इन कहानियों की कहानी
कहानी को समझने के लिए जीवन को समझना आवश्यक है। जीवन जितना कोमल और सख्त होता है, कहानी का रूप-स्वरूप भी करीब-करीब ऐसा ही होता है। कहानी पाठक को अपने से जोड़ती है। कहानी से जुड़ने के बाद पाठक रचनाकार के साथ जुड़ना चाहता है। कहानी के उपजने के श्रोत ढूंढना चाहता है। कहानीकार, जिस जमीन के साथ जुड़ा है, उस जमीन को जानना चाहता है। कहानीकार की जमीन निजी भी हो सकती है और सार्वजनिक भी।
इस संकलन की कहानियों में ये दोनों बातें समावेशित हैं। इन कहानियों के पात्र परम्परागत रूढ़ियों और आर्थिक अभावों से जूझते हुए आम आदमी हैं। इन आम आदमियों में मौजी चमार भी हैं, काशीराम कड़ेरा भी है, शम्मा धानुक भी है, बैजू नाई भी है और पलुआ कुम्हार भी है। सबके सब विवश हैं और यही विवशता कहानियों की रचना के लिए अनुभूतियां प्रदान कर रही है।
अनुभूति रचना में प्राण फूंक देती है। सहानभूति, पीड़ा और व्यथा को शब्दों में ढालती है। ऐसे अवसरों पर संकटों में से उबरती हुई मानवता जनबल बन जाती है। इन कहानियों में सामान्य व्यक्ति के बहाने जो समाज आया है उस समाज को बड़े उठने नहीं देते हैं। कभी खोड़ के राजा, कभी चौधरी रामनाथ, कभी अमीन रामनारायण और कभी सरपंच गजराज सिंह रूप बदल-बदल के गाँव को बिगाड़ रहे हैं, भिड़ाऊ और खुशामदी वातावरण को पनपा रहे हैं।
इसी से दाव धौंस में न आने वाला पलुआ कुम्हार बेसहारा हो जाता है। विधवा शान्ति चुप हो जाती है। शम्मा धानुक तिल-तिल छीजता रहता है, और पलुआ कुम्हार की दस बीघा जमीन हड़प ली जाती है।
इन कहानियों में रोटी का स्तर समान है। गरीबी और अज्ञानता है। श्रम बेसहारा है, उस पर शोशण की पकड़ मजबूत है, फिर भी इन सामान्य जनों में एकजुट होने की ललक दिखलाई देती है ‘एक डार‘ के अन्तर्गत वातावरण जितना जीवन्त हुआ है, उतना ही ‘स्लेट-बत्ती‘ में निर्बल है। शब्द और अर्थ इन कहानियों में शरीर और आत्मा की तरह मिलते हैं।
‘जब-जब धन्नो गुस्से में आती है उसके माथे पर लगा लाल झब्ब्ल बूंदा आग के गोले-सा अलग चमकने लगता है।‘ शोषण के खिलाफ संघर्ष करने वाले इन कहानियों के सामान्य पात्र गुस्सा नहीं हो पाते। यह विवशता खटकती है। यही विवशता उन्हें संघर्ष करने के लिए एकजुट करती है।
इस संकलन की कहानियों में अकेली कल्पना नहीं है, सत्य भी है और रचना में सत्य का होना जरूरी है। सत्य को उद्घाटित करने के लिए सामान्य पात्र जन- भाषा का व्यवहार करते हैं। क्षेत्रीय माटी की सौंधी गन्ध वाली बोली में रीझते-खीझते हैं, उराहने देते और विनती करते हैं तथा सब तरफ से विवश होने पर अपने आपको धिक्कारते भी हैं। यही धिक्कार उन्हें संघर्श के लिए प्रेरित करती है। मैं चाहता हूं कि ये कहानियां पढ़ी जावें।?
