Nai Chetna - 30 - last part in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | नई चेतना - 30 ( समापन किश्त )

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नई चेतना - 30 ( समापन किश्त )

सुबह के लगभग दस बज चुके थे । सुशिलाजी की सेहत के बारे में फिक्रमंद लालाजी डॉक्टर माथुर जी के आते ही उनके कक्ष में जा पहुंचे ।

माथुरजी ने लालाजी को बैठने के लिए कहा । बिना बताये ही लालाजी का आशय समझ लिया था माथुर जी ने । तुरंत अपने सहयोगी को गहन चिकित्सा विभाग में फोन कर सुशिलाजी की सेहत के बारे में जानकारी हासिल किया ।

तब तक लालाजी कुर्सी पर बैठ चुके थे । उनसे मुखातिब होते हुए माथुरजी ने बताया ” सुशिलाजी की तबियत अब बिल्कुल ठीक है । थोडा ध्यान देने की जरुरत है । उन्हें तनाव से बचना चाहिए । आवश्यक दवाइयां मैं लिख कर दे रहा हूँ । आप इन्हें घर पर भी दे सकते हैं । अब आप चाहें तो उन्हें घर लेकर जा सकते हैं । ”
लालाजी के चेहरे पर ख़ुशी की चमक आ गयी थी ।
माथुरजी को धन्यवाद कहकर लालाजी कक्ष से बाहर आये ।

बाहर बाबू और रमेश उनका इंतजार कर रहे थे । लालाजी ने जैसे ही उन्हें सुशिलाजी की कुशलता का समाचार सुनाया उनके चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गयी ।

लालाजी गहन चिकित्सा विभाग में जा पहुंचे । अन्दर सुशिलाजी बेड पर लेटी थी । वह पहली नजर में ही सामान्य लग रही थी । सभी मशीनों से पूरी तरह मुक्त । धनिया उनके साथ ही बैठी हुयी थी । लालाजी को देखते ही धनिया सिर पर आँचल संभालती हुई निकलकर बाहर चली गयी ।

सुशिलाजी को एक नजर देखकर लालाजी वहीँ कक्ष में मौजूद डॉक्टर के पास चले गए । डॉक्टर ने उन्हें सुशिलाजी की सेहत के बारे में वही बताया जो माथुरजी ने बताया था । साथ ही काफी ध्यान रखने की सलाह भी दी । यह भी बताया अमूमन ऐसे मरीज को तुरंत डिस्चार्ज नहीं मिलता लेकिन किसी खास वजह से माथुरजी ने उन्हें इजाजत दी है ।

लालाजी ने उनसे सुशिलाजी को ले जाने की इच्छा जाहिर की । डॉक्टर ने नर्स को आवाज देकर उसे सुशिलाजी को चल रही दवाइयों की जानकारी देने व उन्हें घर जाने के लिए तैयार होने के लिए कहा ।
कुछ जरुरी औपचारिकताएं पूरी कर लालाजी पुनः माथुरजी के कक्ष में जा पहुंचे और उन्हें धन्यवाद् देकर अपनी कृतज्ञता प्रकट की ।

एक बार पुनः माथुरजी ने उन्हें सुशिलाजी को कोई तनाव न होने देने की चेतावनी दी ।

इधर धनिया सुशिलाजी को लेकर नीचे आ चुकी थी ।
थोड़ी ही देर में सभी लालाजी की गाड़ी के पास पहुँच चुके थे । सुशिलाजी और लालाजी गाड़ी में बैठ चुके थे । तभी बाबुु ने लालाजी के सामने दोनों हाथ जोड़ उन्हें राम राम कहा । धनिया बाबू के साथ ही खड़ी थी । उसनेे भी दोनों हाथ जोड़ रखे थे ।

लालाजी बाबू के दोनों हाथ पकड़ कर भर्राए स्वर में बोले ” बाबू ! अब तुम भी हमें छोड़ जाओगे ? ”
इधर सुशिलाजी खुद बैठने के बाद दरवाजा खोले उम्मीद कर रही थीं कि धनिया भी बैठ जाएगी । लेकिन बाबु को हाथ जोड़ राम राम कहते देख वह व्यग्र हो उठीं और गाड़ी में से ही झुक कर धनिया का हाथ पकड़ उसे अपनी ओर खिंच लिया और बोलीं ” गाड़ी में बैठ बेटी ! ”

