Charlie Chaplin - Meri Aatmkatha - 3 in Hindi Biography by Suraj Prakash books and stories PDF | चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 3

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चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 3

चार्ली चैप्लिन

मेरी आत्मकथा

अनुवाद सूरज प्रकाश

3

ये उसकी आवाज़ के खराब होते चले जाने के कारण ही था कि मुझे पांच बरस की उम्र में पहली बार स्टेज पर उतरना पड़ा। मां आम तौर पर मुझे किराये के कमरे में अकेला छोड़ कर जाने के बजाये रात को अपने साथ थियेटर ले जाना पसंद करती थी। वह उस वक्त कैंटीन एट द' एल्डरशाट में काम कर रही थी। ये एक गंदा, चलताऊ-सा थियेटर था जो ज्यादातर फौजियों के लिए खेल दिखाता था। वे लोग उजड्ड किस्म के लोग होते थे और उन्हें भड़काने या ओछी हरकतों पर उतर आने के लिए मामूली-सा कारण ही काफी होता था। एल्डरशॉट में नाटकों में काम करने वालों के लिए वहां एक हफ्ता भी गुज़ारना भयंकर तनाव से गुज़रना होता था।

मुझे याद है, मैं उस वक्त विंग्स में खड़ा हुआ था जब पहले तो मां की आवाज़ फटी और फिर फुसफुसाहट में बदल गयी। श्रोताओं ने ठहाके लगाना शुरू कर दिये और अनाप-शनाप गाने लगे और कुत्ते बिल्लियों की आवाजें निकालना शुरू कर दिया। सब कुछ अस्पष्ट-सा था और मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या चल रहा है। लेकिन शोर-शराबा बढ़ता ही चला गया और मज़बूरन मां को स्टेज छोड़ कर आना पड़ा। जब वह विंग्स में आयी तो बुरी तरह से व्यथित थी और स्टेज मैनेजर से बहस कर रही थी। स्टेज मैनेजर ने मुझे मां की सखियों के आगे अभिनय करते देखा था। वह मां से शायद यह कह रहा था कि उसके स्थान पर मुझे स्टेज पर भेज दे।

और इसी हड़बड़ाहट में मुझे याद है कि उसने मुझे एक हाथ से थामा था और स्टेज पर ले गया था। उसने मेरे परिचय में दो चार शब्द बोले और मुझे स्टेज पर अकेला छोड़ कर चला गया। और वहां फुट लाइटों की चकाचौंध और धुंए की पीछे झांकते चेहरों के सामने मैंने गाना शुरू कर दिया। ऑरक्रेस्टा मेरा साथ दे रहा था। थोड़ी देर तक तो वे भी गड़बड़ बजाते रहे और आखिर उन्होंने मेरी धुन पकड़ ही ली। ये उन दिनों का एक मशहूर गाना जैक जोन्स था।

जैक जोंस सबका परिचित और देखा भाला

घूमता रहता बाज़ार में गड़बड़झाला

नहीं नज़र आती कोई कमी जैक में हमें

तब भी नहीं जब वो जैसा था तब कैसा था

हो गयी गड़बड़ जब से छोड़ा उसे बुलियन गाड़ी ने

हो गया बेड़ा गर्क, जैक गया झाड़ी में

नहीं मिलता वह दोस्तों से पहले की तरह

भर देता है मुझे वह हिकारत से

पढ़ता है हर रविवार वह अखबार टेलिग्राफ

कभी वह बन कर खुश था स्टार

जब से जैक के हाथ में आयी है माया

क्या बतायें, हमने उसे पहले जैसा नहीं पाया।

अभी मैंने आधा ही गीत गाया था कि स्टेज पर सिक्कों की बरसात होने लगी। मैंने तत्काल घोषणा कर दी कि मैं पहले पैसे बटोरूंगा और उसके बाद ही गाना गाऊंगा। इस बात पर और अधिक ठहाके लगे। स्टेज मैनेजर एक रुमाल ले कर स्टेज पर आया और सिक्के बटोरने में मेरी मदद करने लगा। मुझे लगा कि वो सिक्के अपने पास रखना चाहता है। मैंने ये बात दर्शकों तक पहुंचा दी तो ठहाकों का जो दौरा पड़ा वो थमने का नाम ही न ले। खास तौर पर तब जब वह रुमाल लिये-लिये विंग्स में जाने लगा और मैं चिंतातुर उसके पीछे-पीछे लपका। जब तक उसने सिक्कों की वो पोटली मेरी मां को नहीं थमा दी, मैं स्टेज पर वापिस गाने के लिए नहीं आया। अब मैं बिल्कुल सहज था। मैं दर्शकों से बातें करता रहा, मैं नाचा और मैंने तरह-तरह की नकल करके दिखायी। मैंने मां के आयरिश मार्च थीम की भी नकल करके बतायी।

