मानस के राम
भाग 24
बाली का प्राण त्यागना
जब बाली के वध का समाचार किषकिंधा पहुँचा तो वानरों में अफरा तफरी मच गई। अपने व्यक्तिगत दुख को भुला कर तारा ने वानरों को शांत कराया। वानरों को तसल्ली देने के बाद वह उस स्थान पर गई जहाँ बाली का शव पड़ा था। बाली को भूमि पर गिरा हुआ देख कर तारा उसके समीप बैठ कर विलाप करने लगी,
"हे प्राणनाथ आपने अपने जीवन में कितने बलशाली योद्धाओं को धूल चटाई। आज आप स्वयं इस प्रकार भूमि पर लेटे हैं। अब मेरा और पुत्र अंगद का क्या होगा ? हमें कौन संभालेगा ?"
हनुमान ने तारा को इस प्रकार दुखी देख कर सांत्वना देते हुए कहा,
"बाली एक वीर पुरुष हैं। अपनी मृत्यु के बाद उन्हें अवश्य ही स्वर्ग प्राप्त होगा। आप अंगद की तनिक भी चिंता ना करें। सही समय पर उसका राज्याभिषेक करने का दायित्व अब हमारा है।"
तभी बाली का पुत्र अंगद भी वहाँ पहुँच गया। अपने पिता को उस स्थिति में देख कर वह रोने लगा। बाली ने अपने नेत्र खोले और उसे अपने पास बुला कर कहा,
"हे पुत्र अब तुम सुग्रीव को अपना राजा मान कर उसके प्रति निष्ठावान रहना। धैर्य व प्रेम से उसकी सेवा करना।"
अंगद को निर्देश देने के बाद बाली पुनः सुग्रीव से बोला,
"अनुज मैं अपने राज्य का दायित्व तुम्हें यौंप रहा हूँ। तुम अंगद के युवा होने तक उस पर राज्य करो। अंगद मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। वह भी एक वीर योद्धा है। उसका ध्यान रखना। तारा एक आदर्श पत्नी है। उसने मुझे सदैव सही सलाह दी है। उसके सम्मान का सदा खयाल रखना। इंद्र द्वारा दिया गया दिव्य हार भी मैं तुम्हें सौंपता हूँ। मेरे ह्रदय में अब तुम्हारे लिए कोई बैर नहीं। ईश्वर तुम पर कृपा करें।"
तारा पुनः विलाप करने लगी। नील नामक एक वानर ने बाली की छाती में धंसा हुआ बाण निकाल दिया। रक्त का फव्वारा फूट पड़ा। बाली ने अपने प्राण त्याग दिए। तारा ने अंगद से कहा कि वह अपने वीर पिता को अंतिम बार प्रणाम कर ले। अंगद ने बाली को प्रणाम किया और उसकी दी हुई सीख का पालन करने का वचन दिया।
सुग्रीव के मन में भी पछतावा हो रहा था। अंजाने में ही सही लेकिन वह बाली को मृत जान कर उसके सिंहासन पर बैठा था। वह उसके हिस्से के सुख का भोग कर रहा था। परंतु बाली ने फिर भी उसे मृत्युदंड नहीं दिया। दो बार उसे प्राणदान दिया। अपने अंतिम समय में भी उसने मुझे क्षमा कर अपना राज्य और दिव्य हार सौंप दिया। यह सब सोंच कर उसके नेत्रों में अश्रु भर आए।
सुग्रीव का राज्याभिषेक
बाली के अंतिम संस्कार के बाद सुग्रीव को राजगद्दी पर बैठा दिया गया। अंगद को युवराज घोषित कर दिया गया।
वर्षा ऋतु का आगमन हो जाने के कारण सीता की खोज का अभियान टाल देना पड़ा। वर्षा के कारण सभी मार्ग पानी में डूब गए थे। उन्हें पार कर पाना कठिन हो गया था। राम तथा लक्ष्मण पास की एक गुफा में वर्षा ऋतु की समाप्ति की प्रतीक्षा कर रहे थे। राम का ह्रदय सीता के दुख के बारे में सोंच कर फटने लगता था। लक्ष्मण उन्हें धैर्य पूर्वक इस समय को बिताने की सलाह देते थे। राम धैर्य रखे हुए थे किंतु दुख की इस घड़ी में उनके लिए एक एक क्षण भारी पड़ रहा था।