धनिया गाड़ी में बैठ चुकी थी । उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था । तभी उसने लालाजी को कहते सुना ” हाँ बाबू ! अब कम से कम तुम तो हमारा साथ ना छोडो । अपनी नासमझी और झूठी शान के चक्कर में हम अपना बेटा पहले ही खो चुके हैं । अब हमसे हमारी बेटी तो मत छीनो । हाँ ! धनिया हमारी बेटी जैसी है और हमने फैसला किया है धनिया ही हमारी बहू बनेगी । तुम्हें कोई ऐतराज तो नहीं ? ”

बाबू की आँखों से अश्रु ख़ुशी की शकल में बरस पड़े ” मालिक ! यह आप क्या कह रहे हैं ? कहाँ हम और कहाँ आप ! क्या दीया कभी सूरज की बराबरी करने की सोच भी सकता है ? ”

” अरे बाबू ! कहाँ तुम दीये और सूरज की मिसाल में उलझे हुए हो । अब तक हम नादान थे जो यह नहीं समझ पाए थे जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है । हम चाँद और मंगल की सैर तो कर रहे हैं लेकिन अपने आस पास की कोई खबर नहीं रखते । आज भी हमारा समाज उंच निच ,अमीर गरीब , धरम संप्रदाय, जात पांत जैसे कई टूकड़ों में बंटा हुआ है । हमने अपने आपको इन व्यवस्थाओं के अधिन मान लिया है । लेकिन यही हमारी सबसे बड़ी गलती है । दो दिनों की पुत्र की जुदाई ने हमारी आँखें खोल दी हैं । अब हम अच्छी तरह यह समझ गए हैं कि यह सारी व्यवस्थाएं जीने के लिए बनायीं गयी थीं । आज यह प्रासंगिक नहीं हैं । हमें इन व्यवस्थाओं के लिए नहीं अपनी और अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए जीना है । अब और भाषण सुनेगा कि गाड़ी में बैठेगा ? ” लालाजी ने माहौल को हल्का फुल्का बनाने की गरज से थोडा मजाकिया लहजे में कहा और बाबू घबरा कर तुरंत ही रमेश के बगल वाली सीट पर जा बैठा ।

उसके बैठते ही रमेश ने गाड़ी आगे बढ़ा दी । बाबू की
हड़बडाहट देख सभी हंस पड़े थे ।

कार अस्पताल के प्रांगण से निकलकर राजापुर की तरफ जानेवाली सड़क पर बड़ी तेजी से बढ़ी जा रही थी । कि तभी घिर आयी खामोशी को भंग करते हुए बाबू अचानक बोल पड़ा ” मालिक ! एक बात मेरे समझ में नहीं आई ।”

” क्या ? पूछ ! ” लालाजी ने तुरंत ही जवाब दिया था ।
” चलिए ! आज से ही नहीं बल्कि अभी से धनिया आपकी बेटी हो चुकी । आपने बताया इसे बहू बनाकर रखेंगे । यही बात मेरे समझ में नहीं आ रही है कि कैसे ? जब कि छोटे मालिक का तो पता नहीं है ।” बाबू ने अपनी आशंका व्यक्त की थी ।

लालाजी ने बाबू की ओर देखा और फिर दुखी स्वर में बोले ” बाबू ! तू क्या समझता है कि मुझे अमर के जाने का कोई गम नहीं है । अरे ! उसी समय अमर के माँ की तबियत ख़राब नहीं हो गयी होती तो मैं अब तक अमर को खोजने के लिए धरती पाताल एक कर दिया होता । अभी भी कोई देर नहीं हुयी है । घर पहुंचते ही पहले अमर को खोज कर लाऊंगा उसके बाद ही और कोई काम होगा ।” लालाजी बाबू को आश्वस्त करना चाहते थे ” फिर उसके लिए मुझे चाहे जो भी करना पड़े , करूँगा ।”

