Charles Darwin ki Aatmkatha - 12 in Hindi Biography by Suraj Prakash books and stories PDF | चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 12

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

Categories
Share

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 12

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(12)

उनकी साहित्यिक रुचि और अभिमत उस स्तर के नहीं थे, जितना तेज़ उनका दिमाग़ था। वे खुद भी सोचते थे कि जिस बात को वे अच्छा समझते थे उसके बारे में पूरी तरह स्पष्ट थे। वे मानते थे कि साहित्यिक रुचि के मामले में वे किसी दूसरी दुनिया के थे, और इसमें से अपनी पसन्द और नापसन्द के बादे में भी बताते थे, साहित्यिक लोगों के बारे में तो वे कहते थे कि इस सम्प्रदाय से उनका कोई नाता नहीं है।

कला के सभी मामलों पर वे आलोचकों पर हंसते थे और कहते थे कि उनके अभिमत पुरानपंथी हैं। इसी प्रकार चित्रकारी के बारे में वे कहते थे कि आज जिन चित्रकारों की उपेक्षा हो रही है कभी अपने जमाने में वे धुंधर माने जाते थे। युवक के रूप में चित्रों के प्रति उनका अनुराग एक तरह से इसका प्रमाण है कि कला के एक उपादान के रूप में वे इन चित्रों को पसन्द करते थे, केवल पसन्द दिखाने के लिए नहीं। इसके बावजूद वे पोट्रेट को काफी हल्का मानते थे और कहते थे कि फोटोग्राफ इसके मुकाबले कहीं बेहतर हैं, जैसे कि वे चित्रकार की समस्त कला के प्रति उदासीन हो अपनी आँखे बन्द कर लेते थे। लेकिन यह सब वे इसलिए कहते थे ताकि हम उनका पोर्टेट बनवाने का विचार छोड़ दें, क्योंकि इसकी प्रक्रिया उन्हें बहुत ही उबाऊ लगती थी।

इस प्रकार कला के सभी विषयों के बारे में उन्हें एक अनभिज्ञ के रूप में देखने की हमारी भावना इस बात से और मजबूत हो जाती थी कि वे अपने चरित्र के अनुरूप ही इस बारे में भी दिखावटीपन नहीं रखते थे। रुचि के साथ साथ अन्य गंभीर बातों के मामले में भी उन्होंने अपने सुदृढ़ विचार बना रखे थे। मुझे एक मौका याद आता है जो कि इसका अपवाद हो सकता है, एक बार वे जब मिस्टर रस्किन के बेडरूम में टर्नर्स को देख रहे थे, तो उन्होंने बाद में भी और उस समय भी यह स्वीकार नहीं किया कि मिस्‍टर रस्किन ने उनमें क्या देखा था, उस बारे में कुछ भी नहीं समझ पाए थे, लेकिन यह बहानेबाजी वे अपने बचाव के लिए नहीं कर रहे थे बल्कि अपने मेजबान के बचाव में कर रहे थे। वे इस बात पर काफी खुश और हैरान हुए थे, जब बाद में मिस्‍टर रस्किन कुछ चित्रों के फोटोग्राफ लाए (मैं समझता हूँ कि वे वेनडाइन के पोट्रेट) और उनके बारे में बड़े ही आदरपूर्वक मेरे पिताजी से अभिमत माँगा।

