मानस के राम
भाग 22
किशकिंधा नरेश बाली
किषकिंधा का राजा बाली सुग्रीव का बड़ा भाई था। उसका विवाह वैद्यराज सुषेन की पुत्री तारा के साथ हुआ था। उसे अपने पिता इंद्र से ब्रह्मा द्वारा अभिमंत्रित एक स्वर्ण हार मिला था। उसे यह वरदान था कि जब वह यह स्वर्ण हार पहन कर युद्ध भूमि में किसी का सामना करेगा तो उसके शत्रु की आधी शक्ति उसे मिल जाएगी। अपने इस वरदान के कारण वह अजेय हो गया था।
एक बार नारद मुनि ने बाली के सामने रावण के शौर्य व पराक्रम की प्रशंसा की। उसे सुन कर बाली ने कहा,
"देवर्षि भले ही वह पराक्रमी है किंतु वह अपने बल का प्रयोग निर्बलों को सताने में करता है।"
नारद जब रावण से मिले तो उन्होंने उसे बाली द्वारा कही बात बता दी। बाली की यह बात रावण को बुरी लगी। वह अपने पुष्पक विमान पर चढ़ कर बाली के साथ मल्ल के इरादे से पहुँचा। उस समय बाली संध्यावंदन कर रहा था। उसके शरीर की कांति को देख कर रावण ने पीछे से उस पर आक्रमण करना चाहा। बाली ने अपनी पूंछ से उसे पकड़ कर अपनी बगल में दबा लिया। रावण को बगल में दबाए हुए उसने विश्व का भ्रमण किया। रावण उसकी शक्ति का कायल हो गया। उसने बाली की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया। बाली ने उसकी मित्रता स्वीकार कर ली।
माया नामक एक राक्षसी थी। उसके दो पुत्र थे मायावी तथा दुंदुभी। दुंदुभी बहुत शक्तिशाली था। उसे अपने बल पर बहुत घमंड था। वह सागर के राजा के पास द्वंद की चुनौती लेकर गया। सागर राज ने असमर्थतता दिखाते हुए उसे पर्वत राज हिमवान के पास भेज दिया। हिमवान ने उसका दंभ तोड़ने के लिए उसे बाली को चुनौती देने की सलाह दी।
बाली के पास जाकर दुंदुभी ने उसे द्वंद के लिए ललकारा। पहले तो बाली ने उसे समझाना चाहा। लेकिन जब वह नहीं माना तो बाली ने उसे द्वंद में मार दिया। उसके शव को उछाल कर एक योजन दूर फेंक दिया। शव से कुछ रक्त की बूंदें ऋष्यमूक पर्वत पर बने मतंग ऋषि के आश्रम में गिरीं। मतंग ऋषि ने क्रोधित हो कर बाली को श्राप दे दिया कि यदि वह उनके आश्रम के एक योजन की परिधि में भी आया तो उसकी मृत्यु हो जाएगी।
सुग्रीव से बैर
दुंदुभी के बड़े भाई मायावी की एक स्त्री को लेकर बाली से लड़ाई थी। मायावी ने आकर बाली को द्वंद के लिए ललकारा। बाली ने उसकी चुनौती को स्वीकार कर लिया। बाली की रानियों ने उसे समझाया कि वह उस राक्षस की बातों में ना आए। किंतु वह नहीं माना।
बाली मायावी के पीछे द्वंद के लिए भागा। सुग्रीव भी बाली के पीछे भागा। भागते हुए मायावी एक गुफा में घुस गया। मायावी के पीछे गुफा में घुसने से पहले बाली ने सुग्रीव को आदेश दिया कि जब तक वह राक्षस का वध कर बाहर नहीं आता तब तक वह गुफा के द्वार पर उसकी प्रतीक्षा करे।
सुग्रीव को गुफा के द्वार पर खड़े हुए एक वर्ष से अधिक का समय बीत गया। अचानक गुफा से एक चीख सुनाई पड़ी। सुग्रीव को वह आवाज़ बाली की लगी। गुफा के अंदर से रक्त की धार बह कर बाहर आ रही थी। सुग्रीव ने सोचा कि राक्षस ने उसके भाई को मार दिया। उसने यह सोच कर कि वह राक्षस बाहर आकर किषकिंधा को क्षति ना पहुँचाए सुग्रीव ने गुफा का द्वार एक बड़े से पत्थर से बंद कर दिया।
