Trikhandita - 14 in Hindi Women Focused by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | त्रिखंडिता - 14

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त्रिखंडिता - 14

त्रिखंडिता

14

कभी-कभी वह सोचती है कि क्यों किसी स्त्री की सफलता के पीछे उसका स्त्री होना कारण मान लिया जाता है। क्यों नहीं पुरूष की सफलता के कारणों की छानबीन होती है उसे विश्वास है कि इस जाँच से ऐसे-ऐसे चमकदार चेहरे बेनकाब होंगे जिनकी सफलता उनका पुरूषार्थ माना जाता है। साहित्य-संस्कृति कला फिल्म राजनीति धर्म-दर्शन कहाँ नहीं हैं ऐसे चेहरे। और ऐसे लोग और बढ़-चढ़कर स्त्री के लिए सीमाएँ निर्धारित करते हैं। उनको देह मात्र समझते हैं। उनके बड़बोले बयानों को सुनकर कोफ्त होती है। कुछ ऐसे भी चेहरे हैं जो स्त्री-पुरूष किसी को नहीं बख्शते। दैहिक शोषण किए बिना किसी को कुछ भी नहीं देते। दुर्भाग्य से वे लोग ऐसी जगहों पर काबिज होते हैं जहाँ से होकर ही सफलता की पगडंडियाँ निकलती हैं। वह आँखों देखकर कानों सुनकर भी चुप है क्योंकि चुप रहकर ही जी सकती है , वरना उसे मार दिया जाएगा। जब लोग उसे याद दिलाते हैं कि वह उस जगह क्यों नहीं है जहाँ अपने व्यक्तित्व व योग्यता के अनुसार होना चाहिए तो वह चुप रह जाती है। यह कहने से आत्मा दुखती है कि उसकी योग्यता में कमी है या फिर उसके प्रयासों में कमी थी। कैसे बताए कि स्त्री होकर भी समझौतावादी न होने का यह दण्ड था। सत्ता, समाज, घर-बाहर अपने-परायों का घोर असहयोग भी इसका कारण था। ऐसा कहना उसकी कुंठा समझी जाएगी।आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें करने वालों से उसे चिढ़ होती है पर वह क्या कर सकती है। उसे याद है चमन सर की आदर्शवादिता ! पर वह आदर्श तब कहाँ चला गया जब अपने बच्चों का हित सामने आया। उनका बेटा उसके साथ ही उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में इन्टरव्यू देने गया था। रास्ते भर उसके गुण गाता रहा। आपका तो बड़ा नाम है...............इतनी किताबें लिख चुकी हैं। कॉलेज में पढ़ाने का अनुभव भी है। व्यक्तित्व भी आकर्षक हैं आपका चुनाव तो होना ही है।

साक्षात्कार बड़ा शानदार था। साक्षात्कार लेने वाले उससे प्रभावित हो गए थे। वह खुश-खुश घर लौटी थी। एक दिन शाम को चमन सर उसके घर आए और बोले- तुम्हारा चुनाव हो गया है। मिठाई खिलाओ ।उसे देर तक विश्वास नहीं हुआ पर वे विश्वास दिलाते रहे। वह प्रसन्नता से सूचना आने का इंतजार करने लगी। क्योंकि चमन सर ने कहा था सबसे पहले फोन से सूचना आएगी। पर ना कोई फोन आया ना सूचना। अखबार में रिजल्ट निकला तो उसका कहीं नाम ना था जबकि चमन सर का बेटा सेलेक्ट हो गया था। उसने दुखी होकर चमन सर को फोन लगाया। वे खुशी से भरे हुए थे। खनखनाती आवाज में बोले-’मेरा बेटा नियुक्त हो गया। तुम्हारा भी बाद में हो जाएगा.........निराश मत होना।

