KAL KE RAKSHAK in Hindi Moral Stories by Ramnarayan Sungariya books and stories PDF | कल के रक्षक

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कल के रक्षक

कहानी

कल के रक्षक

आर. एन. सुनगरया,

‘’हॉं प्रतिनिधि बन तो सकता हूँ, यानि चुनाव जीत सकता हूँ यदि प्रवीण साथ दे।‘’ किशन कुमार ने सिगरेट का पॉकेट खोला, ‘’लो-मोहन, रमेश, अशोक, लो सभी लोग पियो।‘’

कुछ क्षणों में दसों सिगरेट उपस्थित जनों के हाथों में पहुँच चुकी हैं। सभी अपनी-अपनी सुविधानुसार कुर्सी पर पहलू बदलने और सम्‍हलने लगे। बारी-बारी से सबने सिगरेटें सुलगाईं और कुछ ही क्षणों बाद कमरे में धुँये की एक हल्‍की सी धुंध छा गई। वहॉं खड़े थे वे लोग जो सिगरेट नहीं पीते थे, कुछ बोरियत सी मेहसूस करने लगे।

‘’हॉं तो प्रवीण को कैसे पटाया जाय?’’ किशन ने सभा में प्रश्‍न पेश किया।

‘’वह हमसे बहुत दूर रहना चाहता है।‘’ मोहन ने धूँये का गुब्‍बारा छोड़ा।

‘’रहना भी चाहिए।‘’ रमेश ने कश खींचकर कहा, ‘’वह कहॉं इन्‍ट्लिजेण्‍ट और हम......’’

‘’अरे, हर टाईम दूर रहे तो रहे, मगर चुनाव के टाईम तो हमारे साथ हो जाय।‘’ अशोक ने बीच में ही कोई लाभ की बात कही, ‘’ताकि हमारे कुमार साहब प्रतिनिधि बन जाऍं।

‘’चुनाव जीतने के लिए उसके सामने नाक रगड़ने की क्‍या आवश्‍यकता है?’’ किसी ने पूछा।

कुमार ने उत्तर दिया, ‘’अपने को सिर्फ सेठों की औलाद ही वोट देंगे, शेष लोगों के वोट बहुत कम मिलेंगे। प्रवीण पढ़ने में तेज है। साथ ही गरीब भी है। इसलिए बहुत से लोंडे उसके प्रति श्रद्धा रखते हैं। उसके आचरण का अनुसरण करते हैं। यदि वह हमारे साथ होगा, तो बहुत वोट हमारे हो जायेंगे। ठीक है ना?’’

‘’ठीक तो है....तो फिर उसे पटाने की क्‍या स्‍कीम.....हॉं याद आया......प्रवीण को फिल्‍म का बहुत शौक है। पैसों की तंगी और उसके पिता की डाँट के मारे वह सिनेमा नहीं जा पाता।‘’

‘’तो क्‍यों ना उसे फिल्‍म के लिए पटाया जाये।‘’ रमेश तुरन्‍त उचक पड़ा।

रमेश के मत से सभी लोग सहमत हुये। सभा समाप्ति की घोषणा हो गई। सबने अपनी-अपनी जुल्‍फें, कपड़े आदि ठीक किये। कुछ के हिप्‍पीकट बाल थे तो कुछ के छल्‍लेदार फुग्‍गे चमक रहे थे। लगभग सभी लोगों ने रंग बिरंगे कपड़े नये फैशन से सिले हुये धारण कर रखे थे। आपस में हंसी-मजाक करते, हंसते खिलखिलाते पड़ोस के बस स्‍टेण्‍ड पर आ पहुँचे। कुछ लोग प्रवीण के घर की ओर चल दिये और शेष लोग वहीं बैठकर उनके आने की प्रतीक्षा करने लगे।

-2-

इस अनमोल जीवन का एक पल भी व्‍यर्थ नहीं जाना चाहिए। इस सीमित जीवन में बहुत वि़द्यार्जन कर उसका यथास्‍थान सदुपयोग करके अमर कीर्ति का कमल खिला देना चाहिए.......इन विचारों में मग्‍न प्रवीण चटाई पर किताबों के बीच बैठा था कि किसी ने पुकारा, ‘’प्रवीण.......’’

