Ek Duniya Ajnabi - 5 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | एक दुनिया अजनबी - 5

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एक दुनिया अजनबी - 5

एक दुनिया अजनबी

5--

वह उसके आगे खड़ा था, आँखों में आँसू भरे, अभी अभी उसके पैर छूए थे उसने| काफ़ी बुज़ुर्ग थीं वो , नीम के चौंतरे पर एक मूढ़ानुमा कुर्सी डाले बैठी थीं |उन्हें घेरकर छोटी-बड़ी उम्र के उन जैसे कई और भी नीम के पेड़ में छाँह वाले चबूतरे पर बैठे थे | घने नीम के वृक्ष के नीचे काफ़ी बड़ा चबूतरा बनाया गया था जिस पर लगभग पंद्रह-सत्रह लोग समा सकते थे |

तालियों की मज़बूत आवाज़ का बिना सुर-ताल का भजन दूर तलक पसरा हुआ था |

"मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई ---न कोई, न कोई "

प्रखर ने दूर से कुर्सी पर बैठी आकृति को ध्यान से देखने की कोशिश की | झुर्रियों से भरे चेहरे पर उम्र भर का ताम-झाम बिखरा चुगली खा रहा था किन्तु बिल्लौरी आँखों में कुछ बोलता सा प्रतीत हुआ, शायद ज़िंदगी भर की अपनी पीड़ा, या अपनों से जुड़े हुओं का दर्द !

गाड़ी जब उस प्राँगण में जाकर खड़ी हुई, तालियों व सुरों का वह मिला जुला बेसुरा स्वर चुप्पी में बदल गया और कई जोड़ी आँखें गाड़ी की ओर घूम गईं |

बड़ा सा, खूब खुला सा प्राँगण, उसमें अर्धगोलाकार में सलीके से बने कई कमरों के द्वार जो बंद थे उनकी 'खट-खट' खुलने की आवाज़ें आने लगीं और एक-एक करके कई और भी कमरों में से बंद युवा, प्रौढ़ आकृतियाँ साड़ियाँ सँभालती चबूतरे के पास आकर खड़ी हो गईं |

ये अलग संसार था, ऐसा संसार जिससे आने वाले बंदे सदा दूसरों के द्वार पर मंगलगान करने जाते, उनके यहाँ शायद ही कोई आता होगा, भूला-भटका या फिर कोई ऐसा मुसीबतज़दा ---ज़िंदगी से हारा सा, जैसे वह अब यहाँ खड़ा था, उसका एक 'सो कॉल्ड' मित्र संदीप उसे यहाँ लेकर आया था |

हाँ, 'सो कॉल्ड' ही था सामने सहानुभूति दिखाने वाले और पीछे से हँसने वाले, टाँग मारकर गिराने वाले लोग कैसे होते हैं ? ऐसा ही कुछ लेकिन वह कुछ भी करने को तैयार था, जो कोई भी उसे कुछ कहे, उससे करवाए |

यहाँ लाने के लिए वह अपने दिल से संदीप की कृतज्ञता महसूस कर रहा था | उसने एक बार फिर उस आँगन में दृष्टि घुमाई | बहुत अच्छी जगह थी, साफ़-सुथरी, खूब खुली हुई लेकिन शहर से मीलों दूर ---

बड़े से दालान में चारों ओर जो कमरे बने हुए थे, उनके रंग-रुप, डिज़ाइन सब एकसे थे जो एक सरकारी उच्च-मध्यम वर्ग की कॉलोनी का प्रभाव डाल रहे थे | दालान के बीचों बीच एक मंदिर था जिस मंदिर के चौंतरे पर एक सभा सी लगी थी | उसे समझ में नहीं आया मंदिर किस भगवान या देवता का है ? ये तो बाद में पता चला था कि वो इनके अहरावन भगवान का मंदिर था |

कितनी उथल-पुथल थी उसके मन में ! जैसे समुद्र का ज्वार-भाटा उछाल मारता रहता है | ज़िंदगी छोड़ती नहीं किसी को भी, यहीं सबको पूरी तरह बदला दे देती है | दिखा देती है स्वर्ग-नर्क के द्वार ! निकाल देती है उस भरम से जिसमें पड़ा मनुष्य कल्पना के परों पर उड़ता अपने आपको महान समझने की कलाबाज़ियाँ खाता रहता है |