-पर आपने तो कहा था मेरा सलेक्शन हो गया है ।

तुम्हें सुनने में गलत फहमी हुई होगी। मैंने कहा था कि हो सकता है।

-हो सकने की बात पर मिठाई नहीं मँगाई जाती।

’तुम्हें मेरे बेटे के सलेक्शन से जलन हो रही है पर तुम्हें नहीं पता कि उसके लिए कितना प्रयास करना पड़ा ।

-थोड़ा प्रयास मेंरे लिए भी कर देते

एक समय एक ही की बात कर सकता था।

-नौकरी की जरूरत मुझे ज्यादा थी।

बेटे को भी जरूरत थी। 30 वर्ष का हो गया है। नौकरी मिलने पर ही शादी हो सकती है।

उसने गुस्से में फोन काट दिया। नाराज चमन सर भी हो गए थे। सालों उनमें बातें नहीं हुई। किसी ने पहल नहीं किया। उनकी शिकायत थी कि वह उन पर आरोप लगा रही है जबकि वह उनके झूठ-फरेब से आहत थी।बाद में पता चला कि वे साक्षात्कार होने के एक सप्ताह पहले से लेकर एक सप्ताह बाद तक वहीं रहे थे और अपने सारे सोर्सेज का इस्तेमाल किया था। ऊपर से उन्हें आठ लाख रूपए भी देने पड़े थे। पर वे सबसे यही कहते रहे कि उनके पुत्र ने अपनी योग्यता से पद हासिल किया। प्रकारांतर से उसकी अपनी योग्यता ही कटघरे में खड़ी हुई।

कितना जबरदस्त नेटवर्क है शिक्षा जगत में भी। ऊपर से जितना ही साफ-शफ्फाक, भीतर से उतना ही नापाक। उसके पास ना तो इतने रूपए थे ना ही वह सोर्स पता था जिसके माध्यम से रूपए दिए जाते थे। उसे आज भी चमन सर का वह कथन याद है कि आपके लिए क्यों प्रयास करूँगा प्राथमिकता तो अपने बच्चे की होती है।दुबारा ऐसा ही कटु अनुभव एक दूसरे गुरूजन के कारण हुआ। वे गुरू विभागाध्यक्ष भी थे और संयोग से साक्षात्कार के एक जज भी। दूसरे जज भी उनके परिचित थे। वह साक्षात्कार भी लाजवाब रहा। इस बार गुरूजी की पुत्री साथ थी और पूरे समय उसकी योग्यता के दबाव में रही, पर रिजल्ट में वही प्रथम स्थान पर थी और वह निचले पायदान पर भी जगह ना पा सकी। गुरूजी उसे भी पुत्री कहते थे। उसकी प्रतिभा की तारीफ करते नहीं थकते थे। फिर क्यों वह उनकी लिस्ट से बाहर हो गई। बाद में कहने लगे तुमने आरक्षित वर्ग से! उसने कभी आरक्षण का लाभ नहीं लिया था। कुछ महीने पूर्व ही तो उसकी जाति को आरक्षित वर्ग में जगह मिली थी। उसके पास तो उसका प्रमाण पत्र भी नहीं था। आखिर क्यों सारी योग्यता के बाद भी उसे बैसाखी की जरूरत थी ।चमन सर और विभागाध्यक्ष कहीं कुलीन ब्राहमण होने की अहमन्यता से भरे हुए तो नहीं थे। कहीं यह ब्राह्मणवाद ही तो नहीं था जो उसकी अयोग्यता की वजह बन गया।

