Shigaf - Manisha Kulshrestha in Hindi Book Reviews by राजीव तनेजा books and stories PDF | शिगाफ़- मनीषा कुलश्रेष्ठ

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शिगाफ़- मनीषा कुलश्रेष्ठ

स्मृतियों के धुंधलके सायों को जब कभी अपने ज़हन में मैं बिना किसी पदचाप के उमड़ते घुमड़ते देखता हूँ तो अक्सर पाता हूँ कि कश्मीर की यादें...वहाँ की हर चीज़..हर बात, पहले ही की तरह अपने पूरे जोशोखरोश, उन्माद और सम्मोहन के साथ तरोताज़ा हो...मेरे मानसपटल पर फिर से छा रही है।

जी!...हाँ, वही कश्मीर, जो कभी बॉलीवुड की पुरानी फिल्मों में पूरी शिद्दत के साथ अपने रूमानी अंदाज़ में दिखाई देता था। वही कश्मीर, जिसे बाद में संजय दत्त की फ़िल्म 'लम्हा', जिसमें काफ़ी हद तक प्रमाणिकता के साथ यतार्थ दिखाया गया। वो कश्मीर जो कभी धरती का स्वर्ग कहलाता था लेकिन अब....?

पहली बार बचपन में मुझे पिताजी की कश्मीर में पोस्टिंग के दौरान वहाँ लगभग एक महीने के लिए रहने का मौका मिला। पहलगाम, गुलमर्ग के अलावा डल झील में स्वागत को तैयार खड़ी हाउस बोट्स, झील में तैरते शिकारों पर सैलानियों के उल्लसित स्वरों के साथ साथ चिनार के पेड़ों, वहाँ के हैंडीक्राफ्ट, पश्मीना शालों और कार्पेट्स की यादें अब भी मन मस्तिष्क पर वैसी की वैसी ही बनी हुई हैं। दूसरी बार 1989 में कॉलेज के दौरान मुझे अपने कुछ दोस्तों के साथ वहाँ जाने का मौका मिला। वो आतंकवाद के शुरुआती दिनों या उससे एकदम पहले की बात है। अपनी यादों के हँसते खेलते..बोलते बतियाते कश्मीर की अपेक्षा इस बार के कश्मीर में सड़के, होटल, बाज़ार, झील, हाउसबोट्स और वहाँ के जगप्रसिद्ध बाग...हर तरफ एक अनकहा सूनापन सा तारी था। स्थानीय लोगों में हमारे प्रति अगर तल्खी नहीं तो अपनापन भी नहीं था।

अभी हाल ही में मुझे इसी कश्मीर पर प्रसिद्ध लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ का लिखा उपन्यास "शिगाफ़" पढ़ने का मौका मिला। शिगाफ़ याने के दरार। वो दरार जो अविश्वास के चलते वहाँ से आगज़नी और लूटपाट के बाद धमका कर जबरन मार भगाए गए हिंदुओं और वहाँ के मुसलमानों के दिमाग़ में एक दूसरे के प्रति रच बस गयी है। वो दरार, जो स्थानीय लोगों के मन में भारतीय फौज के प्रति शंका..आशंका का केंद्र बन सरेआम दबंगई से अपना खूँटा गाड़ के बैठी है। वो दरार, जो भाड़े के मुजाहिदीनों और स्थानीय आतंकवादियों के बीच अपने वर्चस्व को ले कर ठनी.. बनी हुई है। वो दरार, जो अविश्वास के रूप में स्थानीय पुलिस और भारतीय फौज के मन मस्तिष्क में गहरे तक अपनी पैठ बना चुकी है। वो दरार जो अलगाववादियों और भारत सरकार के नुमाइंदों के बीच विरोधाभासी नीतियों को ले कर बन चुकी है।

इस उपन्यास में कहानी है उस स्कूल मास्टर पंडित की बेटी अमिता की जिन्हें धमकियों के चलते रातों रात अपना सब कुछ छोड़ कश्मीर से भागना पड़ा। वो अमिता, जो अपनी पढ़ाई की खातिर भारत छोड़ अब स्पेन में रह रही है। वो अमिता, जो ब्लॉग के ज़रिए अपने देश..अपने कश्मीर..अपने हमवतन लोगों से जुड़ी हुई है और फिलहाल ब्लॉग पर अपने स्पेन के संस्मरण लिख रही है। इसमें बातें है स्पेन और वहाँ के पुराने शहर ला माँचा और मैड्रिड की। इसमें जिक्र है वहाँ के रहन सहन, खानपान, दर्शनीय स्थलों और उसके परिचितों का।

इस उपन्यास में दुख..तकलीफें और दर्द समाहित है कश्मीरी बेवाओं, तलाकशुदा औरतों और प्रेम में पागल भोली भाली कमसिन युवतियों का।
इसमें बात है मरघट हो चुके गांवों में जले पेड़ों...अधजले..खंडहर हो चुके घरों, दुकानों और कारखानों की। इसमें बात है मार भगाए गए हिंदुओं के घरों..दुकानों और धंधे पर बेशर्मी से किए गए मुसलमानों के अवैध कब्ज़े की।