पिताजी का वैज्ञानिक अध्ययन ज्यादातर जर्मन भाषा में होता था, और यह उनके लिए बहुत ही श्रमसाध्य था। मुझे यह बात तब पता लगी जब मैंने उनकी पढ़ी किताबों में पेंसिल से लगाए गए निशानों को देखा, तो पाया कि निशान बहुत कम अन्तरालों पर लगाए गए थे। वे जर्मन को `वर्डाम्टे' कहते थे, मानो अंग्रेजी उच्चारण ही करना है। वे जर्मन लोगों के प्रति विशेष रूप से क्रोधित हो उठते थे, क्योंकि वे यह बात मानते थे कि यदि जर्मन चाहें तो सरल भाषा भी लिख सकते हैं, वे कई बार फ्रेइबर्ग के प्रोफेसर हिल्डब्रान्ड की तारीफ करते हुए कहते कि वे फ्रान्सीसी भाषा जैसी सरल और स्पष्ट जर्मन लिखते हैं। वे कई बार अपनी जर्मन मित्र को जर्मन भाषा का वाक्य देकर अनुवाद करने को कहते और यदि वह जर्मन भक्त महिला उस वाक्य को सहज रूप से अनुवाद न कर पाती तो हँसते। उन्होंने शब्दकोश में सिर खपा खपाकर जर्मन खुद ही सीखी थी। वे कहते थे कि किसी वाक्य को कई कई बार दोहराता हूँ, तब तक दोहराता हूँ जब तक कि उसका अर्थ मुझे स्पष्ट न हो जाए। काफी पहले जब उन्होंने जर्मन सीखना शुरू किया था तो वह इस बात का बखान करते (जैसा वे बताते) कि सर जे हूकर ने यह सुनकर कहा था,`मेरे प्रिय मित्र, यह कुछ भी नहीं है, मैं तो यह शुभ काम कई बार शुरू करके छोड़ चुका हूँ।'

व्याकरण में कमज़ोरी के बावज़ूद वे जर्मन बेहतर तरीके से समझ लेते थे, और जिन वाक्यों को वे समझ नहीं पाते थे, वे वाक्य वास्तव में कठिन होते थे। उन्होंने जर्मन सही प्रकार से बोलने का प्रयास कभी नहीं किया, बल्कि शब्दों का उच्चारण ऐसे करते थे, मानो वे अंग्रेजी के हों। इससे उनकी कठिनाई कम नहीं होती थी, खासकर जब वे जर्मन, वाक्य पढ़कर उसका अनुवाद कराते थे। उच्चारित ध्वनियों की बारीकी वे नहीं पकड़ पाते थे, इसलिए उच्चारण में थोड़े से भेद को समझना उनके लिए मुश्किल था।

उनकी एक खासियत यह भी थी कि वे विज्ञान की उन विधाओं में भी रुचि लेते थे, जो उनकी अपनी विधा से बिल्कुल अलग थीं। जीव विज्ञान से जुड़े विषयों के बारे में उनके विश्लेषणपरक सिद्धान्तों को काफी ख्याति प्राप्त हुई। यह तो कहा ही जा सकता है कि वे सभी विधाओं में कुछ न कुछ तलाश लेते थे। उन्होंने विभिन्न विषयों की खास खास किताबें भी पढ़ीं। इनमें पाठ्य पुस्तकें काफी थीं, जैसे हक्सले की इन्वर्टेब्रेट एनाटोमी या बेलफॉर की एम्ब्रयोलॉजी। इन सभी पुस्तकों की विषयवस्तु उनकी अपनी विशेषज्ञता से कहीं परे की बातें थीं। इसी प्रकार मोनोग्राफ प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन नहीं करते थे।

इसी प्रकार जीव विज्ञान के अलावा अन्य प्रकार की पुस्तकों के प्रति भी वे संवेदना रखते थे, खासकर जिन्हें वे परख नहीं पाते थे। उदाहारण के लिए उन्होंने नेचर को पूरा पढ़ लिया था, भले ही इस पुस्तक का अधिकांश भाग गणित और भौतिकी से सम्बन्धित था। मैंने उन्हें कई बार यह कहते भी सुना था कि जिन आलेखों को (स्वयं उन्हीं के अनुसार) वे समझ नहीं पाते उन्हें पढ़ने में भी उन्हें बहुत आनन्द आता था। काश! मैं भी उन्हीं की तरह से हँस पाता, जब वे यह बात कहकर ठहाका मारते थे।