‘’कौन?‘’ प्रवीण चटाई पर बिखरी किताबें झटपट इकत्र करके उठा। सामने देखा-कुछ श्रीमान दड़म-दड़म करते उसकी ओर चले आ रहे हैं। प्रवीण के चेहरे पर कुछ आश्‍चर्य और क्रोध क्रीड़ा शुरू हो गयी। इससे पूर्व कि वह कुछ कहता निकट आते ही एक श्रीमान ने फरमाया, ‘’क्‍या सम्‍पूर्ण इन्द्रियों का नाश करना है। जब देखो पढ़ाई सिर धरे रहते हो।‘’

‘’काम की बात करो।‘’ प्रवीण ने कठोर आवाज में पूछा, ‘’किस लिये आये हो?’’

‘’अरे तुम तो इस तरह अकड़ से बतरा रहे हो, जैसे कोर्इ शत्रु से बतरा रहे हो।‘’ एक श्रीमान बोले।

‘’जरा समझो हम मेहमान का रूप हैं।‘’ दूसरे श्रीमान् ने जैसे पहले का समर्थन किया।

तीसरा बात की बात घात की घात जैसे बोला,’’सच तो है, बगैर बुलाये मेहमान जो ठेहरे। और फिर अपनी गली में.... ‘’सब श्रीमान खिलखिला उठे और चटाई पर बैठ गये। टॉंगें पसार कर ही।

प्रवीण पर जैसे कई घड़े ठण्‍डा पानी गिरा हो। उसे बुरा अवश्‍य लगा, पर करे भी क्‍या सहपाठी हैं, और घर आये मेहमान भी। मेहमानदारी करनी होगी। चाहे क्‍यों ना वह उनसे घृणा करता हो। उसने बैठते हुये बात पलटने की चेष्‍टा की, ‘’आप लोग गलत समझे। पिताजी का भय था। य‍दि वह होते तो.....’’

‘’तो क्‍या.......’’ किसी ने मुस्‍कुराते हुये प्रवीण की बात काटी, ‘’मार-मार कर खोपड़ी पिलपिली कर देते।‘’ हंसी का एक झोंका लहरा उठा।

‘’हॉं, वाक्‍यी वे ऐसे स्‍वर्णिम वाक्‍य मारते हैं कि मस्तिष्‍क में चुभे ही रह जाते हैं।‘’ प्रवीण ने विषय बदला, ‘’खैर, छोड़ो इन बातों को, अब बताओ मैं आपकी क्‍या सेवा कर सकता हूँ?’’

‘’बस हमारी झोली में हॉं नामक फूल डाल दो।‘’ श्रीमानों के समूह से अस्‍पष्‍ट घ्‍वनि निकली।

‘’मतलब?’’ प्रवीण कुछ चौंका।

‘’यार बहुत बोर हो रहे हैं।‘’

‘’होमवर्क करने में जुट जाओ, अभी बोरियत भाग खड़ी होगी।‘’ प्रवीण ने सलाह दी।

‘’क्‍या खाक होमवर्क करें। समझ में तो कुछ आता नहीं।‘’ उन्‍होंने अपनी कमजोरी व्‍यक्‍त की।

‘’भेजा लड़ाओ, मेहनत करो, कोई कारण नहीं कि फिर समझ में ना आये।‘’ प्रवीण मुस्‍कुराया।

एक श्रीमान उदासीन जुम्‍लों में बोला, ‘’क्‍या मेहनत करें यार जिस मकान की नींव ही पोची हो, क्‍या उस पर निरन्‍तर मन्जिलें बनती जायें?’’

दूसरे ने पहले के विचार को जैसे आगे बढ़ाया हो, ‘’अभी तक सिफारिश, ट्यूशन, रिश्‍वत और नकल आदि बाहरी साधनों द्वारा उत्तीर्ण होते रहे, अब वह जमाना दफन हो चुका’’

‘’निराशा ही अवोन्‍नति की पहली सीढ़ी है।‘’ प्रवीण मुस्‍कुराते हुये मुख्‍य प्रसंग में बोला, ‘’अच्‍छा बताओ किस विषय में हां चाहते हो?’’