रिले . . रिले. . बच्चे को बहकाते रिले

रिले. . रिले. . मैं वो बच्चा जिसे बहकाते रिले

हो बड़ी या हो सेना छोटी

नहीं कोई इतना दुबला और साफ

करते अच्छे सार्जेंट रिले

बहादुर अट्ठासी में से रिले. .।

और कोरस को दोहराते हुए मैं अपने भोलेपन में मां की आवाज़ के फटने की भी नकल कर बैठा। मैं ये देख कर हैरान था कि दर्शकों पर इसका जबरदस्त असर पड़ा है। खूब हंसी के पटाखे छूट रहे थे। लोग खूब खुश थे और इसके बाद फिर सिक्कों की बौछार। और जब मां मुझे स्टेज से लिवाने के लिए आयी तो उसकी मौज़ूदगी पर लोगों ने जम के तालियां बजायीं। उस रात मैं अपनी ज़िंदगी में पहली बार स्टेज पर उतरा था और मां आखिरी बार।

जब नियति आदमी के भाग्य के साथ खिलवाड़ करती है तो उसके ध्यान में न तो दया होती है और न ही न्याय ही। मां के साथ भी नियति ने ऐसे ही खेल दिखाये। उसे उसकी आवाज़ फिर कभी वापिस नहीं मिली। जब पतझड़ के बाद सर्दियां आयीं तो हमारी हालत बद से बदतर हो गयी। हालांकि मां बहुत सावधान थी और उसने थ़ोड़े-बहुत पैसे बचा कर रखे थे लेकिन कुछ ही दिन में ये पूंजी भी खत्म हो गयी। धीरे-धीरे उसके गहने और छोटी-मोटी चीज़ें बाहर का रास्ता देखने लगीं। ये चीज़ें घर चलाने के लिए गिरवी रखी जा रही थीं। और इस पूरे अरसे के दौरान वह उम्मीद करती रही कि उसकी आव़ाज़ वापिस लौट आयेगी।

इस बीच हम तीन आरामदायक कमरों के मकान में से दो कमरों के मकान में और फिर एक कमरे के मकान में शिफ्ट हो चुके थे। हमारा सामान कम होता चला जा रहा था और हर बार हम जिस तरह के पड़ोस में रहने के लिए जाते, उसका स्तर नीचे आता जा रहा था।

तब वह धर्म की ओर मुड़ गयी थी। मुझे इसका कारण तो यह लगता है कि शायद उसे यह उम्मीद थी कि इससे उसकी आवाज़ वापिस लौट आयेगी। वह नियमित रूप से वेस्टमिन्स्टर ब्रिज रोड पर क्राइस्ट चर्च जाया करती और हर इतवार को मुझे बाख के आर्गन म्यूजिक के लिए बैठना पड़ता और पादरी एफ बी मेयेर की जोशीली तथा ड्रामाई आवाज़ को सुनना पड़ता जो गिरजे के मध्य भाग से घिसटते हुए पैरों की तरह आती प्रतीत होती। ज़रूर ही उनके भाषणों में अपील होती होगी क्योंकि मैं अक्सर मां को दबोच कर थाम लेता और चुपके से अपने आंसू पोंछ डालता। हालांकि इससे मुझे परेशानी तो होती ही थी।

मुझे अच्छी तरह से याद है उस गर्म दोपहरी में पवित्र प्रार्थना सभा की जब वहां भीड़ में से चांदी का एक ठंडा प्याला गुज़ारा गया। उस प्याले में स्वादिष्ट अंगूरों का रस भरा हुआ था। मैंने उसमें से ढेर सारा जूस पी लिया था और मां का मुझे रोकता-सा वह नम नरम हाथ और तब मैंने कितनी राहत महसूस की थी जब फादर ने बाइबल बंद की थी। इसका मतलब यही था कि अब प्रार्थनाएं शुरू होंगी और ईश वंदना के अंतिम गीत गाये जायेंगे।

