मानस के राम
भाग 21
सीता को अशोक वाटिका भेजना
सीता को महल में छोड़ने के बाद उसने अपने कुछ गुप्तचरों को इस आदेश के साथ जनस्थान भेजा कि वह पता करें कि सीता के वियोग में राम की क्या दशा है। गुप्तचरों को आदेश देकर वह पुनः सीता के पास आया और उन्हें मनाने के लिए अपने ऐश्वर्य का बखान करने लगा,
"हे सीता तुम त्रिपुर सुंदरी हो। मैं भी अतुल संपदा का स्वामी हूँ। यह नयनाभिराम लंका स्वर्ण की बनी है। यदि तुम मुझे अपना लो तो मैं तुम्हारे चरणों में तीनों लोकों की संपदा लाकर रख सकता हूँ।"
रावण की बात सुन कर सीता ने उसे धिक्कारते हुए कहा,
"तेरी यह स्वर्ण नगरी लंका और तीनों लोकों की संपदा भी मेरे ह्रदय में मेरे स्वामी राम के लिए जो प्रेम है उसकी बराबरी नहीं कर सकती है।"
रावण ने क्रोध में कहा,
"मूर्ख मत बनो। भला वह वन वन भटकने वाला राम तुम्हें क्या देगा। तुम यदि हाँ कर दो तो मैं तुम्हें अपनी पटरानी बना कर रखूँगा। विश्व के मूल्यवान रत्नों से तुम्हें सुशोभित कर दूंगा। मेरे साथ तुम संसार के सारे सुखों का भोग कर सकोगी। "
सीता ने उसे उत्तर देते हुए कहा,
"तुमने अब तक केवल स्त्री का शरीर ही प्राप्त किया है। कभी किसी स्त्री के ह्रदय में झांक कर नहीं देखा है। एक स्त्री के लिए उसके पति के संग में ही संसार के समस्त सुख समाए होते हैं। वह अपने पति के ह्रदय की पटरानी होती है।"
रावण अट्टहास करके हंसा। उसने कहा,
"तुम मूर्ख हो। मैं तुम्हें अपनी पटरानी बनाकर दुनिया का समस्त ऐश्वर्य तुम्हें देना चाहता हूँ। पर तुम वन वन भटकते उस राम के लिए उसे ठोकर मार रही हो।"
"वन वन भटकते मेरे पति वह हैं जो अपने वचन को निभाना जानते हैं। तेरी तरह कायर नहीं हैं जो छल से साधू वेष धारण कर मुझे हर कर ले आया। बहुत शीघ्र ही वह यहाँ आएंगे। तुझे तेरे पाप का दंड देकर मुझे ले जाएंगे।"
सीता की बात सुनकर रावण निरुत्तर हो गया। वह सीता को अपनाना चाहता था किंतु स्वयं को मिले श्राप के कारण सीता पर किसी प्रकार का बल प्रयोग नहीं कर सकता था। वह सीता की स्वीकृति मिलने तक प्रतीक्षा करना चाहता था। उसने कहा,
"सीता यह याद रखो कि अब तुम कभी भी राम को नहीं देख पाओगी। वह समुद्र लांघ कर कभी भी लंका नहीं आ सकता है। इसलिए उसे भूल कर मुझे अपना लो। तुम किसी भी बात की चिंता मत करो। उस राम को छोड़ कर मुझे अपनाने में कोई दोष नहीं है।"
उसकी बात पर सीता क्रोधित हो कर बोलीं,
"तू चाहता है कि मैं रत्न को छोड़ कर एक साधारण कंकड़ को अपना लूँ। मेरे राम इक्ष्वाकु वंश के कुलदीपक हैं। वह महाराज दशरथ की संतान हैं। जिनकी ख्याति तीनों लोकों में व्याप्त है। वह धर्म और वचन पालन के प्रतीक माने जाते हैं। तू शायद भूल गया कि किस तरह मेरे पति राम ने खर और दूषन का वध कर चौदह हजार राक्षसों का संहार किया। मेरे राम वीरता व शौर्य का उदाहरण हैं। समुद्र की यह सामर्थ्य नहीं कि मेरे राम के मार्ग की बाधा बन सके।"
सीता किसी तरह रावण की बातों में नहीं आ रही थीं। वह खिसिया कर बोला,
"समय के साथ साथ यह उम्मीद भी धूमिल हो जाएगी। तब तक मैं प्रतीक्षा करूँगा। मैं तुम्हें बारह मास का समय देता हूँ। यदि तुम मान गईं तो ठीक अन्यथा मैं तुम्हारा वध कर दूँगा।"
सीता को इस प्रकार धमकाने के बाद उसने सीता के पहरे में लगे राक्षसों को निर्देश दिया,
"इसे अशोक वाटिका में ले जाकर एकांत में रखो। किसी भी प्रकार इसका यह अभिमान नष्ट करो। भय अथवा लालच किसी भी तरह इसे मेरे पक्ष में करने का प्रयास करो।"