सुग्रीव दुखी मन से किषकिंधा वापस लौट आया। उसने बाली के राक्षस द्वारा मारे जाने की सूचना सबको सुनाई। बाली के मरने से राजसिंहासन रिक्त हो गया था। अतः सुग्रीव का राज्याभिषेक कर उसे राजा बना दिया गया।
राजा बनने के बाद सुग्रीव अपने भाई बाली की मृत्यु का दुख भूल कर भोग विलास में डूब गया। वह पूरी तरह सत्ता के मद में चूर था कि एक दिन अचानक बाली उसकी राजसभा में प्रकट हुआ। सुग्रीव को भोग विलास में डूबा हुआ देखकर वह क्रोध में गरजते हुए बोला,
"दुष्ट सुग्रीव छल से मुझे गुफा में बंद करके तू मेरे राज्य का सुख भोग रहा है। तू भाई नहीं शत्रु है।"
बाली की बात सुनकर सुग्रीव ने उसे समझाने का प्रयास किया,
"मैंने कोई छल नहीं किया। जो भी हुआ वह भ्रम के कारण हुआ। मैं गुफा के द्वार पर खड़ा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। गुफा से एक क्रंदन आया और उसके साथ ही रक्त की एक धारा बाहर आई। मुझे लगा कि राक्षस ने तुम्हें मार दिया। यह सोचकर कि वह राक्षस बाहर आकर किष्किंधा का अहित ना कर सके मैंने गुफा का द्वार बंद कर दिया। तुम्हें मृत समझ कर मुझे राज्य का कार्यभार सौंप दिया गया।"
बाली ने कहा,
"झूठ बोलता है नीच। वास्तविकता तो यह है कि तेरे मन में लालच आ गया। तूने सोचा कि मुझे उस राक्षस के साथ गुफा में बंद करके तू आसानी से मेरा राज्य हड़प सकता है।"
बाली का आरोप सुनकर सुग्रीव ने कहा,
"मैं कभी सपने में भी तुम्हें धोखा देने की नहीं सोच सकता। मुझसे गलती हो गई। मुझे लगा कि तुम्हारी मृत्यु हो गई है। इस राज्य का तनिक भी लालच मेरे मन में नहीं था। राज सिंहासन खाली ना रहे इसलिए मैंने राजा बनना स्वीकार किया।"
सुग्रीव कई तरह से बाली को समझा रहा था। किंतु क्रोधित बाली ने उसकी एक नहीं सुनी। उसने सुग्रीव से अपना राज्य छीन लिया। इसके साथ साथ उसकी पत्नी रूमा को भी जबरन अपनी रानी बना लिया। सुग्रीव को किषकिंधा से निष्कासित कर दिया।
सुग्रीव मतंग ऋषि द्वारा बाली को दिए गए श्राप के बारे में जानता था। अतः वह अपने कुछ शुभचिंतक वानरों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर चला गया।
राम लक्ष्मण की सुग्रीव से भेंट
सुग्रीव को सदा इस बात का भय रहता था कि कहीं बाली किसी को भेज कर उसका वध ना करवा दे। सीता की खोज में भटकते राम और लक्ष्मण जब ऋष्यमूक पर्वत पहुँचे तो सुग्रीव के वानरों की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्होंने इसकी सूचना सुग्रीव को दी। सुग्रीव को लगा कि दोनों अवश्य ही बाली द्वारा भेजे गए हैं। वह घबरा गया।
सुग्रीव के साथ उनके मुख्यमंत्री हनुमान थे। हनुमान बहुत ही वीर व बुद्धिमान थे। उन्होंने सुझाव दिया कि घबराने की आवश्यक्ता नहीं है। वह जाकर उन दोनों तपस्वी वेषधारी राजकुमारों से बात कर स्थिति का पता लगाते हैं।
सुग्रीव को हनुमान का सुझाव पसंद आया। उसने कहा,
"तुम्हारा सुझाव अच्छा है। तुम चतुर हो। जाकर उनकी वास्तविकता का पता करो।"
हनुमान ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और राम तथा लक्ष्मण के पास पहुँच गए। उन्होंने राम तथा लक्ष्मण से बातचीत कर पता लगा लिया कि उनसे कोई भय नहीं है। वह अपने सही रूप में आकर बोले,