यह भी काफी मज़ेदार बात है कि वे उन विषयों पर भी अपनी रुचि बरकरार रखते थे, जिन पर वे पहले ही काम कर चुके होते थे। भूविज्ञान के बारे में तो यह बात एकदम खरी उतरती थी। अपने एक पत्र में उन्होंने मिस्‍टर जुड को लिखा था कि वे अवश्य घर आएँ, क्योंकि लेयेल की मृत्यु के बाद से उन्होंने भूविज्ञान पर चर्चा नहीं की थी। साउथम्पटन के भूगर्भ में पड़े कंकरों के बारे में उन्होंने सर ए गेकेई से कुछ चर्चा अपने पत्रों के जरिए की थी, जो इसका ही दूसरा उदाहरण है। यह चर्चा उन्होंने अपने देहान्त से कुछ ही पहले की थी। इसी प्रकार डॉक्‍टर डोहर्न को लिखे एक पत्र में उन्होंने बार्नकल (एक समुद्री जीव जो जलयानों के पेंदे में चिपका रहता है) के बारे में अपनी रुचि के बरकरार रहने का जिक्र किया था। मैं समझता हूँ कि यह उनके दिमाग की ताकत और उर्वरता के कारण था। इस बारे में वे कहते थे कि यह किसी दैवी शक्ति का उपहार है। वे अपने बारे में यही नहीं बल्कि कभी कभी यह भी बताते थे कि वे किसी विषय या प्रश्न के बारे में कई-कई बरस तक सजग रहते थे। उनकी यह मेधा शक्ति किस सीमा तक थी, यह बात इससे सिद्ध हो जाती है कि उन्होंने नाना प्रकार की समस्याओं का समाधान किया, जबकि ये समस्याएँ उनके समक्ष काफी पहले आ खड़ी हुई थीं।

यदि अपने आराम के क्षणों के अलावा भी वे कभी खाली बैठे होते थे तो उसका मतलब यही होता था कि उनकी तबीयत बिल्कुल ठीक नहीं; क्योंकि ज़रा-सा आराम मिलते ही वे अपने जीवन के बंधे हुए रास्ते पर चल पड़ते थे। रविवार और बाकी के दिन सब उनके लिए बराबर थे। उनके जीवन में काम और आराम का समय निर्धारित था। उनके दैनिक जीवन को निकट से देखने वालों के अलावा किसी दूसरे के लिए यह समझ पाना निहायत ही नामुमकिन था कि उनकी राजी-खुशी के लिए उनका नियमित जीवन कितना ज़रूरी था। अभी मैंने उनकी जिस जीवनचर्या का जिक्र किया है उसको सही रूप में चलाए रखने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते थे। यदि लोगों के सामने कुछ बोलना होता था तो भले ही वह सामान्य-सी बात हो, वे उस समय बहुत तैयारी करते थे। सन 1871 में अपनी बड़ी बेटी की शादी के लिए जब वे गाँव के छोटे से गिरजे में गए तो उस समय प्रार्थना के दौरान वे सहज नहीं हो पाए। इसी तरह के अन्य मौकों पर भी वे सहज नहीं रह पाए थे।

मेरे ख्यालों में अभी भी वह घटना तरोताज़ा है जब वे इसाईयत की दीक्षा के दौरान हमारे साथ चर्च में थे। हम बच्चों के लिए यह एक अनोखी घटना होती थी कि वे चर्च में रहें। मुझे याद है कि अपने भाई ईरास्मस को दफनाने के मौके पर वे कैसे लग रहे थे। बर्फ की फुहारों के बीच काले लबादे में खड़े हुए उनका चेहरा निहायत ही संज़ीदा और पीड़ा से भरा हुआ दिखाई दे रहा था।

कई बरस तक दूर रहने के बाद जब एक बार वे लिनेयन सोसायटी की सभा में गए, वास्तव में यह एक गंभीर विषय था, किसी भी के लिए यह घटना दिल बैठाने के लिए काफी होती, और इस सबके बाद जो परेशानियाँ उठानी पड़तीं उन सबसे हम किसी तरह बच गए। इसी प्रकार सर जेम्स पेगेट ने एक ब्रेकफास्ट पार्टी दी थी, उसमें मेडिकल कांग्रेस (1881) के कुछ प्रमुख मेहमान भी थे, और यह दावत उनके लिए बहुत ही कष्टदायक साबित हुई।

सुबह सुबह का समय ऐसा होता था जब वे अपने आप को सहज समझते थे, और अपने सभी कामों को कहीं ज्यादा महफूज ढंग से पूरा करते थे। इसीलिए जब वे अपने वैज्ञानिक दोस्तों से मिलने लन्दन जाते थे तो, इस आवागमन का समय सवेरे दस बजे तक ही रखा जाता था। यही कारण था कि वे यात्रा पर जाते समय सबसे पहली गाड़ी पकड़ने का प्रयास करते थे, और लन्दन में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के घर पहुँचते थे तो वे सब अपनी नित्य क्रियाओं में ही लगे होते थे।

