Lahrata Chand - 28 in Hindi Moral Stories by Lata Tejeswar renuka books and stories PDF | लहराता चाँद - 28

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लहराता चाँद - 28

लहराता चाँद

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

  • 28
  • कुछ महीने बीत गए। अनन्या अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गई। अवन्तिका के कॉलेज में आखिरी साल भी खत्म हो चुका था। महुआ को 18 महीने कैद की सज़ा सुनाई गई। संजय अपने जीवन में फिर से व्यस्त हो गए। सूफी साहिल और शैलजा ने एक नयी जीवन की शुरुवात की। उन्हें खुद को सँभालने और फिर से अभिनव के बिना जीवन को पटरी पर लाने में कई महीने लग गए। जरूरत पड़ने पर अनन्या उनका ख्याल रखती। घर छोड़कर जाने के बाद उन्होंने अभिनव के बारे में कोई खबर जानने की कोशिश नहीं की। कई दिनों तक सूफी को सँभालना मुश्किल था। उसका मनोबल डगमगा गया था। बचपन से कुमारी और कुमारी से युवती का परिवर्तन का समय एक लड़की के जीवन का बड़ा नाजुक पड़ाव होता है। कई सारे प्रश्न कई संदेह से घिरे मन को माता-पिता के दिलासे की जरूरत होती है। घर की स्थिति शरीरिक बदलाव और मानसिक तनाव से गुजरते इसका असर उसकी परीक्षा परिणाम पर दिखा। हमेशा श्रेणी में पहली आनेवाली सूफी इस बार परीक्षा में बहुत कम मार्क में पास हुई। बेटियों को अपने पिता से ज्यादा लगाव होता है। सूफी भी जन्म से माँ से ज्यादा अपने पिता की लाड़ली रही है। चाहे मन में उनकी हरकत की वजह से दुःख हो लेकिन वह अपने पिता से दूरी नहीं चाही। इसके वजह से उसके मन में पिता के प्रति निराशा बढ़ने लगा।
  • साहिल के लिए सूफी और माँ शैलजा को सँभालना मुश्किल था। जिंदगी के एक नए चैप्टर को उन्हें जीना था। शैलजा के जीवन में एक सूनापन घर कर लिया। वह अभिनव की इस हरकत के लिए खुद को दोषी समझने लगी थी। 'कहीं तो चूक हो गई मुझसे, नहीं तो वह ऐसा क्यों करते?' यही सोच उसे खाए जा रही थी। वह धीरे-धीरे डिप्रेशन का शिकार होने लगी। लेकिन मानव की बदलती मानसिकता को कौन कैसे बदल सकता है। प्रेम का प्रथम अध्याय केरल में मासूम शैलजा से शुरू हुआ था। शादी के कई साल बाद उनके जीवन में नीलिमा का प्रवेश कैसे हुआ कब हुआ शैलजा को पता ही नहीं चला। अभिनव को मानव के नैतिक मूल्यों का पता है। दो बच्चों का बाप होकर उसका किसी पराई स्त्री से प्रेम सम्बंध स्थापित करना शैलजा के लिए अपमान से कम नहीं था। वह दिन व दिन अपने ही ख्यालों में खोने लगी। घर से बाहर निकलने से परहेज करने लगी। कभी अगर मन करे तो मंदिर में बहुत देर तक बैठी रहती।
  • माँ अम्बे का मंदिर शहर के मध्य होते हुए भी शांतिपूर्ण था। मंदिर के लंबा-चौड़ा प्रांगण, शहर के शोर शराबा छू नहीं पा रहा था। शैलजा की दैवभक्ति ही उसका मनोबल थी। वह हर शुक्रवार को माँ के मंदिर चली आती। कुछ समय उस मंदिर में बैठकर मन के तनाव से दूर महसूस करती। एक दिन ऐसे ही वह मंदिर के प्रांगण में बैठे अपने सवालों का जवाब ढूँढ रही थी। जब मन किंचित शांत हुआ वह उठकर घर लौटने को गेट के पास पहुँची अभिनव मंदिर के सीढ़ियों पर मिला। अभिनव को देखकर शैलजा रुक गई। अभिनव को पता था कि शैलजा हर शुक्रवार को माता जी की दर्शन करने मंदिर आती है। वह, शैलजा से बात करने का यही सही समय समझा क्यों कि घर में बच्चों के बीच कुछ कहने की हिम्मत उसमें नहीं थी। उस दिन सुबह ही शैलजा से मंदिर में मिलने का निश्चय किया। शैलजा उसे देखते ही अपना रास्ता बदलने को कोशिश की। मगर अभिनव उसके सामने आ खड़ा हुआ, "शैलजा।"
  • शैलजा खड़ी हो गई।
  • - कैसी हो? बच्चे कैसे हैं?"
