Suljhe Ansuljhe - 17 in Hindi Moral Stories by Pragati Gupta books and stories PDF | सुलझे...अनसुलझे - 17

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सुलझे...अनसुलझे - 17

सुलझे...अनसुलझे

बेशकीमती रिश्ते

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‘छोटे बच्चों को मनाना कितना आसान होता है न मैडम| ज्यों-ज्यों ये बच्चे बड़े होते जाते है, उतना ही इनको मनाना मुश्किल का सबब बनता जाता है। आपको एक बात बताऊँ....मेरा बेटा राहुल जब छोटा था उसको हर बात मुझ से साझा करनी होती थी। स्कूल से घर आते ही बैग को एक तरफ डाल देता था| फिर स्कूल की प्रार्थना की घंटी बजने से लेकर उसकी बातों का सिलसिला शुरू होता तो छुट्टी की घंटी बजने तक हर क्लास हर दोस्त से क्या-क्या बातें हुईं सब बताता था|...

राहुल कोशिश करता था कि एक ही साँस में वह सभी बातें बोलता जाए| ऐसे में मुझ से अपेक्षा करता था कि मैं चुपचाप उसकी हर बात सुनकर अपनी प्रतिक्रिया दूँ। बहुत तसल्ली से सुनती थी उसकी बातों को| कभी-कभी उसकी शैतानियों पर डांट भी लगाती थी....ताकि अगली बार ऐसी कोई गलती न करे।...

मैडम! आपको एक बात बताती हूँ| तब राहुल झट से प्रॉमिस कर अपनी गलती को सुधारने की कोशिश करता था। जितना डांटती उतना ही मेरे से चिपककर आगे कोई गलती न करने के आश्वासन दे देता था। मेरी डांट बहुत जल्दी भूल जाता था| पर जैसे-जैसे मेरा बेटा बड़ा होता गया....इसके नाराज़ होने के अंतराल बढ़ते गए| जब तक बच्चा था झट मना लेती थी उसको।....

स्कूल पूरा होने तक इसका गुस्सा कुछ घंटों में ही उतर जाता था| कॉलेज पहुँचने पर गुस्सा उतरने के घंटो की अवधि लगभग पूरा दिन होने लगी| नौकरी के बाद तो कई-कई दिन बात नही करता। सच कहूँ तो अब कई बार मुझे उसके नाराज़ होने की वज़ह भी पता नही होती और मुझे उसको मनाने का मौका भी कभी नही मिलता।....

आजकल मेरी बढ़ती उम्र और उसकी अपनी व्यस्तताओं के बीच...वो शायद बहुत परिपक्क हो चुका है| उसको अपनी ज़िम्मेवारिओ की पूरी समझ है| तभी संतुलन बनाने के लिए वह मेरी नाराज़गी पर कुछ बोलता नहीं है...कभी जवाब नहीं देता| मेरे प्रति कर्तव्यों की पूर्ति में कही कमी नही होती। पर उसका कुछ भी साझा न करना मुझे बहुत अखरता है|....

दरअसल मुझे लगता है औरत की दुनिया उसके परिवार और बच्चों में इतनी सिमटी हुई होती है कि वो बच्चों के चेहरे की खुशियों को अपना जीवन मान कर जीती है। अब मैं समझ ही नही पाती हूँ....कैसे किस बात का हल निकालूं। बहुत समझदार समझती थी ख़ुद को पर अब तो उलझ कर रह जाती हूँ।‘

मिसेज कपूर को लगातार सुनकर मैं भी उनकी बातों में खो गई थी। जैसे ही उन्होंने चुप्पी साधी एक प्रश्नचिन्ह उनकी आँखों में नमी के साथ तैरने लगा। अपने आपको को संयत कर, मैंने मिसेज कपूर को शांत करने के हिसाब से उनको चाय का पूछ लिया..

‘आप चाय या कॉफ़ी कुछ पीयेगी मिसेस कपूर।‘

‘हाँ पी लूँगी|...आपको पता है मैडम एक अरसा हो गया है...राहुल को मेरे से बहुत अपनी-सी बातें किये हुए। जबकि हम अक्सर ही साथ खाना खाते है। कुछ ज़रूरी बातों के सिवाय हमारे बीच संवाद करने की स्थिति ही नही बनती। दरअसल बढ़ती उम्र के साथ मैं शायद आज भी राहुल के बचपन में जीती हूँ| उसके बचपन की आदतों से, मैं निकल ही नही पाई हूँ|....