अशोक वाटिका बहुत सुंदर थी। वहाँ विभिन्न प्रकार के पुष्पों के पौधे थे। फलों से लदे वृक्ष थे। सरोवर थे जिनमें कमल खिले थे। भांति भांति के पक्षियों के कलरव से वातावरण गुंजायमान रहता था।
इस सब के बीच सीता ने अशोक के एक वृक्ष को चुना। वह उसके नीचे बैठ कर राम का चिंतन करती रहती थीं। राक्षसियां उन्हें अलग अलग तरह से त्रास देती थीं। किंतु सीता तनिक भी विचलित नहीं हुईं। उनका यह विश्वास की राम उनकी रक्षा के लिए आएंगे तनिक भी धूमिल नहीं पड़ा। वह रात दिन बस इसी विश्वास में जी रही थीं राम आकर उन्हें ले जाएंगे।
कबंध का वध
जटायु का अंतिम संस्कार करने के बाद राम और लक्ष्मण सीता की खोज में आगे बढ़ने लगे। उनके मार्ग में अनेक प्रकार की बाधांएं आईं। किंतु दोनों ने धैर्य व विवेक के साथ उनका सामना किया। सीता के ना मिलने से अक्सर दोनों निराश हो जाते थे। तब दोनों एक दूसरे को दिलासा देते थे। इस प्रकार वह सीता की खोज में भटकते हुए आगे बढ़ रहे थे।
एक जगह मार्ग में राम को सीता की चूड़ियां पड़ी मिलीं। उन्हें देखकर राम भावुक हो गए। वह लक्ष्मण से बोले,
"लक्ष्मण यह चूड़ियां सीता की हैं। जब वह दुष्ट रावण उसका हरण करके ले जा रहा होगा तब उसने प्रतिरोध किया होगा। उसी समय यह गिरी होंगी।"
लक्ष्मण ने उन चूड़ियों को देखकर बोले,
"इसका अर्थ यह हुआ भ्राताश्री कि भाभी सीता को वह दुष्ट इसी मार्ग से लेकर गया है। हम सही मार्ग पर हैं।"
इस बात से उत्साहित होकर दोनों भाई एक नई उम्मीद के साथ आगे बढ़ने लगे। मार्ग में बढ़ते हुए अचानक उनका सामना एक बहुत ही विचित्र व कुरूप राक्षस से हुआ। उसका सर तथा पैर नहीं थे। उसका मुख उसके पेट में था। उसकी केवल एक ही आँख थी जो कि उसकी छाती पर थी। उसकी दो लंबी भुजाएं थीं। जिनकी सहायता से वह बिना अपने स्थान से हिले अपना शिकार करता था।
उस विचित्र से राक्षस ने राम तथा लक्ष्मण को अपनी एक एक भुजा से पकड़ लिया। पहले तो कुछ देर के लिए दोनों परेशान हो गए। फिर राम ने सुझाव दिया कि हम इस राक्षस की एक एक भुजा काट देते हैं। इससे हम इसके चंगुल से छूट जाएंगे। दोनों ने मिलकर उसकी भुजाएं काट दीं। भुजाएं कटते ही वह राक्षस बोला,
"आप दोनों भाई राम और लक्ष्मण हैं।"
यह सुनकर लक्ष्मण को आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा,
"तुम राक्षस होकर तुम हमें कैसे जानते हो ?"
उस राक्षस ने कहा,
"मेरा नाम कबंद है। मेरे कुकृत्यों के कारण ऋषि स्थूलशिरा ने मुझे श्राप देकर विचित्र रूप दिया। आप अवश्य ही राम तथा लक्ष्मण हैं। ऋषि स्थूलशिरा ने मुझसे कहा था कि जब राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ अपनी पत्नी सीता को खोजते हुए आएंगे अब तुम अपने इस रूप से मुक्त हो जाओगे। आप दोनों के अतिरिक्त कोई मेरी भुजाओं को काट नहीं सकता था।"
राम ने कहा,
"मैं ही राम हूँ। यह मेरा अनुज लक्ष्मण है। क्या तुम मुझे मेरी पत्नी सीता के बारे में कुछ बता सकते हो ? हमें सिर्फ इतना ही मालूम है कि सीता को रावण नाम का राक्षस हरण करके ले गया है।"
कबंद ने कहा,
"अभी मैं राक्षस रूप में हूँ। ऋषि स्थूलशिरा ने कहा था कि जब राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ मिल कर तुम्हारी भुजाएं काटेंगे तथा तुम्हारे शरीर को अग्नी में जला देंगे तब तुम्हारी मुक्ति होगी। कृपया आप मेरे शरीर का दाह कर मुझे मुक्त करें। जिससे मेरा ज्ञान वापस आ जाए।"
राम ने कहा,