डॉ. सीता किशोर
प्रेरक कहानी
बच्चों का डर
रामगोपाल भावुक
ठाकुर ब्रजराज सिंह क्षेत्र के उन रहीसों में से थे, जो एसो-आराम को ही जीवन का लक्ष्य मानते थे। जिस चीज पर उनका मन चला जाता था, वह उनकी हो जाती थी।
उनके तीन लड़के व दो लड़कियां थीं। बड़ी लड़की तो सयानी हो रही थी लेकिन इसका ठाकुर साहब के मन पर कोई असर नहीं था। कस्बे में एक वेश्या रहती थी, वे दिन भर उसी के यहां बैठे रहते और शराब के दौर चलते रहते थे। कस्बे में एक प्राथमिक विद्यालय था, उसके शिक्षक परमानन्द जी बच्चों को पढ़ाने उनके घर आया करते थे। ठाकुर साहब की धर्म पत्नी शान्ति अपना यह दुखना शिक्षक जी से व्यक्त कर चुकी थी, लेकिन क्षेत्रभर में ठाकुर साहब से किसी को कुछ कहने की हिम्मत न पड़ती थी।
एक दिन परमानन्द जी बच्चों को पढ़ा रहे थे, उसी समय ब्रजराज सिंह नशे में धुत्त घर लौटे। मास्टर को पढ़ाते हुए देखकर अपना रुतबा प्रदर्शित करने के लिए वे मास्टर जी की तरफ मुड़ गए। उन्हें देखकर परमानन्द ने खड़े होकर ठाकुर साहब को प्रणाम किया। ठाकुर साहब शिक्षक के इस आचरण से प्रसन्न होकर बोले-‘मास्टर बच्चे पढ़ने-लिखने में बड़े कमजोर हैं ये तो हमारा नाम डुबाकर ही मानेंगे।‘
परमानन्द जी यह बात सुनकर तिलमिला गए। हिम्मत करके ठाकुर साहब से बोले-‘और साहब आप कहां से आ रहे हैं ? यह सुनकर ठाकुर साहब ने शराब की तुनक में कहा-‘ठाकुर लोग कहाँ से आते हैं ? अरे मास्टर, प्यार किया तो डरना क्या ?
यह सुनकर परमानन्द दबी जबान से बोले-‘आदमी को कहीं-न-कहीं तो डरना ही पड़ता है।‘ यह सुनकर ठाकुर ब्रजराज सिंह गेहूंऊन सांप की तरह फुफकार उठे, बोले-‘मैं किसी से क्यों डरने लगा। अरे आदमी की तो औकात ही कितनी है, मुझे तो भगवान से भी डर नहीं लगता-सुसरा भगवान।‘ यह सुनकर परमानन्द को मन-ही-मन लगा-‘क्यों इस मूर्ख से उलझ गया। लेकिन उनकी पत्नी का दुःख देखा न गया।
इनसे क्या कहूं ? क्या न कहूं ? इनके मन के विपरीत कुछ भी बात निकल गई तो ये मेरी सारी मास्टरी निकाल देंगे, पर बात तो कुछ कहनी ही थी।‘ वे बात का उत्तर सुनने सिर पर सवार खड़े थे, यह देखकर वह बोले-‘ठाकुर साहब डर तो मुझे भी किसी का नहीं लगता-‘साक्षात यमराज का भी नहीं। अरे वह मार ही तो डालेगा पर, मैं डरता हूं तो इन बाल-गोपालों से।‘ यह सुनकर ठाकुर साहब बोले-‘इनसे क्या डरना ?‘
यह सुनकर परमानन्द दबी जबान से बोले-‘अरे इनसे इसलिए डरता हूं कहीं हमारे आचरण का इनके बाल-मन पर कोई गलत असर न पड़ जाए।‘ यह सुनकर ठाकुर ब्रजराज के मन में एक झटका-सा लगा। उनकी शराब का सारा उल्लास धरती पर आकर छटपटाने लगा। बोले-‘अरे मास्टर इधर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया। कान पकड़कर आपकी बात स्वीकारता हूं।‘
उस दिन से पूरे कस्बे ने देखा था ठाकुर ब्रजराज सिंह एक चरित्रवान व्यक्ति बन गए थे।
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