनो में ही सुरसतिया हिंदी कि बारहखड़ी सीख गई थी।

पत्र को हाथ में लिए उसका हृदय किसी अनिष्ट के आभास से बड़ी जोरों से धड़कने लगा। जैसे-जैसे पुत्र द्वारा लिखित पत्र को पढ़ती गई, उसके घुटने कांपने लगे और वह वहीं सिर पकड़कर बैठ गई। किसना का उसके साथ नाड़ी का संबंध था, तभी तो पुत्र की नस-नस को पहचानती थी सुरसतिया। " हाय रामजी ! मेरा भोला-भला बच्चा इत्ता सब चुपचाप सहता रहा अकेला और तू देखता रहा ? सुबकते हुए बोली, तूने कोई गुनाह नहीं किया, कोई गुनाह नहीं ....." उसने अपने आपको संभाल लिया और कागज के उस टुकड़े की चिंदी-चिंदीकर चूल्हे की आग में झोंक आई। रुपयों को भी छुपा के रख दिया और तेजी से स्वंय को स्थिर कर रोज की तरह चूल्हे-चौके के काम में व्यस्त हो गई। संसार की किसी भी माता को संतान पर पड़ी विपत्ति से मुक्त कराने के लिए किसी अभिनय कला को सीखने की आवश्यकता नहीं होती। परिस्थिति उसे एक बेहतरीन अभिनेत्री बना ही देती है।

सुरसतिया के साथ भी ऐसा ही हुआ।

थोड़ी ही देर में किसना के नाम का वारंट लेकर पुलिस की गाड़ी उसके दरवाज़े पर आकर रुकी। सुरसतिया हाथ जोड़े खड़ी हो गई, " परनाम हुज़ूर ! का बात है ? इंस्पेक्टर ने बिना किसी लाग-लपेट के सीधा-सीधा सवाल किया, " किसना कहां है, तुम्हारे घर की तलाशी लेनी है। "

" ले लीजिये तलाशी सरकार ! पर हुआ का ? कौनो गलती हुई गई है का ? " सुरसतिया ने धड़कनों के शोर पर काबू पाते हुए पूछा।

घर की तलाशी में पुलिस को कुछ भी नहीं मिला।

" आज सुबह मिसिरजी का खून हो गया है। उनका नौकर मंगलू आया था रपट लिखाने और उसने अपना शक तुम्हारे बेटे पर जाहिर किया है। कल आखिरी बार रात को किसना ही था उनके घर में। इस वक्त कहां है वह, पूछताछ के लिए थाने चलना होगा। "सुरसतिया अनपढ़ थी, पर मुर्ख नहीं। वैसे भी संसार की ऐसी कौन-सी माता होगी, जो औलाद पर पड़ती विपत्ति को रोकने के लिए चंडी रूप धारणकर उसका रक्षा कवच न बन जाती हो ? पुलिस की बातें सुनकर उसने अपना कलेजा थाम लिया।

" हे भगवान् ई हम का सुन रहे हैं ? अरे मिसिरजी तो देवता आदमी थे और हमार किसना से बड़ा नेह था उनको। परमात्मा उका आत्मा को सांति (शांति) दे। "

" हां ! तो अम्मा कहां है तुम्हारे लड़का ?" इंस्पेक्टर ने हाथ में बैटन पकड़कर दूसरे हाथ की हथेली पर थपकाते हुए फिर पूछा, " किसना तो आधी रातवाली गाड़ी से हुज़ूर कलकत्ता गया है नौकरी की तलाश में। " सुरसतिया बेटे का बचाव करते हुए साफ़ झूठ बोल गई और इत्तफाक भी ऐसा हुआ कि अचानक से उसके मुंह से आधी रातवाली कलकत्ता जाती गाड़ी की बात निकल गई। दरअसल उसे तुरंत याद आया की बनर्जी बाबू जब भी कलकत्ते जाते तो रात के तीन बजे की गाड़ी में ही जाया करते थे। दरोगा ने शक जाहिर करते हुए पुन: पूछा, " हां ! ठीक है पर रात को उनके यहां क्या काम था। " सुरसतिया ने किसी मंजे हुए वकील की तरह मुव्किक्ल का बचाव करते हुए जवाब दिया।

" अईसा है कि मिसिरजी किसना को ख़ास बुलाए थे आसीरवाद (आशीर्वाद) देने के लिए। मिसिरजी का आसीस और इज्जत लिए बिना ऊ कौनो सुभ काम नाही करता था, एतना (इतना) सम्मान करत रहल हमार किसनवा। उका मौत का खबर सुनकर कहीं पगला न जाए। " कहते हुए सुरसतिया बड़े ही नाटकीय अंदाज से साड़ी के पल्लू द्वारा आंखें पोंछने लगी।

इंस्पेक्टर को अब थोड़ा बहुत अम्मा की बात पर यकीन हो चला था। शायद बुढ़िया ठीक ही कह रही है। किसना अगर रात की तीन बजेवाली हावड़ा मेल में गया है तो फिर खून किसने किया होगा ? क्योंकि खून तो सुबह के वक्त हुआ और घर से कोई किमिति वस्तु, रूपये-पैसे भी तो गायब नहीं हुए और मंगलू भी कह रहा था की मालिक किसना से बहुत स्नेह करते थे। तो फिर भला किसना उनका खून क्यों करेगा ? हो सकता है किसना कलकत्ते जाना और मिसिरजी का उसी दिन खून होना एक इत्तेफाक की बात हो ? " खैर सवाल-जवाब की उधेड़बूनों के बीच इंस्पेक्टर ने सुरसतिया को हिदायत दी की जब पूछताछ या अन्य जानकारी के लिए उसकी आवश्यकता होगी तो तुरंत थाने में हाजरी देनी होगी और पुन: एक बार पुलिस ने अपनी तफ्तीश की दिशा बदल दी। सुरसतिया ने चैन की सांस ली। आज लगभग महीने-भर बाद पोस्टमैन अम्मा के नाम का मनीऑर्डर लाया। सात सौ रूपये और बेटे की सलामती का संदेश पाकर सुरसतिया का कलेजा जहां एक ओर ठंडा हुआ, वही दूसरी और पुत्र-विछोह का शूल उसके हृदय को दग्ध कर गया। बस, पुत्र को एक बार जीभर के देखने की आस और मोह में ही वह बूढ़ी आंखें खुली थी।