राजगद्दी पर बैठने के बाद सुग्रीव पहले की ही तरह पुनः भोग विलास में डूब गया। तारा ने भी अंगद के विषय में सोंच कर स्थिति को अपना लिया। जहाँ राम व लक्ष्मण के लिए यह पल कष्ट से भरे थे वहीं अपने राजमहल में सुग्रीव सुरा व सुंदरी के भोग में व्यस्त था। उसने राज्य के संचालन का सारा भार अपने मंत्रियों पर डाल रखा था। वह केवल आनंद लूट रहा था।
केवल हनुमान ही ऐसे थे जिन्हें राम के कार्य की चिंता थी। वह भी बहुत बेचैनी से वर्षा ऋतु के समाप्त होने की राह देख रहे थे। उन्हें सुग्रीव का इस प्रकार रासरंग में डूब जाना अच्छा नहीं लग रहा था। वह जानते थे कि समझदार व्सक्ति कभी भी अपने कर्तव्यों से मुंह नहीं मोड़ता है। हनुमान सुग्रीव को उसका वचन याद दिलाने के लिए सही समय की प्रतीक्षा करने लगे।
वर्षा ऋतु के समाप्त होते ही हनुमान सुग्रीव के समक्ष उपस्थित हुए। एक योग्य मंत्री की तरह उन्होंने सुग्रीव को सलाह दी,
"महाराज आप को आपका राज्य मिल गया। आप उसका सुख भोग रहे हैं। अब आपको भी अपने वचन का पालन करना चाहिए। राम को उनकी पत्नी सीता की खोज में उचित सहायता करनी चाहिए। इससे आपका यश बढ़ेगा। जो व्यक्ति सही समय पर अपने दिए गए वचन का पालन करता है उसका सभी तरफ सम्मान होता है। अतः आप भी सही समय पर अपना वचन निभा कर सच्चे मित्र का दायित्व निभाएं।"
हनुमान की बात सुन कर सुग्रीव ने कहा कि वह शीघ्र ही सीता की खोज के लिए योग्य वानरों का एक दल बनाएगा। हनुमान को इस प्रकार तसल्ली देकर वह पुनः रनिवास में चला गया।
तारा द्वारा क्रोधित लक्ष्मण को समझाना
वर्षा ऋतु के चार माह राम के लिए चार युगों से बीते। किंतु वर्षा ऋतु के समाप्त हो जाने के बाद अब उनके लिए और धैर्य रख पाना कठिन हो रहा था। पहले कुछ दिन तक तो वह सुग्रीव की ओर से कोई संदेश मिलने की प्रतीक्षा करते रहे। लेकिन जब उधर से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला जिससे लगे कि सुग्रीव की तरफ से सीता की खोज में कोई प्रयास किया जा रहा है तो उन्होंने लक्ष्मण को सुग्रीव के पास उसका वचन याद दिलाने के लिए भेजा। राम लक्ष्मण के क्रोधी स्वभाव को जानते थे। अतः उन्होंने लक्ष्मण को संदेश सुनाते समय संयम बरतने को कहा।
लक्ष्मण पहले ही सुग्रीव के अपने वचन को ना निभाने के कारण कुपित थे। उनके लिए अपने क्रोध पर काबू पाना कठिन हो रहा था। जब लक्ष्मण सुग्रीव के महल पहुँचे तो उन्हें वहाँ कुछ भी व्यवस्थित नहीं लगा। पहरे पर खड़े वानर सावधान नहीं थे। लक्ष्मण को लगा कि यहाँ जब कुछ भी ठीक नहीं है तो सुग्रीव को भला अपने वचन का ध्यान कहाँ होगा। लक्ष्मण को देख कर वानर कुछ व्यवस्थित हुए। लक्ष्मण के चेहरे पर क्रोध साफ झलक रहा था। उसे देख कर वानर भयभीत हो गए। उन्होंने फौरन महल के भीतर सूचना भिजवा दी कि क्रोध में भरे लक्ष्मण महाराज सुग्रीव से मिलने आ रहे हैं।
लक्ष्मण जब द्वार पर पहुँचे तो वहाँ खड़े पहरेदारों ने उन्हें रोकने का प्रयास किया किंतु लक्ष्मण उनकी परवाह किए बिना महल में घुस गए। वह गुस्से में भरे हुए आगे बढ़ रहे थे तभी उन्हें राजकुमार अंगद दिखाई दिया। उसे देख कर उनका क्रोध कुछ शांत हुआ। उन्होंने अंगद को निर्देश दिया कि वह सुग्रीव से जाकर कहे कि लक्ष्मण उससे मिलना चाहते हैं।