चमन सर को उससे सहानुभूति तो थी पर वे उसके लिए कुछ करना नहीं चाहते थे। पर ऊपर से कहते-मुझे अफसोस हैं कि तुम्हारे लिए कुछ ना कर सका।वह जानती थी कि वे चाहते तो उसके लिए भी बहुत कुछ कर सकते थे। अपनी कई छात्राओं की उन्होंने मदद की थी। वह सोचती है- ’क्या वे छात्राएं उनकी कुछ खास थीं।’ एक के लिए तो उन्होंने एक कॉलेज ही खुलवा दिया। इसमें अपने प्रशासनिक पावर का भरपूर इस्तेमाल किया। आज वह छात्रा उस कॉलेज की प्रिंसिपल है। एक छात्रा को तो उनकी पत्नी ने सीढ़ियों पर इसलिए दौड़ा लिया कि उसको इस बात का सबूत मिल गया था कि चमन उसके प्रति मधुर भाव रखते हैं। चमन सर अपने रसिक स्वभाव के लिए मशहूर थे। अक्सर उनके साथी प्राध्यापक उनके इस स्वभाव पर टिप्पणी करते और अनुमान लगाते कि वे अपनी प्रेमिकाओं से आखिर कहाँ मिलते होंगें। चमन सर आकर्षक थे। उनके पास अच्छी व लुभावनी भाषा थी। सबसे बड़ी बात कि वे ऐसे उच्च पद पर थे कि किसी का भी कल्याण कर सकते थे।

वह अक्सर सोचती कि वे उसके लिए कुछ करना क्यों नहीं चाहते ! क्या इसलिए कि वह शारीरिक रूप से उनसे नहीं जुड़ पाई ! उन्होंने अपनी तरफ से कोशिश तो पूरी की, पर उसने उनसे स्पष्ट कर दिया था कि वह कभी किसी विवाहित पुरूष से नहीं जुड़ सकती। जाने क्यों उसकी आत्मा को यह कभी गँवारा नहीं हुआ कि वह किसी स्त्री का हक छीने। उसकी इस आदर्शवादिता ने उसका बड़ा नुकसान किया। उसकी झोली में अनगिनत सफलताएँ आसानी से गिर सकती थीं, अगर वह अपने इस हठ को छोड़ देती। उसने देखा था कि कई स्त्रियाँ सिर्फ इसी कारण सफल, सम्पन्न व सुखी जीवन जी रही हैं। पर हाय रे उसका मन ! इस चीज को सौदेबाजी मानता है।

ऐसा नहीं कि वह सावित्री बनना चाहती है। ऐसी किसी नैतिकता में उसका विश्वास नहीं है। पर प्रेम में उसका विश्वास है। अगर उसका मन किसी पुरूष के प्रति प्रेमासक्त हो, तो वह उसके करीब जा सकती है, पर किसी लाभ के लिए प्रेमनाट्य उससे नहीं होता। यह कहना भी झूठ होगा कि चमन सर के प्रति उसका मन कभी प्रेमासक्त नहीं हुआ। पर एक मित्र की तरह, प्रेमिका की तरह नहीं। और वह भी तब, जब उसने उनका असली चेहरा नहीं देखा था। उनके कपटपूर्ण व्यवहार को न समझ पाई थी। उन्हें अपना हमदर्द समझती थी। उसे लगता था कि वे उसको चाहते हैं।संसार में तरह-तरह के लोग होते हैं। जैसे रूपरंग में एक जैसा होना अपवाद होता है, उसी तरह एक स्वभाव का होना भी । जुड़वा बच्चों में भी कुछ न कुछ भिन्नता जरूर होती है। पर यह भी सच है कि सबकी एक मूल प्रवृत्ति होती है, जो कभी नहीं बदलती। आदतें बदली जा सकती हैं। शिक्षा, वातावरण और संगति से मनुष्य बदलता है, पर मूल प्रवृत्ति वही रहती है। बहुत हुआ तो वह प्रवृत्ति थोड़ी सुसंस्कृत हो जाती है, प्रकटीकरण का ढ़ंग बदल लेती है पर खत्म नहीं होती।

