‘रत्नावली एक अनुभूतिजन्य कृति’
समीक्षक- डॉ. अरुण दुवे प्राध्यापक- हिन्दी
वृन्दासहाय शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय
डबरा, भवभूति नगर जिला ग्वालियर म. प्र.
मो0-9926259900
‘तुलसी, पत्नी का ताना सुनकर घर छोड़कर निकल पड़े।’’ इस वाक्य से शुरू श्री रामगोपाल भावुक जी का उपन्यास ‘रत्नावली’जैसे पूरी उपन्यास के कथानक का पूर्वाभास दे देती है बल्कि मैं तो कहूँगा कि जैसे नाटक में सूत्रधार सम्पूर्ण नाटक के वारे में शुरूआत में ही संकेत दे देता है वैसे ही उपन्यास का पहला वाक्य मानों सम्पूर्ण कथा और आने वाले घटनाक्रमों का संकेत दे देता है। इस तरह कथानक की शुरूआत बहुत अच्छे ढंग से की गई है।
रत्नावली उपन्यास में मुझे एक बात बार- बार प्रशंसनीय लगती है कि रत्नावली में पात्रों के माध्यम से खास तौर से रत्नावली पात्र के रूप में स्वयं लेखक रामगोपाल भावुक जी रत्नावली का चरित्र जीते हुये दिखाई देते हैं। जैसे किसी नाटक के मंचन के समय उसके पात्र उस नाटक के पात्रों को जीने लगते हैं। रत्नावली में भी बार बार ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं भावुक जी रत्नावली में अपने आप को मिलाये हुये हैं बल्कि मैं तो कहूँगा कि उन्होंने रत्नावली के चरित्र को अपने में ही जिया है, अपने को रत्नावली पात्र में एकाकार कर दिया है। यह उपन्यासकार की अपनी बहुत बड़ी विशेषता और सफलता है।
रत्नावली के अलावा, तुलसी, गंगेश्वर, दीनवन्धु पाठकजी, शान्ति काकी केशर वाई,भाभी,मुन्ना-तारापति, पाठकजी के भाई विंदेश्वर, पंण्डित सीताराम चतुर्वेदी, हरको, धन्नो, भागबती आदि पात्रों को रत्नावली उपन्यास में लेखक ने जीवन्त बना दिया है। पात्रों के नाम और उनकी भूमिका के अनुरूप उनका चुनाव अत्यधिक प्रशंसनीय है क्योंकि पात्र जितने घटनानुकूल और भावानुकूल होंगे रचना उतनी ही श्रेष्ठ और सार्थक होगी।
शुरू से लेकर अन्त तक रचनाकार पाठक को बाँधे रखता है और उत्सुकता उसकी हमेशा चरम पर रहती है, देखें अब आगे क्या होने वाला है- इस उत्सुकता को बनाये रखना लेखक की अत्यधिक सफलता है रचना में कहीं भी शिथिलता दिखाई नहीं देती है।
इस रचना में एक बात और उल्लेखनीय है कि हिन्दू-मुश्लिम पात्र भी जो वार्तालाप करते हैं और गंगा-जमुनी तहजीव दिखाई देती है। रत्नावली के प्रति जो करुणा या तड़फ हिन्दू पात्रों में दिखाई देती है उसी प्रकार की तड़फ या संवेदना मुस्लिम पात्रों में दिखाई देती है।। वे भी तुलसी को अत्यन्त श्रेष्ठ दर्जे का आलम (या) फकीर (संत) मानते हैं। बकरीदी भी अपने लड़के रमरान को पढ़ने के लिये रत्नावली के पास भेजती है और अपने समाज का विरोध भी मोल लेती है। किन्तु सत्य की जीत होती है।
रत्नावली के देशकाल वातावरण को देखते हैं तो लगता है जैसे- तुलसीबाबा के जमाने में समाहित हो गये हैं।, साथ ही नवीनता की पैनी धार भी दिखाई देती है वही बोली, वही भाषा, वही वातावरण, वैसे ही संस्कार लगता है जैसे तुलसीबाबा और माँ रत्नावली के साथ-साथ ही चल रहे हैं। यह वातावरण कहीं न कहीं अन्दर तक भारतीय संस्कृति और सभ्यता से जोड़े रखता है और हृदय को उन्नत बनाता है। चित्रकूट-कामदगिरि पर्वत का वर्णन और रत्नावली के साथ साथ ऐसा लगता है कि हम भी चित्रकूट धाम के भ्रमण(यात्रा) हेतु निकले है। यात्रा का भरपूर आनन्द आता है।
रामगोपाल भावुक जी से पहले भी तुलसीदास और रत्नावली पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है किन्तु इस रचना को पढ़कर ऐसा लगता है इसमें कुछ नवीनता है, जो भावप्रवणता, जो आँचलिकता, जो घटना प्रभाव इस रचना में है वह अद्भुत है। रचना को पढ़ते समय हमें पता ही नहीं लगता कि हम छोटे बच्चे की तरह रचनाकार कर उगँली पकड़कर कब रचना प्रगवाह में आगे बढ़ते जाते हैं। रचनाकार को कोटिश वधाइयाँ। शेष शुभ।
पुस्तक- रत्नावली उपन्यास,
लेखक- रामगोपाल भावुक,
प्रकाशक - पराग बुक्स नई दिल्ली
मूल्य- 200 रुपये
समीक्षक- डॉ. अरुण दुवे प्राध्यापक- हिन्दी