"परंतु जीवित प्राणी का दाह नहीं किया जा सकता है।"
यह सुनकर कबंद ने कहा,
"आपको कोई पाप नहीं लगेगा। ब्रह्मा जी के वरदान के कारण मैं किसी से शस्त्र से नहीं मर सकता हूँ। मेरी मुक्ति का यही उपाय है।"
लक्ष्मण ने कहा,
"तुम वास्तविकता में कौन हो ? अपने बारे में बताओ।"
कबंद ने अपनी कहानी सुनाई। वह दनु नामक गंधर्व था। बहुत रूपवान था। अपने रूप के मद में चूर रहता था। अक्सर वह भयानक रूप बनाकर ऋषि मुनियों को डराया करता था। एक दिन उसने इसी भयानक रूप में ऋषि स्थूलशिरा को डराने का प्रयास किया। ऋषि ने उसे श्राप दे दिया कि वह सदा इसी रूप में रहेगा। श्राप सुनकर जब उसने क्षमा मांगी तो ऋषि ने उसे उसकी मुक्ति का उपाय बताया।
उसकी मुक्ति के लिए राम तथा लक्ष्मण ने अग्नी प्रज्वलित कर उसमें उसके शरीर को जला दिया। उस विकृत शरीर के भस्म होते ही एक सुंदर सा व्सक्ति प्रकट होकर बोला,
"आप सुंदर पंपा सरोवर के पास जाकर ऋष्यमूक पर्वत पर रह रहे सुग्रीव से भेंट कीजिए। अपने भाई बाली द्वारा अपने ही राज्य से निष्कासित होकर सुग्रीव वहाँ रह रहा है। आप उससे मित्रता कर उसकी सहायता करें। वह भी आपके उद्देश्य में सहायक होगा।"
यह कह कर वह सुंदर शरीरधारी स्वर्गलोक में चला गया।
सबरी के बेर खाना
राम तथा लक्ष्मण पंपा सरोवर की तरफ बढ़ने लगे। रास्ते में मतंग ऋषि का आश्रम पड़ता था। मतंग ऋषि की एक शिष्या थी सबरी। वह भील जाति की थी। वह मतंग ऋषि के आश्रम की देखभाल करती थी। मतंग ऋषि के देह त्यागने के समय सबरी ने भी उनके साथ देह त्याग करने की इच्छा जताई। तब मतंग ऋषि ने उससे कहा कि अभी तुम्हारी मृत्यु का समय नहीं आया है। तुम प्रतीक्षा करो। जब विष्णु के अवतार राम यहाँ आएंगे तब उनके दर्शन कर तुम मुक्ति प्राप्त कर सकोगी।
तब से सबरी राम के आने की बाट जोह रही थी। वह राम के स्वागत के लिए नित्य आश्रम की सफाई करती थी। राम को खिलाने के लिए आश्रम में लगे बेर तोड़ती थी। वह एक एक बेर चख कर देखती थी। केवल मीठे बेर ही रखती थी। बाकी के बेर फेंक देती थी। वृद्ध सबरी के जीवन का एक ही उद्देश्य रह गया था। राम का स्वागत करना। वह रात दिन बस राम के विषय में ही सोंचती रहती थी।
राम तथा लक्ष्मण जब सबरी के आश्रम पहुँचे तो वह प्रसन्नता से फूली नहीं समाई। जिन राम की वह वर्षों से प्रतीक्षा कर रही थी वह उसके सामने थे। वह उनके अप्रतिम रूप को अपने नेत्रों में इस प्रकार भर रही थी जैसे कोई प्यासा व्सक्ति शीतल जल पी रहा हो।
सबरी ने राम तथा लक्ष्मण को आसन पर बिठाया और अपने द्वारा तोड़े गए बेर उन्हें खाने के लिए अर्पित किए। राम सबरी के प्रेम को देख कर अभिभूत हो गए। उन्होंने सबरी द्वारा झूठे किए गए बेर भी प्रेम से खा लिए। किंतु लक्ष्मण को यह ठीक नहीं लगा। अतः उन्होंने बेर चुपचाप फेंक दिए।
सबरी का आतिथ्य स्वीकार करने के बाद राम आगे बढ़े। सबरी की भक्ति तथा पंपा सरोवर के जल ने उनके ह्रदय को एक विश्वास से भर दिया था। उन्हें अब सीता के मिलने का पूरा यकीन था।
राम के आश्रम से जाने के बाद सबरी ने अपने प्राण त्याग दिए।
सबरी के आश्रम से निकल कर राम तथा लक्ष्मण ऋष्यमुख पर्वत की ओर चलने लगे। यह क्षेत्र बहुत ही सुंदर था। किसी भी सुंदर स्थान को देख कर राम सीता का स्मरण कर दुखी हो जाते थे। लक्ष्मण से कहते कि यदि सीता होती तो इसे देख कर कितना प्रसन्न होती। लक्ष्मण उन्हें हिम्मत देते कि सीता चाहें जहाँ हों। हम उन्हें खोज कर ही रहेंगे।