‘’बड़ी मनोरंजक फिल्‍म चल रही है हमारे साथ फिल्‍म देखने के लिये हॉं कह दो।‘’ किसी ने हिम्‍मत की।

‘’कल टेस्‍ट है।‘’ प्रवीण ने याद दिलाया, ‘’क्‍या बच्‍चा एक दिन रोटी खाने से जवान हो जायेगा?’’ श्रीमान् अपने ऊपर कहकर प्रवीण के विषय में बोले, ‘’समुद्र से एक घड़ा पानी लेने से उसमें क्‍या कमी होगी।‘’

‘’लेकिन, मैं तो फिल्‍म देखता नहीं।‘’ प्रवीण ने पुन: मना करने की कोशिश की।

‘’झूठ!’’ एक श्रीमान ने झट कहा, सफेद झूठी।

‘’ठीक है।‘’ प्रवीण उसे घूरते हुये कुछ लापरवाह शब्‍दों में बोला, ‘’मै ऐसी मार-धाड़, नाच-कूद और केवल मनोरंजन प्रधान या नंगी फिल्‍में नहीं देखता, व्‍यर्थ व्‍यय समझता हूँ।‘’

‘’तो फिर आप कैसी फिल्‍में देखते हैं?’’ एक अपने होंठों पर मुस्‍कान लिये हुये पूछने लगा, ‘’फिल्‍में मनोरंजन के सिवा किसलिए होती हैं।‘’

‘’मैं सामाजिक, राष्‍ट्रीय या अति उद्धेश्‍य पूर्ण, फिल्‍में देखता हूँ।‘’ प्रवीण ने कुछ तीखे स्‍वर में जवाब दिया, ‘’फिल्‍में सिर्फ मनोरंजन के लिए ही नहीं, उचित मार्गदर्शन के लिए भी होती हैं।‘’

‘’अरे छोड़ यार ये बातें।‘’ किसी ने उससे चलने का पुन: आग्रह किया, ‘’जल्‍दी चलें लेट हो जायेंगे।‘’

‘’अच्‍छा मुझे किस खुशी में फिल्‍म दिखलाई.........’’ प्रवीण ने जानना चाहा, मगर तुरन्‍त एक ने बताया, ‘’वह अपने कुमार हैं न?, चुनाव में खड़े हो रहे हैं-इस खुशी में।‘’

‘’लेकिन जीतने से पहले......’’ प्रवीण हंसा।

‘’हॉं वोट तो जीतने से पहले ही लिये जाते हैं।‘’ शेष सब भी हँसने लगे।

‘’क्‍या तुम समझते हो, मुझे फिल्‍म दिखलाने से कुमार जीत जायेंगे।‘’ प्रवीण ने हंसी मुस्‍कान में बदली।

‘’हम सोचते हैं।‘’ एक ने अपना जजमेंट पेश किया, ’’तुम हमारे साथ दिखाई दोगे तो बहुत से वोट अपने आप ही हमारे हो जायेंगे।‘’

‘’यह तुम्‍हारा भ्रम है।‘’ प्रवीण पुन: मुस्‍कुराया।

‘’भ्रम ही सही यार।‘’ ये वाक्‍य युगल स्‍वरों में गूँजा, ’’हमें तो फिल्‍म देखने के लिए मिलेगी।‘’ हंसी का एक फुब्‍बारा फूट पड़ा।

--3--

लगभग दस-बारह विद्यार्थियों का ठहाका और आपस में हंसी मजाक करते बस स्‍टाफ पर उपस्थित, प्रवीण की कृत्रिम और मंद हंसी भी इस बात का प्रमाण थी कि वह भी अपने आपको कुछ बोर महसूस कर रहा था। कुछ ही मिनिट में धूल उड़ाती ओर ढुर्र-ढुर्र करती हुयी बस वहॉं रूकी। प्रतीक्षकों में हल्‍की सी हल-चल होने लगी। एक-एक दो-दो करके कुछ लोग उतरने लगे और चढ़ने लगे। बस से उतरते हुये परिचालक से कुमार कहने लगे और चढ़ने लगे। बस से उतरते हुये परिचालक से कुमार कहने लगा, ‘’कन्‍डेक्‍टर साहब हमें........टाकिज चौराहे पर उतार दोगे?‘’

कन्‍डेक्‍टर यह कहने से पूर्व कि टॉकिज तरफ से तो गाड़ी नहीं जायेगी। सोचने लगा......यदि इनसे मना किया तो सम्‍भव है। अपनी पिटार्इ हो, बस का सत्‍यानाश हो और सवारियों को परेशानी हो......उचित यही है कि..............

