Suljhe Ansuljhe - 18 in Hindi Moral Stories by Pragati Gupta books and stories PDF | सुलझे...अनसुलझे - 18

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सुलझे...अनसुलझे - 18

सुलझे...अनसुलझे

भावनात्मक स्पर्श

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आज मेरी मुलाक़ात एक अरसे बाद अपनी बचपन की मित्र लेखा से हुई। सुना था कि उसकी शादी एक बहुत ही धनाढ्य परिवार में हुई थी। उसके विवाह का निमंत्रण मुझे मिला था| पर मेरा विवाह उससे पहले हो जाने से सुसराल में अपनी ज़िम्मेदारियों की वज़ह से मैं उसके विवाह में नही जा सकी थी। फिर अपने-अपने परिवारों में व्यस्तताओं के चलते एक गैप हो गया था| अचानक ही आज एयरपोर्ट पर उसको देख मुझे बेहद अच्छा लगा।

‘कैसी हो विभा....तुम कहाँ जा रही हो?’.. लेखा ने पूछा ।

‘लेखा! मेरे काव्य-संग्रह का विमोचन था| उसी की वज़ह से दिल्ली आना हुआ। फिर मेरी बेटियां भी यही हैं तो उनके पास कुछ दिन बिताकर वापस लौट रही थी।’ मैंने लेखा को जवाब दिया।

‘विभा! तू शुरू से ही बहुप्रतिभामुखी थी। तेरे को कौन नही जानता था। हमेशा क्लास मॉनिटर रही फिर कैबिनट में रही। कॉलेज में भी तेरी पोजीशन आई। स्कूल हो या कॉलेज, तेरे बग़ैर स्टेज पर कुछ हुआ हो, याद नहीं आता। लेखन भी तेरे व्यक्तित्व का हमेशा हिस्सा रहा। हम तो जब भी तेरी बातें करते हैं तेरी कितनी ही बातें और तेरा सौम्य व्यवहार हम सबको याद आता है विभा।’ लेखा ने मुझसे मिलने पर एक बार जो बोलना शुरू किया तो रुकने का नाम ही नही लिया...

‘विभा तुझे याद है….क्लास की टीचर्स तक तुझ पर कितना भरोसा करती थी। किसी भी चैरिटी के लिए रुपया जमा करना होता तो भी तुझे ही सौंप देती और तू चुपचाप से टीचर्स के काम भी करती| मैंने सुना है कि तू लोगों की परेशानियों में समझाइश का काम भी करती है|’....

मेरे हम्म कर जवाब देने पर वह आगे बोली....

‘विभा! तुझे याद है एक बार गिरने से मेरे हाथ में चोट लग गई थी। तूने कितनी मदद की थी मेरी। जाने कितनी ही बार मेरा होमवर्क और क्लासवर्क तू करवाती रही। मुझे तो अक्सर ही तेरी बहुत याद आती थी| पर तेरा संपर्क न होने की वज़ह से तुझसे संपर्क नहीं कर पाई|’...

लेखा कितना कुछ एक ही साँस में मुझे सुना देना चाहती थी। सच तो यह है कि उस समय मोबाइल तो होते नही थे और लैंडलाइन नंबर बदल जाने से संपर्क ही नहीं हुआ। आज की तरह फेसबुक भी हम लोग के समय में नही था| तो हम जैसे पचास की उम्र से ऊपर के लोग इसको इस्तेमाल भी नही करते थे| सो इतने दिनों बाद स्कूल की मित्र का मिलना ईश्वर के द्वारा निमित्त किया हुआ एक संयोग ही कहा जा सकता था।

‘अरे सांस तो ले-ले लेखा। अभी मेरी फ्लाइट में समय है। मेरे लिए ही बोलती रहेगी या अपना भी कुछ बताएगी। आजकल कहाँ है तू? कैसी है तू? कितने बच्चे है तेरे? और भी बहुत कुछ जो तू बता सके अपने बारे में, मुझे भी बता।’ मैंने लेखा से कहा।

‘विभा! एक बात कहूँ, तुझे देख कर मुझे न जाने क्यों मेरी उस चोट का ख्याल आया जब तू मेरे साथ थी। बहुधा अन्तरंग मित्रों से मिलने पर सबसे पहले वो चोटें याद आती है जिन पर मरहम लगाने में मित्रों की भूमिका स्मृतियों में हमेशा विद्यमान रहती है| ...

