मैं भारत बोल रहा हूं 6
(काव्य संकलन)
वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’
19.गीतः- यतन येसे करो प्यारे
यतन येसे करो प्यारे, सभी साक्षर जो हो जाये।
धन्य जीवन तभी होगा, निरक्षरता मिटा पाये।।
अनेकों पीढ़ियाँ वीती, जियत दासत्व का जीवन।
बने साक्षर हमी में कुछ, गुलामी तब भगा पाये।।
अभी आजाद हो कर भी, निरक्षरता गुलामी है।
यहीं अफसोस हैं प्यारे, इसे कब दूर कर पायें।।
प्रशिक्षण हैं इसी क्रम में, चलें हम कर कलम लेकर
रहेगा नहिं अंधेरा अब, जो साक्षर रवि- उगा पाये।।
हमें विधालय जाकर के, सबै साक्षर बनाना है।
बनें साक्षर सभी भारत, यहीं बीड़ा चबा आये।।
भगा कर ही रहेंगे हम, निरक्षरता को भारत से-
स्वर्ग होगा वतन मेरा, यही पैगाम जो लाये।।
कठिन कुछ भी नहीं हैं, आज ही हम ठान ले मन में।
करैं पूरा स्वप्न निश्चय, जहॉं मनमस्त हो जायें।।
20.गीत
छा रहीं काली घटायें, गीत मत गाओ।
मुल्क की खातिर, मनीषी होश में आओ।।
ऑंघियाँ उल्फत भरी, तूफान अत्याचार के,
घुट रहें घर-घर-धोटाले, घॅूस अरू व्याभिचार के।
हैं अंधेरीं जिंदगी की सफर में पगडंडियाँ,
चेतना दर-दर भटकती, हाथ में ले झंडियाँ।
दिख रही ऊषा सिसकती, ऑंसुओं से तर-व-तर,
लाज उसकी ही बचाने, होश में आओ।।1।।
सिर्फ गुजरा है शतक, आधा अभी प्यारे,
तब तुम्हीं ने, जागृति संग्राम छेड़े थे।
हाथ में लेकर, कलम के भीष्म वांणों से,
आंग्ल के कुरूक्षेत्र में, सबको खदेड़े थे।
सौंप कर अपनी अमानत तुम गये जिनको,
नींद गहरी सो गये वे, होश में आओ।।2।।
लूट के, पी-मादकों को, वे हुये धुत्त है,
दे झटक उनको कि, फिर से होश में आयें।
खौल जाये खून, उनकी सब शिराओं में,
गीत फिर से बो पुराने-क्रान्ति के गायें।
ले बना शिव रूप, तांडव नृत्य करदे,
कॉंप जाये सब दिशायें, होश में आओ।।3।।
21.गीत
यतन ऐसे करो प्यारे, जहॉ मनमस्त हो जाये।
मनें गणतंत्र तब सच्चा, सभी मिल नीति अपनाये।।
अनेकों पीढिंया गुजरी, जियत दासत्व का जीवन
बड़ा अफसोस है प्यारे, है बोना आज का चिंतन।
भला कुछ भी कहो प्यारे, नहीं आजाद हो पाये।।1।।
संभल तो आज भी सकते, शतक आधा अभी गुजरा।
शर्म-दायक घोटालों से, वतन मेरा सभी उजरा।
हटा दो! अब तो ये-चौसर, जरा कुछ तो शर्म खाओ ।।2।।
नई पीढी बदलने को, त्यागना है कुटिल घातें।
दिवस गणतंत्र के हक में, करो कुछ नीतिगत बातें।
धडकनें बढ़ गयी कितनी, हृदय की कौन बतलाये।।3।।
कहो कितना कहें ? किससे, कहा जाता नहीं कुछ भी
झॉंख कर खुद को जो देखो, नहीं पल्ले रहा कुछ भी
बदलना है यही सब कुछ, यही बीड़ा चबा आये।।4।।
22. गीत
तुम भलॉं गाओ सुनहरी चॉंदनी राते,
हम प्रभाती के सदॉं ही गीत गाते हैं।।
कब तक करोगे आरती, पूजा दरिन्दों की,
बदलने बाले नहीं वे, हम बताते हैं।।
तुम हिलाओ पूंछ, करलो पद प्रच्छालन भी,
हो नहीं सकते उन्हीं से कोई नाते हैं।।1।।
वे खटकते रात दिन हैं ऑंख में सबके,
ऑंख फोड़ा हैं सदॉं से, हम बताते हैं।।
आ गयी अब हद तुम्हारी, सोच लो प्यारे-
विपल्वी-तूफान को हम अब बुलाते हैं।।2।।
कारनामों से घृणां इतनी हुयी सबको,
चॉंदनी में भी अंधेरी रात नाते हैं।।
खून में इनके भरी, वे-मानियाँ इतनी,
सात जन्मो तक, उन्ही को ये निभाते हैं।।3।।
फिर कहो कैसे निभैगी दोस्त इनसे,
वे हमारी राह से विपरित जाते है।।
हो गया बौना है चिंतन शक्ल बद-सूरत,
क्या कहैं इनकी, कहिन में शर्म खाते है।।4।।
हैं नहीं इनके लिये, अल्फाज कोई भी,
कौम की हर जिस्म में,ये विष मिलतें है
छिपे हैं सब ओर में, कई रूप के विषधर
फौलाद बन कर ही उन्हें, हम कुचिल पाते हैं।।5।।
23.बादलों से पीर
थपेडों से भरा जीवन, भटकती राह है, गुनलो।
तुम्हें कुछ दर्द होता है? ऐ काले बादलों! सुनलो।।
हृदय की तड़पनें लगता, बिजलियाँ बन गईं प्यारे।
दिल के दर्द, उल्का से, धरा पर गिर रहे न्यारे।
उमस और तपन को सहकर, बरसते अश्रु हो जैसे।
तुम्हारा यूं लगे गर्जन हृदय का रूदन हो जैसे।।
इस ऊंहा-पोह में उलझी, हमारी जिन्दगी बुनलो।।1।।
तम्हें भी राजनीती की हवाऐं, चाल सिखलाती।
उन्हीं के चंगुलों फॅंसकर, हमारी जिन्दगी जाती।।
हवा के साथ बहते हो, इधर से उधर नित प्यारे।
स्थिर है नहीं जीवन, इसी से हो गये कारे।।
अभी भी संभल सकते हो, संभलकर इक नई धुनलो।।2।।
तुम्हारे कारनामों ने, सभी विश्वास खोया हैं।
चाहत पर नहीं बरसे, धरा ने दर्द रोया है।।
खाली ड्राम से बजते, तुम्हारे बायदे सारे।
लगता घूरते तुमको हैं, ये टिमटिमाते तारे।।
विना इस चॉंदनी के, चांद भी फीका लगे सुनलो।।3।।
धरा के दर्द को लख कर, कभी क्या?तर्स खाओगे।
कभी क्या?बरसने भी, धराके नजदीक आओगे।।
तुम्हीं से धरा के इस दर्द का, जब मिलन होवेगा।
तभी तो इस अवनि की कूंख का, कल्याण होवेगा।।
तुम्हारा बरस जाना ही, धरा श्रंगार हैं सुनलो।।4।।
हमारी सुन सको तो सुनो, विनय करते हमी हारे।
तभी साकार होंगे प्रकृति के सब शुभ सकुन प्यारे।।
बनेगी सस्य-श्यामल अरू सुनहरी भूमि की काया।
विश्व कल्याणकारी होऐगी, तुम्हारी बरसती माया माया।।
मिटै बैधव्य धरती का, नये श्रंगार को चुनलो।।5।।