चमन सर की मूल प्रवृत्ति भी कभी नहीं बदली। वे पेट के हल्के थे। कोई बात उन्हें पचती नहीं थी, हाँलाकि बाद में उसके लिए अफसोस भी करते होंगे, पर सामने जाहिर नहीं करते। शायद लोगों को बेवकूफ समझकर या खुद को ज्यादा बुद्धिमान समझकर। पर उनकी इस आदत की चर्चा उनके पीठ पीछे खूब होती। वे चापलूस भी थे। हर आदमी इस बात को जानता था कि वे कुलपतियों के आगे-पीछे घूमते रहे हैं। उनको खुश करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहे हैं , पर ज्यों ही कुलपति पद से हटा या हटाया गया, उनका व्यवहार यूँ हो जाता है जैसे उसे पहचानते ही ना हो। फिर नया कुलपति ज्यों ही आता है, वे उसके पीछे लग लेते हैं। कोई-कोई तो यह भी कहता है कि कुलपतियों को प्रसन्न करने लिए उन्होंने कुछ गलत कार्य भी किए हैं। आखिर वे ऐसा क्यों करते है ? खुद प्रोफेसर हैं.....अच्छा कमाते हैं। थोड़ा लिख-पढ़ भी लेते है फिर क्यों ? शायद अपनी मूल प्रवृत्ति के कारण। उनकी इस प्रवृत्ति से वह दुखी होती थी, पर वह भूल गयी थी कि चमन सर कोई कार्य निरर्थक नहीं करते ।उनकी दूरदृष्टि का कोई जवाब नहीं ।उनके रिटायर होने के बाद उसे लगा था, शायद अब उनका वर्चस्व कम हो जाए पर अवकाशप्राप्ति के चंद दिनों बाद ही जब वे एक विश्वविद्यालय के कुलपति हो गए तब वह जान गयी कि सफल होने के गुर जानते थे गुरु जी।

पर वह कभी उनसे मन से नहीं जुड़ पाई और यही वजह है कि वे उसके जीवन रूपी उपन्यास के मात्र कुछ पृष्ठ बनकर रह गए। अध्याय नहीं बन पाए।

आठ

दुख ही जीवन की कथा रही

अप्रैल का महीना है | आम के पेड़ पहले सुनहरे बौरों से भरे, फिर नन्हें-नन्हें हरे फलों से। लोगों की नजर लगने लगी हैं उन्हें। इतने सारे फल। एक-एक टहनी में अनगिन फल ! अगर ये फल बड़े होकर पकें, तो जी भर आम खाने को मिले। सस्ते भी बिकें। जन-साधारण की थाली भी आमों से भर जाए, पर ऐसा होता कहाँ है ? जितनी संख्या में बौर आते हैं, उतने फल नहीं लगते हैं क्योंकि फल लगते ही तेज हवाएँ चलने लगती हैं। इन तेज हवाओं से नन्हें फल धरती पर बिछने लगते हैं। बड़ा अफसोस होता है उन्हें भ्रूणावास्था में ही समाप्त होते देखकर। आम पकने तक तो बड़ी आँधियाँ आएंगी और धड़ाधड़ कच्चे आम गिरेंगे। बन्दर और बच्चे भी उत्पात मचाएंगे। कम ही आम पेड़ पर पक पाते हैं। अक्सर तो सुडौल होते ही तोड़ लिए जाते हैं अचार-मुरब्बा बनाने के लिए। जो पकने के करीब होते हैं, उन्हें पाल पर दवा के जोर से पकाया जाता है। पेड़ पर पका आम बहुत ही शुद्ध और मीठा होता है, पर कितने आमों को पेड़ पर पकना नसीब होता है? और उससे भी कम लोगों के नसीब में होता है पेड़ का पका आम खाना। गाँव-कस्बे के लोग इस दृष्टि से शहरी लोगों से भाग्यवान ठहरते हैं।