‘विभा! तुझे पता है जिस दिन तू स्कूल नहीं आती थी मुझे स्कूल अच्छा नहीं लगता था| पता नहीं तेरे से कैसा आत्मिक सम्बन्ध था|’...

आज जब लेखा उस बात को याद कर रही थी तब भी उसकी आँखों की नमी उमड़ आई थी।

‘लेखा, तू ठीक है न? खुश तो है?’ मैंने लेखा से पूछा क्यों की अपनी बातें बोलते-बोलते उसकी आँखें बार-बार भर रही थी|

‘हाँ विभा, ऐसे तो मैं ठीक हूँ। तुझे पता है मेरा विवाह बहुत ही पैसे वाले घर में हुआ है। मेरे घर में रहने वाले परिवार के सदस्य कम और नौकरों की फ़ौज ज़्यादा है। सवेरे से लेकर रात तक काम के लिए आवाज़ लगाने भर की देरी रहती है| सभी चीज़े हाथों में थमाई जाती है। पर कुछ है विभा जिसकी वजह से मैं बहुत खुश नही हूँ। इतने साल गुज़र गए पर कुछ है जो रीता है।’ बोल कर लेखा चुप हो गई।

‘लेखा मुझे अपने बारे में बता....शायद मैं तेरे कुछ काम आ सकूं। हालांकि यहां वक़्त कम है फिर भी बता तो सही। हम बाक़ी फ़ोन पर अपनी बात जारी रखेगे। मुझे एक लंबे समय बाद तुझे देख कर दिल से बहुत अच्छा लगा है। वैसे भी स्कूली मित्र अलग ही आनंद के आभास देते है।’ लेखा से अपनी बात कहकर मैं उसको सुनने के लिए उसकी बातों का इंतज़ार करने लगी।..

‘विभा! तुझे तो पता ही है। मेरे पापा और मम्मी कॉलेज में पढ़ाते थे। उन्होंने हमको खूब पढ़ाया ,समर्थ बनाया और अच्छे परिवारों को देख हमारा विवाह किया। किस्मत की बात है कि मेरा विवाह बहुत पैसे वाले परिवार में हुआ पर ससुराल का माहौल मेरे परिवार से बहुत अलग था। हर बात हर चीज़ का आकलन मेरे ससुराल में रुपयों-पैसों से होता था। हालांकि मुझे नही कहना चाहिए यह सब क्योंकि मैं भी अब इस परिवार का हिस्सा हूँ| पर मुझे यहॉ लोगों की आंखों में भाव नही रुपयों की नापतौल ज्यादा नज़र आती है।... बहुत कोशिश करती हूं, सबको बहुत कुछ भावों से देने की उनको महसूस करवाने की| पर कभी-कभी ख़ुद ही हंसी की पात्र बन जाती हूँ।...

चूंकि सुसराल में रुपया बहुत था तो मुझे बहुत पढ़ी-लिखी होने के बाद भी नौकरी नही करने दी गई। बस मेरे पति मुझे अक्सर ही कहा करते थे कि महारानी हो घर की| बस हुक़ूमत करो और हुकुम चलाओ। मुझे तुम ऐसे ही बहुत अच्छी लगती हो। शुरू-शुरू में तो मुझे इतना महसूस नही हुआ विभा क्योंकि बच्चे छोटे थे, उनके साथ समय निकल जाता था| पर अठारह-उन्नीस साल गुजरने के बाद जैसे ही बच्चे बड़े हुए, मेरे न चाहते हुए भी घर के ही माहौल के जैसे मेरे बच्चे बड़े होने लगे। तब मेरा मन बहुत उदास रहने लगा।...