मां जब से धर्म की शरण में गयी थी, वह थियेटर की अपनी सखियों से कभी-कभार ही मिल पाती। उसकी वह दुनिया अब छू मंतर हो चुकी थी और उसकी अब यादें ही बची थीं। ऐसा लगता था मानो हम हमेशा से ही इस तरह के दयनीय हालात में रहते आये थे। बीच का एक बरस तो तकलीफों के पूरे जीवन काल की तरह लगा था। हम अब बेरौनक धुंधलके कमरे में रहते थे। काम-धाम तलाशना बहुत ही दूभर था और मां को स्टेज के अलावा कुछ आता-जाता नहीं था, इससे उसके हाथ और बंध जाते थे। वह छोटे कद की, लालित्य लिये भावुक महिला थी। वह विक्टोरियन युग की ऐसी भयंकर विकट परिस्थितियों से जूझ रही थी जहां अमीरी और गरीबी के बीच बहुत बड़ी खाई थी। गरीब-गुरबा औरतों के पास हाथ का काम करने, मेहनत मजूरी करने के अलावा और कोई चारा नहीं था या फिर थी दुकानों वगैरह में हाड़-तोड़ गुलामी। कभी-कभार उसे नर्सिंग का काम मिल जाता था लेकिन इस तरह के काम भी बहुत दुर्लभ होते और ये भी बहुत ही कम अरसे के लिए होते। इसके बावजूद वह कुछ न कुछ जुगाड़ कर ही लेती। वह थियेटर के लिए अपनी पोशाकें खुद सीया करती थी इसलिए सीने-पिरोने के काम में उसका हाथ बहुत अच्छा था। इस तरह से वह चर्च के लोगों की कुछ पोशाकें सी कर कुछेक शिलिंग कमा ही लेती थी। लेकिन ये कुछ शिलिंग हम तीनों के गुज़ारे के लिए नाकाफी होते। पिता जी की दारूखोरी के कारण उन्हें थियेटर में काम मिलना अनियमित होता चला गया और इस तरह हर हफ्ते मिलने वाला उनका दस शिलिंग का भुगतान भी अनियमित ही रहता।

मां अब तक अपनी अधिकांश चीज़ें बेच चुकी थी। सबसे आखिर में बिकने के लिए जाने वाली उसकी वो पेटी थी जिसमें उसकी थियेटर की पोशाकें थीं। वह इन चीज़ों को अब तब इसलिए अपने पास संभाल कर रखे हुए थी कि शायद कभी उसकी आवाज़ वापिस लौट आये और उसे फिर से थियेटर में काम मिलना शुरू हो जाये। कभी-कभी वह ट्रंक के भीतर झांकती कि शायद कुछ काम का मिल जाये। तब हम कोई मुड़ी-तुड़ी पोशाक या विग देखते तो उससे कहते कि वह इसे पहन कर दिखाये। मुझे याद है कि हमारे कहने पर उसने जज की एक टोपी और गाउन पहने थे और अपनी कमज़ोर आवाज़ में अपना एक पुराना सफल गीत सुनाया था। ये गीत उसने खुद लिखा था। गीत के बोल तुकबंदी लिये हुए थे और इस तरह से थे:

मैं हूं एक महिला जज

और मैं हूं एक अच्छी जज

मामलों के फैसले करती ईमानदारी से

पर आते ही नहीं मामले पास मेरे

मैं सिखाना चाहती हूं वकीलों को

एकाध काम की बात

क्या नहीं कर सकती औरत जात।

आश्चर्यजनक तरीके से तब वह गरिमापूर्ण लगने वाले नृत्य की भंगिमाएं दिखाने लगती। वह तब कसीदाकारी भूल जाती और हमें अपने पुराने सफल गीतों से और नृत्यों से तब तक खुश करती रहती जब तक वह थक कर चूर न हो जाती और उसकी सांस न उखड़ने लगती। तब वह बीती बातें याद करते लगती और हमें अपने नाटकों के कुछ पुराने पोस्टर दिखाती। एक पोस्टर इस तरह से था:

खासो-खास प्रदर्शन

नाज़ुक और प्रतिभा सम्पन्न

लिली हार्ले

गम्भीर हास्य की देवी,

बहुरूपिन और नर्तकी

जब वह हमारे सामने प्रदर्शन करती तो वह अपने खुद के मनोरंजक अंश तो दिखाती ही, दूसरी अभिनेत्रियों की भी नकल दिखाती जिन्हें उसने तथा कथित वैध थियेटरों में काम करते देखा था।