श्यामा अपने घर के सामने वाले पार्क में लगे आम के पेड़ को ध्यान से देख रही है। पार्क में आम का यह पेड़ एक पड़ोसिन ने लगाया था और अब वह उस पर अपना एकाधिकार समझती है। कोई एक फल भी तोड़ ले तो उपद्रव। हॉलाकि पार्क की जमीन पर सारे कॉलोनीवासियों का हक है। पर आम को लगाने, उसको बड़ा करने के कारण पड़ोसिन उसका सारा फल खुद उपभोग में लाती है। वह कभी-कभी प्रातः सांय टहलते एकाध टपका आम पा लेती है, तो पड़ोसिन दौड़ी आती है। उसे बुरा लगता है कि उसने आम क्यों उठाया ? ज्यों ही आम बड़े होने लगते हैं, उसके परिवार की पहरेदारी बढ़ जाती है। पार्क के चारों ओर सुबह शाम टहलना भी लालच समझा जाता है, पर वह उसकी परवाह नहीं करती। आम के उस पेड़ से उसे बहुत लगाव है। पेड़ भी उसको मानता है तभी तो छिप-छिपाकर उसके सामने आम टपका देता है। पड़ोसिन देखती रह जाती है। सड़क पर टपके आम को उठाते देख वह कुछ कह नहीं पाती, हाँ उसका मुँह जरूर बन जाता है।आम के इस पेड़ को देखकर उसको अपने बेटों की याद आ जाती है । इधर दोनों ही बेटे उसी के शहर में ट्रांसफर होकर आ गए हैं, पर उससे नहीं मिलते। पिता ने उनके मन में जो विष बेल बोयी है, वह लहलहा रही है।

आज उसने सोचा है कि बड़े बेटे श्याम को पत्र लिख कर अपना मन खोलेगी। भले ही यह पत्र उसे ना दे। थोड़ी देर मे वह कागज-कलम लेकर पढ़ने वाली कुर्सी पर बैठ गयी। कोरे कागज पर मन की व्यथा शब्दाकार लेने लगी।

मेरे बेटे !