‘’क्‍यों जी ‘’’कुमार चीखा।

‘’अरे इनसे पूछने की क्‍या आवश्‍यकता है गाड़ी तो सरकारी है। दूसरे साथी ने तुरन्‍त कहा।‘’

क्‍योंकि कन्‍डेक्‍टर को शीघ्र कोई जबाब नहीं सूझा।

वे झट-झट दड़म-दड़म गाड़ी में चढ़ने लगे। पूर्व उपस्थित सवारियों ने यह सोचकर ठण्‍डी सॉंस ली कि इनके साथ सफर करना अच्‍छी खासी मुसीबत मोल लेना है, मगर मजबूरी है, सफर तो करना ही है।

गाड़ी में अधिक सवारी नहीं थी, इसलिये लगभग सभी को सीट मिल गई। गाड़ी धीमी चाल से चल दी। कन्‍डेक्‍टर ने अपनी टिकिट बुक सम्‍हालते हुये, ‘’बाबू जरा टिकिट।‘’

एक ने कन्‍डेक्‍टर की बात पर ध्‍यान ना देते हुये सामने दृष्टि गढ़ाये हुये गीतमय स्‍वर में कहा, ’’सफर भी कितना सुहाना होता है। जब सामने सौन्‍दर्य संसार सजा हो।‘’

‘’वाह....वाह ‘’ दूसरे ने उसका समर्थन कि‍या, ‘’जिसके गोरे गुलाबों पर लहराती लट पल-पल चुम्‍बन ले रही हो।‘’

‘’काश! ये लव लट होते।‘’ तीसरे ने अपने होंठों पर ऊँगली रखते हुये कहा, तो कुछ साथी हंस पड़े।

‘’बाबूजी टिकिट!’’ इस बार कन्‍डेक्‍टर की आवाज कुछ कठोर है।

‘’देखो सामने सीट पर दो चॉंद से चेहरे चमक रहे हैं न।‘’ कुमार की ऑंखें कुछ मदिरामयी हो गईं, ‘’वे ही हमारे टिकिट लेंगी।‘’

कन्‍डेक्‍टर अपना सा मुँह लेकर उन लड़कियों की ओर देखने लगा, जो कुमार को कुछ क्रोध व कुटिल दृष्टि से देख रहीं थीं। एक से न रहा गया। कन्‍डेक्‍टर की ओर देखते हुये बोली, ‘’ये मेरे भाई साहब हैं राखी बंधाई में पच्‍चीस पैसे दिये थे।‘’ पैसे देते हुये, ‘’लो उन्‍हीं पैसों से इनका टिकिट काट दो।‘’ व्‍यंग्‍य पूर्ण स्‍वर।

कुमार के साथी तो शायद ही हंसे हों, मगर अन्‍य यात्री खूब हंसे। किशन कुमार को जैसे अपना बोलना अखर गया। उसके सर पर घड़ों ठण्‍डा पानी पड़ गया। तुरन्‍त कुछ सोचकर बोला, ‘’मोहन....ओह! सॉरी जीजाजी, हमारी प्‍यारी.....मुनिया बहुत लाल हो गई शायद......’’

‘’शायद मैं बहुत प्‍यार करता हूँ।‘’ मोहन तुरन्‍त बोल पड़ा, सभी साथी जोरदार हंसने लगे। जब हंसी कुछ मंदी हुई तो मोहन मुस्‍कुराते हुये बोला, ‘’चलूं उसी के पास बैठूँ, कहीं फूलों में पली तुम्‍हारी प्‍यारी बहन पीली न पड़ जायें।‘’ मोहन उठा तो एक ठहाका पुन: गूँजने लगा।

‘’ड्राइवर!’’ इस चीख से हंसी फोरन बिलीन हो गई, ‘’गाड़ी रोको मैं यहीं उतरूँगी।‘’

‘’एक-दो हिचकोले खाकर गाड़ी रूक गई। वह उठी, ‘’आ, अर्चना इनके मुँह कौन लगे।‘’

दरवाजे तक आते-आते उसकी नज़र प्रवीण पर पड़ गई, जो मौन मुद्रा में बैठा था।

‘’ओह! तुम भी इनके साथ!’’