गाड़ी राजापुर जानेवाली सड़क पर सरपट भागी जा रही थी । अचानक सुशिलाजी की धीमी सी आवाज आई ” अमर के बाबू ! क्या आप मुझे उस देवता से नहीं मिलवाओगे जिसने हमारे बेटे और बहू को नयी जिंदगी दी और हमें उनका पता बताया । ”

” हाँ हाँ क्यों नहीं अमर की माँ ! हम उनसे मिलते हुए ही आगे जायेंगे । शिकारपुर हमारे रास्ते में ही है और ऐसा कैसे हो सकता है कि हम उनसे मिले बिना ही चले जाएँ ?हम इतने कृतघ्न नहीं हैं अमर की माँ ! ”
लालाजी ने तुरंत ही सुशिलाजी को भरोसा दिलाया था । लालाजी की बात सुनकर सुशिलाजी को आत्मिक ख़ुशी महसूस हुयी और उन्होंने कार की पुश्त से पीठ टीका कर अपनी आँखें बंद कर लीं । कार भागती रही ।

इधर भोला के पीछे चलते हुए अमर खेतों में मजदूरों से काम करा रहे चौधरीजी के पास पहुँच गया । चौधरीजी के चरणों में झुक कर अमर ने उन्हें धन्यवाद कहा और उन्हें धनिया के ठीक होने की भी जानकारी दी । माथुरजी के सहयोग के लिए उन्हें भी धन्यवाद प्रेषित किया । खेतों में गेहूं कटाई का काम चल रहा था । भोजन का समय हो जाने के कारण मजदूरों ने छुट्टी कर ली थी । फसलों के बारे में ही बातें करते चौधरीजी अमर के साथ अपने घर पहुंचे । अमर ने चौधरीजी से जाने की आज्ञा मांगी । ” अमर ! तुम हमारे बेटे जैसे ही हो और भोजन का समय हो गया है । इस समय कोई भी हमारे घर से भूखा वापस नहीं जाता । बस दो निवाले खा लो और फिर कल चले जाना । ” चौधरीजी ने आग्रह किया था ।

अमर को बरामदे में ही बैठाकर चौधरीजी अन्दर कमरे में रखे फोन की ओर बढ़ गए । चौधरीजी ने लालाजी का फोन नंबर डायल किया । बड़ी देर तक घंटी बजती रही । लेकिन फोन किसीने नहीं उठाया । कौन उठाता फोन ? लालाजी और सुशिलाजी तो बाहर थे और जीस कमरे में फोन था वह कमरा भी बंद था । खिन्न होकर चौधरीजी अमर के पास आकर बैठ गए । उनकी योजना थी किसी तरह अमर को रोके रखने की और लालाजी को उसकी खबर दे देने की ताकि लालाजी अमर को अपने घर लेकर चले जाएँ । लेकिन उनकी योजना पर फोन ने पानी फेर दिया था ।
अमर और चौधरीजी भोजन करके अभी आँगन में हाथ धो ही रहे थे कि बाहर किसी गाड़ी के रुकने की आवाज सुनकर चौधरीजी को आश्चर्य हुआ । गांव में चौधरी जी के अलावा और किसी के पास गाड़ी नही थी । कुुुतूहल का भाव चेहरे पर लिए कंधे पर रखे अंगोछे से हाथ पोछते चौधरीजी बाहर निकले ।

बाहर उनके ठीक दरवाजे के सामने लालाजी की शानदार कार खड़ी थी । कार से लालाजी उतर रहे थे । सुशिलाजी और धनिया पहले ही कार से उतर कर बाहर खड़ी थीं और चौधरी जी के घर के दरवाजे की तरफ ही देख रही थीं । चौधरी जी को आते देख बाबू जो कि पहले ही कार से उतर गया था , हाथ जोड़े खड़ा था और लालाजी को बताया ” यही चौधरीजी हैं ! ”
लालाजी ने दोनों हाथ जोड़ते हुए चौधरीजी के कदमों में झुक जाना चाहा लेकिन सतर्क चौधरी ने उन्हें थाम लिया और हाथ पकड़कर समीप ही पड़ी खटिया पर बिठाया । गाड़ी की आवाज सुनकर अमर बाहर निकला ।

