A Dark Night – A tale of Love, Lust and Haunt - 10 in Hindi Horror Stories by Sarvesh Saxena books and stories PDF | A Dark Night – A tale of Love, Lust and Haunt - 10

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A Dark Night – A tale of Love, Lust and Haunt - 10

हॉरर साझा उपन्यास

A Dark Night – A tale of Love, Lust and Haunt

संपादक – सर्वेश सक्सेना

भाग - 10

लेखक – सोनू समाधिया

सुजान पलटते हुए तांत्रिक के पास बापस आया और कहने लगा कि “ कल से यहां दिखाई भी मत पड़ जाना और अपनी ये मनहूस श्क्ल लेकर कहीं और दफा हो जाना क्युं कि जहां तुम अपना डेरा जमाये हुये बैठे हो वो मेरी जगह है, कल मैं यहाँ अपने आदमी भेजूंगा, अगर तुम यहां से नही दफा हुये तो वो तुम्हे उठाकर गांव से बाहर फेंक आयेंगे ...समझे।”

"मुर्ख इंसान तुझे ये पता नहीं है तू किससे बात कर रहा है। मैं चाहूं तो अभी तुझे पाताल पहुंचा दूं।”

इतना कहकर उस तांत्रिक ने अपने कमंडल से जल लिया और कुछ मंत्र पढ़कर सुजान के ऊपर छिड़क दिया।

जल के प्रभाव से सुजान की आँखों के सामने अंधेरा छा गया और सुजान ने खुद को हवा में उड़ता हुआ पाया।

कुछ सेकंड तक हवा में रहने के बाद सुजान जंगल के बाहर कच्चे रास्ते पर जा गिरा जिससे वह कई गज की दूरी तक लुढ़कता रहा।

सुजान अब उस तांत्रिक से भयभीत हो चुका था। वह तुरंत खड़े होकर अपनी हवेली बापस लौट आया।

रात के तकरीबन आठ बजे सुजान सिंह ने अपने नौकर शेर सिंह को आवाज लगाई।

"जी सरकार ।" - शेर सिंह हाथ जोड़ते हुए सुजान के सामने हाजिर हो गया।

"तुम जो कल लड़कियां लाए थे न। उन में से कोई ठीक ठाक सी मेरे पास भेज दो। ठीक ठाक समझ रहे हो न। कहीं सेवा के बदले में मेरा दिमाग़ खराब न कर दे।"

"जी समझ गया मालिक ।"

"जाओ फिर लाओ कोई अच्छी सी सेविका। शरीर में दर्द और थकान की वजह से नींद नहीं आ रही।"

" जी मालिक अभी लाया। चल कलुआ।"

कुछ समय बाद शेर सिंह और कलुआ एक लड़की को जबर्दस्ती खींचते हुए ले आए।उसकी उम्र महज पन्द्रह वर्ष की रही होगी। कच्ची उम्र के इस पड़ाव में उस लड़की का डरना लाज़मी था। वह डर से रोए जा रही थी।

शेर सिंह और कलुआ ने उसे सुजान सिंह के कक्ष में धकेल कर दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया।

वह लड़की सहमी सी किवाड़ों को पीट रही थी। लेकिन उससे उसे कुछ हासिल नहीं हुआ।

"उससे कुछ नहीं होने वाला। नाटक करने की कोई जरूरत नहीं है। जल्दी से मेरे पास आओ।" - उस लड़की को पीछे से सुजान सिंह की गरजती हुई आवाज सुनाई दी।

जैसे ही उस लड़की ने पलटकर सुजान की ओर देखा तो सहम गई।

क्यो कि सुजान उस वक़्त निर्वस्त्र पलंग पर लेटा हुआ था।

लड़की को झिझकता हुआ देख सुजान बोला -" शर्माओ मत क्या तुमने ऎसे पहले किसी पुरुष को नहीं देखा क्या?"

" मेरे पास आओ और इस धहकते हुए मेरे शरीर को अपने बदन की बरसात से शांत कर दो।" - सुजान ने उस लड़की की ओर बढ़ते हुए कहा।

कुछ पल के उपरांत सारी हवेली उस लड़की की चीख, रोने और, चाबुक की आवाज से गूंज उठी।

शेर सिंह और कलुआ बाहर खड़े खड़े मुस्कुरा रहे थे।

एक घंटे के बाद सुजान सिंह के कमरे के दरवाजे के खुलने की आहट पाकर शेर सिंह और कलुआ भूखे कुत्तों की तरह दौड़े जैसे कई दिनों से भूखा कुत्ता रोटी को देख कर उसके पास दौड़कर जाता है।