वे अपने एक एक दिन का हिसाब रखते थे। किस दिन उन्होंने काम किया और किस दिन अपनी खराब सेहत के कारण वे कुछ नहीं कर पाए, उनके लिए यह बताना संभव होता था कि साल भर में कितने दिन वे निष्क्रिय रहे। उनका यह रोजनामचा - पीले रंग की एक डायरी के रूप में हुआ करता था। यह डायरी उनके आतिशदान पर रखी रहती थी। यह डायरी दूसरी पुरानी डायरियों के ऊपर रहती थी। इस डायरी में वे यह भी दर्ज करते थे कि कितने दिन वे अवकाश पर रहे और कब लौटे।

अवकाश के दिनों में वे ज्यादातर एक सप्ताह के लिए लन्दन जाते थे। या तो अपने भाई के घर (6, क्वीन एन्न स्ट्रीट) या फिर अपनी बेटी के घर (4, ब्रायन्स्टन स्ट्रीट)। अवकाश के दिनों में मेरी माँ उनके साथ ही रहती थीं। जब उनकी बीमारी के दौरे बढ़ जाते या बहुत ज्यादा काम करने की वजह से उनका सिर झूलने लगता था, तो इस तरह का अवकाश उनके लिए ज़रूरी हो जाता था। वे बड़े ही बेमन से लन्दन जाते थे, और इसके लिए सौदेबाजी भी करते थे। उदाहरण के लिए कभी कहते कि छह दिन की जगह पाँच दिन में ही लौट आएंगे। इस सारी यात्रा में उन्हें जो बेचैनी होती थी, वह केवल यात्रा की कल्पना से ही हो जाती थी, उन्हें तो यात्रा के नाम से ही पसीना छूटता था, और यह हालात सिर्फ शुरुआत में ही रहती थे, वर्ना तो कानिस्टन की लम्बी यात्रा के बाद भी उन्हें बहुत कम थकान हुई। उनकी कमज़ोरी को देखते हुए यह थकान हमें कम ही लगी। इस यात्रा में उन्होंने बच्चों जैसी खुशी जाहिर की थी, और यह खुशी बेइन्तहा थी।

हालांकि, जैसा उन्होंने बताया था कि उनकी सौन्दर्यपरक रुचि में गिरावट आ रही थी, तो भी प्राकृतिक नज़ारों के लिए उनका प्रेम तरोताज़ा और पुख्ता ही बना रहा। कोनिस्टन में की गयी हर सैर उन्हें ताज़ा दम बना देती थी। एक बड़ी झील के दो किनारों पर बसे इस पर्वतीय देश की खूबसूरती का बखान करते वे थकते नहीं थे।

इन लम्बे अवकाशों के अलावा वे कुछ समय के लिए दूसरे रिश्तेदारों के पास भी जाते रहते थे। कभी लेइथहिल के पास रिश्तेदारी में तो कभी अपने बेटे के पास साउथेम्पटन। उन्हें ऊबड़ खाबड़ ग्रामीण इलाके में घुमक्कड़ी बहुत पसन्द थी। लेइथहिल और साउथेम्पटन के पास ग्राम्य भूमि, एशडाउन जंगल के पास झाड़ियों से भरी हुई परती जमीन, या उनके दोस्त सर थॉमस फेरेर के घर के पास बंजर में उन्हें बहुत मजा आता था। अपने अवकाश काल में भी वे निठल्ले नहीं बैठते थे, बल्कि कुछ न कुछ तलाशते रहते थे। हार्टफील्ड में उन्होंने ड्रोसेरा नामक पौधे को कीड़े वगैरह पकड़ते देखा और इसी तरह टॉर्के में उन्होंने शतावरी का परागण देखा, और यही नहीं थाइम के नर मादाओं के सम्बन्ध भी जाँचे परखे।