बहुत कोशिश करती कि मेरे बेटे रुपयों-पैसों को कमाने के अलावा भी बहुत कुछ सीखें| पर मुझे लगता है मैं जैसा चाहती थी वैसा नहीं कर पाई| भावों के बिना विभा तुमको नहीं लगता जीवन बगैर साँसों का सा लगता है|’...लेखा बोल कर चुप हो गई|

अब मैं लेखा की बातों को सोचूं तो मुझे उसकी बातें बहुत छू रही थी| आज इन्सान रुपया कमाने या ऊँचाइयों पर चढ़ने की होड़ में या दौड़ में मशगूल है| जिसकी वजह से ख़ुद को ही नहीं साथ चलने वालों को भी भावों से तोड़ रहा है| बड़े-बड़े व्यापारिक परिवारों में जब लेखा जैसी पढ़ी-लिखी औरतों को जीवन गुजरना होता है तो अन्तर्द्वंद कुछ ज्यादा ही घेरते है|

बचपन से बड़े होने तक जब माँ-बाबा के साथ सिर्फ़ भावों को ही महसूस करना सीखा हो तो कितनी भी शान-शौकत में इंसान रह ले उसको भावों कि कमी बहुत कचोटती है| यही शायद लेखा की उदासी का सबसे बड़ा कारण भी था| नौकर-चाकर जरूरतों के साथी होते है, आपके अन्तः के भागीदार नहीं|

‘विभा! मुझे बहुत अच्छा लगता जब मैं अपने पति और बच्चों को ख़ुद खाना बना कर परोसती और उनके चेहरे पर आए भावों को पढ़ती| अपने बच्चों को ख़ुद घुमाने ले जाती और भी बहुत कुछ वो करती जिससे परिवार के सभी लोगों के बीच विशिष्ट भावनात्मक रिश्ता बनता| पर विभा जैसा मैं सोचती थी वैसा नहीं होता था| बस यही मेरे लिए अवसाद का कारण बन रहा था|....

‘विभा, ऐसा नहीं है कि मेरे बच्चे भावों से अनभिज्ञ है, उनको बहुत कुछ समझ आता है| पर जब भी अपने भावों को किसी के भी प्रति प्रकट करने का समय आता है| परिवार के माहौल के जैसे वो दोनों भी अपने आपको संकुचित कर लेते हैं| साथ ही प्रकट करना अपनी हीनता मान लेते है| जो कि मुझे बहुत आहत करता है|

मेरे पति के हिसाब से भावों को प्रकट करना दूसरों के सामने ख़ुद को कमज़ोर करना होता है| उनके हिसाब से भावनात्मक इंसान सफल व्यापारी नहीं बन सकता| अगर मैं उनकी बातों में कुछ हस्तक्षेप करती हूँ तो कलह होता है|

बस विभा यही सब कुछ मुझे इतना कचोटता है कि मुझे स्वयं से वितृष्णा होने लगती है कि मेरे इतने पढ़े लिखे होने का क्या फायदा हुआ|... जबकि मैं बच्चों को भावों से नहीं जोड़ पाई| विभा जानती है मुझे मेरी यही हार स्वीकार्य नहीं हो रही है| तभी शायद अवसाद मुझे घेरे रहता है और मुझे मेडिसिन भी लेनी पड़ती है|’ लेखा इतना कुछ बोल कर अब चुप हो गई थी|

कैसी स्थिति है एक स्त्री की जो भावों से लबालब है| शिक्षित है, बच्चों को भावनात्मक रूप से बहुत कुछ देना चाहती है, सिखाना चाहती है| पर अति सम्पनता, नौकर चाकरों से सभी काम करवाना और रुपयों पैसों से सभी बातों की नाप तौल करना ही, वैभव का आकलन माना जाता है| कितना मुश्किल रहा होगा लेखा के लिए यह मुझे दिल से महसूस हो रहा था|

शायद उसका इस तरह अवसाद की गिरफ्त में आना,मेरे दिल को कचोट रहा था| इतना रुपया होने पर भी उसके सिर चढ़ कर नहीं बोल रहा था बल्कि वो तो अपने प्रयत्नों की हार से परेशान थी| दूसरी ओर आज की स्थति -परिस्थितियों का जब हम आकलन करते है- महिलाएं काम ही नहीं करना चाहती उनके लिए नौकरों से काम करवाना स्टेटस सिंबल है|

कोई भावों में जी कर ख़ुश रहना चाहता है और कोई भावों के भाव ही नहीं समझना चाहता| खैर अपनी सोच को विराम देकर मैंने लेखा से कहा....

