भाग - ९
इस बीच चिकनकारी और कम हो गई। खाना-पीना, अम्मी का काम, दुकान का भी कुछ ना कुछ देखना पड़ता था। इन सब से रात होते-होते इतना थक जाती थी कि, रात में उंगलियां जल्दी ही जवाब देने लगतीं।'
'.. और ज़ाहिदा-रियाज़, यह टाइम तो उनका भी होता था।'
यह सुनते ही बेनज़ीर हंस पड़ीं । फिर गहरी सांस लेकर बोलीं, '....ज़ाहिदा-रियाज़ उफ... दोनों मेरे लिए एक अजीब तरह की बला बन गए थे। यह बला पहले मुझे खूब मजा देती, लेकिन जब छूटे हुए कामों की तरफ ध्यान जाता तो बड़ा कष्ट देती। समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या करूं। वैसे मैं देख रही हूं कि आपका मन भी उन्हीं दोनों पर लगा हुआ है। देखिए, उनके चक्कर में प्रश्न ही न भूल जाइएगा ।'
इतना कह बेनज़ीर हंसी तो मुझे कोई संकोच या आड फील नहीं हुआ। मैंने भी उन्हीं के लहजे में कहा, 'आप निश्चिंत रहिए। प्रश्न भूलूंगा नहीं, बल्कि उन दोनों से कुछ नए प्रश्न भी गढ़ लूंगा।'
'इसे कहते हैं कॉन्फिडैंस। खैर, एक महीना पूरा होने के नौ दिन बाद जब मैं फिर ट्रेनिंग सेंटर जाने लगी तो अम्मी बोलीं, 'बेंजी सुन, आज अगर ठीक समझना तो मुन्ना से बात उठाना। किस्त का भी कल आखिरी दिन है।'
मैंने कहा, 'ठीक है।' मगर वहां पहुंचकर मैं मुन्ना से बात उठाने की हिम्मत नहीं कर पाई। एक तो वह मुझसे बहुत ही कम बोलते थे, बस काम भर का ही। दूसरे जो भी बोलते थे, वह इतना संकोच के साथ कि, मुझे लगता यह तो मुझसे भी ज्यादा संकोची हैं । मगर जब स्टाफ की दूसरी लड़कियों से वह खुलकर बात करते । हंसते, बोलते तो मैं सोचती कि, क्या यह मुझे इस लायक नहीं समझते कि, मुझसे बातें करें। मुझे यह नजरंदाज क्यों करते हैं ।
मुझे भीतर ही भीतर लड़कियों और मुन्ना दोनों पर गुस्सा आती। खैर एक बार फिर साबित हुआ कि सब्र का फल मीठा होता है। लंच के समय मुन्ना ने स्टाफ के एक-एक सदस्य को अपने सजे-धजे कमरे में बुला-बुलाकर तनख्वाह देनी शुरू कर दी। उन सबसे वह रजिस्टर पर साइन भी करवा रहे थे। यह देखकर मेरी सांस फूलने लगी । पसीना आने लगा कि, मुझे तो साइन करना आता ही नहीं। मन ही मन सोचा कि, या अल्लाह कितनी बड़ी तौहीन होगी । बरसों बाद मुझे उस समय उन टीचर की याद आ गई जो घर पर हम बहनों को उर्दू पढानें आती थीं और अब्बू से हम लोगों का दाखिला स्कूल में कराने के लिए कहती थीं। अब्बू के ना मानने पर ज्यादा जोर दिया, तो उन्होंने उन्हें काफिर कहकर जलील करके भगा दिया था।
एक चीज से मैं और परेशान हो रही थी, कि मुझे तनख्वाह नहीं मिलेगी क्या, क्योंकि मुन्ना एक-एक करके सारे स्टाफ को बुला रहे थे। सब पैसा पाकर खुश हो रहे थे। जब आखिरी लड़की भी तनख्वाह लेकर निकल गई, और मुन्ना रजिस्टर बंद करके अपनी कुर्सी से उठने लगे, तो मेरा जी धक्क से हो गया। मन एकदम रो पड़ा कि, यहां भी ठगी गई, मोहल्ले में ही ठगी गई।
अपना काम-धंधा छोड़कर, यहां जी-तोड़ मेहनत का यह सिला मिला। अम्मी को पता चलेगा तो बेचारी पर क्या बीतेगी। मन एकदम जोर-जोर से रो रहा था। आंखों में आंसू भर आए थे। बड़ी मुश्किल से उन्हें रोक पा रही थी। वह इतनी भर गई थीं कि मुझे लगा कि उन्हें अगर पोंछा नहीं तो आंसू बह चलेंगे । मैंने सबकी नजरें बचाकर दुपट्टे की कोर से आंसू पोंछने शुरू किए ही थे कि मुन्ना सामने आ खड़े हुए।
मैं सिर झुकाए हुई थी कि, उन्होंने पूछ लिया, ' क्या हुआ बेनज़ीर ?'