अवकाश बिता कर घर लौटने पर वे प्रसन्न हो उठते थे। लौटने पर अपनी कुतिया पॉली से उन्हें जो प्यार मिलता था उस पर वे बहुत खुश होते थे। उन्हें देखते ही वह खुशी से व्याकुल हो उठती थी, उनके चारों ओर घूमती, किंकियाती, कदमों में लोटती, कूद कर कुर्सी पर चढ़ जाती और वहीं से छलांग मार कर नीचे आती। और पिताजी - वे नीचे झुककर उसे थपथपाते, उसके चेहरे को अपने चेहरे से छुआते, और वह उनका चेहरा चाट भी लेती। वे उस समय बहुत ही नरम और प्यार भरी आवाज़ में बोलते थे।

पिताजी में कुछ ऐसी ताकत थी कि गरमी की इन छुट्टियों को खुशनुमा बना देते थे। सारा परिवार इस बात को महसूस करता था। घर पर उन्हें काम का जो बोझ रहता था, उसके चलते जैसे उनकी खुशमिजाजी काफूर हो जाती थी, और जैसे ही इस बोझ से निजात मिलती तो अवकाश के दिनों का आनन्द उठाने के लिए वे जैसे जोश से भर जाते थे, और उनका साथ बहुत ही रोचक बन जाता था। हमें तो यही लगता था कि एक सप्ताह के साथ में उनका जो रूप हमें दिखाई देता था, वह रूप तो एक महीने घर रहने के दौरान भी देखने को नहीं मिलता था।

मैंने अभी जिन अवकाशों की बात की है, उनके अलावा वे जल चिकित्सा के लिए भी जाते रहते थे। सन 1849 में जब वे बहुत बीमार थे और लगातार पीड़ित थे, तो उनके एक दोस्त ने जल चिकित्सा के बारे में बताया। काफी समझाने के बाद वे मेलवर्न में डॉक्टर गुली के चिकित्सा केन्द्र में जाने को तैयार हो गये। मिस्टर फॉक्स को लिखे पत्रों में पिताजी ने बताया था कि इस इलाज से उन्हें काफी फायदा हुआ था, और उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा था कि मानो अब सभी बीमारियों का इलाज मिल गया, लेकिन बाद में वही हुआ कि इलाज के दूसरे तौर तरीकों की तरह यह भी बेअसर साबित होने लगा। जो भी हो यह तरीका उन्हें इतना पसन्द आया कि घर आकर अपने लिए डूश बाथ का इंतज़ाम कर लिया और हमारा खानसामा उन्हें नहलाने का काम भी सीख गया।

मूर पार्क में एल्डरशॉट के पास डॉक्टर लेन के जल चिकित्सा केन्द्र में वे बार बार जाने लगे थे, वहाँ से लौटने के बाद उनका चित्त प्रसन्न हो जाता था।

उन्होंने अपने बारे में जो कुछ बताया है उसके आधार पर यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि परिवार और दोस्तों के साथ उनके सम्बन्ध किस प्रकार थे, हालांकि इन सम्बन्धों का पूरी तरह से वर्णन कर पाना नामुमकिन सा है, लेकिन मोटे तौर पर अंदाज़ लगा पाना मुश्किल नहीं है। उनके वैवाहिक जीवन के बारे में, मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता। हाँ, इतना ज़रूर है कि माँ के साथ उनका रिश्ता और लगाव बहुत गहरा था। उनके प्रति वे बहुत ही प्रेमपूर्ण व्यवहार रखते थे। उनकी मौजूदगी में पिताजी को सबसे ज्यादा खुशी होती थी। यदि उनका साथ न होता तो शायद पिताजी का जीवन बहुत ही ग़मगीन होता। उनके जीवन में संतोष और खुशी का दरिया मेरी माँ ने ही प्रवाहित किया था।