सुजान सिंह ने अर्ध चेतन अवस्था में उस अर्ध नग्न लड़की को कमरे से बाहर धकेलते हुए कहा “ बहुत ही बत्तमीज लड्की लाये हो तुम दोनों, इसकी तो शर्म ही नही खुली अब तक।”

"गुस्ताखी माफ़ हो सरकार। वो क्या है न ये लड़की अभी नई है और पहली बार आई है इसलिए शर्म नहीं खुली होगी।"

"तो ले जाओ इसे इसकी शर्म खोलो।"

इतना सुनकर शेर सिंह और कलुआ का चेहरा खुसी से चमक उठा।

शेर सिंह और कलुआ अर्ध चेतन अवस्था में उस लड़की को उठाकर अपने कमरे में ले गए।

भोर पौ फटते ही शेर सिंह और कलुआ उस लड़की को उसी तहखाने में फेंक आए। वह लड़की अभी तक बेहोशी की हालत में थी। उसकी आँखों से आँसू लगातार बह रहे थे।

उसके फटे हुए कपड़ों से उसके शरीर पर बने चाबुक और नाखूनों के निशान जिनसे खून रिस रहा था। दर्द से तड़पता उसका बदन उसके साथ हुए पशुता की आप बीती सुना रहा था।

सुजान सिंह के इस तरह के अत्याचार आए दिनों अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुके थे। क्योंकि उसे मोहिनी और रुद्रांश को खोने के दुख के साथ उसे क्रोध आ रहा था।

दोपहर को जंगल के दूसरे छोर पर चिलचिलाती धूप में तीन चार भेडिये नदी किनारे अपनी प्यास बुझाने की मंशा से पंहुचे, तभी उनका ध्यान झाडियों में फंसे किसी जीव पर पडा।

भेड़ियों ने उस जीव को जब नजदीक जाकर देखा तो मिट्टी में सना हुआ एक इंसान जिसे पहचानना मुश्किल था, जो बेहोशी से

बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था, ये कोई और नही जमींदार सुजान सिंह का बेटा रुद्रांश था।

जिसे रात के तूफान ने यहां पर ला पटका था।

अंतिम सांसे गिन रहे रुद्रांश की ओर भेड़िये गुर्राते हुए झपटे उससे पहले ही रुद्रांश की आंखे खुली और उसने पलक झपकते ही एक टहनी से भेड़िये के सर पर प्रहार किया, प्रहार इतना तेज़ था कि वह भेड़िया वहाँ से भाग गया। अपने साथी भेड़िये को भागता देख बाकी के भेड़िये भी वहाँ से भाग गए।

रुद्रांश ने भी इस प्रहार में अपनी पूरी ताक़त लगा दी थी इसलिए वह बच पाया। इसके बाद वह निढाल सा वही लुढ़क गया और बेहोश हो गया।

कुछ देर बाद रुद्रांश के चेहरे पर बरसात की बूंदों से बापस चेतना आई।

उसने अपनी आंखे खोल कर देखा कि आसमान में बादल उमड़ आये हैं और झमाझम बरसात होने लगी।

रुद्रांश के गले में बरसात का पानी उतरा तो उसे कुछ राहत महसूस हुई।

उसका बहुत खून बह चुका था। इसलिए उसे चक्कर के साथ शरीर मे कमजोरी, थकान और मूर्छा आ रही थी।

उसने खुद को संभाल कर खड़ा किया तभी उसे मोहनी की याद आई। मोहिनी की याद से रुद्रांश का हृदय तेज़ गति से स्पंदन करने लगा। उसके शरीर में अचानक एक नई ऊर्जा संचरित हुए वह मोहनी के बिरह में पागलों की तरह मोहनी - मोहनी पुकारते हुए फिरने लगा।

भूख और प्यास से व्याकुल रुद्रांश भोजन और मोहनी को तलाशते हुए उस बियावान जंगल में प्रवेश कर गया और कुछ ना मिलने पर पेडों की पत्तियाँ चबाने लगा।

उसी दिन रात्रि में कबीलों का सरदार बहादुर अपने हाथ में मशाल और लाठी लिए हुए अपनी उजड़ी हुई बस्ती में दुखी मन से आया।

हर जगह राख और अधजली लाशें बिखरी पड़ी थीं। जिनके सड़ने से दुर्गन्ध मन को बेहाल कर रही थी।

तभी बहादुर को एक झोपड़ी के पास भेड़ियों के लड़ने की आवाज सुनाई दी उसने मशाल के प्रकाश में उस दिशा में देखा कि भेड़िये एक मुर्दे को खाने के लिये एक दूसरे से लड़ रहे हैं।