इसमें बात है आँखों पर पट्टी बँधे मानवाधिकार आयोग और एमनेस्टी की कारगुजारियों की। इसमें बात है भारतीय फौज द्वारा किए गए वास्तविक उत्पीड़न...पक्षपात और उस पर लगे झूठे आरोपों की। इसमें बात है फौज की ग़लतियों और उसकी समझदारी भरी संजीदगी की। इसमें बात है गांवों के भोले भाले...निर्दोष युवकों पर फौज के अमानवीय टॉर्चर और सच उगलवाने के दौरान होने वाली दुविधा के साथ साथ इसमें बात है फौजियों के जोश और उनके असमंजस की।

कहानी कुछ ब्लॉग पोस्ट्स और उन पर आए हुए कमेंट्स के ज़रिए परत दर परत कश्मीर की समस्या के विभिन्न पहलुओं को आहिस्ता आहिस्ता खोलते हुए उन्हें उजागर करने का प्रयास करती है और बाद में कभी किसी की डायरी के ज़रिए तो कभी किसी पत्रकार या फौजी अफ़सर की ज़बानी..उनके नज़रिए से...छूट चुके मुद्दों को आगे बढ़ाती है।

इस उपन्यास में कश्मीर की समस्या के लगभग हर मुद्दे और नज़रिए का समावेश करने का प्रयास किया गया है। कभी वो प्रेम में पागल हो..धोखा खाई युवती के ज़रिए हो या किसी तलाकशुदा औरत के मन की बात हो। कहीं कोई बेवा या अपने जवान बच्चों की मौत देख चुकी कोई माँ अपना दुख दर्द..अपनी व्यथा कहती नज़र आती है तो कहीं लज़ीज़ गोश्त, औरत और पैसे के लालच में फँसे कम उम्र के युवा आतंकी बन...अपने ही लोगों का शोषण करते नज़र आते हैं।

एक तरफ मज़हब, जन्नत और हूरों के नाम पर कश्मीरी युवाओं को बरगला कर आत्मघाती दस्तों में भर्ती किया जा रहा है तो दूसरी तरफ उन्हें ही यंत्रणाओं को झेलने और अमानवीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर किया जा रहा है। कहीं भाड़े के आतंकियों द्वारा कश्मीर की मस्जिदों में जूते पहन जबरन उन्हें बन्दूक की नोक पर अपवित्र किया जा रहा है।

इसमें अगर भूख, गरीबी, ठंड,बेरोज़गारी और भूकंप की मार झेलते कश्मीर की कहानी है तो इसमें आतंकवादियों और भारतीय फौज के बीच पिसते बेगुनाह लोगों की भी बात है। इसमें देशभक्ति को ले कर अड़ियल रवैया रखने वाले फौजी हैं तो इसमें पाकिस्तान से हमदर्दी रखने वाले उसके तरफ़दार भी हैं। इसमें आतंकवाद से अपना मोहभंग कर राजनीति में उतर चुका अलगाववादी है तो इसमें समयानुसार तटस्थता अपना चुका जांबाज़ पत्रकार भी है।

स्पेन के कुछ धीमे चलते हिस्से को अगर छोड़ दें तो पूरा का पूरा उपन्यास बेहद तेज़ी और तनाव भरे माहौल से गुज़रता है। ऐसे तनाव, दिक्कतों और परेशानियों भरे माहौल में भी सुकून की बात ये कि इसमें भी लेखिका ने एक प्रेम कहानी की गुंजाइश निकाल ली। और प्रेम कहानी भी वो जी सदाबहार देव आनंद की सुपरहिट फ़िल्म 'तीन देवियां' की याद दिला दे। बस...फर्क इतना कि इसमें देवियां नहीं बल्कि तीन देवता याने के देव हैं। अब देखना ये है कि अमिता नाम का ये खूबसूरत कश्मीरी फूल उस बूढ़े फिरंगी प्रकाशक, अपने से कुछ साल छोटे, उसे बेहद चाहने वाले फौजी अफसर या फिर अपने से कुछ साल बड़े उस संजीदा कश्मीरी मुसलमान पत्रकार की झोली में गिरता है जिनके वजूद और नज़रिए के बिना इस कहानी का मुकम्मल हो पाना सम्भव नहीं था।

एक बेहद शोधपूर्ण, तथ्यात्मक और रोचक उपन्यास के लिए लेखिका को बहुत बहुत बधाई। 256 पृष्ठीय इस उम्दा..संग्रणीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को 2012 में छापा है राजकमल प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 150/- रुपए जो कि क्वालिटी और कंटैंट के हिसाब से बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
लम्हा