उनकी पुस्तक द एक्सप्रेशन ऑफ द इमोशन्स से पता चलता है कि वे बच्चों की हरकतों को कितना बारीकी से देखते थे। यह उनका जन्मजात गुण था (मैंने उन्हें कहते सुना था)। हालांकि वे रोते चिल्लाते बच्चों के हाव भावों को बारीकी से देखने को आतुर रहते थे, लेकिन उसके दुख के प्रति उनकी संवेदना के चलते यह आतुरता धरी रह जाती थी। अपनी एक नोट बुक में उन्होंने अपने छोटे बच्चों की बातों को लिख रखा था, जिससे आप समझ सकते हैं कि वे बच्चों के बीच रहकर कितनी खुशी महसूस करते थे। कभी कभी ऐसा लगता है कि उन सभी घटनाओं की याद करके वे एक तरह से दुखी भी होते थे, क्योंकि बचपन दूर जा चुका है। उन्होंने अपने रीकलेक्शन्स में लिखा है : `जब तुम बहुत छोटे थे तो तुम्हारे साथ खेलकर मैं भी आनन्द मग्न हो जाता था, उन दिनों की याद बड़ी ही दुखद है क्योंकि वे बीते दिन कब आने वाले!'

छोटी बिटिया एनी की असमय ही मृत्यु के कुछ दिन बाद उन्होंने जो वाक्य लिखे, वे उनके मन की सुकोमलता को बताते हैं:

`हमारी बेचारी बिटिया एनी 2 मार्च 1841 को गॉवर स्ट्रीट में पैदा हुई थी और 23 अप्रैल 1851 की दोपहर को मेलवर्न में हमसे सदा के लिए बिछुड़ गई।

`मैं उसकी याद में ये चन्द पेज लिख रहा हूँ, क्योंकि मैं समझता हूँ कि अपने वाले समय में, यदि हम जिन्दा रहे, तो लिखी हुई ये सभी घटनाएँ उसकी याद को और भी गहराई से हमारे सामने लाएँगी। मैं जिस तरह से भी उसके बारे में सोचूं हमारे बीच से उसके चले जाने के बावजूद उसकी जो शरारतें आज भी हमारे सामने कौंध जाती हैं, वे उसकी किलकारियाँ। इसके अलावा उसकी खासियत में पहली तो थी उसकी संवेदनशीलता जो कि अजनबी लोगों के ध्यान में नहीं आती थी और दूसरे उसका गहरा प्रेम। उसके चेहरे से ही पता चल जाता था कि वह कितनी प्रसन्न और अबोध है, उसके लिए एक एक पल असीम शक्ति और जीवंतता से भरा हुआ था। उसे गोद में उठाकर घूमना भी बहुत खुशी प्रदान करता था। आज भी उसका प्यारा चेहरा मेरी आँखों के आगे तैर उठता है। कई बार वह मेरे लिए नौसादर की चुटकी लाती थी, और उस समय मुझे खुश देखकर स्वयं भी पुलक उठती थी। उसका वह पुलकित मुखड़ा अब भी मेरे सामने दिखाई देता है। जब वह अपने चचेरे भाई-बहनों के साथ खेल रही होती थी, तो मेरी आँखों के इशारे मात्र से उसके चेहरे के हाव-भाव बदल जाते थे, हालाँकि मैं कभी भी अप्रसन्नता भरी नज़र से उसे नहीं देखता था, तो भी उसकी चंचलता को एक विराम-सा लग जाता था।

उसकी दूसरी खासियत यह थी कि उसमें बड़ा ही गहरा स्नेह था जो कि उसकी प्रसन्नता और किलकारियों को और भी भावपूर्ण बना देता था। जब वह छोटी-सी थी तो भी यह बात दिखाई देती थी। अपनी माँ को छुए बिना तो जैसे उसे चैन ही नहीं आता था, खासकर जब वह बिस्तर में लेटी होती थी, मैं देखता था कि बहुत बहुत देर तक अपनी माँ के बाजुओं को सहलाती रहती थी। वह जब कभी बहुत बीमार पड़ती तो उसकी माँ भी उसके साथ लेटकर उसे दुलराती रहती थी, यह सब दूसरे बच्चों से बिल्कुल अलग होता था। इस तरह वह आधे आधे घंटे तक खड़ी मेरे बालों को संवारती रहती थी, वह कहती थी `बाल' ठीक कर रही हूँ। फिर बोलती बहुत सुन्दर थी या फिर मेरी प्यारी बच्ची मेरे कॉलर और कफ के साथ खेलती रहती थी।