"मेरा नाम हनुमान है। मैं अंजनि का पुत्र हूँ। आप लोगों के विषय में पता करने हेतु मैं ब्राह्मण वेष में आपके सामने आया था। आप दोनों को देख कर लगता है कि आप तपस्वी वेषधारी राजकुमार हैं। आपकी कांति देवताओं के समान है। कृपया अपना परिचय दें।"
हनुमान की बात सुन कर राम ने कहा,
"हनुमान तुम्हारी वाणी से आभास होता है कि तुम परम ज्ञानी हो। मैं तुम पर भरोसा कर सकता हूँ। मैं राम हूँ। मेरे साथ यह मेरा अनुज लक्ष्मण है। अपने पिता के वचन का पालन करने के लिए हम वन में आए थे। लेकिन मेरी पत्नी सीता को लंकापति रावण हर कर ले गया है। हम उसी की खोज में भटक रहे थे। हमने कबंध नाम के राक्षस का वध कर उसे श्राप से मुक्त कराया। उसने हमें ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव से भेंट करने का सुझाव दिया। हम यहाँ सुग्रीव से भेंट करने ही आए है।"
राम की बात सुन कर हनुमान ने उन्हें सुग्रीव के बारे में सारी बात बता दी। हनुमान ने कहा,
"महाराज सुग्रीव आपकी सहायता से अपना राज्य व पत्नी पुनः प्राप्त कर सकते हैं। उसके बाद वह आपकी सहायता आसानी से कर सकेंगे।"
लक्ष्मण भी हनुमान से प्रभावित थे। वह बोले,
"कृपया आप हमें अपने महाराज सुग्रीव के पास ले चलें।"
वह रास्ता बहुत जटिल था। हनुमान ने दोनों भाइयों से विनम्रता से कहा,
"आप लोग मेरे कंधे पर बैठ जाइए। मैं आपको आकाश मार्ग से ले चलूँगा।"
राम और लक्ष्मण हनुमान के कंधे पर बैठ गए। हनुमान उन्हें लेकर उड़ने लगे।
हनुमान के कंधे पर सवार दोनों भाई सुग्रीव के पास पहुँच गए। हनुमान ने उनका परिचय सुग्रीव से कराया। सुग्रीव ने उन्हें अपने बारे में बताते हुए बाली द्वारा निष्कासित किए जाने की कहानी सुनाई। सुग्रीव की व्यथा सुनने के बाद राम ने भी उसे अपनी पत्नी सीता के रावण द्वारा हरण किए जाने की बात सुनाई।
राम की बात सुन कर सुग्रीव ने कहा,
"मैंने व मेरे वानरों ने कुछ दिन पहले एक राक्षस को एक स्त्री को बलात आकाश मार्ग से ले जाते देखा था। उस स्त्री ने भी हमें देख कर अपने गहने पोटली में बांध कर हमारी तरफ फेंके थे। वह हमने संभाल कर रखा है। आप देख कर बताएं क्या यह सीता का है।"
सुग्रीव के कहने पर एक वानर गुफा के अंदर से गहनों की पोटली ले आया। पोटली को देख कर राम दुखी हो गए। उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि वह पोटली खोल कर जांच लें। उनके आदेश पर लक्ष्मण ने पोटली खोल कर देखा,
"यह भाभीश्री की पायल ही हैं। उनके चरण छूते समय मेरी दृष्टि इन पर रोज़ ही पड़ती थी।"
लक्ष्मण की बात सुन कर राम ने पोटली लेकर उन गहनों को अपने ह्रदय से लगा लिया। वह क्रोध में बोले,
"मेरी पत्नी सीता को कष्ट पहुँचाने वाले उस राक्षस का अंत अब दूर नहीं है। वह जहाँ भी होगा मैं उसका वध करूँगा।"
राम की यह अवस्था देख कर सुग्रीव ने कहा,
"मैं और मेरी वानर सेना सीता को खोजने में आपकी सहायता करेंगे।"
अग्नी प्रज्वलित कर राम तथा सुग्रीव दोनों ने मित्रता का प्रण लिया। उन्होंने एक दूसरे के मनोरथ को पूरा करने के लिए सहायता करने का वचन भी दिया।
सुग्रीव उस समय निष्कासित जीवन बिता रहा था। अतः आवश्यक था कि पहले उसे उसका राज्य वापस मिले। किषकिंधा के राजसिंहासन पर बैठ कर वह राम की सही प्रकार से सहायता कर सकता था। अतः राम ने पहले उसे उसका राज्य वापस दिलाने का निश्चय किया।