वो आहिस्ता आहिस्ता उस ओर बढ़ता जा रहा था।

बहादुर ने मशाल उसके चेहरे के करीब लाकर देखा तो वह भौंचक्का रह गया वह लड़की उसकी अपनी मोहनी थी।

बहादुर ने अपनी लाठी वहीं पटक दी और मोहनी को गले लगा लिया।

"मेरी बच्ची कहाँ थी तू। कैसी हालत कर दी हैवानों ने मेरी बेटी की। मैं किसी को भी नहीं छोड़ूंगा।" - इतना कहते हुए बहादुर रोने लगा।

बहादुर मोहिनी को अपने नये और गुप्त ठिकाने पर लेकर गया।

सुबह सूरज की पहली किरण मोहनी के चेहरे पर पड़ी तो मोहनी ने धीरे से आँखे खोली तो उसे पहला चेहरा बहादुर का दिखा उसने बैठ कर बहादुर को गले लगा लिया और बिलख बिलख कर रो पड़ी।

"बेटी मत रो। तुझे डरने की कोई जरूरत नहीं है अब तू अपने बापू के पास है। मैं किसी को भी माफ़ नहीं करूँगा।" - बहादुर ने गले लगी मोहनी के सर को सहलाते हुए कहा।

"बापू.......!"

"हाँ, बेटी।"

"रुद्रांश बाबू ........?"

"उस नीच, पापी का मेरे सामने नाम मत लो। उसके जैसों को तो मर जाना ही अच्छा है और मेरी भगवान ने सुन भी ली मर गया वो नीच। उसे तो नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी।" - बहादुर ने गुस्से में आकर कहा।

"बापू आप यह क्या कह रहें हैं? मैं उनसे बहुत प्रेम करती हूं और वो भी मुझ से सच्चा प्रेम करते हैं, उन्ही की वजह से जिंदा हूँ मैं आज, मुझे विश्वास है कि अगर मैं जिंदा हूं तो वो भी जिंदा होंगे और एक दिन मुझे जरूर मिलेंगे ।"

" बेटी वो बड़े आदमी हैं और हम बंजारे। वो प्यार का दिखावा केवल अपनी इच्छा पूर्ति के लिए करते हैं। बेटी उसका बाप के कारनामों से तू भी अच्छी तरह से वाकिफ़ है।"

" लेकिन बापू रुद्रांश बाबू ऎसे नहीं हैं।"

" बस बहुत हो गया। अब मैं इससे आगे एक भी शब्द नहीं सुनूंगा। समझी न तुम।"-इतना कहता हुआ बहादुर वहां से चला गया।

जडी बूटियों द्वारा उसका इलाज किया जिससे मोहिनी धीरे धीरे ठीक हो गयी।

इधर रुद्रांश जंगल में भटकता हुआ। एक झोपड़ी के पास पहुंच गया जो उसी शैतानी तांत्रिक की थी। ये उस जगह से उठते हुए धुएँ से प्रतीत होता था।

रुद्रांश उस तांत्रिक के आगे जाकर मुँह के बल गिर पड़ा। क्योंकि उसका शरीर जबाब दे चुका था। उस तांत्रिक ने रुद्रांश को देखकर मुस्कुराते हुए अपने कमंडल से जल लिया और कुछ मंत्र पढ़कर रुद्रांश के ऊपर छिड़क दिया जिसके प्रभाव से रुद्रांश पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गया और वह उठकर बैठ गया।

अब रुद्रांश पूरे होशो हवास में था। जब उसने सामने नर मुण्ड और तांत्रिक बैठा देखा तो उसका अस्तित्व ही हिल गया और वह डर से कांप उठा।

"बेटे मुझसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं हूँ शैतानों के देवता का पुजारी। मुझे तुम बहुत सताए हुए लग रहे हो। मुझे तुम्हारे ललाट पर लाचारी, क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला स्पष्ट रूप से दिख रही है। इसीलिए हमारे मालिक ने तुम्हें मेरे पास भेजा है। बोलो बेटा क्या सहायता चाहिए। मेरे मालिक तुम्हारी हर मनोकामना को पूरा करेंगे। "उस तांत्रिक ने रुद्रांश को समझाते हुए कहा।

" बाबा मेरी जिंदगी में कुछ बचा ही नहीं है जीने के लिए। जीने की एक वजह थी वो भी इस दुनिया के हैवानों ने मुझसे छीन ली। अब तो बाबा मुझे कोई एसी ताकत दो जिससे मैं उन नीच पापियों से बदला ले सकूं जिसने मेरी मोहनी को मुझसे छीना है।" रुद्रांश तांत्रिक के आगे नतमस्तक हो गया।

रुद्रांश पर प्रतिशोध की भावना इतनी हावी हो चुकी थी। कि वह खुद को शैतानी शक्तियों के प्रति आकर्षित होने से नहीं रोक सका।

" बेटा ये तो बहुत ही सहज कार्य है मेरे मालिक के लिए। लेकिन तुम्हें इसके लिए एक काम करना पड़ेगा।"

"कौन सा काम बाबा?"

