Third people - 3 in Hindi Moral Stories by Geetanjali Chatterjee books and stories PDF | तीसरे लोग - 3

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

Categories
Share

तीसरे लोग - 3

3.

डॉ. स्मारक कोठी की छत की मुंडेर पे बैठा एक के बाद एक सिगरेट फूंकता चला जा रहा था। पूर्णिमा का चांद समुंदर की लहरों पर चांदी-सी छटा बिखेर रहा था और उन्मादिनी लहरें किसी जहरीले भुजंग-सी फुंकार मार-मारकर साहिल पर सिर पटकते हुए श्वेत-फेन उगल रही थी। यूं तो चंद्रमा की धवल ज्योतस्ना गहन तमस को चीरते हुए स्फटिक-सी छटा बिखेर रही थी स्याह पृथ्वी पर, लेकिन क्या स्मारक के मन के गहन तिमिर को भेदने कोई आशा की किरण उपजी न थी या फिर उसके जीवन के चंद्रमा को ग्रहण ने सदा के लिए लील लिया था ? अपने मरीज़ों के दिल की धड़कनों को बिना स्टेथोस्कोपे के ही पहचान लेनेवाला स्मारक क्यों आज अपनी धड़कनो के प्रति इतना उदासीन था ? सिगरेट के हर कश के साथ स्वंय को धिक्कार रहा था वह, " छी:-छी: भीषण अन्याय और अपराध हुआ है उससे। एक ऐसा अन्याय, जिसकी कोई क्षमा नहीं। क्यों नहीं समय रहते उसने मां-बाप को बताया ? एक मासूम लड़की का जीवन नष्ट करने का उसे कोई अधिकार न था।"

विवाह के प्रति पुत्र की उदासीनता सेठ चिमनलाल और उसकी स्त्री हंसा बेन के लिए चिंता का विषय बनते जा रहे थे। विवाह योग्य पुत्र से जब भी विवाह की बात छेड़ते, स्मारक टाल जाता। यहां तक की उन्होंने जानने का प्रयत्न किया कि लड़का कहीं किसी दूसरी लड़की या गैर जाती की लड़की के प्रेम में तो नहीं पड़ा, शायद फाल्गुनी के रिश्ते को इसी कारण ठुकरा रहा हो, परंतु ये धारणा भी गलत निकली।

उस दिन स्मारक अस्पताल से जल्दी ही घर चला आया था। सोफे पर बैठकर, आराम से दोनों पांव सेंटर टेबल पर पसारे हुए टीवी का रिमोट हाथ में लेकर चैनल सर्फिंग करते हुए वहीं से चिल्लाया, " नटु काका एक एस्प्रेसो कॉफी और साथ में कुछ खाने को ले के आना जल्दी से, बड़ी भूख लगी है।" अभी लाया नाना सेठ (छोटा सेठ) कहकर 'नटु काका ' घर के पुराने रसोइए ने भीतर से आवाज़ दी। सेठ चिमनलाल भी आज घर पे ही थे। हंसा बेन के इशारों से पति को कहा, " लड़के का मूड अच्छा दिखाई पड़ता है, शादी की बात छोड़ दो।" और पति-पत्नी दोनों स्मारक के नज़दीक आकर बैठ गए। मां ने स्नेह से पुत्र की पीठ को सहलाते हुए पूछा, " सूं दिकरा आजे केवी रीते व्हेला आवी गया ?" (क्यों बेटा आज कैसे जल्दी आ गया ) स्मारक ने बिना टीवी पर से नजर हटाए ही जवाब दिया, " हां बा आजे बहु ओछु पेशंट हतु " ( हां मां ! आज पेशेंट बहुत कम थे ) आगे की बात सेठ चिमनलाल ने शुरू की, " देखो, बेटा ! हर माता-पिता की इच्छा होती है की घर में एक बहु आए। जब तक बहु के पावों की पायल की रुनझुन और बच्चों की आंगन में किलकारियां ना गूंजें, घर, घर नहीं लगता। आखिर फाल्गुनी में कमी क्या है और यदि किसी और लड़की से प्रेम-व्रेम करता है तो बता, मगर कुछ तो बोल। "

" बापूजी आप समझते नहीं। ऐसी कोई बात नहीं है। ये रोज-रोज की शादी, शादी , शादी की रट से तंग आ चूका हूं मैं। आप लोग करिए जो जी में आए, बस ! कहकर स्मारक तमतमाया हुआ बाहर आकर लॉन में टंगे झूले पर बैठ गया। इतनी तल्खी से वह कभी भी अपने माता-पिता से पेश नहीं आया था। बहार की ठंडी बहती हवा से उसका दिमाग ठंडा हुआ तो उसे अपने ऊपर शर्मिंदगी हुई। छी:-छी: किस बदतमीजी से पेश आया वह। क्या यही उसके संस्कारों ने सिखाया उसे छी:। "मन ही मन स्वंय को कोसता हुआ भीतर गया तो देखा पिताजी गालों पर हाथ धरे उदास से बैठे हुए थे।