  • शैलजा ने उससे मुँह फेर लिया।
  • - शैलजा मैं तुम सब से दूर हूँ लेकिन आप सब के बारे में जानने का हक़ है मुझे, आखिर मैं उनका पिता हूँ।
  • - नहीं, आप उस अधिकार खो चुके हो अभिनव। आप को हमारे बारे में जानने का कोई हक़ नहीं रहा। अब मुझे अपने रास्ते जाने दीजिए।
  • अभिनव ने कहा, "रुक जाओ शैलजा तुम से बात करनी है।"
  • - अभी बात करने को कुछ बचा है? शैलजा ने उसकी तरफ उदासीन नज़र से देखा।
  • - कुछ बात थी ... घर में बच्चे होंगे इसलिए यहाँ मिलना ठीक समझा।"
  • - जल्दी कहिए" शैलजा ने कहा।
  • शैलजा तुम्हें सब पता है, "नीलिमा यानि वो, ... वो... " चुप हो गया। शैलजा से सीधा नज़र मिलाने की हिम्मत नहीं थी अभिनव में। पहले जब भी शैलजा अभिनव की ओर देखती उसके नज़र में गर्व और दर्प दिखता था। आज उसकी नज़र शर्मिंदगी से झुकी हुई है। उसका दर्प दंभ चूर-चूर हो चुका है।
  • - शैलजा, कुछ कागजात पर तुम्हारी दस्तखत चाहिए थी।
  • - कैसी कागजात?
  • - डिवोर्स पेपर। नीलिमा और मैं रजिस्टर मैरिज करने का फैसला लिया है अगर तुम डाइवोर्स के पेपर पर दस्तखत कर दो तो हम शादी कर सकते हैं। शैलजा जैसे पत्थर सी बन गई। उसके शरीर ने हिलने से इनकार कर दिया था। वह पाषाण की तरह खड़े सुन रही थी।
  • अभिनव अपनी अंदाज़ में कहते जा रहा था, "बहुत दिनों से तुम्हें कहने की कोशिश कर रहा था पर कह नहीं पाया। डर था कि न जाने तुम इस बात को कैसे लोगी। मुझे गलत मत समझना शैलजा तुम जो कहोगी देने को तैयार हूँ। सूफ़ी की शादी का पूरा खर्च मैं उठाऊंगा। साहिल भी पढ़ना चाहे तो उसके नाम रुपये बैंक में जमा करवा दूँगा। तुम पूरी जिंदगी सुख सुविधा से रह सको ऐसे इंतज़ाम कर दूंगा। घर तुम्हारे नाम से रहेगा। हर महीने तुम्हारे खर्चे के लिए पैसे भी मिल जाए उतना रकम बैंक में जमा करवा दूँगा। तुमको कोई चिंता करने की जरूरत नहीं। सब कुछ मैं सँभाल लूँगा।" जब तक उसकी बात खत्म हुई शैलजा खुदको सँभाल लिया था। उसको पता था कि एक दिन यह बात भी आयेगी जरूर पर इतनी जल्दी यह नहीं सोचा था।
  • - वाह! क्या बात है वाह! जोर-जोर से ताली बजाते हुए कहा शैलजा ने। वैसे इसके बदले मुझे क्या करना होगा अभिनव? बताओ, तुम्हें तलाक चाहिए, अगर मैने मना कर दी तो क्या करोगे? बहुत कच्चे सौदागर निकले तुम, अभिनव। अगर तुम सिर्फ कागज़ पर दस्तखत करने को कहते शायद कर ही देती लेकिन जब सौदा करने पर उतर आये हो तो बताओ मुझे क्या करना है?" शैलजा व्यंग भरी आवाज़ से बोली।

    - शैलजा..