लालाजी को खटिये पर बैठे देख आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से चहकते हुए अमर अपने माँ की तरफ दौड़ कर उनके कदमों में गिर पड़ा । सुशिलाजी और लालाजी की आँखें भर आई थीं । पल भर में ही उनकी ख़ाली झोली खुशियों से भर गयी थी । सभी की आँखें डबडबा आयीं थी माँ बाप और बेटे का मिलन देखकर ।

कुछ देर के बाद चौधरीजी से विदा लेकर लालाजी चलने के लिए तैयार हुए । सुशिलाजी पहले ही कार में बैठ चुकी थीं । जैसे ही लालाजी कार में उनके साथ बैठने के लिए आगे बढे सुशिलाजी बोल पड़ीं ” अजी आप यहाँ कहाँ बैठ रहे हैं ? क्या आपको पता नहीं यहाँ मेरे बेटे और बहू बैठेंगे ?” और अगले ही पल अमर ने धनिया को सुशिलाजी के बगल में बैठते देखा । अमर को अपना दिल ख़ुशी के मारे बैठता हुआ सा लगा । अभी वह क्या करे सोच भी नहीं पाया था कि सुशिलाजी की आवाज उसके कानों में पड़ी ” अब बैठेगा भी कि बस देखते ही रहेगा । ”
अब हाथ आया मौका कहीं फिर से बदनसीबी में न बदल जाए यही सोचकर अमर लपककर कार में सवार हो गया । चौधरीजी और उनके परिजनों को फिर से धन्यवाद देकर लालाजी और अमर नीकल पड़े थे राजापुर की ओर ।
कार सड़क पर भागी जा रही थी और अमर का ह्रदय उससे भी तेज गति से धड़क रहा था । बगल में ही बैठी धनिया उसके मनोभावों से अनजान आँखें बंद किये ख्वाबों की दुनिया में वीचर रही थी और अमर को ऐसा लग रहा था जैसे आज नदी के दो किनारों के बीच भरा रिती रिवाजों , उंच नीच और जात पांत का भरा गन्दा पानी गया सूख गया हो और नदी के दोनों किनारे मिल गए हों ।
कार में बैठे सभी लोगों के चेहरे ख़ुशी से दमक रहे थे । एक ‘ नयी चेतना ‘ का संचार हो चुका था ।

———————-इति शुभम —————————–

प्रिय / माननीय प्रेरक पाठकों ! आज इस कहानी का पटाक्षेप करते हुए खुद को बहुत भावुक महसूस कर रहा हूँ । अजीब सी स्थिति है । एक तरफ इस कहानी के पूरी होने की खुशी है तो वहीं दूसरी तरफ आप जैसे सुधि , विद्वान व सुंदर प्रतिक्रियाएं लिखकर मेरा उत्साहवर्धन करने वाले पाठकों से बिछड़ने का गम ! बचपन में जब हम बड़ों से कहानियाँ सुनाने की जिद्द करते थे तो उनकी पहली शर्त होती थी ‘ हुँकारी ‘ भरनी होगी । और हम लोग भीखुशी होकर हुंकारें भरते और कहानियों का आनंद उठाते । इस दौरान कथा सुनानेवाले भी आनंदित होते और कथा अनवरत चलती रहती पूर्ण होने तक । आप सभी पाठकों का कोटिशः धन्यवाद आपने इस कहानी पठन के दौरान लगातार हुंकारें भरने का काबिलेतारीफ क्रम जारी रखा । इतना ही नहीं आपने अपनी भावनाएं भी साझा की इस सफर के दौरान । मान्यवर महानुभावों का दिशा निर्देश भी लाभदायक रहा । किसी एक का उल्लेख किया जाना मुनासिब नहीं होगा पुनः आप सभी का कोटि कोटि अभिनंदन व अंतःकरण की गहराईयों से धन्यवाद अदा करता हूँ ।

फिर मिलेंगे