प्रखर ने मूढ़े पर बैठी खूबसूरत आकृति को ध्यान से देखने की कोशिश की | झुर्रियों से भरे चेहरे पर उम्र भर का ताम-झाम बिखरा चुगली खा रहा था किन्तु स्वस्थ्य व मुखर चेहरे की दो बिल्लौरी आँखों में प्रखर के लिए एक जिज्ञासा सिमट आई थी |

गाड़ी में से उतरकर वह शिथिल पैरों से पेड़ की ओर बढ़ा, उसके पीछे उसका वह मित्र भी जो उसके साथ था | चबूतरे के पास आकर उसने विनम्र होकर पहले हाथ जोड़े, फिर चरण-स्पर्श किया !

" आप कैसे यहाँ ? " उस बुज़ुर्ग ने पूछा जो नीम के नीचे मूढ़ानुमा कुर्सी पर विराजमान थीं |

वह सकपका गया, सहज होने की कोशिश करके उसने एक बार फिर से उसके पैर छू लिए | कैसे? का उत्तर कहीं था तो उसके पास लेकिन शब्द नहीं थे जिनके सहारे वह अपना हाले -दिल कह पाता, उत्तर दे पाता | शब्दों की गुटरगूँ गले तक आकर भीतर ही मेंढ़क सी टर्र टर्र करने लगी |

" क्या हुआ है ? "बिल्लौरी आँखों वाले झुर्रियों भरे चेहरे पर उत्सुकता के साथ सहानुभूति भी थी यध्यपि अभी किसीको उसके आने के कारण के बारे में कुछ पता नहीं था |

उसे अंदर से बहुत गिल्ट फ़ील नहीं हो रहा था न जाने कितना गिल्ट महसूस कर चुका था वह ! फिर भी, न जाने क्यों उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था | कुछ तो था उस जगह में जो उसे असहज कर रहा था | वह भीतर से काँप रहा था, खुद को सँभालने की कोशिश में वह लड़खड़ा सा गया |

"किसी ख़ास से मिलना था ? " स्वर में कोमलता व अपनापन था, कुर्सी पर बिराजी बिल्लौरी आँखों की उत्सुकता का |

वह नीम के पेड़ के नीचे बने गोल से चबूतरे पर एक ओर सिमटकर बैठ गया सोचते हुए, यह चेहरा अपनी युवावस्था में कितना खूबसूरत रहा होगा ?

कमाल है न ! जिन प्रश्नों व उलझनों से भरा हुआ वह इस प्राँगण में आया था, उसे वह मन के एक कोने में खिसकाकर उन बिल्लौरी आँखों के चेहरे के बारे में सोचने लगा था |

बिरादरी के बहुत से युवा, प्रौढ़ उस बुज़ुर्ग शरीर को घेरे बैठे थे, सबके हाव-भाव में उनके प्रति एक सम्मान था | उसके मन में आश्चर्यमिश्रित प्रश्न भर उठे | प्राँगण में बीचों-बीच बने मंदिर की ओर देखकर उसने क्षण भर को आँखें मूँदकर मन ही मन प्रणाम किया | कल्पनाएँ हीं तो अलग हैं, कहाँ कोई भगवान-अल्लाह अलग हैं? शायद कुछ ऐसा सोचते हुए या कुछ भी न सोचते हुए--- वह खुद को ब्लैंक महसूस कर रहा था |

यह उसका विचार था | जन्म-मृत्यु के बीच के थोड़े से समय में मनुष्य न जाने कितनी-कितनी उलझनों में अपने आपको कैद कर लेता है फिर बड़ी आसानी से बंदूक दूसरे कंधों पर रखकर गोली चला देता है ---फट्ट --फट्ट ---

सबकी दृष्टि अपने ऊपर चिपकी हुई देखकर वह और भी असहज होने लगा;

" जी, वो ---मृदुला जी ? " उसने थूक गले से गटकते हुए एक प्रश्नवाची दृष्टि चारों ओर फैलाते हुए मन के गड्ढे में से प्रश्न उलीचकर उन वृद्धा के सामने परोस दिया |

अब तक उसके साथ गए हुए दोस्त ने फ़्लास्क से निकालकर उसे पानी पिला दिया था | उसके निढाल होते शरीर को कुछ राहत सी महसूस हुई |