जब राहुल आठ साल का था तब इसके पिता का देहावसान हो गया| मैंने अकेले ही इसको पाला| जिसकी वजह से मैंने इसको अपनी दुनिया बना लिया। मेरी तो आज भी राहुल ही दुनिया है| पर इसकी दुनिया बहुत बड़ी हो गई है| होनी भी चाहिए क्योंकि इसके पास आगे बहुत कुछ करने के लिए है| पर मैं समझदार होकर भी इतनी नासमझ बन जाऊँगी सोच नही पाती|’….मिसेज कपूर ने अब चुप होकर किसी सुझाव की उम्मीद से मुझे देखना शुरू कर दिया था|

आज पहली बार मिसेस कपूर मेरे क्लिनिक में आई थी| उनका इस तरह अचानक ही बातें शुरू करना मुझे अचंभित कर रहा था|

दरसल किसी मरीज़ का मुझे अकेले देखकर बग़ैर मुझ से इज़ाज़त लिए बोलते जाना और मेरा शांत मन से उसको सिर्फ सुनना, मुझे भी किंकर्तव्यविमूढ़ कर रहा था। पर कोई भी स्त्री ऐसा करती है तो गौर करना जरूरी भी था| मिसेस कपूर देखने में काफ़ी पढ़ी-लिखी समझदार स्त्री नज़र या रही थी| इस बात का अंदेशा मुझे उनकी बातों से हो गया था|

पर उनकी बातों और भावों से साफ़- साफ़ पता चल रहा था कि वो चाहते न चाहते हुए धीरे-धीरे किसी अवसाद की चपेट में हैं या आ रही है। उनको इस समय अगर इस तरह की सोच से हटाया नही गया तो भविष्य में एक पढ़ी-लिखी समझदार स्त्री की मानसिक स्थिति पर प्रभाव पड़ सकता था।

इन महिला के साथ सबसे अच्छी बात यह थी कि उनको पता था कि उनकी सोच उन पर हावी हो रही है| वह उससे निकलना भी चाहती थी। बाज़दफ़ा तो महिलाएं स्वमं को ही सही मानकर बच्चों पर आरोप लगाने से नही चूकती। उनकी सभी बातें सुनने के बाद मैंने मिसेस कपूर को बाहर ही बैठने को कहा और उनके बेटे को अंदर बुलाया| वो भी मुझे उनकी ही तरह बहुत संतुलित व्यवहार का महसूस हुआ।

फिर मैंने मिसेस कपूर के बेटे से नाम व नौकरी जैसी सामान्य बातों से अपनी बात शुरू की और उससे पूछा...

‘तुम मां के नाराज़गी प्रकट करने पर....कई दिन तक नही बोलते हो क्या राहुल ?’

मेरी बात सुनकर वह बहुत सादगी से बोला...

‘नही ऐसा नही है मैम| प्राइवेट फर्म में काम करने से मेरी अत्याधिक व्यस्तता रहती है| उनको समय न देने की वजह से मुझ डांट पड़ती रहती है| समय की अल्पता ही सारी परेशानियों की वजह है| मेरा जवाब न देना उनको बहुत व्यथित कर देता है| आप तो जानती ही हैं....माँ अब उस उम्र में हैं कि अगर मैं माँ को कुछ भी समझाऊँगा तो हो सकता है उनको आहत करे| सो चुप रहकर उनके ठीक होने का इंतज़ार करता हूँ| पर माँ समझती है मैं नाराज़ हूँ। फिर भी अगर मैं गलत हूँ तो मुझे भी बताइये। मैं सुधार करूंगा|’

मेरे जीवन काल में कॉउंसिललिंग का पहला केस था जिसमें दोनों के ही मन में दोनों की खुशियों की प्राथमिकताएं थी| बस समयाभाव की वजह से दोनों के बीच रिक्त-स्थान भरने की कड़ी खो गई थी| मेरा काम बस उस कड़ी को बेटे के हाथ में थमाना था| बेटा समयाभाव की वजह से माँ की भावनाएं आहत न हो, समाधान खोजने में असमर्थ था|

साथ ही यह भी सच है कि कई बार हमको किसी तीसरे व्यक्ति का समझाया हुआ कुछ ज्यादा अच्छे से समझ आता है। सो बस कुछ दिन थोड़ा-थोड़ा समय देकर मैंने दोनों के बीच उन छोटी- छोटी बातों से, उस अदृश्य से तार को पुनः बांध दिया, , जिनकी कड़ियां गुम हो रही थी।

समय परिस्थिति कैसी भी हो हमेशा हम सभी को खुले मन से एक दूजे की बातों को स्वीकार करके जगह देने की कोशिशें करनी चाहिए। रिश्ते बेशकीमती होते है| उनके लिए हमेशा मन में सैकड़ों गुंजाइशें रखकर उनकी बेतहरी के लिए जतन करते रहना बहुत जरूरी है। दिल से जुड़े रिश्ते रेशम के धागों से बंधे होते है| उनकी कीमतें और देखभाल हमें स्वमं से ज्यादा करनी होती है।सोचकर जरूर देखिएगा .....

प्रगति गुप्ता