  • - इन् तलाक के पेपर पर दस्तखत ही तो करना है, ठीक है, तुम अगर यही चाहते हो दस्तखत कर दूँगी। अगर तुम मेरे लिए इतना कुछ कर सकते हो तो क्या मैं बस एक दस्तखत नहीं कर सकती। लेकिन शादी से पहले और बाद में आज तक तुम्हें प्यार जो किया है अभिनव उसकी कीमत क्या दोगे? आज तक तुम्हें बच्चों का सुख दिया उसकी कीमत क्या होगी? मेरी जिंदगी का हर पल तुम्हें दिया है, मैंने अपने लिए कभी कुछ नहीं बचाया। बच्चों के लिए, तुम्हारे लिए नौकरी छोड़ दी उसके लिए क्या दोगे? बहुत बड़े व्यापारी बन चुके हो अभिनव इस प्यार की कीमत कैसे अदा करोगे? कीमत तुम क्या दोगे अभिनव तुम तो याचक बनकर आये हो, तुम्हें तलाक चाहिए न.. लाओ पेपर कहाँ दस्तखत करना है?" शैलजा जब बात खत्म करके जब वह पीछे मुड़ी तब तक अभिनव शर्मिन्दगी से दूर चला गया था।
  • शैलजा के प्रश्नों के उत्तर उसके पास थे ही नहीं फिर किस प्रकार उससे नज़र मिला सकता था। शैलजा बहुत देर तक उसके जाने की ओर देखती रह गई। उसकी सीने में आग धधक रही थी। उसके दिल पर अभिनव की बातें प्रहार करने लगी थी। उसकी आँखों में आँसू नहीं थे। अपमान का बोझ दिल में लिए पैरों को घसीटते हुए घर की ओर निकल पड़ी। निराशा निस्पृहा ने उसके मन में घर कर लिया था।
  • ###
  • शैलजा घर में कदम रखते ही सोफ़े पर बैठ गई। साहिल अपने ऑफिस के लिए निकल चुका था। घर पर सूफी अकेली थी। वह अपनी पढ़ाई खत्मकर नौकरी करने के लिए तैयारी कर रही थी। कई जगह प्रस्ताव भेजी और कई जगह इंटरव्यू दे चुकी थी। कुछ उसको पसंद नहीं आती, तो कुछ उसके विषय से अलग होते। अगर पसंद आती भी है तो कुछ घर से बहुत दूर, आने जाने में परेशानी। ऐसे में किसी न किसी वजह से निराशा ही हाथ लगती। पर वह हिम्मत नहीं हारी। अपनी कोशिशें जारी रखी। अखबार में और ऑनलाइन नौकरियों के लिए भी प्रयास जारी रखा। जब वह अखबार लेने बैठक में आई शैलजा को अनमने बैठे देखा। कई बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोली। सूफी अखबार ले कर ऊपर अपने कमरे में चली गई।
  • सूफी ने तुरन्त साहिल को फ़ोनकर शैलजा के बारे में बताया। माँ के बारे में जानकर वह परेशान हो गया। उसने शैलजा को फ़ोन लगाया पर शैलजा फ़ोन नहीं उठाई। कुछ दिनों से साहिल अपनी माँ के मन मे पनपते दर्द को और उसमें डिप्रेशन का साया साफ देख पा रहा था। आज उनकी हालत कुछ ज्यादा महसूस किया। उसने ऑफिस से इजाजत लेकर घर पहुँचा। शैलजा अनमने मन से खाना परोसने लगी। शैलजा की आवाज़ से उसकी बातों में उदासी को वह पहचान लिया।
  • - माँ आज शाम को तैयार हो जाओ अंजली आँटी के पास चलते हैं।" टेबल पर खाना खाते हुए कहा। शैलजा की मानसिक व्यवस्था को आँकते हुए उसने अंजली से अपॉइंटमेंट ले ली थी।
  • - अंजली आँटी?
  • - हाँ, माँ उनके पास ही चलते हैं।
  • - लेकिन क्यों कोई फंक्शन है ?
  • - नहीं माँ मैने कहा था आप को लेकर आऊँगा। इसलिए।
  • - लेकिन साहिल...
  • - माँ! लेकिन वेकिन कुछ नहीं आज शाम को चलते हैं।
  • शाम को ऑफिस से जल्दी लौट आया और शैलजा को अपने बाइक के पीछे बैठाकर अंजली के क्लीनिक की ओर चल दिया। रास्ते में साहिल ने पूछा, "माँ आप को बाइक पर बैठने में असहज महसूस होता होगा ना? पहले कभी इस पर नहीं बैठी और मेरे पास यह बाइक ही है।
  • - तू अगर इतने प्यार से मुझे ले जाता है तो साइकल हो तो भी मुझे खुशी होगी बेटा।
  • - माँ देखना बहुत जल्द बड़ी गाड़ी खरीदूँगा, और हम सब लॉन्ग ड्राइव पर चलेंगे।
  • - बहुत अच्छा, इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। पर बेटा याद रखना अगर भगवान को प्रसाद चढ़ा रहा हो तो भगवान कभी ये नहीं देखता की क्वांटिटी कितना है या कितना महँगा भोग चढ़ाया है, वह पेड़ा है लड्डू है या शक्कर। वह तो सिर्फ तेरे मन की श्रद्धा को ही आँकता है।
  • - हाँ माँ सच कहा आपने प्रसाद कितना भी अच्छा ही क्यों न चढ़ाओ अगर मन में श्रद्धा न हो तो हमारे परिवार के जैसा स्वादहीन ही हो जाता है।
  • - हमारे परिवार जैसा मतलब समझी नहीं?