"आई एम सॉरी बापूजी। अपने बर्ताव के लिए क्षमा चाहता हूं। आप लोग जो चाहते हैं। वही होगा। "

ओ हो हो ! अ रे सुनती हो। लगन की तैयारी शुरू करो, बेटा राजी हो गया और स्मारक को अपने पैसंठ साल के बापूजी में किसी अल्हड़ किशोर का रूप दिखाई दिया। सिर को झटकते हुए मुस्कराकर वह वहां से निकल अपने कमरे में चला आया।

 

ईश्वर भी कभी-कभी हम मनुष्यों के साथ बड़ा ही क्रूर और तिक्त परिहास करता हैं। वेदों-पुराणों के समय से स्त्री और पुरुष परस्पर एक दूसरे के दैहिक और मानसिक पूरक रहे हैं। खुजराहो हो या कोणार्क का मंदिर। ये पाषणा मूर्तियां सृजनता के लिए स्त्री-पुरुष, के दैहिक मिलाप को अद्भुत कलात्मकता के साथ चित्रित करती है। नारी और पुरुष, दोनों को ही एक-दूसरे के मिलन के बिना अधूरा माना जाता रहा है। इसलिए सृजन के कर्म में उन दोनों का सयुंक्त होना अनिवार्य है। अर्द्धनारीश्वर की जो कल्पना हम चित्रित करते है, वह तो प्रत्येक मनुष्य के भीतर छुपी है। एक वह रूप, जो प्रकट है और दूसरा पहलू वह, जो उजागर नहीं होता। स्मारक के साथ भी ईश्वर ने कुछ ऐसा ही 'बायोलॉजिकल बाइंडिंग ' (जीववैज्ञानिक दायित्व) में हेर-फेर की थी। एक सुदर्शन, सुपुरुष व्यक्तित्व के लिए शरीर को जिन अंग-प्रत्यगों की आवश्यकता होती है, वह तमाम संपदा स्मारक के साथ थी, फिर भी उसकी आत्मा,उसकी प्रवृत्ति, पौरुषता को स्वीकारने में अक्षम थी। पंद्रह-सोलह वर्ष की वय: संधि में जब उसके साथ के दूसरे लड़कों के भीतर नारी शरीर के रहस्यों को जानने, खोजने एवं भोगने की प्रबल आकांशा उन्माद की पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है, तब स्मारक को आकृष्ट करती थी पुरुष की ही बलिष्ठ भुजाएं, लोमष छाती।

मेडिकल कॉलेज में उसके साथी लड़के किसी रूपसी छात्र अथवा अप्सरा मरीजा को देखते तो घंटों उस सौंदर्य प्रतिमा का काल्पनिक डिसेक्शन करते। मन के एक्सरे में उसके अवयवों के प्रत्येक उतार-चढ़ाव की फोटो कॉपी उतारते अथवा किसी कामुक चित्रकार या रसप्रिय कवि सा काव्यात्मक वर्णन कर रहे होते, परंतु स्मारक को क्यों उस उम्र में नारी का रूप उत्तेजित करने में अक्षम रहता, वह स्वंय भी कभी-कभी आत्मविश्लेषण करने का प्रयत्न करता तो उसके उदासीन रवैये को देखकर उसके मित्र झल्लाकर कहने लगते, " अरे छोडो, ना यार ! ये तो सारी जिंदगी ब्रह्चारी ही रहनेवाला है। " यू आर ए बिग बोर "।

 

कई बार उसने अपनी कल्पना में किसी उर्वशी में लाकर अपने पौरुष की परीक्षा भी लेनी चाही थी, किंतु हर बार उसकी उत्तेजनाएं शिथिल पड़ जाती, लेकिन किसी पुरुष की खुरदरी हथेलियों का स्पर्श या फिर बलिष्ठ बाहुपाश की कल्पना मात्र से वह उत्तेजित हो उठता। अपने साथ हुए सृष्टि के इस क्रूर परिहास को उसने नियति जानकर चुपचाप स्वीकार तो कर लिया, परंतु चाहकर भी अंतमुर्खी और शर्मीले स्वभाव का स्मारक अपनी भावनाओं को किसी के साथ नहीं बाट सका और यही वजह थी की फाल्गुनी के साथ तय किया गया रिश्ता न तो वह तोड़ पाया और न ही उसका प्रतिवाद कर पाया। सब कुछ भाग्य और समय के सुपुर्द कर स्मारक ने भविष्य में होनेवाली घटनाओं और परिणामों से शायद समझौता कर लिया था। एक मासूम लड़की के साथ होते अन्याय का सबसे बड़ा अपराधी वह स्वंय था, परंतु फाल्गुनी को सब कुछ खुलकर बताने का साहस वह चाहकर भी नहीं कर पाया। अपनों द्वारा और समाज से बहिष्कृत किए जाने का डर और उपहास का पात्र बनने का वहम पाले वह तिल-तिल जलता रहा।