प्रवीण ने बहुत साहस करके उससे ऑंखें मिलाई, पर कुछ बोल न सका, वही बोली, ‘’कल तुम्‍हारे कॉलेज आकर प्रिंसिपल से शिकायत करूँगी।‘’

‘’सुनो, मैं भी तो चल रहा हूँ।‘’ मोहन के वाक्‍य सुनते ही सब फिर हंसने लगे।

प्रवीण को बहुत अफसोस था, क्‍योंकि वे उसकी पड़ोसन थी। उनके उतरते ही गाड़ी बढ़ गई।

-- 4 –

‘’धत् तेरे की, कया पता था कि स्‍टूडेन्‍ट बुकिंग एक घण्‍टे पहले ही की जायेगी।‘’ टॉकिज ग्राउन्‍ड में सब साथियों के साथ खड़ा एक बुरी तरह किलपने लगा, जैसे कोई भारी चीज खो गई है। उसने आगे राय दी, ‘’चलो मैनेजर के कमरे में हो हल्‍ला करते हैं, उसका बाप टिकिट देगा।‘’

कुछ लोगों ने तो जैसे यह राय स्‍वीकार कर ली हो, कुछ नहीं बोले, मगर प्रवीण जैसे कुछ डर गया हो, तुरन्‍त बोला, ‘’अरे ऐसी क्‍या जल्‍दी है, फिर कभी।‘’

‘’लेकिन तुम्‍हारा तो समय नष्‍ट किया हमने?’’

‘’नहीं नहीं, ऐसी क्‍या बात है।‘’ प्रवीण मुस्‍कुराते हुये झट बोला, ‘’सहपाठियों के लिए......’’

‘’ठहरो!’’ कुमार ने हाथ मटकाकर चुटकी बजाई, ‘’ऐसी तरकीब लगाते हैं कि यहॉं तक आने की मेहनत वसूल हो जाये।‘’ सब को सरसरी नज़र से देखते हुए, ‘’आओ मेरे साथ।‘’

कहॉं चलें? यह पूछना किसी ने भी अच्‍छा न समझा उत्‍सुकता पूर्वक झट उसके पीछे हो लिये।

टॉकिज के पास कोई होटल था, जिसे लोग अपना होटल कहते थे। वह काफी अच्‍छा तो नहीं था लेकिन खराब भी नहीं कह सकते थे। नमकीन, मीठा, चाय, कॉफी आदि होटल में, जो सामान्‍य चीजें होनी चाहिए थी। होटल मालिक भी कुछ सीधा ही था वह उनसे किसी प्रकार हुज्‍जत नहीं करता था।

कुछ ही क्षणों में होटल का वातावरण एक हल्‍के से शोरगुल से संतृप्‍त हो गया। ‘’लड़के, सौ-सौ ग्राम मीठा लगाओ ताजा।‘’

‘’अरे इसकी क्‍या जरूरत है, सिर्फ चाय ही पी लेंगे।‘’ कुमार का आदेश सुनते ही मोहन ने कहा।

फिक्र क्‍यों करते हो यार। कुमार ने मुस्‍कुराते हुये शहनशाही अन्‍दाज में कहा, ‘’चाय भी पिलवायेंगे।‘’

लड़के ने झट-झट सबके सामने सौ-सौ ग्राम पेठा प्‍लेटों में रख दिया। सबने अपनी-अपनी आदत और भिन्‍न प्रकार से खाना शुरू किया, तो कोई टेबिल पर रखी प्‍लेट से ही बड़े नखरे पूर्वक खा रहा था।

कुमार ने अपने रूमाल से हाथ पोंछते हुये अगला आर्डर दिया, ‘’अरे लड़के दो-दो समोसे और 50-50 ग्राम दूसरा नमकीन लगाओ।‘’

लड़का सबके सामने नमकीन से भरी प्‍लेटें रखकर पीछे की ओर मुड़ा ही था कि कुमार ने टोका, ‘’और सुनो- जरा जल्‍दी सबके लिये स्‍पेशल चाय बनाओ।‘’