मैंने चौंककर कहा, 'कुछ नहीं, आंख में कुछ चला गया था, वही निकाल रही थी।' मैंने एकदम झूठ बोला था।
'अच्छा, निकल गया हो तो दो मिनट के लिए मेरे कमरे में आ जाओ।'
इतना कहकर वह अपनी कुर्सी पर जा कर बैठ गए। मैं भी पीछे-पीछे पहुंच गई। उन्होंने बड़ी इज्जत से कुर्सी पर बैठने को कहा और मेरी तनख्वाह सामने रखकर बोले, ' गिन लीजिये इत्मीनान से।'
यूं तो तनख्वाह कोई बहुत बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन मेरे लिए यह निश्चित ही एक बड़ी रकम थी। एक साथ इतनी रकम पहली बार मिली थी तो मैं रोक नहीं पाई खुद को। आंसू लाख कोशिशों के बावजूद बह चले। होंठ फड़कने लगे ।
मुन्ना को मेरी हालत समझते देर नहीं लगी । उन्होंने बड़ी समझदारी से कहा, 'अपनी मेहनत की कमाई पाकर वाकई बहुत खुशी होती है। भगवान चाहेगा तो आप अपनी मेहनत से बहुत आगे जाएंगी । इससे बहुत ज्यादा रकम कमाएंगी।'
'उन्होंने फिर गिनने को कहा तो मैं बोली, 'आपने गिन लिया है। मुझे यकीन है, फिर से गिनने की जरूरत नहीं है।'
'नहीं रुपये हमेशा गिन कर लेने और देने चाहिए।'
अंततः मुझे वहीं पर गिनना पड़ा ।
रुपये गिन कर मैंने कहा, 'बिलकुल ठीक हैं।'
मैंने उन्हें शुक्रिया भी कहा। तभी उन्होंने मेरे लिए जो सबसे बड़ा जी का जंजाल था रजिस्टर, उसे मेरे सामने करके, साइन करने के लिए कहा। पेन आगे बढ़ाई तो मैंने कांपते हाथों से पकड़ तो लिया, लेकिन हाथ रजिस्टर के पन्ने पर रख नहीं पा रही थी। यहां तक कि पेन भी ठीक से पकड़ नहीं पा रही थी। मुन्ना को समझते देर नहीं लगी । उन्होंने बात को संभालते हुए कहा, ' आप परेशान ना हों। यह लीजिए। इससे तो और भी अच्छा काम चलेगा ।'
साथ ही स्टैम्प पैड खोलकर मेरे सामने रख दिया। अगूंठा लगाते हुए मुझे इतनी शर्मिंदगी हुई कि कह नहीं सकती। मन हुआ कि कहां छिप जाऊं कि मुन्ना देख ना सकें। उस कुछ ही वक्त में अपने वालिदैन पर इतनी गुस्सा आई कि मैं बता नहीं सकती। किसी भयानक तूफान सी यह बातें दिमाग में घूम गईं कि, अपने बच्चों को क्या इतना भी नहीं पढ़ा सकते थे कि वह अपना नाम लिख सकें। उन्हें दुनिया के सामने