महल के भीतर सुग्रीव पूरी तरह भोग में लिप्त था। उसने बहुत अधिक मदिरा पी रखी थी। वह चारों तरफ से स्त्रियों से घिरा था। उसकी स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह लक्ष्मण से बात कर सके। अंगद हनुमान के पास गए और उन्हें सारी बात बताई। हनुमान सुग्रीव के पास गए और उसे बताया कि क्रोध में भरे लक्ष्मण उससे मिलने आए हैं। लक्ष्मण के क्रोध की बात सुन कर वह बोला,
"मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे लक्ष्मण क्रोधित हों। अवश्य किसी शत्रु ने मेरे विरुद्ध कान भरे होंगे।"
हनुमान ने समझाया,
"महाराज उनके क्रोध का कारण है कि हम उन्हें दिए गए वचन का पालन नहीं कर सके। किंतु अभी भी समय है। आप लक्ष्मण से बात कर उन्हें तसल्ली दें कि उनका काम हो जाएगा।"
महल के बाहर खड़े लक्ष्मण को महल के भीतर से नृत्य संगीत हास परिहास के स्वर सुनाई दे रहे थे। वह समझ गए कि सुग्रीव अपना वचन भूल कर रासरंग में उलझा है। उन्हें बहुत क्रोध आया। चेतावनी स्वरूप उन्होंने अपने धनुष की प्रत्यंचा खींच कर छोड़ दी। उसकी टंकार से भीषण गर्जना हुई। जिसे सुन कर वानरों के ह्रदय कांप उठे। टंकार को सुन कर सुग्रीव घबरा गया। उसने स्वयं लक्ष्मण के सामने जाना उचित नहीं समझा। वह तारा के पास जाकर बोला,
"लक्ष्मण बहुत अधिक क्रोधित हैं। मैं यदि उनके समक्ष गया तो उनका क्रोध और अधिक भड़क उठेगा। तुम स्त्री हो तुम्हारे सामने उनका क्रोध शांत हो जाएगा। अतः तुम जाकर उन्हें समझाओ।"
तारा बहुत ही बुद्धिमान स्त्री थी। वह लक्ष्मण के पास जाकर बोली,
"कई दिनों तक सुग्रीव किषकिंधा से निष्कासित थे। आपके भ्राता राम तथा आपके सहयोग से उन्हें उनका खोया हुआ राज्य वापस मिला है। जिस प्रकार कई दिनों का भूखा व्सक्ति सामने भोजन की थाली को देख कर संयम नहीं रख पाता है और दोनों हाथों से भोजन करने लगता है। वैसे ही सुग्रीव भी अपने सामने फैले भोग विलास के साधन को देख कर स्वयं पर नियंत्रण नहीं कर पाया। वह सब भूल कर भोग में डूब गया। यह उसकी भूल थी। किंतु अब मैं आपको आश्वासन देती हूँ कि सुग्रीव अपने दिए हुए वचन का पालन अवश्य करेगा।"
तारा को सामने देख कर लक्ष्मण का क्रोध पहले ही शांत हो गया था। तारा ने जिस तरह से उन्हें समझाया उसे सुन कर लक्ष्मण को इस बात का विश्वास हो गया कि अब सीता की खोज पुनः आरंभ हो सकेगी। लक्ष्मण को शांत कराने के बाद तारा उन्हें सुग्रीव के पास ले गई। अबतक वह बात करने की स्थिति में आ चुका था। अपने सिहांसन से उठ कर उसने लक्ष्मण का स्वागत किया। हाथ जोड़ कर अपनी भूल के लिए क्षमा मांगते हुए बोला,
"मैं सुखों के भोग में इस तरह डूब गया कि आपके कार्य का स्मरण ही नहीं रहा। किंतु अब मुझे मेरी भूल समझ गई है। मैंने निर्देश दिया है कि वीर तथा चतुर वानरों का एक दल बनाया जाए। यह दल आज या कल में पहुँच जाएगा। फिर बहुत शीघ्र ही सीता की खोज में निकलेगा। मैं विलंब के लिए क्षमा चाहता हूँ।"
सुग्रीव से आश्वासन पाकर लक्ष्मण ने कहा,
"आप मेरे साथ भ्राता राम के पास चल कर उन्हें तसल्ली दें।"
लक्ष्मण तथा सुग्रीव राम के पास पहुँचे। सुग्रीव ने क्षमा याचना करते हुए उन्हें सारी योजना बताई। सुग्रीव की योजना सुन कर राम प्रसन्न हुए।