  • - यही माँ, डैड ने तो हमें सब कुछ दिया है, पैसों से मिलने वाली हर चीज़ लेकिन उसमें श्रद्धा यानी प्यार नहीं था न माँ।
  • शैलजा चुपचाप सिर हिलाने के अलावा कुछ नहीं कह सकी।
  • - लो माँ हम आ गए। बाइक को साइड करते हुए कहा। शैलजा ने बाइक से उतरकर इधर-उधर देखा। सामने डॉ अंजली (मनोचिकित्सक, M.D) की बोर्ड लगी हुई थी।
  • - अरे साहिल ये तो डिस्पेंसरी है बेटा। तुमने तो मिलने जाने को कहा था।
  • - हाँ माँ कहीं भी मिले क्या खराबी है? चलिए।" कहकर आगे बढ़ने लगा। अब शैलजा के पास और कोई चारा नहीं था। दोनों अंदर बैठकर इंतज़ार करने लगे।
  • कुछ समय बाद शैलजा का नंबर बुलाया गया। दोनों अंदर गए। अंजली शैलजा को देखकर "अरे आप यहाँ कैसे? कहकर स्वागत किर बैठने को कहा।
  • - बड़ा अजीब लगता है जब कोई अपना इस तरह मिलते हैं मेरा मतलब क्लिनिक से है, मैं तो चाहती हूँ कि मेरे अपनों को अस्पताल में मिलने की जरूरत ही न पड़े।
  • - हाँ बहुत अच्छी बात कही आपने। अपनों को अस्पताल में देखना कष्टदायक होता है। लेकिन क्या करें शरीर है, जब तकलीफें बढ़ती है भगवान की याद तो आनी ही है। शैलजा ने मुस्कुरा कर कहा।
  • - बताइए कैसी हैं आप? क्या तकलीफ़ है?
  • - सच कहूँ तो यहाँ पहुँचने तक मुझे पता नहीं था कि साहिल मुझे यहाँ लेकर आ रहा है।
  • - हाँ आँटी माँ तो बताएगी नहीं बस मन ही मन में घुटती रहेगी। हम से भी कुछ कहेगी नहीं। इसलिए आप के पास ले आया कि आप ही पूछिए कि बात क्या है और माँ क्यों दिन व दिन मानसिक तनाव से गुजर रही है। साहिल को माँ कि हालत बरदाश्त नहीं हो रही थी।
  • - साहिल! बेटा कैसी बात कर रहे हो? शैलजा ने साहिल के कंधे पर हाथ रख कर पूछा।
  • - शैलजा जी ये क्या सुन रही हूँ मैं? क्या यह सच है? लेकिन अवन्तिका के जन्म दिन पर आप दोनों साथ आये थे। कहीं भी मुझे ऐसे नहीं लगा कि आप दोनों के बीच तनाव चल रहा है।
  • - शैलजा सिर झुकाते हुए कहा, अभिनव अब हमारे साथ नहीं रहते।
  • - इसमें आप को सिर झुकाने की जरूरत नहीं है शैलजाजी, सिर तो उन्हें झुकाना चाहिये जो इतनी प्यारी पत्नी और बच्चों को नकार कर चले गए।
  • - हाँ आँटी यही बात है जो मैं समझना चाहता हूँ पर माँ है कि समझती नहीं। कई सारी बातें हैं जो मेरी माँ को अंदर ही अंदर दुःखी कर रही है। इसी चिंता में खुद को तकलीफ पहुँचा रही है। मुझे डर है कि कहीं डिप्रेशन का शिकार न बन जाए। आप समझाइए ना प्लीज कि इसमें माँ की कोई गलती नहीं है। साहिल ने अपने पिता के बारे में और इन दिनों घर मे बिगड़े हालात को बताकर शैलजा की और देखा।
  • साहिल को बाहर बैठने को कह कर अंजली शैलजा से बातचीत की। कुछ समय बाद अंजली से बिदा ले कर वे वहाँ से वापस लौट आये। लौटते वक्त शैलजा के चेहरे पर तनाव कुछ कम नज़र आ रहा था।👍👍👍👍