किसी अंधेरी दुनिया से आए जानवरों की तरह ना रहना पड़े । हमारा कसूर क्या था जो हमें जाहिल बनाकर रखा? इसलिए कि हम लड़कियां थीं । इसलिए पढ़-लिख नहीं सकती थीं । जाहिल बनी रहें, जाहिल ही होकर जियें, जाहिलियत ही लिए मर जाएं। क्या हमें कोई हक़ ही नहीं था कि हम पढ-लिख सकते। इंसान बन सकते। कितना मन होता था कि, मोहल्ले की बाकी लड़कियों की तरह हम भी स्कूल जाएं, पढ़ें-लिखें ।
मगर अब्बू एक ही रट लगाए रहते थे कि, 'नहीं लड़कियों का स्कूल जाना, लिखना-पढ़ना किसी भी सूरत में जायज नहीं है। हराम है।'
पता नहीं कहां से ऐसी जाहिलियत भरी बातें पढ़कर-सुनकर आते थे। और अम्मी! बाकी बातों के लिए तो अब्बू से लड़ जाती थीं। घर को जंग-ए-मैदान बना देती थीं। अगर इस मुद्दे पर भी आगे आतीं, लड़ जातीं, अब्बू को तैयार करतीं कि, नहीं हम भी पढ़-लिख सकें, दुनिया के और लोगों की तरह इंसान बन सकें। अम्मी को हर हाल में उन टीचर को रोकना चाहिए था जिनसे अब्बू ने झगड़ा किया था और उन्हें काफिर कहकर जलील करके भगा दिया था।
वह अम्मी के साथ-साथ एक औरत भी तो हैं। उन्हें अपनी लड़कियों के बारे में अब्बू से ज्यादा सोचना चाहिए था। अब्बू को अपने जीवन की इस सबसे बड़ी गलती को करने से रोकना चाहिए था। गलती नहीं बल्कि यह तो गुनाह है। गुनाह-ए-कबीरा। अम्मी में वह कूवत थी, कि वह अब्बू को यह गुनाह करने से रोक सकती थीं। मैं तो यही मानूंगी कि तुम भी अब्बू के साथ इस मामले में एक थीं।
तुम भी अब्बू की तरह मानती थी कि हम लड़किओं को पढ़ने-लिखने का, आगे बढ़नें का कोई हक़ नहीं है। आज जो तुम थोड़ा-बहुत बदली हो तो हालात और मेरी जैसी औलाद के कारण ही बदली हो। अम्मी आज मैं तुमसे अपने इन सवालों के जवाब जरूर मांगूंगी कि हमें तुमने इस तरह जाहिल क्यों बनाया। तुम्हें एहसास कराऊंगी कि, हमारी आज कितनी बड़ी बेइज्जती हुई है। जो दरअसल हमारी नहीं, सही मायने में तुम्हारी ही बेइज्जती है।
मैं जब बड़े गुस्से में पहुंची तो अम्मी लेटे-लेटे टीवी देख रही थीं और मुझको देखते ही बोलीं, ' बहुत देर लगा दी बेंजी, आज ज्यादा लड़कियां थीं क्या?'