"तुम्हें अपना शरीर स्वेच्छा से मुझे देना होगा सात दिनों के लिए जिसके बदले में मेरे मालिक तुम्हें अपनी शक्तियां देंगे। मैं तुम्हारी आत्मा को आजाद कर दूँगा जो शक्तियों से पूर्ण होगी। फिर तुम जो भी चाहो वो कर सकते हो। सात दिन के बाद तुम अपना शरीर पुनः धारण कर सकते हो।"

"ठीक है इसके लिए मैं तैयार हूं बाबा।"

" मैं विधि प्रारंभ करता हूं ध्यान रहे इस क्रिया में तुम्हें असहनीय पीड़ा की अनुभूति हो सकती है परंतु तुम्हें विचलित नहीं होना है तुम्हारा ध्यान इस कुंडी की ज्वाला पर केंद्रित होना चाहिए।"

" जो आज्ञा बाबा।"

कुछ क्षण बाद उस तांत्रिक ने क्रिया प्रारंभ कर दी। उसने कुंडी में मंत्रोच्चारण करते हुए मानव रक्त की आहुति देना प्रारंभ की तभी आग की ज्वाला तीव्र होती हुई रुद्रांश के सीने में प्रवेश करने लगी जिससे रुद्रांश को असहनीय दर्द हुआ लेकिन रुद्रांश ने अपनी आंखों को बन्द करके सब सहन कर लिया।

तभी रुद्रांश के शरीर से एक ज्योति निकलकर चारों ओर घूमने लगी जो रुद्रांश की आत्मा थी।

रुद्रांश वहाँ से गायब हो कर बैठक हवेली पर जा पहुंचा।

वहाँ उसने अदृश्य होकर देखा कि सुजान सिंह अपने बगीचे में बैठ कर अपने आदमियों से कुछ चर्चा कर रहे थे। रुद्रांश ने सुजान सिंह का चेहरा देखा तो उसे उसके चेहरे पर सिकन नाम की कोई चीज़ नहीं दिखी।

"अधर्मी नीच पापी अपने बेटे के मरने का इसे कोई गम नहीं है कैसे बैठ कर हँस रहा है। ये कहकर वह सीधा हवेली के नीचे बने तहखाने में पहुंच गया।

रुद्रांश ने तहखाने के कक्ष में जाकर महिलाओं और लड़कियों को देखा तो मन भर आया। रुद्रांश के करीब आते ही सब महिलाएं और लड़कियां कमरे के एक कोने में सरक कर पहुंच गईं और रोते हुए अपने प्राणों की भीख मांगने लगीं।

"देखिए मैं रुद्रांश हूं और आप सबको मुझसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। आज के बाद सब ठीक हो जाएगा क्योंकि मैं आपसे कहा था कि मैं जिंदा रहा तो आप सबको रिहा कर दूँगा। मैं जिंदा न सही लेकिन मैं अपने वादे के मुताबिक आप सबको आजाद करने आया हूँ। मैं आप सबकी बेड़ियाँ खोल देता हूँ और आप सब मेरे बताये हुए इस गुप्त रास्ते से होते हुए जंगल में पहुंच जाओगे.. ठीक है..।"

इतना कहते हुए रुद्रांश ने अपनी आंखों को बंद करके अपने हाथों को हिलाया जिससे एक एक करके सभी बंदियों की बेड़ियाँ आवाज करती हुई टूटने लगी।

तभी सहसा तहखाने के दरवाजे के खुलने की आवाज आती है।

सभी लोग डर जाते हैं।

" डरने की कोई बात नहीं है। आप सब एक कोने में शांति से छिप जाओ। मैं सब संभाल लूँगा।" रुद्रांश ने तहखाने की सीड़ियों पर नजर डालते हुए कहा।

सभी बन्दी कमरे के अंधेरे वाले हिस्से में चुपचाप छिप गए।

रुद्रांश ने देखा कि तहखाने की सीड़ियों से शेर सिंह और कलुआ अपने हाथों में कटार और मशाल लिए आ रहें थे।

शेर सिंह और कलुआ ने देखा कि कमरे में शांति थी। जहां उनके आने पर चीखें गूंजने लगती थी।