किसी नाटक को सुनाते समय वह अलग-अलग अंशों का अभिनय करके दिखाती। उदाहरण के लिए द' साइन ऑफ द' क्रॉस' में मर्सिया अपनी आंखों में अलौकिक प्रकाश भरे, शेरों को खाना खिलाने के लिए मांद वाले पिंजरे में जाती है। वह हमें विल्सन बैरट की ऊंची पोप जैसी आवाज में नकल करके दिखाती। वह छोटे कद का आदमी था इसलिए पांच इंच ऊंची हील वाले जूते पहन कर घोषणा करता:"यह ईसाइयत क्या है, मैं नहीं जानता लेकिन मैं इतना ज़रूर जानता हूं कि..कि यदि ईसाइयत ने मर्सिया जैसी औरतें बनायी हैं तो रोम, नहीं, जगत ही इसके लिए पवित्रतम होगा।" इस अंश को हास्य की झलक के साथ करके दिखाती लेकिन उसमें बैरेट की प्रतिभा के प्रति सराहना भाव जरूर होता।

जिन व्यक्तियों में वास्तविक प्रतिभा थी, उन्हें पहचानने, मान देने में उसका कोई सानी नहीं था। चाहे फिर वह नायिका ऐलेन टेरी हो, या म्यूजिक हॉल की जो एल्विन, वह उनकी कला की व्याख्या करती। वह तकनीक की बारीक जानकारी रखती थी और थियेटर के बारे में ऐसे व्यक्ति की तरह बात करती थी जो थियेटर को प्यार करने वाले ही कर सकते हैं।

वह अलग-अलग किस्से सुनाती और उनका अभिनय करके दिखाती। उदाहरण के लिए, वह याद करती सम्राट नेपोलियन के जीवन का कोई प्रसंग : दबे पांव अपने पुस्तकालय में किसी किताब की तलाश में जाना और मार्शल नेय द्वारा रास्ते में घेर लिया जाना। मां ये दोनों ही भूमिकाएं अदा करती लेकिन हमेशा हास्य का पुट ले कर, "महाशय, मुझे इजाज़त दीजिये कि मैं आपके लिये ये किताब ला दूं। मेरा कद ऊंचा है।" और नेपोलियन यह कहते हुए खफ़ा होते हुए गुर्राया "ऊंचा या लम्बा?"

मां नेल ग्विन का विस्तार से अभिनय करके बताती कि वह किस तरह से महल की सीढ़ियों पर झुकी हुई है और उसकी बच्ची उसकी गोद में है। वह चार्ल्स II को धमकी दे रही है,"इस बच्ची को कोई नाम दो वरना मैं इसे ज़मीन पर पटक दूंगी।" और सम्राट चार्ल्स हड़बड़ी में सहमत हो जाते हैं, "ठीक है, ठीक है, द' ड्यूक ऑफ अल्बांस।"

मुझे ओक्ले स्ट्रीट में तहखाने वाले एक कमरे के घर की वह शाम याद है। मैं बुखार उतरने के बाद बिस्तर पर लेटा आराम कर रहा था। सिडनी रात वाले स्कूल में गया हुआ था और मां और मैं अकेले थे। दोपहर ढलने को थी। मां खिड़की से टेक लगाये न्यू टेस्टामेंट पढ़ रही थी, अभिनय कर रही थी, और अपने अतुलनीय तरीके से उसकी व्याख्या कर रही थी। वह गरीबों और मासूम बच्चों के प्रति यीशू मसीह के प्रेम और दया के बारे में बता रही थी। शायद उसकी संवेदनाएं मेरे बुखार के कारण थीं, लेकिन उसने जिस शानदार और मन को छू लेने वाले ढंग से यीशू के नये अर्थ समझाये वैसे मैंने न तो आज तक सुने और न ही देखे ही हैं। मां उनकी सहिष्णुता और समझ के बारे में बता रही थी; उसने उस महिला के बारे में बताया जिससे पाप हो गया था और उसे भीड़ द्वारा पत्थर मार कर सज़ा दी जानी थी, और उनके प्रति यीशू के शब्द "आप में से जिसने कभी पाप न किया हो वही आगे आ कर सबसे पहला पत्थर मारे।"