आर्डर सुन लड़का चला ही था कि एक फटकार सुनाई दी, ‘’अबे पानी तो ला! बिना कहे पानी तक नहीं लगाता।‘’ उनमें से कोई कुछ गरम हो गया। शायद नमकीन में मिर्च अधिक थीं। लड़के ने झट-झट कुछ गिलास पानी ला दिया।

‘’बड़ी मेहनत से कमाता है बैचारा। पलभर पॉंव बन्‍द नहीं रहता उस पर भी मालिक और सैकड़ों की बुरी-भली सुनाता है।‘’ किसी को लड़के के प्रति सहानुभूति उमड़ आर्इ।

‘’मेहनत से कौन नहीं कमाता।‘’ प्रवीण समोसा हाथ में लिये हुए बोला, ‘’हमारे माता-पिता इससे भी कठोर मेहनत करते हैं। और अनेक प्रकार से वाक्‍य संघर्ष भी करते हैं।‘’ प्रवीण ने उनका ध्‍यान माता-पिता के जीवन संघर्ष की ओर आकर्षित करना चाहा, ‘’हम उनकी मेहनत और संग्राम का बिलकुल ऐहसास नहीं मानते.....’’ वह आगे कुछ और कहता मगर कुमार ने टोका, ‘’अरे छोड़ यार, लो चाय पियो।‘’

कुमार के सामने भी चाय आ गई थी, मगर वह अपनी प्‍लेट का शेष नमकीन खाते हुये प्रसन्‍नचित अपने साथियों को देख रहा था और एक अजीब सा गर्व मेहसूस कर रहा था। वेसे सभी लोग तरह-तरह की बातों में मस्‍त थे।

लगभग सभी लोग चाय पी चुके थे, मगर जब कुमार ने चाय का कप उठाया, तो एक दम उसकी ऑंखें क्रोध से लाल हो उठी, ‘’यह क्‍या चाय में मक्‍खी!’’ वह सीधा मालिक के पास पहुँचा और उलटी सीधी सुनाने लगा। तब तक सभी साथी वहॉं एकत्र हो गये। कुमार पुन: बड़-बड़ाया, ‘’कोई पैसे-वैसे नहीं मिलेंगे।‘’ साथियों की तरफ देखते हुये संकेत करके बोला, ‘’आओ चलें।‘’

‘’मालिक को क्रोध तो बहुत कुछ आया- बहुत लड़के पर और कुमार पर, मगर बेचारा चुप ही रहा। तुरन्‍त प्रवीण कुमार की नज़रों में ताकते हुये बोल पडा, ‘’अरे नहीं यार इतनी बड़ी सजा मत दो, इतना ही बहुत है कि तुमने हजार सुना दी और वह चुप ही रहा । पैसे दे दो।‘’

कुमार ने प्रवीण को देखा और मालिक की उतरी सुरत को निहारा, ‘’ठीक है।‘’ उसने स्‍वीकार किया, ‘’दुकान पर बिल भेज देना। प्रवीण नहीं होता, तो एक भी पैसे नहीं मिलता। आयन्‍दा ध्‍यान रखना।‘’

--- 5 ---

प्रवीण घर लौटा तो उसे ऐसा लगा जैसे होश में आ गया हो। अभी तक सबके साथ था, तो एक प्रकार का नशा उस पर सवार था। वह नशा जिसमें उचितानुचित कुछ सोचने समझने की शक्ति नहीं होती प्रतिपल गर्व ही गर्व उमड़ता रहता है।

वह अपनी चटाई पर बैठ गया, सोचने लगा-वो तीन घण्‍टे बरबाद कर दिये। इनके साथ जाना तो बदनामी हाथ लेना है। बस में मेरी पड़ोसन को छेड़ दी। उससे फ्री में लज्जित हुआ और हॉं कल कॉलेज जाकर शिकायत करेगी। उनका नाम तो उसे मालूम नहीं, मेरा ही नाम लेगी, ओह! करे दाड़ी वाला मरे मूछों वाला। मैं प्रिन्सिपल की नज़रों में कुछ का कुछ हो जाऊँगा। वे मुझे ना जाने क्‍या-क्‍या समझेंगे। दो साल से जितने झगड़े-फसाद, अप्रिय घटनाऍं-बसों की तोड़-फोड़, कण्‍डेक्‍टर से मारपीट शोरगुल और ना जाने कितने अण्‍ड-सण्‍ड घटनाओं में मुझे पात्र समझेंगे। ओह! मैं उनकी डॉंट नहीं सह सकूँगा....तो उपाय? यही कि उन देवियों से माफी मागों कि वे शिकायत न करें........पर शरीक तो मैं भी था। प्रिन्सिपल को क्‍या प्रमाण दूँगा कि मैंने नहीं छेड़ी.......