मैं कोई जवाब दिए बिना उन्हीं के पास ही बैठ गई। फिर अपने दिल के पास हिफाजत से रखी अपनी पहली तनख्वाह निकालकर अम्मी के हाथों में थमा दी। बुर्का पहनने पर यह आसानी रहती थी कि, कई चीजें आसानी से रख लेती थी। अम्मी ने तनख्वाह वापस मेरे हाथों में थमाते हुए कहा, 'अरे मेरी बिटिया इसे तू ही रख। इस पर तेरा ही हक़ है। यह तेरी जी- तोड़ मेहनत की पहली कमाई है। अल्लाहताला तुझे और तरक्की दे, तू और आगे बढ़।'
इतना कहकर उन्होंने मेरी पेशानी चूम ली। मैंने पैसे अम्मी को वापस थमाते हुए कहा, ' इसे तू रख। मैं क्या करुँगी इनका।' तो वह बोली, 'अब तुम ही संभालो। तुम्हें ही सब करना है तो मैं क्या करुँगी इनका। यह तेरी मेहनत का, तेरी हुनर का इनाम है। इसीलिए मैं कहती हूं कि, हुनर कभी बेकार नहीं जाता। वह आदमी को बड़ी ताकत देता है।'
अम्मी की इन बातों के बावजूद अंगूठा लगाने से जो गुस्सा था मन में, मैं उसे बाहर आने से रोक न पाई। मैंने कहा, 'हाँ अम्मी लेकिन हुनर का कोई मतलब तभी है, जब पढाई-लिखाई भी साथ हो। नहीं तो हुनरमंद या मजदूरी करने वाली में मुझे कोई फ़र्क़ नहीं दिखता। वह भी मेहनत करते हैं, काम करते हैं। यह देखो सबूत।'
मैंने अपना अंगूठा उनके सामने कर दिया। जिसमें स्टैम्प पैड की स्याही लगी हुई थी। उसे देखकर अम्मी ने पूछा, 'यह क्या? अंगूठा कहाँ लगाया।'
मैं भरे गले से बोली, ' मुन्ना चीपड़ के रजिस्टर पर। सभी लोग अपनी तनख्वाह लेकर अपने साइन कर रही थीं, मगर मुझे तो पेन पकड़नी भी नहीं आती। अम्मी सोचो कितनी जलालत झेलनी पड़ी मुझे। मुझसे आधी-आधी उम्र की लड़कियां साइन कर रही थीं और सबसे उम्रदराज हो कर भी मैं रजिस्टर देखकर पसीने-पसीने हो रही थी।'
मेरी बात, आवाज का मतलब समझते ही अम्मी बोलीं, 'तो फिर तुम... उन लड़कियों ने तुम्हें..।'
अब-तक मेरे आंसू निकलने लगे थे। मैंने कहा, ' कोई नहीं जान पाई। शायद मुन्ना मेरी जाहिलियत जानते थे। इसलिए मुझे सबसे बाद में बुलाया। पहले पेन पकड़ाई मगर मेरे कांपते हाथों को देखकर समझते हुए बोले, 'कोई बात नहीं आप...। सोचो अम्मी हमारी जाहिलियत ने हमें जहालत के कितने गहरे अँधेरे गड्ढे में डाला हुआ है। जहां इतने गहरे कीचड़ में फंसी हुई हूं कि निकल ही नहीं पा रही हूं।
अम्मी हम लोगों को आप लोगों ने क्यों नहीं पढ़ाया । हम और लोगों की तरह पढ़ते तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता । कौन सा हम मजहब से बाहर चले जाते। मुझे अच्छी तरह याद है कि, जब खातून पढ़ाने आती थीं तो कई बार बताया था कि, मजहब सभी को पढ़ने-लिखने जानकार बनने का हक़ देता है। वह हमें पढ़ाना चाहती थीं, वह चाहती थीं कि हम भी पढ़ -लिखकर अच्छे इंसान बनें। लेकिन अब्बू उन्हीं से लड़ गये। उन्हें काफिर कहकर जलील किया, भगा दिया। और तुम भी चुपचाप यह सब देखती रहीं, सुनती रहीं। एक शब्द भी ना बोलीं।
अम्मी मेरे अंगूठे पर लगी स्टैम्प पैड की यह स्याही मेरे माथे पर ही नहीं बल्कि अपने पूरे खानदान के माथे पर लगी कलंक की स्याही है। यह हम लोगों पर पढे-लिखे सभ्य समाज का एक जोरदार तमाचा है। जो हमें इस बात की सजा दे रहा है कि हम सभ्य समाज में रहते हुए भी असभ्य क्यों बने हुए हैं।'