सांझ का धुंधलका होने तक वह पढ़ती रही। वह सिर्फ लैम्प जलाने की लिए ही उठी। तब उसने उस विश्वास के बारे में बताया जो यीशू मसीह ने बीमारों में जगाया था। बीमार को बस, उनके चोगे की तुरपन को ही छूना होता था और वे चंगे हो जाते थे।

मां ने बड़े-बड़े पादरियों और महिला पादरियों की घृणा के बारे में बताया और बताया कि किस तरह से यीशू मसीह को गिरफ्तार किया गया था और वे किस तरह से पोंटियस के सामने शांत बने रहे थे। पोंटियस ने हाथ धोते हुए कहा था (मां ने बहुत ही शानदार अभिनय करके ये बताया)," मुझे इस आदमी में कोई खराबी ही नज़र नहीं आती।" तब मां ने बताया कि किस तरह से उन लोगों ने यीशू को निर्वस्त्र कर डाला था और उसे ज़लील किया था और उसके सिर पर कांटों का ताज पहना दिया था, उसका मज़ाक उड़ाया था और उसके मुंह पर ये कहते हुए थूका था, "ओ यहूदियों के राजा ..।"

जब वह ये सब सुना रही थी तो उसके गालों पर आंसू ढरके चले आ रहे थे। मां ने बताया कि किस तरह से साइमन ने क्रॉस ढोने में यीशू मसीह की मदद की थी और किस तरह भाव विह्वल हो कर यीशू ने उसे देखा था। मां ने बाराबास के बारे में बताया जो पश्चातापी था और क्रॉस पर उनके साथ ही मरा था। वह क्षमा मांग रहा था और यीशू कह रहे थे, "आज तुम मेरे साथ स्वर्ग में होवोगे", और क्रॉस से अपनी मां की ओर देखते हुए यीशू ने कहा था, "मां, अपने बेटे को देखो।" और उनके अंतिम, मरते वक्त की पीड़ा भरी कराह, "मेरे परम पिता, आपने मुझे क्षमा क्यों नहीं किया?"

और हम दोनों रो पड़े थे।

"तुमने देखा", मां कह रही थी, "वे मानवता से कितने भरे हुए थे। हम सब की तरह उन्हें भी संदेह झेलना पड़ा।"

मां ने मुझे इतना भाव विह्वल कर दिया था कि मैं उसी रात मर जाना और यीशू से मिलना चाहता था। लेकिन मां इतनी उत्साहित नहीं थी, "यीशू चाहते हैं कि पहले तुम जीओ और अपने भाग्य को यहीं पूरा करो।" उसने कहा था। ओक्ले स्ट्रीट के उस तहखाने के उस अंधेरे कमरे में मां ने मुझे उस ज्योति से भर दिया था जिसे विश्व ने आज तक जाना है और जिसने पूरी दुनिया को एक से बढ़ कर एक कथा तत्व वाले साहित्य और नाटक दिये हैं: प्यार, दया और मानवता।

हम समाज के जिस निम्नतर स्तर के जीवन में रहने को मज़बूर थे वहां ये सहज स्वाभाविक था कि हम अपनी भाषा-शैली के स्तर के प्रति लापरवाह होते चले जाते लेकिन मां हमेशा अपने परिवेश से बाहर ही खड़ी हमें समझाती और हमारे बात करने के ढंग, उच्चारण पर ध्यान देती रहती, हमारा व्याकरण सुधारती रहती और हमें यह महसूस कराती रहती कि हम खास हैं।

हम जैसे-जैसे और अधिक गरीबी के गर्त में उतरते चले गये, मैं अपनी अज्ञानता के चलते और बचपने में मां से कहता कि वह फिर से स्टेज पर जाना शुरू क्यों नहीं कर देती। मां मुस्कुराती और कहती कि वहां का जीवन नकली और झूठा है और कि इस तरह के जीवन में रहने से हम जल्दी ही ईश्वर को भूल जाते हैं। इसके बावज़ूद वह जब भी थियेटर की बात करती तो वह अपने आपको भूल जाती और उत्साह से भर उठती। यादों की गलियों में उतरने के बाद वह फिर से मौन के गहरे कूंए में उतर जाती और अपने सुई धागे के काम में अपने आपको भुला देती। मैं भावुक हो जाता क्योंकि मैं जानता था कि हम अब उस शानो-शौकत वाली ज़िंदगी का हिस्सा नहीं रहे थे। तब मां मेरी तरफ देखती और मुझे अकेला पा कर मेरा हौसला बढ़ाती।