शायद तुम्हें मेरे शब्द से आपत्ति हो, क्योंकि तुम्हें हमेशा लगता है कि मैंने तुम्हें अपना बेटा नहीं समझा। तुम्हारी इस समझ पर मैं हँसू या रोऊँ, समझ में नहीं आता ।तुम एक माँ के बारे में ऐसा सोच भी कैसे सकते हो ? यह सच है कि मैं तुम्हें हमेशा अपने पास नहीं रख सकी। नहीं रखना चाहा होगा क्या ! सात वर्ष की उम्र तक रात-दिन तुम मेरे पास रहे। एक पल के लिए भी तुम्हें आँखों से ओझल न होने दियाफिर नियति के क्रूर हाथ तुम्हें मुझसे छीन ले गए। वर्षों रात-दिन तुम्हारे लिए रोती रही, तड़पती रही। एक भी इंसानी हाथ मेरी मदद को आगे ना बढ़ा। किसी ने भी मेरे बारे में ना सोचा| मझधार में डोलती नाव की तरह डरी हुई थी मैं| किनारे दूर थे और चारों तरफ तूफान के अंदेशे थे। ऐसे में अपने अस्तित्व का ही खतरा था, इसलिए उसे ही बचाने की जद्दोजहद में लग गई। जब एक किनारे आ लगी तो पता चला तुम तन-मन से नदी के दूसरे किनारे हो। दोनों के भीतर एक ही पानी था| एक ही प्यास थी पर मिलना आसान ना था। सत्रह वर्ष बाद तुम्हारी धार मेरे किनारे से टकराई| हम मिले, प्रसन्न हुए कि फिर तूफान तुम्हें दूसरी छोर ले गया। मैं असहाय सी तुम्हें देखती रही। ऐसा कई बार हुआ। तुम आते.. चले जाते। हर बार लगता कि वक्त ने जो दूरी पैदा किया है, वह कभी नहीं भर सकती। तुम मुझे समझने को तैयार नहीं थे और कहते थे कि मैं तुम्हें गलत समझती हूँ| प्यार नहीं करती| हाँ, मैं पारम्परिक माँ की तरह नहीं थी, जिसका अपना अलग ना व्यक्तित्व होता है ना अस्तित्व।पर थी तो एक माँ ही। तुम मेरी हर बात को काट देते या उसका मजाक बनाते। जब अवसर मिलता मुझे अपमानित करने से नहीं चूकते। मेरे पास आते ही ऊबने लगते। तुम ना भी कहते तो भी तुम्हारी देह-भाषा से मेरे प्रति उपेक्षा व घृणा प्रकट होती रहती| मैं भीतर ही भीतर तिलमिलाकर रह जाती। एक बार जब मैंने इस बात की शिकायत की, तो तुमने बेरूखी से कहा कि -आपको गलतफहमी है| मैं जानबूझकर ऐसा नहीं करता।मैं जानती हूँ कि तुम बहुत कुछ जानबूझकर नहीं कहते या करते। तुम्हारे पिता का संस्कार, उनका रक्त, उनकी दी शिक्षा, उनके विचार तुम्हारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुके हैं। तुम उन्हीं की तरह सोचने लगे हो, जबकि तुम इस बात से इन्कार करते हो। खुद को पिता से ज्यादा प्रगतिशील, आधुनिक और प्रयोगवादी बताते हो, पर मैं हमेशा उन्हें तुम पर लदा पाती हूँ। तुम इसे अपने प्रति अन्याय और पिता के प्रति मेरा पूर्वाग्रह मानते हो। पिता ने तुम्हें जो कहानी बचपन से सुनाई है, वह तुम्हारे दिल-दिमाग पर इस तरह हॉवी है कि तुम्हारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुकी है।मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ तब होती है, जब मुझे तुम्हें अपनी बेगुनाही का सबूत देना पड़ता है। तुम मुझपर भरोसा नहीं करते, तो मैं भी सफाई क्यों दूँ ? क्या बेटे का अपनापन, प्यार, विश्वास या साथ पाने के लिए हर माँ को इस अग्नि -परीक्षा से गुजरना पड़ता है। मेरी बहनें, माँ सभी कहती हैं कि मैं तुम लोगों की तरफ खुद कदम बढ़ाऊँ। धीरे-धीरे तुम लोगों के मन से अपनी खराब छवि को मिटाऊँ, सफाई दूँ। मैं सोचती हूँ-ऐसा क्यों ? मैंने किया ही क्या है ! राम को तो खैर जाने दें, वह तो महज पाँच साल का बच्चा था, जब उसे मुझसे अलग कर दिया गया था। फिर उसकी परवरिश ही मेरी खिलाफत से हुई। मेरी गलत इमेज उसके मन में बैठाई गई। गलत इमेज यानी एक महत्वाकांक्षी स्त्री की इमेज ! एक ऐसी स्त्री, जो अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए पति-बच्चों तक का परित्याग कर देती है। क्या यह सच था? घरेलू हिंसा से बचने और पढ़ाई पूरी कर आत्मनिर्भर बनने के लिए ही तो मैंने बगावत की थी, वह भी तुम बच्चों के लिए । अलग तो तुम्हारे पिता ने किया। उन्होंने तुम लोगों को माँ के प्यार से महरूम किया फिर भी तुम लोगों के लिए वे भगवान हैं। काश, तुम लोग जान सकते कि बच्चे माँ के लिए आक्सीजन की तरह होते हैं। तुम लोगों के बिना मेरी साँसें किस तरह घुटती रहीं यह नहीं बता सकती।चलो वे पुरानी बातें हुईं पर तुम्हारे पिता आज भी तुम्हें भड़काते हैं कि बीबी-बच्चे के साथ मेरे घर न रहना। मुझे क्रोध आता है इस बात पर, पर मैं इतना तो समझती हूँ | आज भी उनका आहत पुरूषार्थ इस बात पर तिलमिलाता है कि मैंने उन्हें छोड़ दिया था... ।