‘लेखा| मुझे नहीं पता था तुम इतनी ज्यादा संवेदनशील हो| कितना कुछ तुमने मेरा भी अपनी स्मृतियों में सहेज कर रखा है| इससे पता लगता है कि तुम भूलती किसी को नहीं हो| बहुत प्यारी हो तुम और जैसा किसी भी एक अच्छे और प्यारे इंसान को होना चाहिए वैसी ही हो तुम|…

एक बात हमेशा ध्यान रखना हम सभी माताओं की अपने बच्चों को सिखाने की जिम्मेवारी एक निश्चित उम्र तक ही होती है| उसके बाद हर बच्चा अपने जीवन को किस तरह जीये ख़ुद चयन करता है| जहां तक परिवार के माहौल की बात है, कुछ हद्द तक हो सकता है तुम अपने हिसाब से उसे बदल पाई हो| पर पुरानी परम्पराओं और सोच को बदलने में काफ़ी लम्बा समय लगता है|…

स्वयं को इस निरंतर चलने वाले सोच के चक्र से निकालने की कोशिश करो लेखा| एक वादा भी करो मेरे से हर ऱोज थोड़ी देर जरूर बात करोगी ताकि तुम अच्छा महसूस करो और तुमको किसी तरह कि दवाइयों कि जरूरत न पड़े|’

मेरी बातों को सुन लेखा ने सहमति से सिर हिलाया| फ्लाइट का समय हो जाने से हम दोनों ने एक दूजे से विदा ली|

लेखा के जाने के बाद मेरे मन में इतनी उथलपुथल हो रही थी कि एक संवदनशील व्यक्ति गलत न होते हुए भी किस तरह आहत हो सकता है|

रुपया कमाने की हवस इंसान को धीरे-धीरे भावविहीन तो कर ही देती है| इसमें लिप्त व्यक्ति इतना मगन हो जाता है कि भावों और संवेदनाओ की आहट उस तक पहुँचती ही नहीं| दिखावा करने के लिए रुपया बहुत काम आता है| बड़े मकान नौकर-चाकर गाड़ियाँ ऐसे व्यक्तियों की आत्मिक संतुष्टि से जुड़े होते है|

ऐसा नहीं है कि भावों कि भाषा इनको समझ नहीं आती क्यों कि ज़रूरत पड़ने पर ऐसे लोग भी भावों को ही खोजते है| पर भावों को प्रकट करना हेय समझते है| दूर से देखने पर सभी को यह लगता है कि इस व्यक्ति के पास इतना पैसा है तो इसको कष्ट क्या होगा| यह तो सबसे ज्यादा सुखी व्यक्ति है| पर ऐसे घरों में लेखा जैसे शिक्षित संवेदनशील व्यक्ति भी होते है जिनको सक्षम होते हुए भी अक्षम होने का अहसास होता है|

ऐसे लोग मन ही मन बहुत टूटते है जब अपने जायों को संस्कारित करते समय परिवार का माहौल उनको भावात्मक स्पर्श देने में बाधक बनता है| जबकि जीवन को बहुत जीए-सा महसूस करेने के लिए ऐसे ही भावों की आवश्यकता होती है|

सच तो यही है कि रुपया कमाया जाए पर रूपये की इमारत खड़ी करते समय भावों और संवेदनाओं का सीमेंट जरूर लगाया जाये| भावों और संवेदनाओं को छोड़ कर सिर्फ रुपया-पैसा व्यक्ति को जिंदा नहीं रख सकता यही परम सत्य है| सोच कर जरूर देखिये|

प्रगति गुप्ता