सर्दियां सिर पर थीं और सिडनी के कपड़े कम होते चले जा रहे थे। इसलिए मां ने अपने पुराने रेशमी जैकेट में से उसके लिए एक कोट सी दिया था। उस पर काली और लाल धारियों वाली बांहें थीं। कंधे पर प्लीट्स थी और मां ने पूरी कोशिश की थी कि उन्हें किसी तरह से दूर कर दे लेकिन वह उन्हें हटा नहीं पा रही थी। जब सिडनी से वह कोट पहनने के लिए कहा गया तो वह रो पड़ा था,"स्कूल के बच्चे मेरा ये कोट देख कर क्या कहेंगे?"

"इस बात की कौन परवाह करता है कि लोग क्या कहेंगे?" मां ने कहा था,"इसके अलावा, ये कितना खास किस्म का लग रहा है।" मां का समझाने-बुझाने का तरीका इतना शानदार था कि सिडनी आज दिन तक नहीं समझ पाया है कि वह मां के फुसलाने पर वह कोट पहनने को आखिर तैयार ही कैसे हो गया था। लेकिन उसने कोट पहना था। उस कोट की वजह से और मां के ऊंची हील के सैंडिलों को काट-छांट कर बनाये गये जूतों से सिडनी के स्कूल में कई झगड़े हुए। उसे सब लड़के छेड़ते,"जोसेफ और उसका रंग बिरंगा कोट।" और मैं, मां की पुरानी लाल लम्बी जुराबों में से काट-कूट कर बनायी गयी जुराबें (लगता जैसे उनमें प्लीटें डाली गयी हैं।) पहन कर जाता तो बच्चे छेड़ते,"आ गये सर फ्रांसिस ड्रेक।"

इस भयावह हालात के चरम दिनों में मां को आधी सीसी सिर दर्द की शिकायत शुरू हुई। उसे मज़बूरन अपना सीने-पिरोने का काम छोड़ देना पड़ा। वह कई-कई दिन तक अंधेरे कमरे में सिर पर चाय की पत्तियों की पट्टियां बांधे पड़ी रहती। हमारा वक्त खराब चल रहा था और हम गिरजा घरों की खैरात पर पल रहे थे, सूप की टिकटों के सहारे दिन काट रहे थे और मदद के लिए आये पार्सलों के सहारे जी रहे थे। इसके बावजूद, सिडनी स्कूल के घंटों के बीच अखबार बेचता, और बेशक उसका योगदान ऊंट के मुंह में जीरा ही होता, ये उस खैरात के सामान में कुछ तो जोड़ता ही था। लेकिन हर संकट में हमेशा कोई न कोई क्लाइमेक्स भी छुपा होता है। इस मामले में ये क्लाइमेक्स बहुत सुखद था।

एक दिन जब मां ठीक हो रही थी, चाय की पत्ती की पट्टी अभी भी उसके सिर पर बंधी थी, सिडनी उस अंधियारे कमरे में हांफता हुआ आया और अखबार बिस्तर पर फेंकता हुआ चिल्लाया,"मुझे एक बटुआ मिला है।" उसने बटुआ मां को दे दिया। जब मां ने बटुआ खोला तो उसने देखा, उसमें चांदी और सोने के सिक्के भरे हुए थे। मां ने तुरंत उसे बंद कर दिया और उत्तेजना से वापिस अपने बिस्तर पर ढह गयी।

सिडनी अखबार बेचने के लिए बसों में चढ़ता रहता था। उसने बस के ऊपरी तल्ले पर एक खाली सीट पर बटुआ पड़ा हुआ देखा। उसने तुरंत अपने अखबार उस सीट के ऊपर गिरा दिये और फिर अखबारों के साथ पर्स भी उठा लिया और तेजी से बस से उतर कर भागा। एक बड़े से होर्डिंग के पीछे, एक खाली जगह पर उसने बटुआ खोल कर देखा और उसमें चांदी और तांबे के सिक्कों का ढेर पाया। उसने बताया कि उसका दिल बल्लियों उछल रहा था और और वह बिना पैसे गिने ही घर की तरफ भागता चला आया।