यह कहते-कहते मैं रो पड़ी। अम्मी मेरी तनख्वाह अपने हाथ में पकड़े उसे एकटक देखती रहीं। कुछ देर बाद भी जब मैं सिसकती रही तो अम्मी ने अपनी चुप्पी तोड़ी । मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, 'बेंजी तू हुनरमंद तो बहुत है। इसीलिए तुझे एक साथ पंद्रह हज़ार रुपये तनख्वाह मिली है। लेकिन तूने यह बड़ी गैर-मामूली बात कही कि, पढाई-लिखाई के बिना हुनर बेकार है। उसकी कोई कदर नहीं है। वह किसी मतलब का नहीं है।
तेरे अल्फाजों ने मुझे बहुत गहराई से वह बातें जरा देर में समझा दीं, जो मुझे बच्चे पैदा करने से पहले ही समझ लेनी चाहिए थीं। वह कहते हैं ना कि देर आए दुरुस्त आए। मैं अपनी गलती सुधारूंगी। तुझे पढाऊंगी। अल्लाह ने चाहा तो अगले महीने की तनख्वाह तू अंगूठे का निशान लगा कर नहीं, इज्जत की कलम पकड़ कर, साइन करके लेगी ।'
अम्मी ने बड़ी सख्ती, बड़े जज्बे के साथ अपनी बात कही तो मेरा गुस्सा कुछ कम हुआ। मैंने आंसू पोंछते हुए कहा, ' क्या अम्मी, यह सब अब कहां हो पायेगा । ऐसा कौन सा स्कूल है जहां मुझे दाखिला मिलेगा, कौन मुझे पढायेगा। '
इस पर वह पहले ही की तरह बोलीं, ' स्कूल न सही, दूसरे रास्ते हैं। इस टीवी ने किस्तों को लेकर भले ही जहमत खड़ी कर दी है, लेकिन तमाम बातें भी पता चलती रहती हैं। इसमें उम्रदराज लोगों के पढ़ने -लिखने के बारे में बहुत बार देखा है।'
'बसअम्मी, मैं अब पढ़ने-लिखने जाकर अपनी और फजीहत नहीं कराऊंगी ।'
मगर अम्मी चुप नहीं हुईं और बोलीं, 'सुन, मुन्ना तो जान ही गया है। उससे क्या छुपाना। उसी से कहेंगे कि वह पढ़ने का इंतजाम भी करवा दे। यहीं घर पर ही, नहीं तो कम से कम वो साइन करना तो खुद ही सिखा दे।
अरे हां ऐसा कर, उसके पैसे भी वापस करने हैं, और उसने वो क्या कहा था कि चिकन के कपड़ों को जो तुम बना रही हो, उसे टीवी पर कहां बेचने को कह रहा था। महीना भर हो रहा है, उसने कुछ बताया भी नहीं, वह भी पूछ लेंगे। बेनज़ीर जब कदम निकाला है तो तुम्हें कुछ नहीं, बहुत कुछ करना चाहिए। चाहे जैसे भी हो। मैं हर हाल में यही चाहूंगी कि अगली तनख्वाह तू साइन करके ही ले।'
अम्मी की बातें सुनकर मैं कुछ देर उन्हें देखती ही रही, फिर हलके से मुस्कुराते हुए बोली, 'अम्मी, मैं तो समझ रही थी कि मेरी बातों से तू गुस्सा होगी । कहोगी चल बस कर, चार पैसे क्या कमा लिए बड़े बोल निकलने लगे हैं। अब हर काम में मुझको नसीहत देगी ।
बहुत हुआ अब घर के बाहर कदम नहीं रखना है। काम हो, किस्तें जमा हों सब भाड़ में जाए। रही टीवी तो कह दूंगी कि अपना टीवी वापस ले लो। नहीं है मेरे पास पैसा। लेकिन तुमने तो मेरे मन की बात कह दी। मैंने भी वहां अंगूठा लगाते समय सोच लिया था कि चाहे जैसे हो साईन करना तो जरूर सीख लूँगी । अगली बार साईन करके ही तनख्वाह लुंगी ।' 'तो बिटिया अब तो खुश हो जा। सब तेरे मन का हो रहा है।'
उनकी प्यार भरी यह बात सुनकर मैं, 'अम्मी, मेरी प्यारी अम्मी । ' कहकर उनके गले लग गई। अगले दिन मैंने अम्मी का संदेशा मुन्ना को दे दिया। वह सारे काम-धाम करके घर आया तो मैं उसके लिए चाय-नाश्ता ले आई और बातचीत में भी शामिल हो गई।