प्रवीण को इस उधेड़-बुन में शाम हो गई। कभी-कभी रात में भी याद आ जाती कि उनकी शिकायत का क्‍या परिणाम होगा।

सुबह नियमताओं से निबटकर प्रवीण उनके घर गया ताकि उनसे अपने सहपाठिगण माफी माँग सके। मगर उनके घर से मालूम हुआ कि वे तो कब की कॉलेज जा चुकी हैं। अब प्रवीण को पूर्ण विश्‍वास हो गया कि वे शिकायत करे बिना न रहेंगी।

उसके कदम कॉलेज की ओर बढ़ाये नहीं बढ़ रहे हैं। मगर फिर भी झिझकते-झिझकते कॉलेज गेट तक पहुँचा। कम्‍पाऊँड में कुछ लड़के खड़े आपस में हंसी-मजाक करके बड़ी खुली हंसी में हंस रहे थे। उसे शक हो गया कि जरूर वही घटना की हंसी हो रही है। जब वह उनके समीप पहुँचा तो वे सब प्रवीण को देखने लगे। एक ने मुस्‍कुराते हुये पूछा, ‘’कहो प्रवीण भाई, आज लेट कैसे?’’

प्रवीण ने उसे देखा। किसी ने उसी समय एक ताहना कसा। ‘’सुनहरे सागर में तैरते देर हो ही जाती है।‘’

सभी ठिलठिलाने लगे। यद्यपि उसके ताहने का अर्थ उन्‍नति से था, तथाति प्रवीण को लगा कि लड़कियों की छेड़-छा़ड़ को सुनहरे सागर की उपमा दी जा रही है। वह चुपचाप आगे बढ़ गया।

अब उसे पूर्ण विश्‍वास हो गया कि प्रिन्सिपल से उसकी शिकायत कर दी गई होगी। वह डरता-डरता अपने क्‍लास रूम तक पहुँचा। वह बाहर ही रूक गया। रूम में एक अजीब सा शोरगुल था। शायद टीचर नहीं है। लड़के ही किसी फिल्‍म की नकल कर रहे हैं। फिल्‍मी गाने की नकल कर रहे हैं। फिल्‍मी गाने की धुनें सुनाई दे रही हैं। फर्नीचर की उठा-पटक की ध्‍वनि भी स्‍पष्‍ट सुनाई दे रही है।

‘’प्रवीण!’’ किसी ने पुकारा।

‘’यस सर!’’ उसने पीछे मुड़कर देखा अँग्रेजी के टीचर उसकी ओर आ रहे हैं, ‘’यहॉं कैसे खड़े हो। प्रिन्सिपल साहब ने जरा काम दे दिया था, इसलिए लेट हो गया।‘’

‘’जी.......’’ प्रवीण आगे कुछ कहते-कहते रूक गया। वह टीचर के साथ क्‍लास रूम में गया। कुछ लड़के तो आदर पूर्वक अपनी-अपनी जगह पर खड़े हो गये, जो नाटक कर रहे थे वे भी सम्‍भले और हल्‍के से शोर के साथ बाहर निकलने लगे। टीचर ने पढ़ाई के प्रति उनकी अरूचि देखकर कहा, ‘’ये हैं भविष्‍य कर्त्ताओं का हाल, जिन्‍हें जरा-जरा सी बात पर उपद्रव प्रिय है, जो कल के रक्षक कहलाते हैं।‘’

‘’पढ़ाई शुरू हो गई प्रवीण का भय भाग गया।‘’

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक

सफल सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर

सराहना मिली ।

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

िल्‍मी ा ाने च्‍छा ा की मेहनत वसूल हो जाये