जब मां की हालत कुछ सुधरी तो उसने बटुए का सारा सामान बिस्तर पर उलट दिया। लेकिन बटुआ अभी भी भारी था। उसके बीच में भी एक जेब थी। मां ने उस जेब को खोला और देखा कि उसके अंदर सोने के सात सिक्के छुपे हुए थे। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था। ईश्वर का लाख-लाख शुक्र कि बटुए पर कोई पता नहीं था। इसलिए मां की झिझक थोड़ी कम हो गयी थी। हालांकि उस बटुए के मालिक के दुर्भाग्य के प्रति थोड़ा-सा अफसोस जताया गया था, अलबत्ता, मां के विश्वास ने तुरंत ही इसे हवा दे दी कि ईश्वर ने इसे हमारे लिए एक वरदान के रूप में ऊपर से भेजा है।

मां की बीमारी शारीरिक थी अथवा मनोवैज्ञानिक, मैं नहीं जानता। लेकिन वह एक हफ्ते के भीतर ही ठीक हो गयी। जैसे ही वह ठीक हुई, हम छुट्टी मनाने के लिए समुद्र के दक्षिण तट पर चले गये। मां ने हमें ऊपर से नीचे तक नये कपड़े पहनाये।

पहली बार समुद्र को देख मैं जैसे पागल हो गया था। जब मैं उस पह़ाड़ी गली में तपती दोपहरी में समुद्र के पास पहुंचा तो मैं ठगा-सा रह गया। हम तीनों ने अपने जूते उतारे और पानी में छप-छप करते रहे। मेरे तलुओं और मेरे टखनों को गुदगुदाता गुनगुना समुद्र का पानी और मेरे पैरों के तले से सरकती नम, नरम और भुरभुरी रेत.. मेरे आनंद का ठिकाना नहीं था।

वह दिन भी क्या दिन था। केसरी रंग का समुद्र तट, उसकी गुलाबी और नीली डोलचियां और उस पर लकड़ी के बेलचे। उसके सतरंगी तंबू और छतरियां, लहरों पर इतराती कश्तियां, और ऊपर तट पर एक तरह करवट ले कर आराम फरमाती कश्तियां जिनमें समुद्री सेवार की गंध रची-बसी थी और वे तट। इन सबकी यादें अभी भी मेरे मन में चरम उत्तेजना से भरी हुई लगती हैं।

1957 में मैं दोबारा साउथ एंड तट पर गया और उस संकरी पहाड़ी गली को खोजने का निष्फल प्रयास करता रहा जिससे मैंने समुद्र को पहली बार देखा था लेकिन अब वहां उसका कोई नामो-निशान नहीं था। शहर के आखिरी सिरे पर वही जो कुछ था, पुराने मछुआरों के गांव के अवशेष ही दीख रहे थे जिसमें पुराने ढब की दुकानें नजर आ रही थीं। इसमें अतीत की धुंधली सी सरसराहट छुपी हुई थी। शायद यह समुद्री सेवार की और टार की महक थी।

बालू घड़ी में भरी रेत की तरह हमारा खज़ाना चुक गया। मुश्किल समय एक बार फिर हमारे सामने मुंह बाये खड़ा था। मां ने दूसरा रोज़गार ढूंढने की कोशिश की लेकिन कामकाज कहीं था ही नहीं। किस्तों की अदायगी का वक्त हो चुका था। नतीजा यही हुआ कि मां की सिलाई मशीन उठवा ली गयी। पिता की तरफ से जो हर हफ्ते दस शिलिंग की राशि आती थी, वह भी पूरी तरह से बंद हो गयी।

हताशा के ऐसे वक्त में मां ने दूसरा वकील करने की सोची। वकील ने जब देखा कि इसमें से मुश्किल से ही वह फीस भर निकाल पायेगा, तो उसने मां को सलाह दी कि उसे लैम्बेथ के दफ्तर के प्राधिकारियों की मदद लेनी चाहिये ताकि अपने और अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए पिता पर मदद के लिए दबाव डाला जा सके।

और कोई उपाय नहीं था। उसके सिर पर दो बच्चों को पालने का बोझ था। उसका खुद का स्वास्थ्य खराब था। इसलिए उसने तय किया कि हम तीनों लैम्बेथ के यतीम खाने (वर्कहाउस) में भरती हो जायें।