"कलुआ लगता है सभी भाग निकले।"

"ऎसे कैसे भाग निकले यहां से इंसान क्या कोई भूत प्रेत भी नहीं भाग सकते यहीं कहीं छिपे हुए होंगे। हम दोनों को मुर्ख बना रहे हैं ठीक से देखो उस अंधेरे वाले हिस्से में।"

शेर सिंह और कलुआ जब तक कमरे के उस हिस्से में जाते कि उन्हे सीड़ियों की ओर एक व्यक्ति दिखा। तो शेर सिंह और कलुआ को लगा कि कोई उन्हे चकमा देकर वहां से भाग जाना चाहता है। वो दोनों उसकी ओर फुर्ती से लपके।

" अबे कौन है तू। किधर भाग रहा है। तुझे पता है भागने का अंजाम।" - कलुआ ने दहाड़ते हुए कहा।

लेकिन उस व्यक्ति ने कोई जवाब नहीं दिया। तो दोनों अचंभित हो एक दूसरे का मुंह देखने लगे।

तभी जो मंजर सबके सामने आता है वो काफी डरावना और दिल दहला देने वाला था। जो व्यक्ति कुछ क्षण पहले सामान्य इंसान दिख रहा था। उसके मुँह से एक खूंखार जंगली जानवर की आवाजें निकलने लगीं।

तभी शेर सिंह ने अपनी कटार के वार से उस दरिंदे में बदल रहे इंसान के हाथ पर किया जिससे उसका हाथ कट कर अलग जा गिरा।

तब उस दरिंदे ने आक्रामक रुख अपना लिया था और उसने पलट कर कलुआ कि गर्दन अपने खूनी पंजे से पकड़ ली।

कलुआ जैसे भारी भरकम दैत्यकार इंसान को उस दरिंदे ने हवा में उठा कर दूर जा फेंका जिससे वह दीवार से टकरा कर जमीन पर गिर पड़ा। उसकी सारी हड्डियां टूट चुकी थीं। अब वह भागने में भी समर्थ नहीं रहा वह दर्द से तड़पने लगा। उसकी गर्दन से खून के फव्वारे फूट चुके थे।

तभी शेर सिंह ने एक और अविश्वसनीय घटना अपनी आंखों से देखी। शेर सिंह ने कुछ देर पहले उस दरिंदे की एक भुजा अपनी कटारी से काटी थी वो खुद वा खुद रेंगती हुए जुड़ चुकी थी।

शेर सिंह भय से चीखता हुआ तहखाने के दरवाजे की ओर भागा जैसे ही वो दरवाजे पर पहुंचा तो दरवाजा अपने आप बंद हो गया।

शेर सिंह अब अपनी कटार को वहीं गिरा कर अपने ओर बढ़ रहे विकृत और खूंखार दरिंदे जो न तो इंसान प्रतीत होता था और न ही कोई जानवर से अपने प्राणों की भीख मांगने लगा।

तभी उस दरिंदे ने गुर्राते हुए शेर सिंह के सीने से उसका धड़कता हुआ दिल निकाल लिया और खा लिया।

ये देखकर घायल कलुआ की डर से ही मौत हो गई। चारों तरफ मांस और खून बिखरा पड़ा था।

कुछ पल बाद वह दरिन्दा अपने रूप में आता है तो सब उसे देख कर चौंक जाते हैं क्योंकि वह दरिन्दा कोई और नहीं बल्कि रुद्रांश ही था।

"अब आप सब बाहर आ जाइये और इस कमरे के पीछे वाले कमरे में दक्षिण दिशा में एक दरवाजा मिलेगा उसी से आप सब जंगल में पहुंच जाओगे। जाओ अब आप लोग आजाद हो जब तक मैं हूँ तब तक तुम्हें कोई छू भी नहीं सकता, जाइए।" - रुद्रांश ने अपने हाथों में लगे खून को अपनी जीभ से चाटते हुए कहा।

सभी बन्दी रुद्रांश को नमस्कार कर दूसरे कमरे में चले गए।

रुद्रांश ने अपनी आंखे बंद की तो दूसरे कमरे की दक्षिण दिशा वाली दीवार में एक दरवाजा बन गया जिससे एक सुरंग जंगल तक जाती थी।

सभी लोगों में आजाद होने की खुशी थी। रुद्रांश को शैतानी शक्तियों के मिलने के बावजूद भी वह नेक काम कर रहा था। अब रुद्रांश का अगला शिकार उसका हवशी और नीच उसका अपना पिता सुजान सिंह था। जिसने न जाने कितनी जिदगियों को खत्म कर दिया था।